वर्तमान फसल उत्पादन प्रणाली में मिटटी की विभिन्नता, उर्वरकों और उत्पादकता का ध्यान न रखते हुए उर्वरकों की सामान्य संस्तुतियों को सीधे तौर पर अपनाना एवं उनकी अपर्याप्त तथा असंतुलित मात्रा का प्रयोग सामान्यतः देखने में आता है| यदि उत्पादकता और उर्वरकों के उपयोग दक्षता में भविष्य में वृद्धि करना है, तो निश्चित तौर पर क्षेत्र आधारित मिटटी और फसल प्रबंधन तकनीकियों पर विशेष ध्यान देना होगा|
क्योंकि वर्तमान ही में मिटटी में पोषक तत्वों की आपूर्ति, पोषक तत्व उपयोग दक्षता और फसल प्रतिक्रिया में क्षेत्रानुसार विभिन्नता अनुसन्धान फार्म पर किए गए क्षेत्र प्रदर्शनों के दौरान देखने में आई हैं। भविष्य में सघन फसल उत्पादन प्रणाली में ऐसी विभिन्नताओं को उर्वरकों के उपयोग से प्रबंधन कर उत्पादकता को बढ़ाना मुख्य चुनौती होगी|
उर्वरकों के उपयोग की दृष्टि से दुनिया में भारत का तृतीय स्थान है, हालाँकि क्षेत्रीयता अनुसार उर्वरकों के उपयोग में भारी विभिन्नता है| विश्व खाध एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार देश के 466 जिलों में से कुल 37 जिलों में कुल उर्वरकों का 25 प्रतिशत भाग का प्रयोग किया जाता है| जबकि कुल उर्वरकों का 75 प्रतिशत भाग सिर्फ 202 जिलों में उपयोग किया जाता है|
उत्तरी भारत में उर्वरकों एवं पोषक तत्वों की उपयोगिता में तीव्रता से अंतर आया एवं नत्रजन तत्व के उपयोग पर विशेष जोर रहा जो कि 103:32.5:3 (नत्रजनःफास्फोरसःपोटाश) किलोग्राम प्रति हेक्टेयर जबकि दक्षिण भारत क्षेत्र में 60:26:19 (एनपीके) किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा|
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भारत में उपयोग किए जाने वाले कुल उर्वरकों की 68 प्रतिशत मात्रा का उपयोग केवल पांच फसलों (धान, गेहूं, गन्ना, कपास और सरसों) में ही किया जाता है| जिसमे धान्य फसलों, चावल में सर्वाधिक 37 प्रतिशत एवं गेहूं में 24 प्रतिशत किया जाता है|
वर्तमान में धान्य फसलों के प्रबंधन की उन्नत तकनीकियों के अपनाने के पश्चात् भी प्राप्य ऊपज की अधिकतम 75 से 80 प्रतिशत ऊपज ही प्राप्त की जा सकी है| खाद्यान्नों की प्राप्त ऊपज और प्राप्य ऊपज के अंतर को कम करने में उर्वरकों के उपयोग दक्षता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है|
जिसके लिए क्षेत्रानुसार, जलवायु और मिटटी को ध्यान में रखते हुए फसलों की पोषक तत्वों की आवश्यकता के आधार पर उर्वरकों की समुचित और संतुलित मात्रा का प्रयोग किया जाना अति आवश्यक है| इस लेख में उर्वरकों एवं पोषक तत्वों का कृषि में महत्व और इनके कार्य, नुकसान और फायदे का उल्लेख किया गया है|
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उर्वरकों एवं पोषक तत्वों की प्रमुख चिंताएं
1. उर्वरकों एवं पोषक तत्वों से मिटटी में निरंतर कार्बनिक पदार्थ की कमी एवं भंडारित पोषक तत्वों में कमी का होना|
2. उर्वरकों एवं पोषक तत्व उपयोग दक्षता में कमी (नत्रजन 30 से 40 प्रतिशत, फास्फोरस 15 से 20 प्रतिशत, पोटाश 40 से 50 प्रतिशत एवं जिंक 2 से 5 प्रतिशत)|
3. उर्वरकों एवं पोषक तत्वों द्वारा मिटटी में पोषक तत्व चक्र में कमी|
4. मिटटी में प्रमुख पोषक तत्वों नत्रजन, फास्फोरस, जिंक, लौह, सल्फर, पोटाश और बोरान इत्यादि में कमी आना|
5. पोषक तत्वों (फास्फोरस, पोटाश एवं जिंक) का मिटटी में निर्धारण होते जाना|
6. उर्वरकों का संतुलित मात्रा में प्रयोग (8.2: 3.2:1) के कारण मिटटी में अन्य पोषक तत्वों की उपलब्धता में कमी|
7. वाष्पीकरण, लीचिंग और डिनाईटिफिकेशन द्वारा मिटटी में पोषक तत्वों की हानि|
8. भूमिगत जल के अति उपयोग और उचित जल निकासी प्रबंधन में कमी के कारण मिटटी में लवण की समस्या|
9. उर्वरकों के अधिक उपयोग से भूमिगत जल के अति उपयोग के कारण जल-स्तर में गिरावट|
इस लेख में उर्वरकों एवं पोषक तत्वों नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, जिंक एवं आयरन के महत्त्व का वर्णन किया गया है|
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उर्वरकों एवं पोषक तत्वों में नत्रजन के प्रमुख कार्य
किसान भाइयों नत्रजन फसलों के लिए सबसे आवश्यक तत्व इसलिए आपको इसका महत्व जानना चाहिए| जो इस प्रकार है, जैसे-
1. पौधों की तेजी से वानस्पतिक वृद्धि, पत्तियों के आकार में बढ़ोत्तरी एवं पुष्पगुच्छ में दानों की संख्या में वृद्धि करना|
2. नत्रजन की मात्रा फसल की पैदावार बढ़ाने में सहयोगी सभी कारकों को प्रभावित करती है|
3. पौधे की पत्ती के रंग से नत्रजन की आवश्यकता का निर्धारण किया जा सकता है, जिसका पौधे में पादप संश्लेषण की क्रिया और उत्पादन पर सीधा प्रभाव पड़ता है|
4. जब फसल के नत्रजन की पर्याप्त मात्रा दी जाती है, तो यह फसल में अन्य पोषक तत्वों फास्फोरस और पोटाश की मांग को बढ़ाने में सहायक होती है|
5. फसल के दानों में प्रोटीन घटक में बढ़ोतरी होती है|
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नत्रजन की कमी के लक्षण
1. पौधों की वृद्धि में रूकावट होना|
2. पौधों के शुष्क पदार्थ में कमी और अन्य पोषक तत्वों की ग्रहणता में कमी|
3. तने का कमजोर होना जिसके कारण खड़ी फसल का गिरना|
4. पादप संश्लेषण क्षमता कम होना जिसके कारण पत्तियों में पीलापन होना|
5. फसल की ऊपज में कमी आना|
नत्रजन की अधिकता के कारण हानि
1. अन्य पोषक तत्वों की उपलब्धता प्रभावित करना|
2. फसल में कीट और रोग के प्रकोप में बढ़ोतरी|
3. फसल की अत्यधिक वृद्धि के कारण फसल का गिरना|
4. अविकसित दानों की संख्या में वृद्धि|
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नत्रजन प्रबंधन
1. सदैव स्थान विशेष या फसल विशेष के लिए संस्तुति की गई मात्रा का प्रयोग|
2. सिंचित क्षेत्र में नत्रजन की कुल मात्रा का 3 समान भागों में प्रयोग|
3. पौध की रोपाई के तीन सप्ताह तक धीमी वृद्धि के कारण नत्रजन की रोपाई के समय अधिक मात्रा का प्रयोग न करना|
4. नत्रजन की दूसरी मात्रा का रोपाई के तीन सप्ताह पश्चात् कल्ले निकलते समय प्रयोग|
5. नत्रजन की तीसरी मात्रा का पुष्पगुच्छ निकलने की अवस्था में प्रयोग|
6. मिटटी में कार्बनिक पदार्थ की उचित मात्रा का प्रबंध|
उर्वरकों एवं पोषक तत्वों में फास्फोरस के प्रमुख कार्य
किसान भाइयों फास्फोरस का संतुलित प्रयोग कर के आप अच्छी पैदावार का भरोसा कर सकते है, जो इस प्रकार है, जैसे-
1. पौधों की वृद्धि और जड़ों के विकास में सहायक|
2. उर्जा के संचयन के लिए और पौधे में इसके स्थानांतरण में अति सहायक|
3. पौधे के अन्दर गतिशीलता बढ़ाने के कारण कल्लों की फुटाव को प्रोत्साहित करना और फसल की अगेती पकाई में सहायक|
4. पौधे की प्रारम्भिक वृद्धि अवस्था के लिए अति आवश्यक|
5. पौधे के तने को मजबूती प्रदान करता है, जिससे फसल गिरती नहीं|
6. पौधों में रोगों के प्रति सहनशक्ति में वृद्धि करना|
7. अधिक नत्रजन की मात्रा को संतुलित करने में सहायक|8. पौधों के उत्तकों की वृद्धि में सहायक|
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फास्फोरस की कमी के लक्षण
1. पौधे छोटे रह जाते हैं, जड़ों का विकास रुक जाता है|
2. पत्तियों के किनारे लाल–भूरे रंग के हो जाते हैं, लक्षण पुरानी पत्तियों पर पहले दिखाई देते हैं|
3. अधिक कमी होने पर तना गहरा पीला पड़ जाता है|
4. पौधे में पुष्पण प्रक्रिया और फसल परिपक्वता देर से होती है|
5. दानों की संख्या एवं भार में कमी आ जाती है|
फास्फोरस का प्रबंधन
1. फास्फोरस का सदैव रोपाई से पहले मिटटी में प्रयोग करना, क्योंकि जड़ों के विकास और कल्लों के निर्माण में फास्फोरस का महत्वपूर्ण योगदान है|
2. फास्फोरस का अति गतिशील होने के कारण पौधों की जड़ों के पास ही प्रयोग करना|
3. अत्यधिक नत्रजन और पोटाश के प्रयोग से मिटटी में फास्फोरस की कमी हो जाती है|
4. फास्फोरस अत्यधिक मात्रा के प्रयोग से यह मिटटी में स्थिर हो जाता है एवं पौधे को प्राप्त नहीं हो पाता|
5. फास्फोरस का प्रयोग जिंक के साथ नहीं करना चाहिए|
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उर्वरकों एवं पोषक तत्वों में पोटाश के प्रमुख कार्य
किसान भाइयों विशेषज्ञों की खेती हेतु यह आम कहावत है, की जिसने “पोटेशियम के गुणों को जिसने जाना हीरे मोती सा उगाया उसने दाना-दाना” इसके कार्य इस प्रकार है, जैसे-
1. पादप संश्लेषण उपरांत पौधे में बने पदार्थ को पौधों की कोशिकाओं आदि तक पहुँचाने में सहायक|
2. पौधों की कोशिकाओं को मजबूती प्रदान करना|
3. प्रति पुष्पगुच्छ में दानों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ दानों के वजन में बढ़ोत्तरी करना|
4. जैविक और अजैविक तनाव के प्रति पौधों में सहनशीलता बढ़ाना|
5. पौधों में कल्लों और शाखाओं में वृद्धि करना|
6. पौधों पर प्रतिकूल जलवायु के दुष्प्रभावों को कम करना|
पोटाश की कमी के लक्षण
1. पुरानी पत्तियों के किनारे सूख कर पीले-भूरे पड़ जाते हैं|
2. पौधों के तने कमजोर हो जाते हैं एवं पौधे आसानी से गिर जाते हैं|
3. दाने सिकुड़े हुए दिखाई देते हैं|
4. फसल की गुणवत्ता और ऊपज में कमी हो जाती है|
5. पत्ती के भूरे धब्बे के प्रकोप में बढ़ोत्तरी|
6. फसल में रोग जैसे शीथ-ब्लाईट, जीवाणु जनित अंगमारी, तना गलन और ब्लास्ट का प्रकोप अधिक हो जाता है|
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पोटाश का प्रबंधन
1. पोटाश का प्रयोग फास्फोरस के साथ मिटटी में पडलिंग के दौरान करना अच्छा रहता है|
2. अधिक अवधि वाली किस्मों और उच्च पैदावार वाली किस्मों में पोटाश का प्रयोग दो बार (आधी मात्रा रोपाई के समय एवं आधी मात्रा पुष्पगुच्छ बनने की प्रक्रिया पर) करने से अच्छे परिणाम मिलते हैं|
3. पोटाश के अत्यधिक प्रयोग से पौधों में कैल्शियम, मैग्नीशियम और लौह तत्व की कमी हो जाती है|
उर्वरकों एवं पोषक तत्वों में जिंक के प्रमुख कार्य
1. जिंक पौधे में होने वाली विविध जैव रासायनिक प्रक्रिया के लिए अति आवश्यक|
2. पौधे की जड़ों में इकठ्ठा रहता है एवं आवश्यकतानुसार पौधे के विभिन्न भागों में स्थानांतरित हो जाता है|
3. नत्रजन, फास्फोरस और पोटाश के भरपूर उपयोग हेतु जिंक अति आवश्यक तत्व है|
4. पौधे में क्लोरोफिल के निर्माण में अति आवश्यक|
5. प्रोटीन के निर्माण के लिए न्यूक्लिक एसिड के निर्माण को प्रोत्साहित करता है|
जिंक की कमी के लक्षण
1. पौधा बौने आकार के रह जाते है|
2. रोपाई के 2 से 4 सप्ताह पश्चात् ही पौधे की ऊपरी पत्तियों पर भूरे धब्बे युक्त धुल कण दिखाई देते है|
3. पौधे में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में कमी आ जाती है|
4. अनियमित फसल खड़ी दिखाई देती है|
5. नई निकलने वाली पत्तियों का आकार छोटा रह जाता है|
6. फसल की परिपक्वता भी अनियमित हो जाती है|
जिंक का प्रबंधन
1. जिंक तत्व जिंक सल्फेट उर्वरक द्वारा दिया जा सकता है|
2. जिंक सल्फेट का प्रयोग मिटटी में छिड़काव द्वारा या फसल में जिंक के घोल के छिड़काव द्वारा किया जा सकता है|
3. फास्फोरस उर्वरक और जिंक के प्रयोग में एक सप्ताह का समय रखना आवश्यक है|
4. जिंक की अत्यधिक मात्रा के प्रयोग से आयरन की कमी हो सकती है|
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उर्वरकों एवं पोषक तत्वों में लौह तत्व के कार्य और कमी के लक्षण
1. अधिक पी एच वाली मिटटी में सामान्यतया लौह तत्व की कमी पाई जाती है|
2. यह क्लोरोफिल के निर्माण में उत्प्रेरक का कार्य करता है|
3. पौधे के मेटाबोलिजम निर्माण में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में सहायक होता है|
4. आमतौर पर नई उत्पन्न पत्तियां पीले-सफेद रंग की हो जाती है|
5. नई पातियों की शिराएँ सफेद रंग की प्रतीत होने लगती हैं|
6. पत्तियां शिरे की ओर से नीचे की ओर सूखने लगती है|
7. लौह तत्व की अधिकता से पोषक तत्वों की उपलब्धता में असंतुलन होने लगता है|
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