आम के अनियमित फलन को नियंत्रण करना आवश्यक है| क्योंकि आम की बागवानी उष्ण एवं उपोष्ण दोनों ही प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक की जा सकती है| इसकी बागवानी समुद्र सतह से लेकर 1200 मीटर तक ऊँचाई वाले हिमालय क्षेत्र में की जाती है| किन्तु व्यावसायिक दृष्टि से इसकी बागवानी 600 मीटर की ऊँचाई तक ही की जा सकती है| आम की किस्में देश के विभिन्न प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक पैदा की जा रही हैं| जिनमें मुख्य किस्में, दशहरी, चौसा, लगंड़ा, बाम्बेग्रीन, अल्फान्सों तथा संकर किस्मों मल्लिका तथा आम्रपाली आदि जैसी किस्में काफी प्रचलित है|
प्रति इकाई अधिक उत्पादकता के लिए यह आवश्यक है, कि आम में नियमित फलन हो| यह तभी सम्भव है जब फलों की तुड़ाई के बाद प्रत्येक वर्ष नये प्ररोह उत्पन्न होते रहें और इन प्ररोहों में पुष्पन (बौर) हो| यह प्रकिया सामान्यतः नहीं पायी जाती है| आम के अनियमित या एकान्तर फलन वाली किस्मों में नयी शाखायें फल तोड़ने के बाद कई माह पश्चात निकलती हैं, जिससे वे पुष्पन के लिए परिपक्व नहीं हो पाती| देखा गया है, कि आम के पेड़ों में वानस्पतिक वृद्धि एवं पुष्पन-फलन साथ-साथ नहीं होता है|
यह भी पढ़ें- आम की संकर किस्में
ऐसा भी पाया गया है, कि जब पेड़ एक वर्ष अधिक फल देता है, तो उसमें पोषक तत्वों की कमी आ जाती है, जिस कारण नयी शाखायें नहीं निकल पाती हैं| फल तोड़ने के तुरन्त बाद और देर से शाखायें निकलने पर ये पुष्पन के लिये परिपक्व नहीं हो पाती है| अतः प्ररोहों की आयु तथा वृद्धि, पोषक तत्वों की कमी, वातावरण एवं वृद्धि नियामकों का असंतुलन आम के अनियमित और एकान्तर फलन के मुख्य कारण हैं| प्ररोहों की आयु एवं आकार प्ररोहों की आयु और आकार आम में पुष्पन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है|
आम के अनियमित फलन वाली किस्में जैसे- दशहरी, चौसा, लंगड़ा, अल्फांसो आदि में पुष्पन के लिए एक निश्चित दैहिक परिपक्वता की आवश्यकता होती है| जब तक प्ररोह पूर्णतः परिपक्व नहीं हो जाते हैं| तब तक उसमें पुष्पन नहीं होता| यही कारण है कि फलों के तुड़ाई के पश्चात इन किस्मों में जो प्ररोह उत्पन्न होते हैं, वे दूसरे वर्ष ही पुष्पन के लिए परिपक्व होते हैं| इस प्रकार वृक्ष हर वर्ष फल देने में असमर्थ हो जाते हैं| आम की वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी की जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- आम की खेती कैसे करें
पोषक तत्वों की कमी या असंतुलन
जब पेड़ एक वर्ष अधिक फल दे देता है, तो उसमें पोषक तत्वों की कमी हो जाती है, जिसमें कार्बन/नाइट्रोजन का असंतुलन मुख्य है| इसके कारण पेड नयी कोपलें उगाने में सक्षम नहीं रहता, जिसके परिणामस्वरूप दूसरे वर्ष फल कम आता है या नहीं भी आता|
यह भी पढ़ें- आम के विकार एवं उनका प्रबंधन कैसे करें, जानिए अधिक उपज हेतु
वृद्धि नियामकों का असंतुलन या कमी
आम की एकान्तर किस्मों में अनियमित फलन का मुख्य कारण, वृद्धि नियामक या हार्मोन होता है, इसमें जिब्रेलिन्स मुख्य है| इसके फलस्वरूप फलदार वृक्ष पुष्पन में असमर्थ हो जाते हैं तथा आम के फलदार वृक्ष भी अफलन की अवस्था में आ जाते हैं|
वातावरण
वातावरण आम के अनियमित फलन का मूल कारण नहीं है| फिर भी प्रतिकूल वातावरण जैसे अधिक वर्षा, उच्च आर्द्रता, कम तापमान, पुष्पन के समय काफी दिन कुहरा रहना, फलन वर्ष को सीधे अफलन वर्ष में बदल देता है या अप्रत्यक्ष रूप से रोग और कीट के प्रकोप को प्रोत्साहित करता है| लगातार प्रतिकूल वातावरण रहने से पेड़ों के लिंग तथा वांशिक बदलाव भी पाया गया है, जिसका पुष्पन-फलन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है|
प्रबंधन
यदि समय से आये हुए बौर के अलावा भी बौर आते हैं, तो उनको तोड़ देना चाहिये| इससे फलन वर्ष में पेड़ पर पोषक तत्वों की कमी का कम असर होगा और फल अफलन वर्ष में भी आता है| यदि वृक्ष में फल एक सीमा से अधिक लगता है, तो वृक्ष की चारों दिशाओं से कुछ-कुछ फलों को बेर के बराबर की अवस्था में तोड़ने से पेड़ों के पोषक तत्व एवं वृद्धि में सामंजस्य बना रहेगा तथा अफलन वर्ष में भी आम के अनियमित किस्मों में फल आने की संभावना बढ़ जाती है|
यह भी पढ़ें- आम की नर्सरी तैयार कैसे करें
पैक्लोब्यूट्राजाल का प्रयोग
किस्म के अनुसार वृक्षों की बढ़त में विभिन्नता पायी जाती है तथा इसी कारण कम बढ़त वाले दशहरी और बाम्बे ग्रीन में तीसरे-चौथे वर्ष से फलत प्रारंभ हो जाती है| जबकि लंगड़ा, चौसा, अल्फांसो इत्यादि में तेज बढ़त होने के कारण वृक्ष प्रथम 8 से 10 वर्षों तक नहीं फलता, परन्तु ये सभी किस्में एकान्तर वर्षों में फलती हैं| अतः नियमित फलन के लिए वृक्ष की वृद्धि को नियंत्रित करने की आवश्यकता है| पैक्लोब्यूट्राजाल (कल्टार) प्रतिवर्ष फलन एवं वृद्धि के नियंत्रण के लिए उपयोगी पाया गया है|
यह एक अन्तः प्रवाही वानस्पतिक पादप वृद्धि नियामक है, जो जिब्रेलिन संश्लेषण को कम कर पुष्पन में सहायक होता है| पैक्लोब्यूट्राजाल एवं पॉलीथीन मल्चिंग का प्रयोग कल्टार के उपयोग करने के पहले बाग में कुछ अन्तःशस्य क्रियाएँ करना आवश्यक हैं| जो इस प्रकार है, जैसे-
1. आम के फलों की तुड़ाई के पश्चात, अनावश्यक, रोग ग्रस्त, सूखी शाखाओं और यदि संभव हो तो पिछले वर्ष के फल लगी शाखा को 50 प्रतिशत काट कर निकाल देना चाहिये एवं कटे हुए स्थान पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का लेप करना चाहिये|
2. उर्वरकों की संस्तुत मात्रा का प्रयोग जुलाई में या कल्टार को देने के एक माह पूर्व करना चाहिये| चूंकि कल्टार प्रयोग से प्रति वृक्ष उत्पादकता में वृद्धि होती है| अतः इस अतिरिक्त वृद्धि एवं पौधों के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए उर्वरकों की संस्तुत मात्रा में 25 से 50 प्रतिशत तक की वृद्धि आवश्यक है, कार्बनिक उर्वरक का देना अनिवार्य है|
यह भी पढ़ें- आम का प्रवर्धन कैसे करें
3. कल्टार के उपयोग के बाद पौधे के जड़ के चारों ओर की भूमि को पराबैगनी प्रतिरोधी काली पालीथीन मल्चिग से ढकना चाहिये|
4. प्रति वृक्ष कल्टार की मात्रा साधारणतया प्रति मीटर छाया क्षेत्र में 3.2 मिलीलीटर की दर से प्रयोग किया जाता हैं| यह दर प्रति वृक्ष 32 मिलीलीटर से अधिक नहीं होनी चाहिये| यदि भूमि में बालू की मात्रा अधिक है, तो कल्टार की संस्तुत मात्रा में 50 प्रतिशत तक की कमी करना आवश्यक है| दशहरी आम में ऊपर वर्णित कल्टार की मात्रा को दूसरे वर्ष प्रतिवृक्ष आधा कर देने से भी प्रभावी पाया गया है| क्योंकि मिट्टी में मिलाया गया कल्टार का अवशेष दो वर्ष से भी ज्यादा दिन तक देखा गया है|
5. आम के वृक्ष में कल्टार का अवशोषण काली पॉलीथीन मल्चिंग से ज्यादा पाया गया है और कल्टार की संस्तुति मात्रा ही प्रति वर्ष पुष्पन तथा फलन के लिये अनिवार्य पायी गयी है|
6. पॉलीथीन मल्चिंग कल्टार के प्रयोग में आम की गुणवत्ता को बढ़ाने में सहायक होती है|
7. कल्टार से प्रति बौर आम के फल की संख्या बढ़ जाती है| जिससे फलों के ज्यादा गिरने की संभावना ज्यादा हो जाती है| परन्तु काली पॉलीथीन मल्चिंग के प्रयोग से फलों के गिरने में काफी कमी पायी गयी है| इसलिए कल्टार के साथ पॉलीथीन मल्चिंग के उपयोग से प्रति इकाई उत्पादन के साथ गुणवत्ता की वृद्धि पायी गयी है|
यह भी पढ़ें- आम के कीट एवं उनकी रोकथाम कैसे करें
8. कल्टार की संस्तुत मात्रा को 10 से 15 लीटर पानी में मिलाकर तने से 1.0 से 1.5 मीटर की दूरी पर जहाँ पोषक जड़ें स्थित हो 15 से 25 सेंटीमीटर गहरी नाली बनाकर पेड़ की गोलाई में घोल समान मात्रा में डाल कर काले रंग की पॉलीथीन फिल्म (400 गेज) से ढक देना चाहिये, क्योंकि पॉलीथीन मल्चिंग पैदावार बढ़ाने, नमी बचाये रखने तथा खरपतवार को उगने से रोकने का सबसे आसान तरीका है|
9. यदि वृक्ष की आयु 25 वर्ष से अधिक हो तो कल्टार की संस्तुत मात्रा पानी में घोल कर दो भागों में बाँट कर, एक भाग उर्वरक नाली के पास बनी हुई नाली में तथा शेष भाग छाया क्षेत्र से 25 से 30 सेंटीमीटर अन्दर की तरफ गोलाई में नाली बनाकर प्रयोग करना चाहिये| इससे कल्टार की अधिक-से-अधिक मात्रा का अवशोषण होता है|
10. यदि आम का बाग पथरीले और ढलान वाले क्षेत्र में हो तो नाली की जगह पर 15 से 20 गड्ढे बनाने चाहिये एवं कल्टार का घोल एक समान ढंग से इन गड्ढों में डाल कर मिट्टी से ढक देना चाहिये| प्रयोग का समय जलवायु तथा आम की किस्म पर निर्भर है| सामान्यतः बौर निकलने के 100 से 120 दिन पूर्व, उत्तर भारत में सितम्बर माह में कल्टार का प्रयोग अधिक उपयुक्त पाया गया है| कल्टार का ऊपरी छिड़काव सितम्बर माह के बाद अधिक प्रभावी होता है| जिन बागों में ज्यादा नमी रहती है, वहाँ ही कल्टार के पर्णीय छिड़काव की संस्तुति की जाती है|
11. कल्टार प्रयोग के बाद कम-से-कम 25 से 30 दिन तक पेड़ के चारों तरफ की भूमि में पर्याप्त नमी रखनी चाहिये| जिससे कल्टार की अधिक-से-अधिक मात्रा का अवशोषण हो सके| यदि आवश्यकता हो तो बाग की हल्की सिंचाई भी की जा सकती है| परन्तु पॉलीथीन मल्चिंग के प्रयोग से अलग से नमी बनाये रखने में कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती है|
यह भी पढ़ें- आम के रोग एवं उनकी रोकथाम कैसे करें
यदि उपरोक्त जानकारी से हमारे प्रिय पाठक संतुष्ट है, तो लेख को अपने Social Media पर Like व Share जरुर करें और अन्य अच्छी जानकारियों के लिए आप हमारे साथ Social Media द्वारा Facebook Page को Like, Twitter व Google+ को Follow और YouTube Channel को Subscribe कर के जुड़ सकते है|
Leave a Reply