गेहूं एवं जौ में सूत्रकृमि प्रबंधन, सूत्रकृमियों को फसलों के अदृश्य शत्रु की संज्ञा दी गई हैं| इन्हें खुली आंखों से देखना सम्भव नहीं है तथा ये फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं| सूत्रकृमियों द्वारा फसलों को औसतन 15 से 20 प्रतिशत नुकसान होता है| उत्तरी भारत में यह समस्या सबसे गंभीर है, लगभग 60 से 80 मिलियन रूपये का नुकसान प्रति वर्ष किसानों को इससे होता है| प्रसूत्रकृमि अदृश्य शत्रु होते हैं, इन्हें सूक्ष्मदर्शी के बिना पहचानना संभव नहीं है क्योंकि ये-
1. ये अत्यन्त सूक्ष्म (माईक्रोस्कोपिक) होते हैं|
2. ये मिट्टी, फसल अवशेष और फसलों की जड़ों में छिपे रहते हैं|
3. सूत्रकृमि जनित रोगों के लक्षण पौधों पर स्पष्ट दिखाई नहीं देते हैं|
4. सूत्रकृमियों को पहचानने वाले कुशल व्यक्तियों की कमी है|
5. सूत्रकृमियों के बारे में जानकारी का अभाव|
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गेहूं और जौ में सूत्रकृमियों का प्रभाव
1. सूत्रकृमि हमेशा समूह में रहते हैं जिसके कारण फसलों पर रोगों के लक्षण एक समान दिखाई नहीं देते|
2. सूत्रकृमि लम्बे समय तक नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखते हैं, जब तक मुख्य फसल नहीं मिलती तब तक ये सुसुप्तावस्था में पड़े रहते हैं, जैसे एन्गुयीना टीटीसाई नामक सूत्रकृमि 32 वर्ष तक एवं हिटरोडेर एवेनी 4 से 5 वर्ष तक रोग पैदा करने की क्षमता रखते हैं|
3. सूत्रकृमि दूसरे जीवों जैसे जीवाणु व कवक आदि को आश्रय प्रदान करते है, और इनके साथ मिलकर नुकसान को बढ़ा देते है तथा रोगों को जन्म देते हैं, जैसे टूण्डु रोग जो सूत्रकृमि और जीवाणु के सहयोग से होता हैं| सूत्रकृमि आमतौर पर पौधों की जड़ों और उत्तकों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे जड़े उचित मात्रा में जल और पोषक तत्व ग्रहण नहीं कर पाती है|
5. प्रारम्भिक अवस्था में जड़ों में सूजन आ जाती है एवं इनमें सूत्रकृमियों द्वारा घाव बन जाते है|
6. प्रभावित पौधों में शाखाएं कम निकलती हैं और पत्तियां पीली पड़ जाती हैं|
7. रोग ग्रसित फसलें दिन के समय मुरझाई हुई दिखाई देती हैं|
8. फूल और बीज ठीक से नहीं बन पाते एवं बालियों में दाने छोटे रह जाते हैं|
9. दाने काले भूरे एवं गोल कोकल में बदल जाते हैं, जिनमें सूत्रकृमि सुशुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं और अंकुरण के समय बाहर आकर आक्रमण शुरू कर देते हैं|
10. कभी-कभी बालियों का निर्माण नहीं हो पाता और बालियां तथा पत्तियां मुड़कर रस्सी के जैसी हो जाती है|
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गेहूं एवं जौ में सूत्रकृमि जनित रोग
1. ईयर कोकल रोग
2. टूण्डु रोग
3. मोल्या रोग
ईयर कोकल रोग- यह रोग एगुयीना ट्रीटीसाई नामक सूत्रकृमि द्वारा होता हैं, इस रोग को सामान्य भाषा में सेंहू मेमनी और गैगला रोग के नाम से भी जाना जाता है|
लक्षण- गेहूं एवं जौ में इस रोग के लक्षण प्रारम्भिक अवस्था में वानस्पतिक भागों पर दिखाई देते हैं, गेहूं एवं जौ के तने में धरातल की तरफ सूजन आ जाती हैं| पत्तियां कुंचित होकर सिकुड़ जाती हैं| पौधों की वृद्धि रुक जाती है और अधिक फुटान के कारण पौधा झाड़ीनुमा हो जाता है|
लेकिन 60 से 70 दिन बाद जैसे ही गेहूँ में बाली निकलना शुरू होती है, सूत्रकृमि दानों के अन्दर प्रवेश कर जाते हैं एवं दानों को कोकल में बदल देते हैं| गेहूं एवं जौ में ईयर कोकल रोग से ग्रसित बालियां सामान्य बालियों से मोटी और छोटी होती हैं| मादा सूत्रकृमि हज़ारों की संख्या में अण्डे देती हैं|
एक कोकल में लगभग 2800 से 3000 लार्वा (द्वितीय अवस्था के सूत्रकृमि) भरे होते हैं| इस सूत्रकृमि की द्वितीय अवस्था लार्वा ही अधिक नुकसान पहुंचाती है| छोटे आकार के काले भूरे रंग के गोल दाने बीज गॉल (कोकल) होते हैं, यही दाने बीज के साथ खेत में चले जाते हैं और रोग फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं|
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टूण्डु रोग- यह रोग एन्गुयीना ट्रीटीसाई नामक सूत्रकृमि और कोरिनेबैक्टीरीयम ट्रीटीसाई नामक जीवाणु के सहयोग से होता है|
लक्षण- गेहूं एवं जौ में इसके प्रारम्भिक लक्षण ईयर कोकल के समान ही होते हैं| लेकिन बाद में नमी की उपस्थिति के कारण इस रोग के लक्षण अधिक प्रदर्शित होते हैं| इस रोग में पौधों से नमी के कारण पीले रंग का चिपचिपा पदार्थ बाहर निकलता है और बाद में सुखकर यह कठोर परत के रूप में तने पर जमा हो जाता है| इस कारण इस रोग को येलो स्लाईम रोग भी कहते हैं|
यह रोग अधिक नमी और कम तापमान के कारण ज्यादा फैलता हैं| जीवाणु की वृद्धि के लिए नमी होना अति आवश्यक होता है| आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्रों में यह रोग अधिक फैलता है| टून्छु रोग से ग्रसित गेहूं एवं जौ में पौधे की बाली छोटी और पतली रह जाती है एवं गेहूं एवं जौ पत्तियां और बालियां रस्सी की तरह मुड़ जाती है| बालियों में दाने बहुत कम बनते हैं, जो कि पिचके व सिकुड़े हुये होते हैं, कभी-कभी दाने नहीं भी बनते हैं|
इयर कोकल और टूण्डु रोग का प्रबंधन
फसल-चक्र- एन्गुयीना ट्रीटीसाई एक विशेष प्रकार के मेजबान पौधों पर ही आक्रमण करता है, जैसे गेहूं एवं जौ इसलिए फसल-चक्र अपनाना अति आवश्यक है| गेहूं एवं जौ की फसल लेने के बाद अगले मौसम में सरसों, चना, मसूर इत्यादि की खेती करनी चाहिए| इससे उपयुक्त पोशी पौधों की अनुपस्थिति में सूत्रकृमियों का जीवन-चक पूरा न होने से इनकी संख्या कम हो जाती है|
कोकल रहित बीज की बुवाई- कोकल में ही इस सूत्रकृमि की दूसरी अवस्था भरी होती है, जो प्रमुख नुकसान पहुंचाने वाली अवस्था है, इसलिए गेहूं एवं जौ के शुद्ध बीज की बुवाई करनी चाहिए|
गर्म पानी से उपचार- गेहूं एवं जौ के बीजों को बुवाई से पूर्व 10 से 20 मिनट तक 54 से 56 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान वाले गर्म पानी में डुबोकर रखना चाहिए, जिससे इस सूत्रकृमि की दूसरी अवस्था निष्क्रिय हो जाती है|
नमक के घोल से उपचार- गेहूं एवं जौ के बीजों को बुवाई से पूर्व 20 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोना चाहिए| कोकल हल्के होने के कारण उपर तैरने लगें इन्हें अलग कर लेना चाहिए और शुद्ध बीज जो कि नीचे बैठ जाता है, उसे छानकर अलग कर लेते हैं और सुखाकर बुवाई के काम में लेना चाहिए|
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जल में डुबोना- चूंकि कोकल वजन में हल्के होते हैं, इसलिए 5 मिनट तक गेहूं एवं जौ बीज को पानी में डूबोकर रखने पर कोकल तैरने लगते हैं, जिन्हें अलग कर बाहर निकाल देना चाहिए, शुद्ध बीज भारी होने के कारण पेदी में बैठ जाता है जिसे सुखाकर बुवाई के काम में लेना चाहिए|
हवा में उड़ाना- चूंकि कोकल वजन में हल्के होते हैं इसलिए 850 आर पी एम रफ्तार वाले पंखों के सामने गेहूं एवं जौ बीज को बरसा कर शुद्ध बीज और कोकल अलग-अलग किया जा सकता है| कोकल हल्के होने के कारण दूर गिरते हैं और शुद्ध बीज नजदीक गिरता है|
छानना- बुवाई के पूर्व गेहूं एवं जौ बीजों को छानकर बुवाई के काम में लेना चाहिए, कौकल शुद्ध बीजों से छोटे होते है, जो छनकर अलग हो जाते है और शुद्ध बीज छलनी में उपर रह जाता है तथा उसे अलग कर लिया जाता है|
बीज उपचार- गेहूं एवं जौ बीजों को बुवाई से पूर्व कृष्णनील नामक खरपतवार के जलीय अर्क से उपचारित करना चाहिए, इस के लिए 600 मिलीलीटर कृष्णनील अर्क को 1.40 लीटर पानी में मिलाकर घोल तैयार करें और इस घोल को प्रति क्विंटल बीज उपचार हेतु काम में लेना चाहिए|
जैविक कवक प्रबंधन- जैव कवक आथ्रोबोट्रीस ओलीगोस्पोरा इस सूत्रकृमि के लिए जैव कारक के रूप में कार्य करता है, जो इसके कवकीय जाल द्वारा सूत्रकृमि की द्वितीय अवस्था को पंचर कर नष्ट कर देता है, उसे आगे नहीं बढ़ने देता है, दूसरी अवस्था ही नुकसान पहुंचाने वाली अवस्था होती है| रासायनिक उपचार- कार्बोफ्यूरान दानेदार 3 प्रतिशत 50 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से बुवाई से पहले मिट्टी में मिलाना चाहिए|
प्रतिरोधी किस्में- गेहूं कानरेड, पी- 87, पी सी- 633, पी सी- 87, पी सी- 171 आदि प्रमुख है|
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मोल्या रोग- यह रोग हेटेरोडेरा एवैनी नामक सूत्रकृमि द्वारा फैलता है, इसका प्रकोप सबसे अधिक उत्तरी भारत में देखने को मिलता है|
लक्षण- गेहूं एवं जौ इस रोग के लक्षण एक समान दिखाई नहीं देते हैं, चकतों में फसल छोटी रह जाती है| पौधे छोटे रह जाते हैं और पीले पड़ जाते हैं| एक खेत में लगातार गेहूं एवं जौ की खेती करने पर इस रोग के लक्षण सर्वाधिक दिखाई देते है| क्योंकि उपयुक्त गेहूं एवं जौ तथा वातावरण के कारण इनकी संख्या बढ़ जाती हैं|
रोग ग्रसित गेहूं एवं जौ के पौधों की पत्तियां संकरी रह जाती हैं, बाली निकलने में समय अधिक लगता है और बालियाँ भी कम निकलती हैं तथा उनमें दाने कम बनते हैं| जड़ तंत्र उथला रह जाता है और जड़ों में अन्तिम सिरे पर सूजन आ जाती है| पौधा झाड़ीनुमा हो जाता है, रोग ग्रस्त पौधों को खींचने पर ये आसानी से उखड़ जाते हैं| प्रति ग्राम मिट्टी में इस सूत्रकृमि की 10 पट्टीयाँ 10 प्रतिशत तक नुकसान पहुंचा सकती है|
मोल्या रोग प्रबंधन
फसल चक्र- हेरोडेरा एवेनी भी विशेष पोषी पौधों जैसे गेहूं एवं जौ पर ही जीवन-चक्र पूरा करता है, इसलिए फसल-चक्र अपनाना चाहिए|
गर्मी में गहरी जुताई- गर्मी में 4 से 5 गहरी जुताई करना चाहिए, क्योंकि इस सूत्रकृमि की पुट्टीकाएँ मिट्टी में पड़ी रहती है एवं इन्हीं पुट्टीकाओं में इस सूत्रकृमि का अण्डा और द्वितीय अवस्था लार्वा भरी होती हैं|
मई से जून के महीने में जब तापमान 45 से 48 डिग्री सेन्टीग्रेड होता है, तब गहरी जुताई करनी चाहिए| सूर्य की तेज किरणों के कारण द्वितीय अवस्था लार्वा निष्क्रिय हो जाती है और अधिक तापमान के कारण मर जाती है|
ट्रैप फसलें- इस प्रकार की फसलें उगाना चाहिए, जो सूत्रकृमि की दूसरी अवस्था को आक्रमण के लिए तो अग्रसर करे, लेकिन आगे का विकास अवरुद्ध हो जाये इससे अण्डों से दूसरी अवस्था तो बाहर आ जाती है, लेकिन आगे का विकास नहीं हो पाता तथा वह मर जाती है| ट्रैप फसल के रुप में सनई, सरसों और गेहूं की सी- 306 किस्म इत्यादि आधा कार्य करती हैं| मिश्रित फसल- जौ की राज किरण और गेहूं की कल्याण सोना किस्मों को 50 से 50 के अनुपात में मिश्रित कर बोना चाहिए|
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बुवाई का समय- अगेती बुवाई करने से सूत्रकृमि अधिक नुकसान पहुंचाता है, क्योंकि इस सूत्रकृमि की पुटीकाओं में भरे अण्डों से द्वितीय अवस्था लार्वा बाहर निकलने के लिए एक निश्चित तापमान 15 से 18 डिग्री सेन्टीग्रेड उपयुक्त होता है, जिस पर सर्वाधिक अण्डे फूटते है| देरी से बुवाई करने पर तापमान कम 12 से 15 डिग्री सेन्टीग्रेड हो जाता है|
इस पर लार्वा कम निकलते हैं, नमी के कारण भी अधिक लार्वा अण्डों से बाहर निकलते है, इसलिए पहले खेत का पलेवा करना चाहिए और बाद में बुवाई करना चाहिए| फसलों की सूखी बुवाई करने पर सूत्रकृमि अधिक नुकसान पहुंचाता है|
फसल कटाई उपरांत सिंचाई- गेहूं एवं जौ फसल काटने के बाद खेत में एक सिंचाई कर देना चाहिए, क्योंकि फसल कटने की अवस्था पर सूत्रकृमि की पुट्टीकाएँ जड़ों के बाहर मिट्टी में आ जाती हैं और जड़ों के साथ चिपकी रहती हैं| सिंचाई करने से ये पुट्टीकाएँ मुलायम हो जाती हैं और सूत्रकृमि की लार्वा अवस्था बाहर आ जाती हैं तथा पोषी पौधों के अभाव में मर जाती है|
जैविक प्रबंधन- मोल्या रोग प्रबंधन हेतु जैव कवक पेसिलोमाइसीज लीलासीनस का उपयोग करना चाहिए, इस कवक के कोनिडिया पुट्टी के अन्दर प्रवेश कर जाते हैं और परजीवी के रूप में अपड़ा व लार्वा को पंचर करते हैं एवं उन्हें नष्ट कर देते है|
प्रतिरोधी किस्में- जौ- राज किरण, डी एल- 349, डी एल- 375, डी एल- 379, डी एल- 376, सी- 164, बी एच- 75 | गेहूं- राज 1470, राज 1409, राज 1487 आदि प्रमुख है|
रसायनिक उपचार- कार्बोफ्यूरान दानेदार 3 प्रतिशत 50 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से बुवाई से पूर्व मिट्टी में मिलाना चाहिए|
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