केला में अनेक कीट एवं रोग हानी पहुचाते है| जिनमें उकठा रोग, लीफ स्पॉट, एन्छेक्नोज, शीर्ष गुच्छा रोग और धरी विषाणु रोग प्रमुख है| जो की ज्यादातर कवक एवं विषाणु के द्वारा फैलते है| इसी प्रकार कीटों में प्रमुख है, प्रकन्द छेदक, तना भेदक, माहू, थ्रिप्स और पत्ती खाने वाली इल्ली प्रमुख है| जो की केला की फसल को आर्थिक स्तर से अधिक नुकसान पहुंचाते है|
यदि केला उत्पादक बन्धु अपनी फसल से इच्छित और गुणवत्तापूर्ण उत्पादन चाहते है| तो इन सब की रोकथाम आवश्यक है| इस लेख में बागवान बन्धुओं के लिए केला की फसल के प्रमुख कीट एवं रोग और उनकी रोकथाम कैसे करें की जानकारी का विस्तार से उल्लेख किया गया है| केले की वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी कैसे करें की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- केले की खेती कैसे करें
रोग एवं रोकथाम
पनामा बिल्ट या उकठा रोग- यह बीमारी फ्यूजेरियम अरक्सीस्पोरम नामक फफूंद के द्वारा फैलती है| केला के पौधे की पत्तियां मुरझाकर सूखने लगती हैं| केले का पूरा तना फट जाता है| प्रारंभ में पत्तियां किनारों से पीली पडती हैं| प्रभावित पत्तियां डण्ठल से मुड़ जाती हैं| प्रभावित पीली पत्तियां तने के चारों ओर स्कर्ट की तरह लटकती रहती हैं|
आधार पर (निचले भाग) तने का फटना बीमारी का प्रमुख लक्षण है| बैस्कूलर टिश्यू जड़ों और प्रकंद में पीले, लाल तथा भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते हैं| पौधा कमजोर हो जाता है| जिसके कारण पुष्पन और फलन नहीं होता है| इस बीमारी की फफूंद जमीन में अनुकूल तापक्रम, नमी की स्थिति में लम्बी अवधि तक रहती है|
नियंत्रण-
1. गन्ना और सूरजमुखी के फसल चक्र को अपनाने से बीमारी का प्रकोप कम हो जाता है|
2. सकर्स को लगाने के पूर्व 0.2 प्रतिशत बाबिस्टीन के घोल में 30 मिनट तक डुबोकर लगाना चाहिए|
3. ट्राइकोडर्मा बिरिडी जैविक फफूंद नाशक का उपयोग करना चाहिए|
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लीफ स्पाट (सिंगाटोका)- यह बीमारी स्यूडोसर्कोस्पोरा म्यूसी फफूंद के कारण होती है| इस बीमारी के प्रकोप से पत्तियों में क्लोरोफिल की कमी हो जाती हैं| क्योंकि टिशू हरे से भूरे रंग के हो जाते हैं| धीरे-धीरे पौधे सूखने लगते हैं|
प्रारंभ में पत्तियों पर छोटे धब्बे दिखायी देते हैं| फिर यह पीले या हरी पीली धारियों में बदल जाते हैं, जो पत्तियों को दोनों सतहों पर दिखायी देते हैं| अंत में, यह धारियां भूरी एवं काली हो जाती हैं| धब्बों के बीच का भाग सूख जाता है|
नियंत्रण-
1. केला की प्रभावित सूखी पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए|
2. फफूंद नाशक दवाएँ जैसे डाइथेन एम- 45, 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या बाविस्टीन 1 मिलीलीटर प्रति लीटर या प्रोपीक्नोजोल 0.1 फीसदी का छिड़काव टिपरल के साथ अक्टूबर माह से 3 से 4 छिड़काव 2 से 3 सप्ताह के अतंराल से करने से बीमारी पर नियंत्रण रखा जा सकता है|
एन्छेक्नोज- यह बीमारी कोलेट्रोट्राईकम मुसे नामक फंफूद के कारण फैलती है| यह बीमारी केले के पौधे में बढ़वार के समय लगती है| इस बीमारी के लक्षण पौधों की पत्तियों, फूलों और फल के छिलके पर छोटे काले गोल धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं| इस बीमारी का प्रकोप जून से सितम्बर तक अधिक होता है, क्योंकि इस समय तापक्रम ज्यादा रहता है|
नियत्रण-
1. प्रोक्लोराक्स 0.15 प्रतिशत या कार्वेन्डिज्म 2 ग्राम प्रति लीटर पानी का धोल बनाकर छिड़काव करें|
2. केले को तीन चौथाई परिपक्वता पर काटना चाहिए|
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शीर्ष गुच्छा रोग (बंचीटाप)- पत्तियों की भीतरी मिडरिब की द्वितीयक नसों के साथ अनियमित गहरी धारियां शुरू के लक्षण के रूप में दिखाई देती हैं| ये असामान्य लक्षण गहरे रंग की रेखाओं में एक इंच या ज्यादा लम्बे अनियमित किनारों के साथ होते हैं|
पौधों का ऊपरी सिरा एक गुच्छे का रूप ले लेता है| पत्तियां छोटी व संकरी हो जाती हैं| किनारे ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं| डंठल छोटे व पौधे बौने रह जाते हैं तथा फल नहीं लगते हैं| इस बीमारी के विषाणु का वाहक पेन्टोलोनिया नाइग्रोनरवोसा नामक माहू है|
नियन्त्रण-
1. केला के रोग ग्रसित पौधों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिये|
2. रोग वाहक कीट नियंत्रण के लिये मेटासिस्टोक्स 1. 25 मिलीलीटर या डेमेक्रान 0.5 मिलीलीटर दवा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये|
3. रोग रहित सकर्स का चुनाव करें|
केले का धारी विषाणु रोग- इस बीमारी के कारण प्रारंभ में पौधों की पत्तियों पर छोटे पीले धब्बे दिखायी देते हैं| जो बाद में सुनहरी पीली धारियों में बदल जाते हैं| क्लोरोटिक धारियां पत्तियों के लेमिना पर काला रूप लिये नेक्रोटिक हो जाती हैं|
घेर का बाहर न निकलना, बहुत छोटी घेर निकलना और फलों में बीज का विकास प्रभावित होना पौधों के प्रमुख लक्षण हैं| इस रोग का विषाणु मिलीबग और प्लेनोकोकस सिट्री के द्वारा फैलाया जाता है|
नियंत्रण- केला के प्रभावित पौधों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिये और मिलीबग के नियंत्रण के लिये कार्बोफ्यूरान की डेढ़ किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन में डालें|
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कीट एवं नियंत्रण
केला प्रकंद छेदक (राइजोम बीबिल)- यह कीट केला के प्रकंद में छेद करता है| इसकी इल्ली प्रकंद के अन्दर छेद करती है| परन्तु वह बाहर से नहीं दिखायी देती है| कभी-कभी केला के स्यूडोस्टेम में भी छेद कर देता है| इन छिद्रों में सड़न पैदा हो जाती है|
नियंत्रण-
1. प्रकंदों को लगाने से पहले 0.5 फीसदी मोनोक्रोटोफास के घोल में 30 मिनट तक डुबोकर उपचारित करे|
2. अत्यधिक प्रकोप होने पर 0.03 फीसदी फास्फोमिडान के घोल का छिडकाव करें|
तना भेदक- तना भेदक कीट का मादा वयस्क पत्तियों के डंठलों में अण्डे देती है| जिससे इल्ली निकलकर पत्तियों और तने को खाती है| प्रारंभ में केला के तने से रस निकलता हुआ दिखायी देता है और फिर कीट की लार्वा द्वारा किये गये छिद्र से गंदा पदार्थ पत्तियों के डंठल पर बूंद-बूंद टपकता है| जिससे तने के अन्दर निकल रहे पुष्प प्रोमोडिया शुष्क हो जाता है| इसका प्रकोप वर्ष भर होता रहता है|
नियंत्रण-
1. मोनोक्रोटोफास की 150 मिलीलीटर मात्रा 350 मिलीलीटर पानी में घोलकर तने में इंजेक्ट करें|
2. घेर को काटने के बाद पौधों को जमीन से काटकर कीट नाशक दवा कार्वोरिल 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करने से अंडे व कीट नष्ट हो जाते हैं|
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माहू- यह कीट केला की पत्तियों का रस चूसकर उन्हें हानि पहुंचाता है और बंचीटाप वायरस को फैलाने का प्रमुख वाहक है| इस माहू का रंग भूरा होता है, जो पत्तियों के निचले भाग या पौधों के शीर्ष भाग से रस चूसता है|
नियन्त्रण- फास्फोमिडान 0.03 फीसदी या मोनोक्रोटोफास 0.04 फीसदी के घोल का छिडकाव करें|
थ्रिप्स- तीन प्रकार की थ्रिप्स केला फल (फिंगर) को नुकसान पहुंचाती है| थ्रिप्स प्रभावित फल भूरा, बदरंग, काला और छोटे-छोटे आकार के हो जाते हैं| यद्यपि फल के गूदे पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता पर इनका बाजार भाव ठीक नहीं मिलता है|
नियंत्रण- मोनोक्रोटोफास 0.05 फीसदी का घोल बनाकर छिड़काव करें और मोटे कोरे कपड़े से गुच्छे को ढंकने से भी कीट का प्रकोप कम होता है|
पत्ती खाने वाली इल्ली- इस कीट की इल्ली केला के नये छोटे पौधों की बिना खुली पत्तियों को खाती है| पत्तियों मे नये छेद बना देती है|
नियंत्रण- थायोडान 35 ई सी का छिड़काव (1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) पत्तियों पर करने से प्रभावी नियंत्रण देखा गया है|
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