कृषि न केवल भारतीयों के जीविकोपार्जन का साधन है, बल्कि बहुत से उद्योग धन्धों एवं व्यापारों का प्रबल साधन भी है| भारत एक कृषि प्रधान देश है तथा यहां के लोगों के लिए कृषि ही उनकी आर्थिक स्थिति की रीढ़ की हड्डी है| ऐसे कृषि प्रधान देश में कृषि की अच्छी पैदावार के लिए फसलों के अन्य प्रबंधन के साथ ही सही एवं समय से सिंचाई प्रबंधन करना भी नितान्त आवश्यक है| प्रबंधन के अनेक घटकों में एक प्रमुख घटक है, नवीन विकसित दक्ष सिंचाई तकनीकें| इस लेख में कृषि में सिंचाई जल की कुछ दक्ष सिंचाई तकनीकों का संक्षिप्त में वर्णन किया गया है|
आज जो हम कृषि योग्य भूमि पर फसलों को उगाते हैं, उसमें से बहुतायत फसलें हमारे यहां वर्षा आधारित हैं| वर्षा के पानी को हम कृषि कार्यों या फसलों की सिंचाई के लिए लेते हैं, तो उसे वर्षारित खेती या कृषि कहते हैं| इसके अलावा जो वर्षा का जल विभिन्न माध्यमों से तालाबों, कुओं, नदी, नालों आदि में इकट्ठा हो जाता है, उस जल को भी हम सिंचाई के रूप में प्रयोग करते हैं| जिससे हमें फसलों की अच्छी उपज प्राप्त होती है|
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कृषि सिंचाई की योजनाएं
योजना आयोग ने सिंचाई साधनों से सम्बन्धित सभी कार्यक्रमों और योजनाओं को मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया है, जो इस प्रकार है, जैसे-
1. बड़ी सिंचाई योजनाएं
2. मध्यम सिंचाई योजनाएं
3. लघु या छोटी सिंचाई योजनाएं
बड़ी सिंचाई योजनाएं- बड़ी सिंचाई योजनाओं के अन्तर्गत उन योजनाओ या कार्यक्रमों को रखा जाता है जो 10,000 हेक्टेयर से अधिक कृषि योग्य भूमि को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराती है| जैसे- राजस्थान नहर परियोजना, चम्बल परियोजना, हीराकुण्ड परियोजना, दामोदर और भाखड़ा नांगल परियोजना आदि हैं|
मध्यम सिंचाई योजनाएं- मध्यम सिंचाई परियोजना में वह कृषि योग्य भूमि आती है, जिसका क्षेत्रफल 2000 से 10,000 हेक्टेयर तक होता है| ऐसे सिंचाई सुविधाओं वाले क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की छोटी नहरों का निर्माण किया जाता है|
लघु या छोटी सिंचाई- इस अन्तिम योजना में वह क्षेत्र आता है जो 2000 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल का होता है। ऐसे क्षेत्र में कृषि योग्य परिक्षेत्र के अन्तर्गत हम विभिन्न प्रकार के कुएं ,तालाब, नलकूप व छोटी नहरों आदि का निर्माण करते है|
उपरोक्त परियोजनाओं के माध्यम से बृहद् रूप से कृषि योग्य भूमि को सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती है| अगर हम सिंचाई के क्षेत्र में सही से समस्त उपलब्ध संसाधनों का सम्पूर्ण प्रयोग करे तो पायेंगे कि हम सिंचाई की सुविधाओं पर आत्म निर्भर हैं| फिर भी उपज हमारी क्यों स्थिर है, क्या कारण है, कि हमारी कृषि या कृषि उपजें घाटे का सौदा साबित हो रहे हैं| विचार-विमर्श के बाद एक बात सामने निकल कर आती है, वो है प्रबंधन| जी हाँ, हमारे पास सिंचाई जल का सही तरीके से प्रबंधन न होने के कारण हम सम्पूर्ण लाभ नहीं उठा पाते हैं|
सम्पूर्ण विश्व के समस्त देशों में उपलब्ध जल की मात्रा और उनकी कृषि कार्य में उपयोगिता पर एक नजर डाले तो पता चलता है, कि भारत में कुल उपलब्ध जल का सर्वाधिक भाग कृषि में प्रयुक्त हो रहा है, जो लगभग 93 प्रतिशत (उपलब्ध कुल जल 1850 घनकिमी) है| थोड़ा विस्तृत रूप से देखें तो पाते है, कि अधिकृत तौर पर ऐसा अनुमान है, कि सिंचाई के लिए स्रोत से निकाले गये कुल जल का 40 से 45 प्रतिशत जल खेत तक पहुंचने से पहले ही नालियों से रिस कर व्यर्थ हो जाता है| केवल 55 से 60 प्रतिशत जल ही सिंचाई के लिए प्रयुक्त हो पाता है|
इतना ही नहीं कृषकों को जानकारी के अभाव में यानि कि फसल की जल मांग या सिंचाई के लिए कितने पानी की आवश्यकता है, आदि की वैज्ञानिक रूप से जानकारी न होने के कारण लगभग 15 प्रतिशत जल खेती में अनावश्यक प्रयोग किया जाता है, यानि की दूसरे शब्दों में कहे तो पता चलता है| इस जल का सही प्रबंधन कर लिया जाये तो भविष्य में अच्छी फसल के उत्पादन के साथ-साथ भूजल का भण्डारण भी कर सकते हैं तथा जल का उचित नियोजन भी कर सकते हैं, जो कि अत्यन्त आवश्यक है|
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कृषि सिंचाई के प्रचलित घटक
प्रबंधन के अनेक घटकों में एक प्रमुख घटक है नवीन विकसित सिंचाई तकनीकें सिंचाई की इन नवीन तकनीकों को अपनाकर सिंचाई जल का सही प्रयोग कर कुशल जल प्रबंधन कर सकते है| वर्तमान में प्रचलित कुछ दक्ष सिंचाई तकनीकों का संक्षिप्त में वर्णन इस प्रकार है, जैसे-
1. बौछार सिंचाई पद्धति
2. टपक सिंचाई विधि
3. पाईप विधि
4. गेहूं में फर्ब
5. धान में श्री पद्धति, इत्यादि|
बौछार सिंचाई पद्धति
यह एक प्रकार की सिंचाई पद्धति है, इसके अन्तर्गत पानी बारिस की बूदों की तरह फसल पर गिरता है| इसका सबसे बड़ा फायदा यह है, कि इसमें जमीन के समतल न होने पर भी फसलों को पानी समान रूप से दिया जा सकता है| इसके मुख्य भाग कमशः पम्प, बडी नली या मुख्य नली, मध्यम नली, पानी उठाने वाली नली और पानी छिडकने का फौव्वारा इत्यादि है|
इस विधि से सिंचाई करने पर लगभग 30 से 50 प्रतिशत तक सिंचाई जल की बचत की जा सकती है| ध्यान रहे जब इस विधि से सिंचाई कर रहें हो तो उस समय हवा का बहाव बहुत तेजी से न हो या हवा का बहाव 15 किलोमीटर प्रति घण्टा की दर से अधिक नहीं होना चाहिए|
टपक सिंचाई पद्धति
यह विधि सिंचाई के लिए महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ बहुत अच्छी विधि भी है| क्योंकि इसमें पानी सीधे पौधों की जड़ों पर जाता है, जिसका समुचित प्रयोग पौधों द्वारा कर लिया जाता है| इसका विकास इजराइल में सन 1940 ई. में हुआ था| आजकल इस विधि से गन्ना, कपास, टमाटर, मक्का, अमरूद, नारियल, नीबू, अंगूर आदि फसलों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुजरात और राजस्थान इत्यादि राज्यों में अपनाया जा रहा है| इस पद्धति में लगभग 35 से 40 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत की जा सकती है|
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पाईप सिस्टम
विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा बौछार टपक बूंद और पाईप सिस्टम पर किसानों को अनुदान स्वरूप सुविधाएं प्रदान करायी जाती हैं, जिससे उंची नीची भूमि पर भी आसानी से सिंचाई की जा सकती है| इस विधि से सिंचाई करने पर 10 से 15 प्रतिशत जल की बचत होती है|
गेहूं में फर्ब विधि से सिंचाई
इस विधि से गेहं मे सिचाई करते हैं जिससे कम मात्रा में सिंचाई जल का नुकसान होता है यानि लगभग 30 से 40 प्रतिशत सिंचाई जल को हम इस विधि से बचा सकते है| इस विधि द्वारा हम कूड़ों में गेहूं की बुआई करते हैं, और उसी में ही सिंचाई के लिए जल का प्रवाहित करते हैं| जिससे अतिरिक्त जल बर्बाद होने से बच जाता है|
धान में श्री विधि
यह धान को उगाने की विधि है, इसमें हम धान के पौधों को निश्चित दूरी पर केवल एक ही पौधा लगाते हैं, एक साथ कई पौध नहीं लगाए जाते हैं| यदपि धान अधिक जलमॉग वाली फसल है, लेकिन श्रीविधि (एसआरआई) के द्वारा 15 से 20 प्रतिशत सिंचाई जल को बचा सकते हैं, जो कि हमारी अगली फसल में काम आ सकता है| शोध से पता चला है, कि धान की एक किलोग्राम अनाज लेने के लिए परम्परागत तरीके से 2800 लीटर पानी की आवश्यकता होती थी| जबकि इस विधि द्वारा 1500 लीटर ही पानी से एक किलोग्राम धान पैदा किया जा सकता है|
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हमारा दायित्व
उपरोक्त सिंचाई विधियों को अपनाने के साथ-साथ अन्य कुछ बातों को भी ध्यान रखने की भी आवश्यकता है, जैसे-
1. सिंचाई जल की समस्या का समाधान अत्याधिक भूजल का दोहन करके पूर्ण नहीं किया जा सकता बल्कि वर्षा जल को उसी जमीन पर संग्रहण करके किया जा सकता है| जिसके लिए सरकार द्वारा समय-समय विभिन्न कदम उठाये जाते हैं, जैसे कि समेकित जलागम प्रबंधन कार्यक्रम (आई डब्ल्यू एम पी) इस कार्यक्रम के अन्तर्गत पूर्व में संचालित 3 कार्यक्रमों समेकित जलागम विकास कार्यक्रम, ड्राट प्रान एरिया प्रोग्राम तथा मरूस्थल विकास कार्यक्रम को जोड़कर बनाया गया है|
जिसका उद्देश्य है मिटटी, वनस्पति और जल को संरक्षित तथा विकसित करना, जिसमें वर्षा जल के संरक्षण के साथ-साथ भूजल पुनर्भरण की भी बात कही गयी है एवं वर्तमान में इस कार्यक्रम के अन्तर्गत अच्छा कार्य चल रहा है| वर्तमान समय में नदियों को आपस में जोड देने पर भी विचार चल रहा है, जिससे वर्षा का पानी समुद्र में न जाकर नदियों में बना रहेगा तथा सिंचाई के लिए प्रयोग में लिया जा सकता है|
2. फसलचक को इस तरह योजनाबद्व करें, कि वर्षाती जल का सम्पूर्ण उपयोग हो, साथ ही वही फसले बोई जानी चाहिए, जिनकी जल मांग क्षमता कम हो, खास कर उन क्षेत्रों में जहां सिंचाई जल की अनुपलब्धता हो|
3. आवश्यकता से अधिक जल को खेत में न रखा जाये, फसल को जल भराव से बचाते हुए फसलों की जलमांग के अनुसार ही सिंचाई की जानी चाहिए|
4. जल ही जीवन है, इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी के साथ बचाया जाये, व्यर्थ न बहाया जाये एवं सही प्रयोग किया जाये क्योंकि पौधे का भी प्रथम भोज्य जल ही है|
सार- कृषि का सम्पूर्ण लाभ बिना जल प्रबंधन के संभव नही है| जल को प्राथमिक जिम्मेदारी के साथ सही एवं दक्ष प्रयोग किया जाये तो कृषि से अपेक्षित लाभ दूर नहीं है|
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