निओवोसिया इण्डिका (टिलेशिया इण्डिका) नामक कवक द्वारा ग्रसित गेहूं का करनाल बंट रोग आशिंक बंट के नाम से भी जाना जाता है| इस रोग का प्रकोप भारतवर्ष में सर्वप्रथम सन् 1931 में हरियाणा राज्य के करनाल जिले में देखा गया था| गेहूं का करनाल बंट रोग गेहूं की फसल के लिये ज्यादा हानिकारक नही होता इसलिए शुरूआत में इस रोग पर अधिक ध्यान नही दिया गया|
लेकिन 1969 से 70 के दौरान उत्तरी भारत में गेहूं की कुछ रोग अप्रतिरोधी किस्में जिनमें एच डी 2009, डब्ल्यू एल 711 और यू पी 262, उगाई गई तो गेहूं का करनाल बंट रोग का प्रकोप उत्तरी भारत के अनेक क्षेत्रों जैसे- हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में देखा गया, जो धीरे-धीरे दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, जम्मू, मध्य प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल तक फैल गया|
लेकिन गेहूं का करनाल बंट रोग का प्रकोप भारत के कुछ प्रदेशों जैसे- महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, असम, मेघालय, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में आज भी नहीं देखा गया है| यद्यपि आर्थिक दृष्टि से गेहूं का करनाल बंट रोग अधिक महत्वपूर्ण नहीं है| लेकिन भारत में इस रोग ने पिछले कुछ वर्षों से महामारी का रूप धारण किया है|
जिस वर्ष फरवरी से मार्च के माह में हवा में जब अधिक आर्द्रता होती है और धीमी-धीमी वर्षा होती है एवं आकाश में बादल छाये रहते है| तो इस मौसम में जाता है| वर्ष 2013 से 14 के दौरान भी उत्तरी भारत में मौसम इस रोग के अनुकूल होने के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करनाल बंट का प्रकोप 15 प्रतिशत तक पाया गया| इसलिए इस रोग का प्रकोप मौसम के अनुसार प्रतिवर्ष कम या अधिक होता रहता है|
यह भी पढ़ें- दीमक से विभिन्न फसलों को कैसे बचाएं
गेहूं का करनाल बंट रोग के लक्षण
गेहूं की फसल में इस गेहूं का करनाल बंट रोग का संक्रमण पौधों में पुष्प आने की अवस्था में शुरू हो जाता है, लेकिन इनकी पहचान बालियों में दाना बनने के समय ही पता लग पाती है| पौधों की सभी बालियों और रोगी बाली में सभी दानों में संक्रमण नही होता| कुछ दाने आंशिक या पूर्ण से बंट में बदल जाते है और काले पड़ जाते है|
काले पाउडर में टीलियोस्पोर्स होते है, अधिक संक्रमण की अवस्था को छोड़कर गेहूं का करनाल बंट रोग में भ्रूण पर कवक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, बालियों में दाना पकने के समय तुशार फैल जाते है और भीतरी तुजों का भी विस्तार हो जाता है| रोगग्रस्त दाने आंशिक रूप से काले चूर्ण में बदल जाते है| गहाई के बाद निकले दानों में बीच की दरार के साथ-साथ गहरे भूरे रंग के बीजाणु समूह में देखे जा सकते हैं|
अधिक संक्रमण की अवस्था में पूरा दाना खोखला हो जाता है| केवल बाहरी परत ही शेष रह जाती है| संक्रमित गेहूं के बीज से सड़ी हुई मछली की दुर्गन्ध आती है| जो ट्राईमिथाइल अमीन नामक रसायन के कारण होती है| इस रोग में कवक की उपस्थिति पेरीकार्प तक ही सीमित होती है और भ्रूण तथा बीज की पिछली परत पर रोग के प्रकोप का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है|
हालाँकि गेहूं का करनाल बंट रोग के कारण गेहूं के उत्पादन में कोई खास हानि नही होती लेकिन गेहूं की गुणवत्ता में कमी आने से पादप संग रोध (प्लांट क्वोरेन्टाइन) गेहूं के भारत से दूसरे देशों को निर्यात प्रतिबंधित होता है| इसलिए इस रोग से ग्रसित बीज का अंकुरण पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन अधिक संक्रमण की अवस्था में पौधे अस्वस्थ उगते है|
यह भी पढ़ें- रबी फसलों में खरपतवार नियंत्रण कैसे करें
गेहूं के करनाल बंट रोग का जीवन चक्र
करनाल बंट रोग दूषित बीज और दूषित भूमि द्वारा फैलते है| कवक के टीलियोस्फोर्स गेहूं की फसल की कटाई और मढ़ाई के समय ग्रसित बीज की सतह पर चिपके रहते है तथा मृदा में बोने के बाद टीलियोस्पोर्स अंकुरित होकर वेसिडियोस्पोर्स बनाते है| जो फरवरी से मध्य मार्च तक वायु में उड़कर बालियों के निकलने और परागण होने के समय पुष्प कलिकाओं में पहुँच जाते है| इस प्रकार कवक के वेसिडियोस्पोर्स नये पुष्पों को संक्रमित कर देते है|
स्र्पोडियम 2 से 5 वर्ष तक मृदा में जिन्दा रह सकते है, एवं जब उस मृदा में स्वस्थ बीज बोया जाता है, तो खेती को इसी प्रकार संक्रमित कर देते है| इस रोग के टीलियोस्पोर्स कम से कम 2 वर्ष तक भूसा और फार्म यार्ड मैनुयॉर (गोबर की खाद) में अंकुरित नलिका (जर्म ट्यूब) बनाते है तथा 110 से 185 प्रथम स्पोडिया बनाते है, जो वायु तथा पानी द्वारा पुष्पक्रम तक पहुँच जाते है| इस प्रकार से रोग चक्र बार-बार चलता रहता है|
गेहूं का करनाल बंट रोग फैलने के कारण
रोग अप्रतिरोधी किस्मों की बुआई- भारत के गेहूं उत्पादन प्रदेशों जैसे- हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब और दिल्ली में 80 के दशक में सोनालिका, कल्याण सोना, डब्ल्यू एच- 147 और सी- 306 बोई जाती थी, जो करनाल बंट के लिये कम रोग रोधी थी, लेकिन वर्ष 1982 से 83 के बाद इन प्रजातियों की जगह एच डी 2009, डब्ल्यू एल 711 और यू पी 262 ने ली जो इस रोग से अधिक रोग रोधी नही थी| इस कारण इस रोग का प्रकोप काफी बढ़ गया|
मौसम का प्रभाव- करनाल बंट रोग के फैलने के लिए अधिकतम तापमान 19 डिग्री सेल्सियस से 23 डिग्री सेल्सियस एवं कम से कम तापमान 8 से10 डिग्री सेल्सियस होता है| गेहूं में पुष्पन के समय जब मार्च में प्रचुर मात्रा में वर्षा होती है, तो इस रोग के फैलने की संभावना अधिक हो जाती है| जनवरी से फरवरी माह में आकाश में लम्बे समय तक बादलों का छाया रहना और कई दिनों तक लगातार हल्की वर्षा होने से वायु में अधिक आर्द्रता भी रोग की संभावना को बढ़ा देता है|
अधिक सिंचाई- सिंचित अवस्था में गेहूं की फसल से अधिक उपज के लिए अधिक मात्रा में नाइट्रोजन उर्वरकों का प्रयोग भी इस रोग के प्रकोप को बढ़ा देता है|
यह भी पढ़ें- गेहूं की खेती की जानकारी
गेहूं के करनाल बंट रोग का नियंत्रण
विशेष सावधानियां-
1. उन क्षेत्रों में जहाँ मिट्टी रोग के टीलियोस्पोर्स से पीड़ित हो वहाँ कम से कम पाँच वर्षों तक फसलचक्र अपनाना चाहिए|
2. पलवार (मल्चिंग) और पोलीथीन विधि द्वारा भूमि का तापमान बढ़ाने से टीलियोस्पोर्स का अंकुरण कम किया जा सकता है|
3. सिंचाई और उर्वरकों का संतुलित मात्रा में प्रयोग किया जाये|
4. बुआई की तिथियों को विभिन्न किस्मों के बाली निकलने के समय के हिसाब से निर्धारित किया जाए जिससे टीलियोस्पार्स के अंकुरण से फसल को कोई नुकसान न हो|
5. गेहूं का करनाल बंट रोग ग्रसित बीज को एक क्षेत्र से दुसरे क्षेत में प्रयोग न किया जाये|
6. करनाल बंट रोग रोकथाम केवल साफ, प्रमाणित और स्वस्थ बीजों का चयन करें|
7. गेहूं का करनाल बंट रोग रोकथाम के लिए ग्रीष्म ऋतु में खेत की गहरी जुताई करें|
8. करनाल बंट रोग ग्रसित बालियों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए|
रोग निरोधक किस्मों का उपयोग-
गेहूं का करनाल बंट रोग को नियंत्रित करने का सबसे आसान और लाभकारी तरीका किसान बन्धुओं को रोग निरोधक किस्में जैसे- एच डी 29, एच डी 30, पी बी डब्ल्यू 502, एच पी 1731, राज 1555, डी डब्ल्यू एच 5023, एच डी 4672, डब्ल्यू एल 1562, डब्ल्यू एच 1097, डब्ल्यू एच 1100, एम ए सी एस 3828 और के आर एल 283 आदि का चुनाव करना चाहिए|
यह भी पढ़ें- गेहूं में एकीकृत उर्वरक प्रबंधन क्या है, जानिए उत्तम पैदावार की विधि
रासायनिक नियंत्रण-
करनाल बंट रोग एक मृदा, बीज और वायु जनित रोग है| इसलिए रासायनिक विधि द्वारा इस रोग को नियंत्रित करना कठिन कार्य है| परन्तु फिर भी कुछ रसायनों द्वारा इसे नियंत्रित किया जा सकता है|
बीजोपचार विधि- कुछ रसायन जैसे सीरासान, थीरम, जीनेव, औरियाफेन्जिन, ऑक्सीकार्बोक्सिन, वेनोमिल, वीटावेक्स 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बोने से पहले बीज उपचारित करें| लेकिन उपचारित बीज को खाने के लिये और अंकुरित बीज को पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए|
फसल पर छिड़काव विधि- गेहूं का करनाल बंट रोग हेतु कुछ रसायन जैसे मेंनकोजेब (0.25 प्रतिशत), कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत), ट्राईएडिमेफोन (0.2 प्रतिशत), प्रोजिकोनेजोल (टिल्ट 0.1 प्रतिशत) पुष्प निकलने की अवस्था में या प्रथम छिड़काव फरवरी के प्रथम सप्ताह में और दूसरा छिड़काव फरवरी के दूसरे सप्ताह में करना चाहिए|
जैविक नियंत्रण- गेहूं का करनाल बंट रोग हेतु फसल में ट्राइकोडर्मा विरिडी 5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से पहला छिड़काव खड़े पत्ते की अवस्था में तथा दूसरा छिड़काव लीफ अवस्था में लाभदायक होता है|
यह भी पढ़ें- बागवानी पौधशाला (नर्सरी) की स्थापना करना, देखभाल और प्रबंधन
यदि उपरोक्त जानकारी से हमारे प्रिय पाठक संतुष्ट है, तो लेख को अपने Social Media पर Like व Share जरुर करें और अन्य अच्छी जानकारियों के लिए आप हमारे साथ Social Media द्वारा Facebook Page को Like, Twitter व Google+ को Follow और YouTube Channel को Subscribe कर के जुड़ सकते है|
Leave a Reply