आंवला की बागवानी सम्पूर्ण भारतवर्ष में की जाती है| यह एक ऐसी फसल है, जिसमें रोगों और विकारों का प्रकोप कम होता है| किन्तु आंवले के कुछ रोग और विकार प्रमुख है, जो आंवला के लिए अत्यन्त हानिकारक है| जिनमें आंवले का रस्ट रोग, उकठा रोग, काली फफूंद, नीली फफूंद, एन्थ्रेकनोज, मृदू सड़न, फल सड़न, फल सड़न और विकारों में आन्तरिक सड़न प्रमुख है|
आंवले के बागों से गुणवत्तायुक्त फल और इच्छित उत्पादन प्राप्त करने के लिए इन सब की समय पर रोकथाम आवश्यक है| इस लेख में कृषकों के लिए आंवला के प्रमुख रोग उनकी पहचान और रोकथाम कैसे करें की पूरी जानकारी का उल्लेख किया गया है| आंवला की वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- आंवला की खेती कैसे करें
रोग एवं नियंत्रण
रस्ट (रवेलिया इम्बलिकी)- रस्ट रोग आंवला की एक प्रमुख समस्या है| इस रोग से फलों पर आरंभ में काले छोटे उभार दिखाई देते हैं, जो बाद में एक दूसरे से मिल कर घेरे के रूप में विकसित हो जाते हैं| धब्बे एक दूसरे से जुड़ कर फल के काफी क्षेत्र को घेर लेते हैं| इन धब्बों के ऊपर कागजनुमा चमकीली झिल्ली दिखाई देती है| यह बाद में फट जाती है|
जिससे काले बीजाणु बाहर बिखर जाते हैं| फल खराब दिखते हैं और बाजार में इनकी कीमत नहीं मिलती है| पत्तियों पर आरम्भ में गुलाबी भूरे छोटे-छोटे उभार नजर आते हैं| जो अलग-अलग या समूह में विकसित होते हैं तथा बाद में इसका रंग गहरा भूरा हो जाता है| ऐसा समझा जाता है, कि रोग फल से पत्तियों पर तथा पत्तियों से फल पर नहीं जाता है|
नियंत्रण- घुलनशील गंधक (0.4 प्रतिशत) या क्लोरोथैलोनिल (0.2 प्रतिशत) के तीन छिड़काव एक माह के अन्तराल पर जुलाई से करने पर रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है|
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उकठा (विल्ट)- हाल में कई क्षेत्रों में आंवला के पौधों के सूखने की समस्या देखी गई है| इससे पौधों में छाल का फटना, पत्तियों का झड़ा तथा पौधों के सूखने की समस्या देखी गई है| पेड़ के सूखने की समस्या ऐसे तो मुख्य रूप से पाले के कारण समझी जा रही है, किन्तु ऐसे पौधों में “यूजेरियम प्रजाति” की फफूंद भी संबंधित पाई गई है|
नियंत्रण-
1. पाले के समय छोटे पौधों को ढकना चाहिए तथा सिंचाई की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे पाले का असर न हो|
2. थालों में घास-फूस या काली पालीथीन बिछाने तथा तने पर गाय के गोबर का लेप लगाने से रोग में कमी पाई गई है|
3. चूंकि पाले से रोग बढ़ता है, अतः पौधों को पाले से बचाने की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए|
काली फफूंद- ऐसे आंवला के पौधों जिनमें स्केल कीट का प्रकोप होता है, उनमें काली फफूंद का भी प्रकोप होता है| आवंला के काली फफूंदी रोग में कई प्रकार की फफूंद देखी गयी है| काली फफूंद रोग (सूटी मोल्ड) में पत्तियों, टहनियों तथा फूलों पर मखमली काली फफूंदी विकसित होती है| जो कीट द्वारा छोड़े गए चिपचिपे पदार्थ के ऊपर विकसित होती है| यह फफूंदी सतह तक ही सीमित रहती है और पत्तियों टहनियों, फूल आदि में अन्दर इसका प्रकोप नहीं होता है|
नियंत्रण-
1. काली फफूंद के प्रकोप को 2 प्रतिशत स्टार्च के छिड़काव के द्वारा रोका जा सकता है|
2. यदि प्रकोप अधिक हो तो स्टार्च में 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस तथा 0.2 प्रतिशत घुलनशील गंधक मिला कर छिड़काव करना चाहिए|
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नीली फफूंद (पेनीसीलियम सिट्रिनम)- यह रोग आंवले का एक ऐसा रोग है, जो सभी आंवला उगाने वाले क्षेत्रों में आम है| आरम्भ में फलों पर भूरे जलसिक्त धब्बे बनते हैं और रोग के बढ़ने पर फलों में फफूंद के तीन प्रकार के रंग एक के बाद एक दिखाई देते हैं|
पहले चमकीला पीला रंग फिर भूरा रंग तथा अंत में हरा नीला रंग विकसित होता है| जो सतह पर उभरती फफूंद के कारण होता है| फल की सतह पर पीली बूंदें भी दिखाई देती हैं| फलों से बुरी बदबू निकलती है| पूरा फल बाद में दानेदार नीली हरी फफूंद से ढका नजर आता है|
नियंत्रण-
1. फलों की तुड़ाई अत्यन्त सावधानीपूर्वक करनी चाहिए जिससे उसमें किसी प्रकार की चोट न लगे, चोट लगने से फलों पर नीली फफूंद का प्रकोप होने की संभावना रहती है|
2. भण्डारण में साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखना चाहिए तथा भंडारण स्थल को ओजोन गैस से शोधित करना चाहिए|
3. आंवला के फलों को बोरेक्स या नमक से उपचारित करने से रोग को रोका जा सकता है|
4. फलों को कोर्बेन्डाजिम या थायोफनेट मिथइल 0.1 प्रतिशत से उपचारित करके भी रोग नियंत्रित किया जा सकता है|
5. आंवला के फलों के ऊपर मेथी के तेल के हल्के लेप से भी रोग को रोका जा सकता है|
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एन्थ्रेकनोज- यह रोग आंवले की पत्तियों व फलों पर अगस्त से सितम्बर माह में दिखाई देता है| पत्तियों पर पहले छोटे, गोल, भूरे, पीले किनारों वाली धब्बे नजर आते है| धब्बों का मध्य भाग हल्का भूरा तथा काले पिन के सिरे से उभार सहित दिखाई देता है| फलों पर धंसे हुए भूरे धब्बे बनते हैं|
जिनके मध्य में पिन के सिरे से गोलाई में गहरे काले उभार दिखाई देते हैं| धब्बे विभिन्न आकार तथा साइज के बनते हैं| अधिक नमी होने पर धब्बे से बीजाणु अधिक मात्रा में निकलते हैं, साथ ही फल सिकुड़े से नजर आते हैं और फिर सड़ जाते हैं|
मृदू सड़न (फोमोप्सिस फाइलेन्थाई)- आंवला में मृदू सड़न रोग को दिसम्बर से फरवरी के मध्य अधिक देखा जा सकता है| धुंए से भूरे काले, गोल धब्बे फलों पर 2 से 3 दिनों में विकसित होते हैं| संक्रमित भाग पर जलसिक्त भूरे रंग का धब्बा बनाता है, जो पूरे फल को करीब 8 दिनों में आच्छादित कर फल के आकार को विकृत कर देता है| ऐसे तो रोग छोटे तथा परिपक्व फल, दोनों को प्रभावित करता है, किन्तु परिपक्व फलों में इसका प्रकोप अधिक होता है| इस रोग के बढ़ने का कारण फलों में चोट लगना है|
नियंत्रण- तुड़ाई उपरांत आंवला के फलों को डाइफोलेटान (0.15 प्रतिशत), डाइथेन एम- 45 या बैवेस्टीन (0.1 प्रतिशत) से उपचारित करके भण्डारित करने से रोग की रोकथाम की जा सकती है|
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फल सड़न (पेस्टेलोशिया क्रुएन्टा)- यह रोग नवम्बर माह में आमतौर पर देखा जाता है| इस रोग में धब्बे अधिकतर अनियताकार तथा भूरे रंग के होते हैं| आरम्भ में भूरे रंग के धब्बे बनते हैं, जो धीरे-धीरे बढ़ते हैं और बाद में ये धब्बे सूखे भूरे हो जाते हैं| जिनके किनारे हल्के भूरे होते हैं तथा ग्रसित भाग पर रूई की तरह सफेद फफूंद दिखाई देती हैं| संक्रामित फल के अन्दर का हिस्सा सूखा, गहरा भूरा नजर आता है|
फल सड़न (अल्टरनेरिया अल्टरनेटा)- गिरे हुए फलों में अल्टरनेरिया अल्टरनेटा द्वारा सड़न पैदा होती है| जिससे फल पूर्णतय खराब हो जाते है|
नियंत्रण-
1. आंवला के फल तोड़ने के 15 दिनों पूर्व 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम का छिड़काव करना चाहिए|
2. फल तुड़ाई पूरी सावधानी से करनी चाहिए, जिससे फलों में किसी प्रकार की चोट न लगे|
3. आंवला के फलों को स्वच्छ पात्रों में भण्डारित करना चाहिए|
4. फलों के भण्डारण तथा परिवहन के समय पूर्ण स्वच्छता बरतनी चाहिए|
5. भण्डारण स्थान स्वच्छ होना चाहिए तथा उसे ओजोन से उपचारित किया जाना चाहिए|
6. फलों का उपचार बोरेक्स या नमक से करना चाहिए जिससे रोग का प्रकोप न हो|
आंवला के विकार
आन्तरिक सड़न- आन्तरिक सड़न आंवला के फलों में देखी गयी है| आंवला की प्रजाति फ्रान्सिस में यह रोग सबसे अधिक होता है| बनारसी प्रजाति में भी इसका प्रकोप पाया गया है| जब अन्तः उत्तक कड़ी लगती है, तब यह सबसे पहले अन्दर की ओर से भूरा होना आरम्भ करती है और बाद में मध्य उत्तक तथा अन्त में बाहरी भूरी काली नजर आती है|
आमतौर पर सितम्बर के दूसरे तथा तीसरे सप्ताह में यह दिखाई देती है| रोग के बढ़ने पर ये भाग कार्कनुमा कड़ा हो जाता है तथा रिक्त स्थान बनते हैं, जो गोंद से भरे होते हैं| चकैइया, एन ए- 6 तथा एन ए- 7 में यह रोग नहीं देखा गया है| अतः इन प्रजातियों को लगाने हेतु बढ़ावा देना, चाहिए|
नियंत्रण- जिंक सल्फेट (0.4 प्रतिशत) कापर सल्फेट (0.4 प्रतिशत) तथा बोरेक्स (0.4 प्रतिशत) का छिड़काव सितम्बर से अक्टूबर माह में करना लाभप्रद होता है|
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