खाद्य तेलों की आपूर्ति बनाए रखने के लिए सरकार रबी एवं खरीफ तिलहन (Kharif oilseeds) फसलों का उत्पादन बढ़ाने पर विशेष जोर दे रही है| ताकि खाद्य तेलों की बढ़ती कीमतों, भुखमरी व कुपोषण जैसी विश्वव्यापी समस्याओं पर काबू पाया जा सके| तिलहन उत्पादन करने वाले मुख्य राज्यों जैसे- मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में पिछले महीनों में कई बार असमय बारिश और ओले गिरने से सोयाबीन, मूंगफली,सूरजमुखी और अन्य तिलहनी फसलों को भारी नुकसान पहुंचा है|
हमारे देश में खरीफ ऋतु में पांच प्रमुख तिलहनी फसलों की खेती की जाती है| लगभग 70 प्रतिशत तिलहनी फसलें खरीफ मौसम में उगायी जाती हैं| इनमें मूंगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी, अरंडी और तिल प्रमुख हैं| इन पांच तिलहनी फसलों में सोयाबीन, मूंगफली, सूरजमुखी और तिल से खाद्य तेल प्राप्त होता है, जबकि अरंडी से प्राप्त अखाद्य तेल का प्रयोग उद्योगों और औषधियां बनाने में किया जाता है| गत दो वर्षों से सोयाबीन तिलहनी फसलों में नम्बर एक पर बनी हुई है|
पैदावार एवं मूल्य की दृष्टि से खाद्यान्नों एवं दलहनों के बाद तिलहनी फसलों का भारत की कृषि अर्थव्यवस्था तथा उद्योग जगत में बड़ा महत्व है| भारत खाद्य तेलों का उत्पादन करता है| परन्तु अपनी घरेलू मांग को पूरा करने के लिए असक्षम है| भारत दुनिया में खाद्य तेलों का सबसे बड़ा आयातक है| यहां हर वर्ष लगभग 16.6 मिलियन टन खाद्य तेल की खपत होती है| भारत अपनी खपत का लगभग आधा खाद्य तेल विदेशों से मंगाता है|
इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्राजील और अर्जेंटीना पॉम ऑयल और सोया तेल का निर्यात करने वाले प्रमुख देश हैं| घरेलू बाजार में खाद्य तेलों की खपत सालाना 5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है| अतः हर वर्ष हमें 6 से 7 मिलियन टन खाद्य तेलों का आयात करना पड़ रहा है| जिस पर हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं| वर्तमान में लोगों के खानपान में बदलाव के कारण पेस्ट्री, चॉकलेट और आइसक्रीम जैसे प्रोसेस्ड फूड की मांग बढ़ी है| इनमें खाद्य तेलों का इस्तेमाल होता है|
तेजी से बढ़ती जनसंख्या की खाद्य तेलों की मांग की पूर्ति हेतु तथा वनस्पति तेलों की आयात की समस्या से निपटने के लिए वर्ष 1986 में तिलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए “तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन” की स्थापना की गई| परिणामस्वरूप तिलहन उत्पादन और उत्पादकता में आशातीत वृद्धि हुई| जिसके कारण खाद्य तेलों के आयात में काफी कमी आई| भारतीय कृषि के लिए कम तिलहन उत्पादन एक गंभीर समस्या है| परन्तु सोयाबीन और सूरजमुखी के उत्पादन में निरंतर वृद्धि हो रही है| जबकि मूंगफली व तिल की स्थिति बहुत ही शोचनीय है|
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खरीफ तिलहन फसलों की पैदावार बढ़ाने के उपाय
खरीफ तिलहन फसलों की उन्नत किस्में
आज देश में खरीफ तिलहनों की दर्जनों से ज्यादा उन्नतशील या संकर किस्में किसानों के लिए उपलब्ध हैं| तिलहनों की ये किस्में अधिक उपज देने वाली, उच्च तेल गुणवत्ता वाली, दानों में तेल की अधिक मात्रा, कम अवधि वाली और लागत साधनों के प्रति संवेदी हैं, जिनकी बाजार में अधिक मांग है| बारानी क्षेत्रों के लिए कम समय में पकने वाली सूखा सहनशील प्रजातियों का चुनाव करना चाहिए|
खरीफ तिलहनों की उन्नतशील या संकर प्रजातियों का चुनाव स्थानीय प्रजातियों की अपेक्षा 20 से 25 प्रतिशत अधिक उपज दिला सकता है| क्योंकि ये उन्नत या संकर किस्में न केवल अधिक उपज देती हैं, बल्कि ये विभिन्न रोगों के प्रति प्रतिरोधी भी हैं| खरीफ तिलहनों की अच्छी पैदावार प्राप्त करने हेतु अपने क्षेत्र के लिए अनुमोदित उन्नतशील किस्मों का चुनाव करें| बीज किसी विश्वसनीय और प्रमाणित संस्थाओं से ही प्राप्त करना चाहिए|
बीजों की अंकुरण क्षमता कम से कम 80 प्रतिशत अवश्य हो| वर्तमान में खरीफ तिलहनों की अनेक उन्नतशील या संकर प्रजातियां विकसित की गई हैं| किसान भाई इन प्रजातियों की खेती कर अधिक मुनाफा कमा सकते हैं| तिलहनों की ये उन्नतशील या संकर प्रजातियां आजकल किसानों के बीच काफी लोकप्रिय हो रही हैं| सरकारी व निजी संस्थानों से इनका बीज आसानी से प्राप्त किया जा सकता है| संकर किस्मों की बुवाई हेतु हमेशा नये बीज का प्रयोग करें|
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खरीफ तिलहन फसलों के लिए खाद व उर्वरक
बुवाई पूर्व मृदा परीक्षण कराकर सिफारिशों के अनुसार ही रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करें| तिलहनी फसलों की अधिक उपज लेने के लिए उर्वरकों के साथ-साथ देशी खाद व जैव उर्वरकों का भी प्रयोग करें| यदि किसी कारण मृदा जांच न हो तो वहां फसल के लिए क्षेत्रीय सिफारिशों के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए| कम जीवांशयुक्त मृदाओं में 8 से 10 टन गोबर या कंपोस्ट खाद बुवाई के 15 से 20 दिन पहले डालकर मिट्टी में अच्छी तरह से मिला दें|
एक टन पैदावार होने पर मूंगफली की फसल मृदा से 58.1 किलोग्राम, नाइट्रोजन, 19.6 किलोग्राम, फॉस्फोरस और 30.1 किलोग्राम पोटाश का अवशोषण करती है| मूंगफली की अच्छी फसल के लिए सिंचित क्षेत्रों में 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फॉस्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए|
साधारणतः उत्तरी भारत की मृदाओं में जिंक व सल्फर की कमी पायी जाती है| अतः इन पोषक तत्वों की कमी को पूरा करने के लिए 20 किलोग्राम जिंक सल्फेट व 200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से जिप्सम का प्रयोग बुवाई के समय करें| कैल्शियम की कमी वाली भूमियों में जिप्सम का प्रयोग अच्छी पैदावार लेने हेतु बहुत ही आवश्यक है|
जिप्सम को पुष्पावस्था के समय पौधों के चारों ओर छिटक कर भी डाला जा सकता है| मृदा में सल्फर की कमी का मूंगफली के दानों में तेल की मात्रा और गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जबकि कैल्शियम की कमी से मूंगफली में दानों का भराव ठीक से नहीं हो पाता है| अतः मूंगफली की फसल में नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश को क्रमशः अमोनियम सल्फेट, सुपर फास्फेट व पोटेशियम सल्फेट के रूप में देना लाभकारी पाया गया है|
बरानी क्षेत्रों में 15 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस व 25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा सिंचित व बरानी क्षेत्रों में बुवाई के समय सीडड्रिल द्वारा दें| अच्छी पैदावार लेने हेतु नाइट्रोजन की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय देते हैं, क्योंकि नाइट्रोजन की शेष आवश्यकता हेतु इसमें वायुमंडल से नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता होती है|
नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश पोषक तत्वों का फसल उत्पादन पर सीधा प्रभाव पड़ता है| साथ ही फसल को इनकी अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है| अतः इन तत्वों की संतुलित एवं अनुमोदित मात्रा न दें तो उत्पादन में भारी गिरावट आ जाती है| इस तरह सूक्ष्म पोषक तत्व बहुत कम मात्रा में पौधों द्वारा लिए जाते हैं|
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परन्तु विभिन्न पादप शारीरिक क्रियाओं में इनका महत्वपूर्ण योगदान है| सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी वं अधिकता दोनों ही हानिकारक हैं| यदि मृदा में सूक्ष्म पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में हैं तो इनकी अतिरिक्त मात्रा देने से फसल को कोई विशेष लाभ नहीं होता है|
सोयाबीन- सोयाबीन के भरपूर उत्पादन हेतु अच्छी गुणवत्ता वाले उर्वरकों का विशेष योगदान है| एक टन पैदावार होने पर सोयाबीन की फसल मृदा से 66.8 किलोग्राम नाइट्रोजन, 17.7 किलोग्राम फास्फोरस और 44.4 किलोग्राम पोटाश का अवशोषण करती है| सोयाबीन की फसल में 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देने से अच्छी उपज प्राप्त होती है|
इसके अतिरिक्त 25 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करें| यदि किसान भाई फास्फोरस के लिए डी ए पी का प्रयोग कर रहे हैं, तो उन्हें अलग से सल्फर देने की आवश्यकता नहीं है| उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा बुवाई के साथ मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें| किसान भाइयों को सलाह दी जाती है, कि यदि वे तिलहनी फसलों में गोबर व कंपोस्ट खाद या जैविक उर्वरकों का प्रयोग कर रहे हैं, तो नाइट्रोजन की मात्रा संस्तुत की गई मात्रा से 20 किलोग्राम कम कर दें|
सूरजमुखी- इसकी अच्छी उपज के लिए 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें| जिसमें से आधी नाइट्रोजन बुवाई के समय सीडड्रिल द्वारा प्रयोग करें तथा शेष आधी नाइट्रोजन खड़ी फसल में प्रथम सिंचाई के बाद देनी चाहिए| सूरजमुखी की फसल प्रति टन उत्पादन के लिए क्रमशः 56.8, 25.9, 105.0 किलोग्राम नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का मृदा से अवशोषण करती है|
तिल- इसकी भरपूर पैदावार हेतु 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस तथा 30 किलोग्राम पोटाश की आवश्यकता होती है| बलुई मृदाओं में नाइट्रोजन की संपूर्ण मात्रा को तीन जबकि भारी मृदाओं में दो बार में देना चाहिए|
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खरीफ तिलहन फसलों के लिए सिंचाई प्रबंधन
सामान्यतः खरीफ ऋतु में बोयी गई फसलों को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है, परन्तु वर्षा का कोई भरोसा नहीं होता है| अतः खरीफ तिलहनों में पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए वर्षाऋतु में योजनाबद्ध तरीके से जल प्रबंधन अति आवश्यक है| तभी किसान भाई तिलहनों की अधिक उपज और लाभ प्राप्त कर सकते हैं|
फसल की क्रान्तिक अवस्था जैसे पौधों में फूल बनने के समय, फलियां बनते समय व फलियों में दाना बनने की अवस्था सिंचाई के प्रति संवेदनशील है| जिनमें पौधों को पानी मिलना नितान्त आवश्यक है| इन अवस्थाओं को क्रान्तिक अवस्थाएं कहते हैं| अतः किसान भाईयों को सलाह दी जाती है, कि यदि इन अवस्थाओं पर मृदा में नमी की कमी हो तो सिंचाई अवश्य करें, जो फसलोत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से भी लाभदायक होगा|
खरीफ तिलहनों में वर्षा से पूर्व ही खेत की मेड़ बन्दी व समतलीकरण सुनिश्चित कर लेना चाहिए| जिससे वर्षाजल का अधिकतम उपयोग फसलों में किया जा सके| साथ ही वर्षा-आधारित क्षेत्रों में वर्षा जल अनावश्यक रूप से बहकर नष्ट नहीं होता है| खरीफ फसलों में अनावश्यक पानी को निकालने की भी उचित व्यवस्था करें|
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खरीफ तिलहन फसलों के लिए जैविक उर्वरकों का प्रयोग
खरीफ तिलहनी फसलों में रासायनिक उर्वरकों के साथ जैविक उर्वरकों का भी प्रयोग किया जा सकता है| मूंगफली और सोयाबीन खरीफ मौसम में उगायी जाने वाली महत्वपूर्ण तिलहनी फसलें हैं| ये दलहनी फसलों की भांति भूमि में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ाती है| सोयाबीन की फसल 70 से 80 नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष की दर से मृदा में नाइट्रोजन स्थिर करती हैं, जिससे मृदा की उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है|
सोयाबीन व मूंगफली के बीजों को राइजोबियम नामक जीवाणु उर्वरक से अवश्य उपचारित करना चाहिए| इन फसलों की जड़ों में पाए जाने वाले जीवाणु वायुमण्डल में व्याप्त नाइट्रोजन को भूमि में स्थिर करते हैं| अतः भूमि में नाइट्रोजन की आपूर्ति कुछ हद तक बीजों को राइजोबियम से उपचारित करके की जा सकती हैं| मूंगफली व सोयाबीन तिलहनी फसलों के लिए राइजोबियम जीवाणु की विशिष्ट प्रजाति का ही चुनाव करें|
नाइट्रोजन यौगिकीकरण क्षमता को बढ़ाने के लिए बीज उपचार बुवाई के 10 से 12 घंटे पहले कर लेना चाहिए| एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई हेतु राइजोबियम जीवाणु के दो पैकेट पर्याप्त होते हैं| ये पैकेट प्रायः सभी कृषि अनुसंधान संस्थानों व कृषि विश्वविद्यालयों में मुफ्त उपलब्ध हैं| तिलहनी फसलों की खेती में उत्पादन लागत कम करने के लिए फास्फेट घुलनशील जीवाणु (पी एस बी) उर्वरक का भी प्रयोग करना चाहिए|
जिससे मृदा में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस की उपलब्धता को बढ़ाया जा सके| जीवाणु उर्वरक सस्ते और आसानी से उपलब्ध हैं और इनका प्रयोग भी सुगम है| जैविक उर्वरकों के प्रयोग से सूरजमुखी की पैदावार में 15 से 20 प्रतिशत की वृद्धि देखी गयी है| तिलहनी फसलों के लिए उपयुक्त जीवाणु उर्वरकों में एजोटोवैक्टर, एजोस्पाइरिलम, बैसीलस स्पीसीज व माइकोराइजा प्रमुख हैं|
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खरीफ तिलहन फसलों के लिए अन्तर्वती फसलें
अनिश्चित वर्षा वाले क्षेत्रों में तिलहनी फसलों को अन्तःफसल के रूप में बोना लाभदायक रहता है| कम अवधि वाली खरीफ तिलहनों की प्रजातियों को लंबी अवधि वाली धान्य फसलों जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास व अरहर के साथ अन्तःफसल एक तरह का बीमा है| जो किसान को सूखा, बाढ, कीटों व बीमारियों जैसे जैविक व अजैविक आपदाओं से बचाता है| धान्य फसलों के साथ कम अवधि में पकने वाली तिलहनी फसलें जैसे सोयाबीन, मूंगफली व तिल आदि आसानी से ली जा सकती हैं|
क्योंकि धान्य फसलों, कपास व अरहर की प्रारंभिक बढ़वार बहुत धीमी होती है| तिलहनी फसलों को अन्तःफसल के रूप में उगाने पर किसान भाई ध्यान रखें कि मुख्य फसल की संस्तुत उर्वरक की मात्रा के अलावा अन्तः फसल के लिए अनुमोदित उर्वरकों का भी प्रयोग करना चाहिए| मोटी धान्य फसलों की दो पंक्तियों के बीच तिलहनी फसलों की दो पंक्तियां बोनी चाहिए|
अन्तः फसल प्रणाली में खरपतवारों का नियंत्रण शाकनाशियों की अपेक्षा निराई-गुड़ाई द्वारा करना चाहिए| इस प्रकार अन्तःफसलीकरण से बिना लागत लगाए किसानों को अतिरिक्त आय बोनस के रूप में प्राप्त होती है| साथ ही मौसम की विपरीत परिस्थितियों में भी कम से कम एक फसल पैदावार देने में सक्षम रहती है| गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, उत्तर प्रदेश व आन्ध्र प्रदेश के अनेक भागों मे तिलहनी फसलों की अन्तःफसली खेती बहुतायत में की जाती है|
ऐसा करने से किसानों को खाद्य, चारा, दलहन इत्यादि आवश्यकताओं की भी पूर्ति हो जाती है| साथ ही,सहफसली खेती से तिलहन फसलों की पैदावार पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है| इससे न केवल फार्म संसाधनों का उचित उपयोग होता है बल्कि प्रति इकाई क्षेत्र शुद्ध लाभ भी बढ़ता है| साथ ही खरीफ ऋतु में खरपतवारों को पनपने का मौका भी नहीं मिलता है|
किसान भाई सहफसलों का चुनाव करते समय इस बात का ध्यान रखे कि तिलहन फसल शीघ्र बढ़ने वाली, जल्दी पकने वाली, कम फैलने वाली व कम पानी चाहने वाली हो| सहफसली खेती में उचित प्रजाति का चुनाव, समय पर बुवाई, उचित खाद व उचित फसल प्रबंधन आवश्यक है|
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खरीफ तिलहन फसलों में खरपतवार रोकथाम
प्रायः ऐसा देखा गया है कि किसान भाई खरीफ तिलहनी फसलों में कीट एवं बीमारियों की रोकथाम पर तो तुरन्त ध्यान देते हैं, लेकिन खरपतवारों के नियंत्रण पर ध्यान नहीं देते हैं| वे इंतजार करते हैं, कि जब खरपतवार हाथ से पकड़कर उखाड़ने लायक हो जाए तब उस खेत की निराई-गुड़ाई करेंगे| परन्तु उस समय तक खरपतवार फसलों के साथ प्रतिस्पर्धा कर काफी हानि पहुंचा चुके होते हैं|
इसलिए किसाई भाई हमेशा ध्यान रखे कि फसलों को खरपतवार प्रतिस्पर्धा के क्रान्तिक समय में खरपतवारों से मुक्त रखे| इसके लिए शुद्ध एवं साफ बीज का प्रयोग करके खरपतवारों पर प्रभावी नियन्त्रण किया जा सकता है| गर्मी के मौसम में खेतों को 3 से 4 बार हैरो एवं कल्टीवेटर से गहरी जुताई करने पर मृदा में उपस्थित खरपतवारों के बीज सूख जाते हैं तथा उनकी अंकुरण क्षमता नष्ट हो जाती है|
साथ ही मृदा में वायुसंचार अच्छा हो जाता है| एक ही तिलहनी फसल को बार-बार एक ही खेत में उगाने से उसमें खरपतवारों का प्रकोप बढ़ जाता है तथा कीट एवं बीमारियां भी अधिक लगती हैं| इसलिए आवश्यक है कि एक ही तिलहनी फसल को बार-बार एक ही खेत में न बोये| बुवाई हमेशा पंक्तियों में करनी चाहिए, जिससे निराई-गुडाई यंत्र से कतारों के बीच उगे खरपतवारों को काफी सीमा तक समाप्त किया जा सके|
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तिलहनी फसलों को अन्य फसलों जैसे- मक्का, ज्वार, बाजरा इत्यादि के साथ अन्तःफसल के रूप में उगाने से न केवल पैदावार में वृद्धि होती है, बल्कि खरपतवारों का भी नियंत्रण हो जाता है| एकीकृत खरपतवार प्रबन्धन के अंतर्गत खरपतवार नियंत्रण के विभिन्न तरीके एक साथ अपनाने से न केवल एक ही विधि से नियंत्रण पर निर्भरता कम हो जाती है| बल्कि खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण भी हो जाता है|
इस विधि का प्रमुख उद्देश्य खरपतवार नियंत्रण में शाकनाशी की मात्रा को कम करना है, जिससे इन रसायनों के पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों से बचा जा सके| साथ ही तेल व खली में इन रसायनों के अवशेष सीमित मात्रा में ही रहे| तिलहनी फसलों में प्रयोग किये जाने वाले विभिन्न शाकनाशी को बुवाई या अंकुरण के पूर्व अथवा बाद में प्रयोग के पश्चात 25 से 30 दिनों बाद निराई-गुड़ाई करने से खरपतवारों की सघनता मे काफी कमी आ जाती है|
इससे न केवल तिलहन उत्पादन बढ़ता है, बल्कि गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है| खरपतवारों को समय पर नष्ट करें जिससे मृदा नमी बेकार न जाए| उखाड़े गये खरपतवारों को फसल की दो लाइनों में बीच मे मल्च के रूप में बिछा दें, जिससे खरपतवारों के बीजों को उगने का मौका नहीं मिलेगा| यह नमी संरक्षण में भी सहायक होंगे| साथ ही भूमि में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ाने में भी सहायक सिद्ध होंगे|
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खरीफ तिलहन फसलों में कीट और रोग रोकथाम
खरीफ तिलहनी फसलों में कीटों और रोगों के प्रबंधन हेतु किसान प्रायः जहरीले कीटनाशी एवं फफूंदनाशी का छिड़काव करते हैं| फसलों में विषाक्त रसायनों का प्रयोग स्वतः ही कई गंभीर समस्याओं को जन्म देता है| जिनमें कीट-पतंगों में कीटनाशी के प्रति प्रतिरोधकता, कीटनाशक अवशेष, मृदा प्रदूषण, भूमिगत जल प्रदूषण और लाभकारी कीटों जैसे परजीवी व प्रीडेटर्स पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है|
इस तरह कीटनाशकों या फफूंदनाशकों के अत्यधिक व अनुचित प्रयोग को कम करने हेतु एकीकृत कीट प्रबंधन की सलाह दी जाती है| यह एक किफायती, पर्यावरण हितैषी और टिकाऊ उपाय है, जिसमें कीटों और बीमारियों के स्तर के आर्थिक नुकसान के स्तर से नीचे रखा जाता है| उनको अधिक नष्ट नहीं किया जाता है|
दुर्भाग्यवश एकीकृत कीट प्रबंधन (आई पी एम) पर्याप्त प्रचार-प्रसार के अभाव में किसानों में अधिक लोकप्रिय नहीं हो रहा है| तिलहनी फसलों के लिए आई पी एम के प्रमुख घटक इस प्रकार हैं, जैसे- मृदा जनित रोगों से बचाव हेतु बुवाई से पूर्व ट्राइकोडर्मा बिरिडी का 62.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मृदा में प्रयोग करें| इसके अलावा बीज जनित रोगों के लिए कार्बेण्डाजिम (बाविस्टिन) 2.0 ग्राम या थाइरम 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए|
ऐसा करने से मृदा व बीज जनित बीमारियों पर काबू पा सकते हैं| परिणामस्वरूप प्रति इकाई क्षेत्र स्वस्थ पौधों की वांछित संख्या प्राप्त होती है| यदि बीज किसी विश्वसनीय संस्था से खरीदा गया है, तो किसान भाइयों को उसे उपचारित करने की आवश्यकता नहीं है| यह बीज पहले से ही उपचारित होता है| फसल से भरपूर पैदावार के लिए व तिलहन की खेती में लागत कम करने के लिए बीज को कवकनाशी से उपचारित करना लाभदायक रहता है|
कवकनाशी एवं कीटनाशी दोनों रसायनों से बीज उपचार करने से अधिक लाभ होता है| रोगी पौधों के अवशेषों को खेत में नहीं रहने दें| कालर रोट से बचाव हेतु बीज को भूमि में अधिक गहरा न बोयें| गहरे बोये बीजों पर संक्रमण शीघ्र व अधिक होता है| रोगों से बचाव हेतु उचित फसल चक्र अपनाए|
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खरीफ तिलहन फसलों की पैदावार बढ़ाने हेतु महत्वपूर्ण सुझाव-
खरीफ तिलहनी फसलों की पैदावार बढ़ाने हेतु कुछ महत्वपूर्ण सुझाव, जैसे-
1. यदि तिलहनी फसलों में डी ए पी उर्वरक का प्रयोग कर रहे हैं तो अलग से सल्फर देने की आवश्यकता नहीं है|
2. तिलहनी फसलों के बाद तिलहनी फसल न बोयें|
3. संभव हो तो सूरजमुखी की फसल में फूल आने पर मधुमक्खी के 2 से 3 बक्से प्रति हेक्टेयर रखें|
4. सूरजमुखी परांगित फसल है, इसमें बीजों का निर्माण परागण पर निर्भर करता है| परागण के लिए मधुमक्खियों, तितलियों व अन्य लाभदायक कीड़ों की उपस्थिति आवश्यक है| अतः इस फसल पर जहरीली दवाओं का छिड़काव न करें|
5. सूरजमुखी के बीज का छिलका कड़ा होता है| जल्दी अंकुरण हेतु 12 से 18 घंटे पानी में भिगोकर रखें|
6. सूरजमुखी मध्यवर्गी फसल सुधार (मिड सीजन करेक्शन) के लिए सबसे उपयुक्त फसल है| यदि किसी कारण से खरीफ की फसल खराब हो जाए तो उसे जोतकर जमीन में संचित नमी का पूरा लाभ उठाने के लिए अगस्त में बोया जा सकता है|
7. सूरजमुखी की प्रमुख समस्या पक्षियों द्वारा उस नुकसान पहुंचाए जाने की है| क्योंकि इसके बीज स्वादिष्ट होते हैं| आजकल इस हानि को रोकने के लिए प्लास्टिक व नायलोन की जालियां भी बाजार में उपलब्ध हैं| एक बार लेने पर ये 3-4 वर्षों तक काम देती हैं|
8. मूंगफली की खुदाई उपरांत इसकी फलियों को जल्दी से जल्दी सुखाना चाहिए| फलियों में अधिक नमी होने पर पीली फफूंद (एस्पर्जीलस फ्लेवस) में एफ्लाटाक्सिन बनने का खतरा रहता है|
9. मूंगफली की फसल में सुईयां बननी शुरू होने पर निराई-गुड़ाई न करें अन्यथा सुइयां टूट जाती हैं| बुवाई के 30 दिन बाद पौधों की जड़ों के आसपास मिट्टी चढ़ानी चाहिए, जिससे पर्याप्त वायुसंचार बना रहे|
10. बीजोपचार पहले कवकनाशी से, फिर कीटनाशी से और अन्त में राइजोबियम एवं फास्फेट विलेयक कल्चर जीवाणु से करें। कभी भी कवकनाशी व राइजोबियम कल्चर का प्रयोग एक साथ ना करें|
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