अमरूद बहुतायत में पाया जाने वाला एक आम फल है और यह माइरेटेसी कुल का सदस्य है| अमरुद की बागवानी भारतवर्ष के सभी राज्यों में की जाती है| उत्पादकता, सहनशीलता तथा जलवायु के प्रति सहिष्णुता के साथ-साथ विटामिन ‘सी’ की मात्रा की दृष्टि से अन्य फलों की अपेक्षा यह अधिक महत्वपूर्ण है| अधिक पोषक महत्व के अलावा, अमरूद बिना अधिक संसाधनों के भी हर वर्ष अधिक उत्पादन देता है, जिससे पर्याप्त आर्थिक लाभ मिलता है| इन्हीं सब कारणों से किसान अमरूद की व्यावसायिक बागवानी करने लगे हैं|
इसकी बागवानी अधिक तापमान, गर्म हवा, वर्षा, लवणीय या कमजोर मृदा, कम जल या जल भराव की दशा से अधिक प्रभावित नहीं होती है| किन्तु लाभदायक फसल प्राप्त करने के लिए समुचित संसाधनों का सही तरीके से उपयोग करना आवश्यक है| आर्थिक महत्व के तौर पर अमरूद में विटामिन ‘सी’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो सन्तरे से 2 से 5 गुना तथा टमाटर से 10 गुना अधिक होता है|
अन्य फलों की अपेक्षा अमरूद कैल्शियम, फॉस्फोरस एवं लौह तत्वों का एक बहुत अच्छा श्रोत है| इसका मुख्य रूप से व्यावसायिक उपयोग कई प्रकार के संसाधित उत्पाद जैसे जेली, जैम, चीज, गूदा, जूस, पाउडर, नेक्टर, इत्यादि बनाने में किया जाता है| भारत के लगभग हर राज्य में अमरूद उगाया जाता है, परन्तु मुख्य राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और आन्ध्रप्रदेश हैं|
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उपयुक्त जलवायु
अमरूद विभिन्न प्रकार की जलवायु में असानी से उगाया जा सकता है| हालाँकि, उष्णता (अधिक गर्मी) इसे प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, किन्तु उष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों की अपेक्षा यह स्पष्ट रूप से सर्दी तथा गर्मी वाले क्षेत्रों में प्रचुर व उच्च गुणवत्तायुक्त फल देता है| अन्य फलों की अपेक्षा अमरूद में सूखा सहने की क्षमता अधिक होती है|
भूमि का चयन
अमरूद एक ऐसा फल है, जिसकी बागवानी कम उपजाऊ और लवणीय परिस्थितियों में भी बहुत कम देख-भाल द्वारा आसानी से की जा सकती है| यद्यपि यह 4.5 से 9.5 पी एच मान वाली मिट्टी में पैदा किया जा सकता है| परन्तु इसकी सबसे अच्छी बागवानी दोमट मिट्टी में की जाती है| जिसका पी एच मान 5 से 7 के मध्य होता है|
खेत की तैयारी
अमरूद की खेती के लिए पहली जुताई गहराई से करनी चाहिए| इसके साथ साथ दो जुताई देशी हल या अन्य स्रोत से कर के खेत को समतल और खरपतवार मुक्त कर लेना चाहिए| इसके बाद कम उपजाऊ भूमि में 5 X 5 मीटर और उपजाऊ भूमि में 6.5 X 6.5 मीटर की दूरी पर रोपाई हेतु पहले 60 सेंटीमीटर चौड़ाई, 60 सेंटीमीटर लम्बाई, 60 सेंटीमीटर गहराई के गड्ढे तैयार कर लेते है|
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उन्नत किस्में
इलाहाबाद सफेदा तथा सरदार (एल- 49) अमरूद की प्रमुख किस्में हैं| जो व्यावसायिक दृष्टि से बागवानी के लिए महत्वपूर्ण हैं| किस्म ‘इलाहाबाद सफेदा उच्च कोटि का अमरूद है| इसके फल मध्यम आकार के गोल होते हैं| इसका छिलका चिकना और चमकदार, गूदा सफेद, मुलायम, स्वाद मीठा, सुवास अच्छा और बीजों की संख्या कम होती है तथा बीज मुलायम होते हैं| सरदार अमरूद अत्यधिक फलत देने वाले होते हैं और इसके फल उच्चकोटि के होते हैं|
उपरोक्त दो किस्मों के अलावा कुछ अन्य किस्में भी अलग-अलग क्षेत्रों में उगायी जाती हैं| जो इस प्रकार है, जैसे- चयन ललित, श्वेता, पन्त प्रभात, धारीदार, अर्का मृदुला व तीन संकर किस्में, अर्का अमूल्य, सफेद जाम एवं कोहिर सफेदा विकसित की गयी हैं| अमरूद की सामान्य और संकर किस्मों की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें-अमरूद की उन्नत किस्में
प्रवर्धन की विधि
आज भी बहुत से स्थानों में अमरूद का प्रसारण बीज द्वारा होता है| परन्तु इसके वृक्षों में भिन्नता आ जाती है| इसलिए यह जरूरी है कि वानस्पतिक विधि द्वारा पौधे तैयार किये जाएं| चूँकि अमरूद प्रसारण की अनेक विधियां हैं, परन्तु आज-कल प्रसारण की मुख्यरूप से कोमल शाख बन्धन एवं स्टूलिंग कलम द्वारा की जा सकती है| अमरूद प्रवर्धन की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अमरूद का प्रवर्धन कैसे करें
पौधारोपण विधि
अमरूद की खेती हेतु पौधा रोपण का मुख्य समय जुलाई से अगस्त तक है| लेकिन जिन स्थानों में सिंचाई की सुविधा हो वहाँ पर पौधे फरवरी से मार्च में भी लगाये जा सकते हैं| बाग लगाने के लिये तैयार किये गये खेत में निश्चित दुरी पर 60 सेंटीमीटर चौड़ाई, 60 सेंटीमीटर लम्बाई, 60 सेंटीमीटर गहराई आकार के जो गड्ढे तैयार किये गये है|
उन गड्ढों को 25 से 30 किलोग्राम अच्छी तैयार गोबर की खाद, 500 ग्राम सुपर फॉस्फेट तथा 100 ग्राम मिथाईल पैराथियॉन पाऊडर को अच्छी तरह से मिट्टी में मिला कर पौधे लगाने के 15 से 20 दिन पहले भर दें और रोपण से पहले सिंचाई कर देते है|
इसके पश्चात पौधे की पिंडी के अनुसार गड्ढ़े को खोदकर उसके बीचो बीच पौधा लगाकर चारो तरफ से अच्छी तरह दबाकर फिर हल्की सिचाई कर देते है| बाग में पौधे लगाने की दूरी मृदा की उर्वरता, किस्म विशेष एवं जलवायु पर निर्भर करती है|
सघन बागवानी हेतु पौधारोपण-
अमरूद की सघन बागवानी के बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त हुये हैं| सघन रोपण में प्रति हैक्टेयर 500 से 5000 पौधे तक लगाये जा सकते हैं, तथा समय-समय पर कटाई-छँटाई करके एवं वृद्धि नियंत्रकों का प्रयोग करके पौधों का आकार छोटा रखा जाता है| इस तरह की बागवानी से 30 से 50 टन प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन लिया जा सकता है| जबकि पारम्परिक विधि से लगाये गये बागों का उत्पादन 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर होता है| सघन बागवानी के लिए जो विधियां सबसे प्रभावी रही है| वो इस प्रकार है, जैसे-
1. 3 मीटर लाइन से लाइन की दुरी, और 1.5 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 2200 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
2. 3 मीटर मीटर लाइन से लाइन की दुरी, 3 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 1100 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
3. 6 मीटर लाइन से लाइन की दुरी, 1.5 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 550 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
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खाद एवं उर्वरक
अमरूद अत्यधिक सहनशील पौधा है तथा इसे विभिन्न प्रकार की मृदाओं और अलग-अलग प्रकार की जलवायु वाले क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, किन्तु पोषण का फल उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है| पौधों को दी जाने वाली खाद व उर्वरक की मात्रा पौधों की आयु, दशा व मृदा के प्रकार पर निर्भर करती है| पौधों की उचित वृद्धि तथा लाभदायक उत्पादन प्राप्त करने के लिए उर्वरकों को आवश्यक एवं उचित मात्रा में डालना चाहिए| अमरूद में उर्वरक डालने की प्रक्रिया पौधे रोपण के समय से ही शुरू हो जाती है| गड्ढे भरते समय गोबर की खाद 25 से 35 किलोग्राम तथा 500 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट डालनी चाहिए|
खाद के मिश्रण को दो बराबर भागों में बाँट कर जून तथा सितम्बर माह में डाला जाता है| म्यूरेट ऑफ पोटाश की पूरी मात्रा तथा यूरिया की आधी मात्रा जून माह में तथा यूरिया की शेष मात्रा तथा सिंगल सुपर फॉस्फेट की पूरी मात्रा सितम्बर माह में डालते हैं| उर्वरक पौधे के तने से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर तथा पेड़ द्वारा आच्छादित पूरे क्षेत्र में डालते हैं| इसके बाद 8 से 10 सेंटीमीटर गहरी गुड़ाई करते हैं, ताकि खाद पूर्णरूप से जड़ को मिल सके| अमरूद के पौधों को दी जाने वाली खाद व उर्वरक की मात्रा समय के अनुसार इस प्रकार है, जैसे-
पौधे की उम्र | गोबर की खाद (किलोग्राम) | यूरिया (ग्राम) | सुपर फास्फेट (ग्राम) | पोटाश (ग्राम) |
रोपण के समय | 25 से 35 | – | 500 | – |
एक वर्ष | 15 | 260 | 325 | 100 |
दो वर्ष | 30 | 520 | 750 | 200 |
तीन वर्ष | 45 | 780 | 1125 | 300 |
चार वर्ष | 60 | 1040 | 1500 | 400 |
पांच वर्ष | 75 | 1300 | 1875 | 500 |
सूक्ष्म पोषक तत्व-
आमतौर पर अमरूद में जिंक या बोरॉन की कमी देखी जाती है| अमरूद में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी के लक्षण और प्रबंधन इस प्रकार है, जैसे-
जिंक- जिंक की कमी से ग्रसित पौधों की बढ़त रुक जाती है, टहनियाँ ऊपर से सूखने लगती हैं, कम फूल बनते हैं और फल फट जाते हैं| जिंक की कमी से ग्रसित पौधे में सामान्य रूप से फूल नहीं लगते तथा पौधे खाली नज़र आते हैं| इससे फल की गुणवत्ता और उपज में भारी कमी आती है|
प्रबंधन-
1. सर्दी व वर्षा ऋतु में फूल आने के 10 से 15 दिन पहले मृदा में 800 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति पौधा डालना चाहिए|
2. फूल खिलने से पहले दो बार 15 दिनों के अन्तराल पर 0.3 से 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट का छिड़काव किया जाना चाहिए|
बोरॉन- फलों का आकार छोटा रह जाता है और पत्तियों का गिरना आरम्भ हो जाता है| अधिक कमी होने से फल फटने लगते हैं| पौधे में बोरॉन की कमी होने पर शर्करा का परिवहन कम हो जाता है और कोशिकाएँ टूटने लगती हैं| गुजरात व राजस्थान में नयी पत्तियों पर लाल धब्बे पड़ जाते हैं, जिसे फैटियो रोग कहा जाता है|
प्रबंधन-
1. फूल आने के पहले 0.3 से 0.4 प्रतिशत बोरिक अम्ल का छिड़काव करना चाहिए|
2. फल की अच्छी गुणवत्ता के लिए 0.5 प्रतिशत बोरेक्स (गर्म पानी में घोलने के बाद) का जुलाई से अगस्त में छिड़काव करना लाभदायक है, इससे फलों में गुणवत्ता आती है| पोषक तत्व प्रबंधन की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अमरूद के बागों में एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन कैसे करें, जानिए उपयोगी जानकारी
सिंचाई प्रबंधन
अन्य फलों की अपेक्षा अमरूद को कम सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है| यह लम्बे सूखे काल के साथ विभिन्न वर्षाकाल को आसानी से सह सकता है| वानस्पतिक वृद्धि तथा फूलों व फलों के विकास के समय उचित नमी को होना आवश्यक होता है| मानसून के दौरान वर्षा के अलावा सर्दियों में 25 दिनों के अन्तराल पर एवं गर्मियों में 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर की गई सिंचाई पौधों के उचित विकास एवं फलन में सहायता करती है|
सूखे की स्थिति में नये पौधों में उचित सिंचाई पर ध्यान दिया जाना चाहिए| प्रतिदिन होने वाले जल ह्रास को कम करने में टपक सिंचाई प्रणाली उचित साधन है| इस विधि से बाग में प्रतिदिन आवश्यकतानुसार हर पौधे में पर्याप्त मात्रा में पानी दिया जाता है| अमरूद में टपक सिंचाई प्रणाली में जल की आवश्यकता पौधे की आयु के अनुसार इस प्रकार होती है, जैसे-
पौधे की आयु (वर्ष) | जल की आवश्यकता (ग्रीष्मकालीन) | जल की आवश्यकता (शरदकालीन) |
एक | 4 से 5 लीटर प्रति दिन | 2 से 4 लीटर प्रति दिन |
दो | 8 से 12 लीटर प्रति दिन | 6 से 8 लीटर प्रति दिन |
तीन | 15 से 20 लीटर प्रति दिन | 10 से 12 लीटर प्रति दिन |
चार | 25 से 30 लीटर प्रति दिन | 14 से 16 लीटर प्रति दिन |
पांच | 30 से 35 लीटर प्रति दिन | 18 से 20 लीटर प्रति दिन |
पांच से अधिक | 35 से 40 लीटर प्रति दिन | 22 से 24 लीटर प्रति दिन |
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मल्चिंग
बाग लगाने के प्रथम 2 से 3 वर्षों के दौरान खरपतवार नियंत्रण बेहद महत्वपूर्ण है| इसके बाद पौधे स्वतः इतनी छाया आच्छादित करते हैं कि खरपतवार पनप नहीं पाते| काली पॉलीथीन (100 माइक्रोन) या कार्बनिक पदार्थों, जैसे, धान के अवशेष, सूखी घास, केले की पत्तियाँ तथा लकड़ी के बुरादे को तने के आस पास के क्षेत्र में फैला देने से खरपतवार नियंत्रण में काफी सहायता मिलती है और नमी बनी रहती है| जिससे पानी की कम आवश्यकता होती है|
कटाई-छंटाई एवं सधाई
अधिकतम उत्पादन हेतु, पौध रोपण के ठीक 3 से 4 माह के अन्दर ही अमरूद के पौधों को कटाई-छंटाई की आवश्यकता पड़ती है| प्रारम्भ में पौधे को 90 सेंटीमीटर से 1 मीटर की ऊँचाई तक सीधे बढ़ने दिया जाता है तथा इस ऊँचाई के बाद शाखाएँ निकलने देते हैं| जड़ के पास निकलने वाली शाखाओं को हटाते रहना चाहिए| सही तरीके से सधाई तथा छंटाई द्वारा तैयार किये गये पेड़ का व्यास 4 मीटर तक सीमित होना चाहिए| टहनियों के बीच का कोण अधिक रखा जाता है, ताकि पौधे के हर हिस्से को पर्याप्त सूर्य का प्रकाश मिल सके|
अन्तः फसलें
नये बाग में खाली पड़े स्थान पर कुछ फसल या सब्जियाँ उगा कर अतिरिक्त आर्थिक लाभ लिया जा सकता है| अतः सब्जियाँ एवं दलहनी फसलें अमरूद में अन्तः खेती के लिए उपयुक्त हैं| दलहनी फसलों से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है| मटर, चना, लोबिया, अरहर, आदि दलहनी फसलों को अमरूद के लिए प्राथमिकता दी जाती है, लेकिन कोई भी फसल फल वृक्ष के थाले में नहीं बोनी चाहिए| इसके अतिरिक्त हरी खाद फसलें, जैसे, सनई तथा ढेंचा भी भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं|
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फसल नियमन
अमरूद में फूल आने के दो प्रमुख मौसम हैं| पहला मार्च से मई, जिसके फल बरसात के मौसम (जुलाई अंत से मध्य अक्टूबर) में तोड़े जाते हैं और दूसरा जुलाई से अगस्त, जिसके फल सर्दी (आखिरी अक्टूबर से मध्य फरवरी) में तोड़े जाते हैं| लेकिन, कभी-कभी एक तीसरी फसल भी ली जाती है, जिसमें फूल अक्टूबर एवं फल मार्च में प्राप्त होते हैं| वर्षा ऋतु के फूल, सर्दी में भरपुर तथा स्वादिष्ट फल देते हैं, जबकि वर्षा ऋतु की फसल अच्छी नहीं होती है|
विभिन्न प्रकार के फफूंद जनित रोग जैसे, एन्छेक्नोज तथा कीड़े जैसे, फल-मक्खी फलों को बेहद नुकसान पहुंचाते हैं| वर्षा ऋतु के फल शीघ्र खराब हो जाते हैं और फलों में कम चमक होती है| फलन नियमन की एक तकनीक विकसित की गयी है, जिसमें कम गुणवत्तायुक्त वर्षा ऋतु की फसल को किस्म इलाहाबाद सफेदा में 10 प्रतिशत यूरिया तथा किस्म सरदार में 15 प्रतिशत यूरिया का अप्रैल से मई के महीने में 10 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करने से रोका जा सकता है|
इस विधि में शीत ऋतु में गुणवत्तायुक्त फसल द्वारा उत्पादन में तीन से चार गुनी वृद्धि पायी गयी जो अतिरिक्त आय प्रदान करती है| एक अनुसंधान में देखा गया कि मई माह में पूरे पेड़ की शाखाओं को 50 प्रतिशत तक काट देने से नई शाखाओं का सृजन होता है, जिससे शीत ऋतु में भरपूर फसल मिलती है|
बागों का जीर्णोद्धार
पुराने बाग जो निम्न गुणवत्तायुक्त फल देते हैं या न्यूनतम उत्पादन देते हैं| उनका जीर्णोद्धार करके उनसे अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है| जीर्णोद्धार के लिए सही विधि से पूनिंग की जाती है तथा पौधों में उचित उर्वरक एवं फसल संरक्षण प्रदान किया जाता है| मई माह में पुराने और कम उत्पादन देने वाले बाग के पौधों को ऊपर से काट दिया जाता है तथा अक्टूबर माह में नयी निकलने वाली शाखाओं का चुनाव करके अतिरिक्त शाखाओं का विरलीकरण किया जाता है| इन चुनी गयी शाखाओं पर ही शीत ऋतु में फसल ली जाती है| अमरूद के बागों की जीर्णोद्धार तकनीक की पूरी जानकारी यहाँ पढ़ें- अमरूद के पुराने एवं अनुत्पादक बागों का जीर्णोद्धार कैसे करें
रोग एवं नियंत्रण
विभिन्न रोगजनक विशेषतः कवक, अमरूद की फसल को प्रभावित करते हैं| उकठा रोग अमरूद का सबसे प्रमुख रोग है और इससे भारी हानि होती है| तुड़ाई से पहले एवं बाद में फलों का विगलन भी प्रमुख रोग है| अमरूद फलों में एन्ट्रेकनोज रोग से भी भारी हानि होती है|
उकठा- रोग का पहला बाहरी लक्षण ऊपरी टहनियों की पत्तियों का पीला पड़ना एवं उनके किनारों का थोड़ा मुड़ना होता है| इसमें पत्तियाँ मुरझाने लगती हैं और रंग पीला-लाल सा हो जाता है तथा टहनियाँ पर्णविहीन हो जाती हैं एवं अन्त में सम्पूर्ण पौधा पत्तीरहित व मृत हो जाता है| पुराने पेड़ों को अधिक क्षति होती है| उकठा मुख्यतः दो प्रकार का होता है, धीमा उकठा और शीघ्र उकठा|
नियंत्रण-
1. अमरूद के बाग को साफ-सुथरा रखना चाहिए|
2. रोगग्रसित पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए|
3. पौध लगाते समय जड़े क्षतिग्रस्त नहीं होनी चाहिए|
4. पौधों को प्रतिरोपित करने से पहले गड्ढों को फार्मलीन से उपचारित करना चाहिए|
5. रोग रोधक मूलवृंत सीडियम मोले x सीडियम ग्वाजावा का प्रयोग किया जा सकता है|
6. एस्परजिलस नाइजर स्ट्रेन ए एन 17 द्वारा जैविक नियंत्रण काफी प्रभावी पाया गया है| एस्परजिलस नाइजर को गोबर की खाद में विकसित कर 5 किलोग्राम खाद प्रति पौध की दर से नए पौधों को लगाते समय डालना चाहिए| पुराने पेड़ों के लिए यह खाद 10 किलोग्राम प्रति पेड़, प्रति वर्ष जून में डालना चाहिए|
एन्ट्रेकनोज- यह फल का संक्रमण आम तौर पर बरसात के महीने में देखा जाता है| फलों पर धब्बे गहरे भूरे रंग के, धंसे हुए, गोलाकार होते हैं तथा इन धब्बों के बीच में अधिक मात्रा में बीजाणु बनते हैं| ऐसे छोटे धब्बे आपस में मिल कर बड़े धब्बे बनाते हैं|
नियंत्रण-
1. कॉपर आक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का सात दिनों के अन्तराल पर छिड़काव लाभकारी है|
2. डाइथेन जेड- 78 (0.2 प्रतिशत) का मासिक छिड़काव भी रोग नियंत्रण में उपयोगी पाया गया है|
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कीट एवं नियंत्रण
अमरूद में फल-मक्खी, छाल-भक्षी कैटरपिलर एवं फल-भेदक मुख्य नाशी कीट माने जाते हैं|
फल-मक्खी- अमरूद के उत्पादन में फल मक्खी सबसे अधिक हानिकारक कीट है, विशेषकर वर्षा ऋतु के मौसम में यह अत्यन्त हानि पहुँचाती है| उत्तर भारत में अमरूद को ग्रसित करने वाली जिन मुख्य फल-मक्खियों की प्रजातियों की पहचान की गयी है, वे हैं कोरेक्टा और जोनेटा| इनके द्वारा अण्डे पकते फलों में दिए जाते हैं तथा मैगट गूदे को खाते हैं|
फल मक्खी की संख्या जुलाई से अगस्त में सबसे अधिक होती है| ग्रसित स्थान पर फूल मुलायम पड़ जाते हैं| प्रभावित फल सड़ जाते हैं और पकने से पहले ही गिर जाते हैं| अण्डे दिये जाने के कारण बने छिद्रों द्वारा फलों पर कई रोगकारकों का संक्रमण हो जाता है|
नियंत्रण-
1. ग्रसित फलों को फल-मक्खी के मैगट सहित एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिए|
2. मिथाइल यूजीनॉल बोतल ट्रैप्स (0.1 प्रतिशत मिथाइल यूजीनॉल + 0.1 प्रतिशत मैलाथियान का 100 मिलीलीटर घोल) को लटकाना इस नाशी जीव के नियन्त्रण में बहुत प्रभावशाली है|
3. फल के पकने से काफी पहले ऐसे 10 ट्रैप्स प्रति हेक्टेयर की दर से 5 से 6 फुट ऊँचाई पर लगाये जा सकते हैं|
छाल-भक्षी कीट- यह नाशी कीट मुख्यत: तनों तथा शाखाओं में छेद करता है और छाल को खाता है| यह नाशी कीट सामान्य तौर पर उन बागों में अधिक पाया जाता है| जिनकी देख-भाल ठीक से नहीं की जाती है| इसके प्रकोप की पहचान लार्वी द्वारा प्ररोहों, शाखाओं और तनों पर बनायी गयी अनियमित सुरंगों से होती है, जो रेशमी जालों, जिसमें चबायी हुई छाल के टुकड़े और इनके मल सम्मिलित होते हैं से ढकी होती हैं| इनके आवासी छिद्र विशेष कर प्ररोहों एवं शाखाओं के जोड़ पर देखे जा सकते हैं|
नियंत्रण-
1. प्रकोप की शुरूआत में ही, आवासी छिद्रों को साफ कर, उनमें तार डाल कर लार्वी को नष्ट कर देना चाहिए|
2. अधिक प्रकोप होने पर सुरंगों एवं आवासीय छिद्रों को साफ कर रुई के फाये को 0.05 प्रतिशत डाइक्लोरवास के घोल में भिगो कर छिद्रों में रख कर, गीली मिट्टी से बन्द कर देना चाहिए या 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस या 0.05 प्रतिशत क्लोरपाइरीफॉस का घोल बना कर छिद्रों में डाल कर गीली मिट्टी से बन्द कर देना चाहिए|
फल भेदक-
अनार तितली- इस नाशी कीट का प्रकोप अमरूद में बरसाती तथा शीत ऋतु दोनों फसलों में होता है| मादा तितली फलों पर अण्डे देती है| लार्वे फल को भेदते हैं और गूदे एवं बीज को खा कर इसे अन्दर से खोखला कर देते हैं| इस कीट के द्वारा फल खराब हो जाते हैं|
कैस्टर कैप्सूल भेदक- यह एक दूसरा बहुभक्षी कीट है, जिसके लार्वी अमरूद के फल को हानि पहुँचाते हैं| लार्वी बढ़ते हुए फल के गूदे और बीजों को खाते हैं, जिससे फल पकने से पहले ही गिर जाते हैं| फल के निचले हिस्से में प्यूपा-कोष्ठ में प्यूपा बनता है| इस नाशी कीट का प्रकोप बरसाती अमरूद में होता है| लार्वी द्वारा छिद्रों से विसर्जित मल निकलता हुआ देखा जा सकता है|
नियंत्रण-
1. ग्रसित फलों को एकत्र कर नष्ट करना चाहिए|
2. फलों के पकने से पहले 0.2 प्रतिशत कार्बारिल या 0.04 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस या इथौफेन्प्रोक्स 0.05 प्रतिशत कीट नाशी का 2 छिड़काव करना चाहिए|
3. अन्तिम छिड़काव के बाद कम से कम 15 दिनों की प्रतीक्षा के बाद ही फलों की तुड़ाई की जानी चाहिए| अमरूद में कीट और रोग रोकथाम की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अमरूद में कीट एवं रोग की रोकथाम कैसे करें, जानिए उपयोगी तकनीक
फल तुड़ाई
उत्तरी भारत में अमरूद की दो फसलें होती हैं| एक वर्षा ऋतु में एवं दूसरी शीत ऋतु में, शीतकालीन फसल के फलों में गुणवत्ता अधिक होती है| फलों की व्यापारिक किस्मों के परिपक्वता मानक स्थापित किए जा चुके हैं| आमतौर पर फूल लगने के लगभग 4 से 5 महीने में अमरूद के फल पक कर तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं| इस समय फल का गहरा हरा रंग पीले-हरे या हल्के पीले रंग में बदल जाता है| अमरूद के फल अधिकतर हाथ द्वारा ही तोड़े जाते हैं|
वर्षा ऋतु की फसल को प्रत्येक दूसरे या तीसरे दिन तोड़ने की आवश्यकता रहती है| जबकि सर्दी की फसल 4 से 5 दिनों के अंतराल पर तोड़नी चाहिए| फलों को एक या दो पत्ती के साथ तोड़ना अधिक उपयोगी पाया गया है| फलों को तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनमें किसी प्रकार की खरोंच अथवा चोट न लगे और वे ज़मीन पर न गिरने पाएं|
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पैदावार
अमरूद के पौधे, दूसरे साल के अन्त या तीसरे साल के शुरूआत से फल देना आरम्भ कर देते हैं| तीसरे साल में लगभग 8 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है, जो सातवें वर्ष में 25 टन प्रति हेक्टेयर तक बढ़ जाता है| उपयुक्त तकनीक का प्रयोग करके 40 वर्षों तक अमरूद के पौधों से फसल ली जा सकती है| आर्थिक दृष्टि से 20 वर्षों तक अमरूद के पौधों से लाभकारी उत्पादन लिया जा सकता है| सघन बागवानी से 30 से 40 टन तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है|
पेटीबंदी
गत्ते की पेटियां (सी एफ बी बक्से) अमरूद के फलों को पैक करने के लिए उचित पायी गयी हैं| इन पेटियों में 0.5 प्रतिशत छिद्र, वायु संचार के लिए उपयुक्त होते हैं| नए शोधों से ज्ञात होता है, कि फलों को 0.5 प्रतिशत छिद्रयुक्त पॉलीथीन की पैकिंग में भी रखा जा सकता है|
लाभकारी उत्पादन हेतु महत्वपूर्ण बिन्दु-
अमरूद की लाभकारी बागवानी एवं उत्पादन के लिए संक्षेप में कुछ सुझाव इस प्रकार है, जैसे-
1. अधिक उत्पादन देने वाली विश्वसनीय किस्मों का चयन करना|
2. सघन बागवानी पद्धति को अपनाना|
3. प्रारम्भिक अवस्था से ही पौधों को विशेष आकार देने तथा मजबूत ढाँचे के लिए कटाई-छंटाई प्रक्रिया अपनाना, ताकि पौधे ऊँचाई में अधिक न बढ़े|
4. पानी के समुचित उपयोग के लिए टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली का प्रयोग|
5. बाग की समुचित सफाई, एन्थ्रेकनोज एवं उकठा रोग तथा फल-मक्खी एवं छाल-भक्षी कीट का प्रबन्धन|
6. उकठा रोग नियंत्रण हेतु एस्परजिलस नाइजर एवं ट्राइक, प्रयोग करना|
7. बाग स्थापन हेतु उकठा रोग प्रतिरोधी मूलवृन्त पर प्रसारित पौधों का उपयोग|
8. समय पर अमरूद के फलों की तुड़ाई|
9. फसल नियमन हेतु यूरिया का प्रयोग अथवा मई माह में शाखाओं की 50 प्रतिशत तक कटाई|
11. अमरूद के पुराने बागों का जीर्णोद्धार करें|
12. फल बिक्री हेतु बाजार का सर्वेक्षण तथा वहाँ फलों को भेजने की व्यवस्था करना|
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