अंजीर उपोष्ण क्षेत्रों में पाया जाने वाला महत्त्वपूर्ण फल है| कोहरे को सहन करने में इसकी विशेष क्षमता होती है| अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में इसके ताजे अर्द्ध-सूखे, सूखे फलों एवं विधायन द्वारा तैयार पदार्थों की बढ़ती मांग को देखते हुये इसके व्यवसायिक उत्पादन की अपार सम्भावनाएं हैं| अंजीर एक लोकप्रिय फल है, जो ताजा और सूखा खाया जाता है| भारत में इसकी खेती राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात तथा उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में की जाती है|
विश्व स्तर पर इसकी खेती दक्षिणी और पश्चिमी अमरीका और मेडिटेरेनियन और उत्तरी अफ्रीकी देशों में उगाया जाता है| बागवान अंजीर की खेती वैज्ञानिक तकनीक से कर के इसकी फसल से अच्छा और गुणवत्ता युक्त उत्पादन प्राप्त कर सकते है| इस लेख में अंजीर की बागवानी वैज्ञानिक तकनीक से कैसे करें की जानकारी का वर्णन किया गया है|
उपयुक्त जलवायु
अंजीर की खेती भिन्न-भिन्न प्रकार की जलवायु में की जा सकती है, लेकिन अंजीर का पौधा गर्म, सूखी और छाया रहित उपोष्ण व गर्म-शीतोष्ण परिस्थितियों में अच्छी तरह फलता-फूलता है| फल के विकास तथा परिपक्वता के समय वायुमंडल का शुष्क रहना अत्यंत आवश्यक है| पर्णपाती वृक्ष होने के कारण पाले का प्रभाव इस पर कम पड़ता है|
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भूमि का चयन
अंजीर को सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, परंतु दोमट अथवा मटियार दोमट, जिसमें उत्तम जल निकास हो, इसके लिए सबसे श्रेष्ठ मिट्टी है|
उन्नत किस्में
भारत के निचले क्षेत्रों में पाये जाने वाली अंजीर की जैव-विविधता का वर्गीकरण तीन प्रजातियों बी एफ- I, बी एफ- II तथा बी एफ- III में किया गया है| इनमें बी एफ- III प्रजाति सर्वोत्तम पाई गई है और इसका नामकरण ‘बडका अंजीर’ किस्म के रूप में किया गया है| इस किस्म के फलों का औसतन भार 36.8 ग्राम और कुल घुलनशील ठोस तत्त्वों की मात्रा 18.8 डिग्री ब्रिक्स होती है|
इसमें अन्य किस्मों की तुलना में पानी की मात्रा कम होती है, इसलिए यह किस्म सुखाने के लिये भी उपयुक्त है| स्ट्रेन बी एफ- III (बढ़का) पौधा ओजस्वी, फल बड़े आकार के नीले- काले रंग के, गुदा पकने पर गुलाबी – लाल, आम स्ट्रेन के मुकाबले 4 से 6 प्रतिशत कम नमी तथा उत्तम निधानी आयु, भारी फसल उत्पादक किस्म, उत्तरी भारत के निचले पहाड़ी और घाटी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किस्म है|
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पौधे तैयार करना
अंजीर के पौधे मुख्यतः 1 से 2 सेंटीमीटर मोटी, 15 से 20 सेंटीमीटर लम्बी परिपक्व कलमों द्वारा तैयार किये जाते हैं| मातृ पौधों से सर्दियों में कलमें लेकर इन्हें 1 से 2 माह तक कैल्सिंग हेतु मिट्टी में दबाया जाता है| फरवरी से मार्च में जैसे ही तापमान बढ़ने लगता है, इल कलमों को निकाल कर 15 x 15 सेंटीमीटर की दूरी पर नर्सरी में रोपित किया जाता है|
अंजीर की नर्सरी की क्यारियों में प्रति वर्गमीटर 7 किलो गोबर की खाद तथा 25 से 30 ग्राम फॉस्फोरस और 20 से 25 ग्राम पोटाश खाद, क्यारी तैयारी के समय डालनी चाहिए| नत्रजन खाद 10 से 15 ग्राम प्रतिवर्गमीटर कलमें रोपित करने के एक महीने बाद तथा इतनी ही मात्रा 2 महीने बाद डालनी चाहिए|
पौधा रोपण
खेत की तैयारी करते समय खोदे गये गड्डों में संतुलित खाद और उर्वरक डाल कर पौधा रोपण करें| पौधों की दुरी 8 x 8 मीटर उपयुक्त रहती है, और रोपण का समय दिसम्बर से जनवरी या जुलाई से अगस्त (जुलाई से अगस्त में पौधा गाची सहित होना चाहिए)|
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खाद और उर्वरक
अंजीर के छोटे पौधों 1 से 3 वर्ष में 7 से 10 किलो गोबर की खाद और 3 वर्ष की आयु से बड़े पौधों में 15 से 25 किलोग्राम गोबर की खाद प्रति पौधा, प्रतिवर्ष डालनी चाहिए| उर्वरक का प्रयोग मिट्टी की आवश्यकता के अनुसार करें वैसे अंजीर की फसल बिना उर्वरक के प्रयोग के बाद भी अच्छी पैदावार देती है|
सिधाई व काट-छांट
अंजीर के पौधों की सिधाई इस प्रकार होनी चाहिए कि हर दिशा में इसका फैलाव बराबर हो और पौधे के हर हिस्से तक सूर्य का प्रकाश पहुँच सके| इसमें फल एक से दो साल पुरानी टहनियों पर निकलने वाली नई शाखाओं पर लगता है| अतः शुरू के वर्षों में इस प्रकार की टहनियों को बढ़ावा देना चाहिए| पुराने पेड़ों में भारी काट-छांट लाभप्रद होती है| रोग ग्रस्त और सुखी शाखाओं की फल तुड़ाई के बाद काट-छांट करते रहना चाहिए|
नस्ल सुधार
नस्ल सुधार हेतु देसी पेड़ों को जमीन से । मीटर की ऊँचाई पर काट दें और मार्च में प्रति तना 3 से 4 कोंपलें रखें और बाकि कोंपलें निकाल दें| रखी गई कोंपलों पर जून से जुलाई में चिप या टी बडिंग द्वारा उन्नत किस्मों का रोपण करें| इसके अतिरिक्त सितम्बर व मार्च से अप्रैल में भी चिप बडिंग की जा सकती है|
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कीट और रोग रोकथाम
अंजीर में यु तो कोई मुख्य कीट या बीमारी नहीं देखी गई है, परन्तु कुछ एक परिस्थितियों में पत्ते और छाल खाने वाले कीड़े का प्रकोप देखा गया है| इसके नियंत्रण के लिए 3 मिलीलीटर एंडोसल्फान या क्लोरोफायरीफोस प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना लाभप्रद रहता है|
तुड़ाई और पैदावार
उपोष्ण क्षेत्रों में बसन्त ऋतु में आने वाले फल मई से लेकर अगस्त तक पककर तैयार होते हैं| जब फल पूर्ण रूप से परिपक्व हो जाये तब ही इनकी तुड़ाई करनी चाहिए| तोड़ने के बाद एक पात्र में 400 से 500 ग्राम से ज्यादा फल नहीं रखने चाहिए| यदि ज्यादा मात्रा में फलों का तुड़ान करना हो तो इन्हें पानी भरे बर्तन में एकत्रित करना चाहिए|
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