अलसी का उपयोग मुख्यतः तेल व रेशे के लिए किया जाता है| इसका तेल औधोगिक उत्पाद बनाने, खाने के लिए व औषधि के रुप मे काम में लिया जाता है| अलसी की खेती (Linseed farming) उचित प्रबंधन के साथ की जाए तो पैदावार में लगभग 2 से 2.5 गुना वृद्धि की जा सकती है| इस लेख में अलसी की उन्नत खेती का वर्णन किया गया है| अलसी एक तिलहनी तथा रेशे वाली मुख्य फसल है, जिसको मुख्यतः दो उपयोगों के लिये उगाया जाता है| पहला बीजों (तेल) के लिये और दूसरा रेशे के लिये, अलसी के बीजों में 33 से 47 प्रतिशत तक तेल पाया जाता है|
इससे प्राप्त तेल का उपयोग खाने, औषधिक उपयोग एवं अन्य विभिन्न प्रकार के औद्योगिक उत्पाद बनाने में किया जाता है, जैसे- पारदर्शी साबुन, पेंट, प्रिटिंग इंक और वारनेश आदि| इसकी खली का उपयोग पशुओं को खिलाने के रूप में किया जाता है, जो कि खाने में स्वादिष्ट तथा 36 प्रतिशत प्रोटीन के साथ सुपाच्य भी होती है| इसकी खली में 5:1.4:1.8 प्रतिशत तक नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश पाया जाता है| जिसकी वजह से इसका उपयोग खेतों में भी बहुत लाभदायक होता है|
अलसी की खेती में भारत का प्रथम स्थान है, इसकी खेती मुख्यतः मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हिमाचल प्रदेश एवं महाराष्ट्र आदि राज्यों में की जाती है| यदि किसान बंधु अलसी की खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो इसकी फसल से अधिकतम उपज प्राप्त की जा सकती है| इस लेख में अलसी की उन्नत खेती कैसे करें की पूरी जानकारी का उल्लेख है|
अलसी की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
अलसी की खेती को ठंडे व शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है| अत अलसी भारत वर्ष में अधिकतर रबी मौसम में जहां वार्षिक वर्षा 50 से 55 सेटीमीटर होती है| वहां इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है| अलसी के उचित अंकुरण हतेु 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान तथा बीज बनते समय तापमान 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेट होना चाहिए|
अलसी के वृद्धि काल में भारी वर्षा व बादल छाये रहना बहुत ही हानिकारक होते हैं| परिपक्वन अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी तथा शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है| यानि की इसकी खेती के लिए सम-शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है|
अलसी की खेती के लिए भूमि का चयन
अलसी की खेती के लिये काली भारी एवं दामेट (मटियार) मिटि्टयॉ उपयुक्त रहती हैं| अधिक उपजाऊ मदृाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी समझी जाती हैं| भूमि में उचित जल निकास होना चाहिए| उचित जल एवं उर्वरक व्यवस्था करने पर किसी भी प्रकार की मिट्टी में अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है|
अलसी की खेती के लिए खेत की तैयारी
बीज के अंकुरण और उचित फसल वृद्धि के लिए आवश्यक है, कि बुआई से पूर्व भूमि को अच्छी प्रकार से तैयार कर लिया जाए| फसल कटाई के पश्चात खेत को मिट्टी पलटने वाले हल से एक बार जोतने के पश्चात् 2 से 3 बार देशी देशी हल या हैरो चलाकर भूमि तैयार करनी चाहिए| जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए, जिससे भूमि में नमी बनी रहे|
अलसी की खेती के लिए उन्नत किस्में
इसकी दो प्रकार की किस्में पाई जाती है, एक बीज बहु-उद्देशीय इन किस्मों में तेल की मात्रा अधिक पाई जाती है, और दूसरी किस्में जिनमें रेशे की मात्रा अधिक पाई जाती है| यहां कृषकों को बता दे की अलसी की देशी किस्मों की उपज क्षमता कम होती है, क्योंकि इन पर कीट तथा रोगों का प्रकोप अधिक होता है| अत अधिकतम उपज लेने के लिए देशी किस्मों के स्थान पर उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का उपयोग करना चाहिए| क्षेत्र विशेष के लिए जारी की गई किस्मो को उसी क्षेत्र में उगाया जाना चाहिए, अन्यथा जलवायु संबंधी अंतर होने के कारण अच्छी उपज नहीं मिलेगी| कुछ उन्नत और प्रचलित किस्में इस प्रकार है, जैसे-
असिंचित क्षेत्रों के लिये- जे एल एस- 67, जे एल एस- 66, जे एल एस- 73, शीतल, रश्मि, भारदा, इंदिरा अलसी- 32 आदि प्रमुख है|
सिंचित क्षेत्रों के लिये- सुयोग, जे एल एस- 23, टी- 397, पूसा- 2, पी के डी एल- 41 आदि प्रमुख है|
उतेरा विधि के लिये- जवाहर अलसी- 552, जवाहर अलसी- 7, एल सी- 185, सुरभि, बेनर आदि प्रमुख है| किस्मों की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अलसी की उन्नत किस्में
अलसी की खेती और फसल पद्धति
अलसी की खेती वर्षा आधारित क्षेत्रों से खरीफ पड़त के बाद रबी में शुद्ध फसल के रूप में की जाती है| अनुसंधान परिणाम यह प्रदर्शित करते है, कि सोयाबीन-अलसी व उर्द-अलसी आदि फसल चक्रों से पड़त अलसी की तुलना में अधिक लाभ लिया जा सकता है| इसी प्रकार एकल फसल के बजाय अलसी की चना + अलसी (4:2) सह फसल के रूप में ली जा सकती है| अलसी की सह फसली खेती मसूर व सरसों के साथ भी की जा सकती है|
अलसी की खेती और उतेरा पद्धति
असली की उतेरा पद्धति धान लगाये जाने वाले क्षेत्रों में प्रचलित है| धान की खेती में नमी का सदुपयोग करने हेतु धान के खेत में अलसी बोई जाती है| इस पद्धति में धान की खड़ी फसल में अलसी के बीज को छिटक दिया जाता है| फलस्वरूप धान की कटाई पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता है| संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार की जाती है| अलसी की इस विधि को पैरा या उतेरा पद्धति कहते है|
अलसी की खेती के लिए बुवाई का समय
असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े में तथा सिचिंत क्षेत्रो में नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में बुवाई करना चाहिये| उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बुवाई की जानी चाहिये| जल्दी बोनी करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी एवं पाउडरी मिल्ड्यू आदि से बचाया जा सकता है|
अलसी की खेती के लिए बीजदर और अंतरण
अलसी की बुवाई 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करनी चाहिये| कतार से कतार के बीच की दूरी 30 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर रखनी चाहिये| बीज को भूमि में 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिये| उतेरा पद्वति के लिये 40 से 45 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर अलसी की बोनी हेतु उपयुक्त है|
अलसी की खेती के लिए बीजोपचार
बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये या ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा या ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये|
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अलसी की खेती के लिए खाद और उर्वरक
मिट्टी परीक्षण अनुसार उर्वरकों का प्रयोग अधिक लाभकारी होता है, यदि परिक्षण नही किया गया है, तो 7 से 8 टन प्रति हेक्टेयर गली सड़ी गोबर की खाद आखिरी जुताई में मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें| इसके साथ असिंचित क्षेत्रों हेतु नत्रजन 50 किलोग्राम, फास्फोरस 40 किलोग्राम, पोटाश 40 किलोग्राम तथा सिंचित क्षेत्रों हेतु नत्रजन 100 किलोग्राम, फास्फोरस 60 किलोग्राम, पोटाश 40 किलोग्राम की आवश्यकता पड़ती है|
असिंचित दशा में नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा तथा सिंचित दशा में नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व् पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय 2से 3 सेंटीमीटर बीज के नीचे देना चाहिए, तथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा सिंचित दशा पहली निराई गुड़ाई और सिंचाई के समय देनी चाहिए|
अलसी की खेती के लिए सिंचाई व्यवस्था
अलसी की खेती प्रायः असिंचित दशा में करते है, लेकिन जहाँ पर सिंचाई की सुविधा होती है| वहां दो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है, पहली फूल आने पर तथा दूसरी सिंचाई दाना बनाते समय करने से उपज में बढोत्तरी होती है|
अलसी की खेती में खरपतवार रोकथाम
अलसी की फसल में खरपतवारों की रोकथाम के लिए पेंडीमेथालीन 30 ई.सी. 3.3 लीटर मात्रा 900 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर बुवाई के बाद एक या दो दिन के अन्दर छिडकाव करना चाहिए जिससे की खरपतवारों का जमाव न हो सके| क्योंकि इसमे रबी की फसल के समय के सभी खरपतवार उगते है, और आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई करते रहें|
अलसी की खेती में रोग रोकथाम
अलसी की खेती में अल्टरनेरिया झुलसा, रतुआ या गेरुई, उकठा एवम बुकनी रोग लगता हैI इसकी रोकथाम के लिए उपरोक्त विधि से बीज का उपचार आवश्यक है, समय पर बुवाई करे, रोग रोधी किस्म की बुवाई करनी चाहिए|
फसल में मैन्कोजेब 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 40 से 50 दिन बुवाई के बाद छिडकाव करे, तथा हर 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करते रहना चाहिए, जिससे की रोग न लग सके|
रतुआ या गेरुई तथा बुकनी रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए| उकठा की रोकथाम के लिए फसल चक्र भी अपनाना चाहिए|
अलसी की खेती में कीट रोकथाम
इस फसल में फली मक्खी, इल्ली कीट लगता है, इसके प्रौढ़ कीट गहरे नारंगी रंग के छोटी मक्खी होती है| इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ईसी, 750 मिलीलीटर या क्युनालफास 1.5 लीटर मात्रा 900 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए| अलसी में कीट और रोग रोकथाम की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अलसी की फसल के कीट एवं रोग और उनकी रोकथाम कैसे करें
अलसी फसल की कटाई
फसल की कटाई जब फसल पूर्ण रूप से सूखकर पाक जाए तभी कटाई करनी चाहिए| कटाई के तुरंत बाद मड़ाई कर लेनी चाहिए, जिससे की बीजों का नुकसान न हो|
अलसी की खेती से पैदावार
अलसी की फसल की उपरोक्त विधि से खेती करने पर, अलग-अलग किस्मों की पैदावार अलग-अलग होती है, प्रथम बीज उद्देशीय सिंचित दशा में 18 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा असिंचित दशा में 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और दो-उद्देशीय दशा में 20 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और 13 से 17 प्रतिशत तेल व 38 से 45 प्रतिशत तक रेशा पाया जाता है|
अलसी से रेशा प्राप्त करने की तकनीक
सूखे तने से रेशा प्राप्त करने की तकनीक-
1. फसल की कटाई भूमि स्तर से करें|
2. बीजों की मड़ाई करके अलग कर लें तत्पश्चात तने को जहाँ से शाखाओं फूटी हों, काटकर अलग करें फिर कटे तने को छोटे-छोटे बण्डल बनाकर रख लें|
3. अब सूखे कटे तने बण्डल को सड़ाने के लिये अलग रखें|
4. तनों को सड़ाने के लिये निम्न लिखित विधि अपनायें|
बंडल सडाने की विधि-
1. सूखे तने के बण्डलों को पानी से भरे टैंक में डालकर 2 से 3 दिन तक छोड़ दें|
2. सड़े तने के बण्डल को 8 से 10 बार टैंक के पानी से धोकर खुली हवा में सूखने दें|
3. अब तने का रेशा निकालने योग्य हो गया है|
अलसी से रेशा निकलने की विधि
हाथ से रेशा निकालने की विधि-
अच्छी तरह सूखे सड़े तने की लकड़ी की मुंगरी से पीटिए-कुटिए| इस प्रकार तने की लकड़ी टूटकर भूसा हो जाएगी जिसे झाड़कर व साफ कर रेशा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है|
मशीन से रेशा निकालने की विधि-
1. सूखे सड़े तने के छोटे-छोटे बण्डल मशीन के ग्राही सतह पर रख कर मशीन चलाते हैं, इस प्रकार मशीन से दबे या पिसे तने मशीन के दूसरी तरफ से बाहर निकलते रहते हैं|
2. मशीन से बाहर हुये दबे या पिसे तने को हिलाकर एवं साफ कर रेशा अलग कर लेते हैं|
3. यदि तने की पिसी लकड़ी एक बार में पूरी तरह रेशे से अलग न हो तो पुनः उसे मशीन में लगाकर तने की लकड़ी को पूरी तरह से अलग कर लें|
कम उत्पादकता के कारण
1. कम उपजाऊ भूमि पर खेती करना|
2. असिंचित दशा या वर्षा आधारित स्थिति में खेती करना|
3. उतेरा पद्धति से खेती करना और देखभाल न करना|
4. स्थानीय किस्मों का प्रचलन व उच्च उत्पादन देने वाली किस्मों की जानकारी न होना|
5. असंतुलित और कम मात्रा में उर्वरको उपयोग|
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