जौ पृथ्वी पर सबसे प्राचीन काल से उगाये जाने वाली फसलों में से एक है| अन्य रबी फसलों के मुकाबले जौ की खेती (Barley farming) मौसम की विपरीत परिस्थितियों जैसे- सूखा, कम उपजाऊ मिटटी तथा हल्की लवणीय एवं क्षारीय भूमि पर उत्पादन के लिए अधिक सक्षम है| हमारे देश में जौ की खेती मुख्यतः राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब व हरियाणा में की जाती है| इसकी खेती पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड व जम्मू एवं कश्मीर में एक महत्वपूर्ण फसल के रूप में की जाती है|
जौ की उपयोगिता प्राचीन काल से रही है| इसका प्रयोग धार्मिक अनुष्ठान व विभिन्न औषधीय रूप में होता है| इसका उपयोग रोटी, सत्तु, विभिन्न प्रकार के मादक पेय, बिस्कुट, स्वास्थ्यवर्धक पेय व दवाइयाँ बनाने में किया जाता है| जानवरों में विशेषकर दुधारु पशुओं को यह हरा चारा, सूखी भूसी, साइलेज व फीड के रूप में खिलाया जाता है| उत्पादक जौ की वैज्ञानिक तकनीक से खेती कर के इसकी फसल से अच्छी उपज प्राप्त कर सकते है| इस लेख में जौ की वैज्ञानिक तकनीक से खेती कैसे करें का विस्तृत उल्लेख है|
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जौ की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
जौ की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है| इसकी खेती के लिए अनुकूल तापमान बुवाई के समय 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त माना जाता है| इसकी खेती मुख्यतया असिंचित स्थानों पर अधिकतर की जाती है|
जौ की फसल के लिए भूमि का चयन
जौ की खेती अनेक प्रकार की भूमियों जैसे बलुई, बलुई दोमट या दोमट भूमि में की जा सकती है| लेकिन दोमट भूमि जौ की खेती के लिए सर्वोत्तम होती है| क्षारीय एवं लवणीय भूमियों में सहनशील किस्मों की बुवाई करनी चाहिये| भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिये|
जौ की खेती के लिए खेत की तैयारी
जौ की अधिक पैदाकर प्राप्त करने के लिए भूमि की अच्छी प्रकार से तैयारी करनी चाहिये| खेत में खरपतवार नहीं रहने चाहिये तथा अच्छी प्रकार से जुताई करके मिट्टी भुरभुरी बना देनी चाहिये| खेत में पाटा लगाकर भूमि समतल एवं ढेलों रहित कर देनी चाहिये| खरीफ फसल की कटाई के पश्चात् डिस्क हैरो से जुताई करनी चाहिये| इसके बाद दो क्रोस जुताई हैरो से करके पाटा लगा देना चाहिये| अन्तिम जुताई से पहले खेत में 25 किलोग्राम क्यूनालफॉस (1.5 प्रतिशत) या मिथाइल पैराथियोन (2 प्रतिशत) चूर्ण को समान रूप से भुरकना चाहिये|
जौ की खेती के लिए किस्में
जौ की खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए किसानों को अपने क्षेत्र की प्रचलित और अधिक उपज देने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए, किस्मों का साथ में विकार रोधी भी होना आवश्यक है| कुछ प्रचलित और उन्नत किस्में इस प्रकार है, जैसे-
सिंचित व समय से बुआई- डी डब्लू आर बी- 52, डी एल- 83, आर डी- 2668, आर डी- 2503, डी डब्लू आर- 28, आर डी- 2552, बी एच- 902, पी एल- 426 (पंजाब), आर डी- 2592 (राजस्थान) आदि प्रमुख है|
सिंचित व देर से बुआई- आर डी- 2508, डी एल- 88 आदि प्रमुख है|
असिंचित व समय से बुआई- आर डी- 2508, आर डी- 2624, आर डी- 2660, पी एल- 419 (पंजाब) आदि प्रमुख है|
क्षारीय एवं लवणीय- आर डी- 2552, डी एल- 88, एन डी बी- 1173 आदि प्रमुख है|
माल्ट जौ- बी सी यु- 73 अल्फा- 93, डी डब्लू आर यु बी- 52 आदि प्रमुख है|
चारा के लिए- आर डी- 2715, आर डी- 2552 आदि प्रमुख है| किस्मों की सम्पूर्ण जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- जौ की उन्नत किस्में
जौ की खेती के लिए बीजदर
जौ की खेती के लिए समय पर बुवाई करने से 100 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है| यदि बुवाई देरी से की गई है तो बीज की मात्रा में 15 से 25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर देनी चाहिये|
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जौ की खेती के लिए बीज उपचार
जौ की खेती से उपज प्राप्त करने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले बीज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है| जहाँ तक संम्भव हो सके, बीज, राष्ट्रीय बीज निगम, राज्य बीज निगम, भारतीय राज्य फार्म निगम, अनुसंन्धान संस्थानों एवं कृषि विश्वविद्यालयों से खरीदना चाहिये| बहुत से कीड़ों एवं बीमारियों के प्रकोप को रोकने के लिए बीज का उपचारित होना बहुत आवश्यक है|
कंडुआ व स्मट रोग की रोकथाम के लिए बीज को वीटावैक्स या मैन्कोजैब 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये| दीमक की रोकथाम के लिए 100 किलोग्राम बीज को क्लोरोपाइरीफोस 20 ई सी की 150 मिलीलीटर द्वारा बीज को उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये|
जौ की फसल बुवाई का समय
जौ की खेती हेतु बुवाई का उचित समय नवम्बर के प्रथम सप्ताह से आखिरी सप्ताह तक होता है| लेकिन देरी होने पर बुवाई मध्य दिसम्बर तक की जा सकती है|
जौ की खेती के लिए बुवाई की विधि
बुवाई पलेवा करके ही करनी चाहिये तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 22.5 सेंटीमीटर एवं देरी से बुवाई की स्थिति में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 सेंटीमीटर रखनी चाहिये| बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर की गहराई पर डालें अधिक गहराई पर डालने से जमाव कम एवं देर से होता है|
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जौ की खेती के लिए खाद और उर्वरक
जौ की सिंचित फसल के लिए 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस और 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है| असिंचित क्षेत्रों के लिए 40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस और 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर मात्रा पर्याप्त होती है| खेत की तैयारी के समय 7 से 10 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद डालकर अच्छी प्रकार से मिट्टी में मिला देनी चाहिये|
सिंचित क्षेत्रों के लिए फास्फोरस और पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा एवं नाइट्रोजन की आधी मात्रा को मिलाकर बुवाई के समय देना चाहिये| असिंचित क्षेत्रों के लिए सम्पूर्ण पोटाश 30 किलोग्राम, फास्फोरस 40 किलोग्राम व नाइट्रोजन 40 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई के समय पंक्तियों में देनी चाहिये| सिंचित क्षेत्रों के लिए शेष 30 किलोग्राम नाइट्रोजन की मात्रा प्रथम सिंचाई के साथ देनी चाहिये|
जौ की फसल में सिंचाई प्रबंधन
जौ की खेती से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 4 से 5 सिंचाई पर्याप्त होती है| प्रथम सिंचाई बुवाई के 25 से 30 दिन बाद करनी चाहिये| इस समय पौधों की जड़ो का विकास होता है| दूसरी सिंचाई 40 से 45 दिन पश्चात् देने से फुटान अच्छी प्रकार होता है| इसके पश्चात् तीसरी सिंचाई फूल आने पर एवं चौथी सिंचाई दाना दूधिया अवस्था में आने पर करनी चाहिये|
जौ की फसल में खरपतवार नियंत्रण
जौ की खेती में पौधों के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार जैसे- बथुआ, खरतुआ, फ्लेरिस माइनर, हिरणखुरी, मौरवा, प्याजी, दूब इत्यादि उगते हैं तथा नमी, पोषक तत्व, प्रकाश एवं स्थान के लिए फसल के पौधों के साथ प्रतिस्पर्धा कर उनकी वृद्धि और विकास को प्रभावित करते हैं एवं फसल उत्पादन कम करते हैं| फसल की अच्छी बढ़कर के लिए फसल को प्रथम 30 से 40 दिनों तक खरपतवार मुक्त रखना आवश्यक है| जौ की फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए फसल की बुवाई के दो दिन पश्चात् तक पेन्डीमैथालीन नामक खरपतवार नाशी की 3.30 लीटर मात्रा को 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर समान रूप से छिडकाव कर देना चाहिये|
इसके बाद जब फसल 30 से 40 दिनों की हो जाये तो 2, 4-डी 72 ई सी खरपतवार नाशी की एक लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर समान रूप से छिड़काव कर देना चाहिये| यदि खेत में गुल्ली डन्डा (फ्लेरिस माइनर) का अधिक प्रकोप दिखाई दे तो प्रथम सिंचाई के बाद आईसोप्रोटूरोन 75 प्रतिशत की 1.25 किलोग्राम मात्रा का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर समान रूप से छिड़काव करना चाहिये|
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जौ की फसल में रोग नियंत्रण
आवृत कंडुआ रोग- इस रोग के प्रकोप से बालियों में दाने के स्थान पर फफूंद के काले जीवाणु बन जाते हैं, जो मजबूत झिल्ली से ढके रहते हैं| रोकथाम हेतु यह बीज जनित रोग है, इसलिए प्रमाणित बीज का उपयोग करना चाहिए| कार्बण्डाजिम या दूसरे फफूंदनाशी दवा से बीज को उपचारित कर बुवाई करना चाहिए| बौनीमिल 0.2 प्रतिशत दवा से बीजोपचार करने पर आवृत कंडुआ रोग का प्रभावी नियंत्रण माना गया है|
रतुआ तथा अंगमारी- विभिन्न परीक्षणों से ज्ञात हुआ है, कि रतुआ तथा अंगमारी के नियंत्रण के लिए 0.2 प्रतिशत डाईथेन एम- 45 का चार बार छिड़काव करना चाहिए| इसके अतिरिक्त जीनेव तथा सेन्डोविट का 5 छिड़काव 14 दिन के अंतराल पर प्रभावकारी पाया गया है| जौ की खेती में रोग रोकथाम की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- जौ के प्रमुख रोग एवं रोकथाम
जौ की फसल में कीट नियंत्रण
जौ की खेती को आर्मीवर्म, वीविल, कटवर्म, तनाछेदक, चेपा समय-समय पर हानि पहुँचाते हैं| इसके नियंत्रण के लिए डाइमैथोमेट या रोगर का छिड़काव कर सकते है| दूसरे कीटों और प्रभावकारी उपायों की जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- जौ के प्रमुख कीट एवं रोकथाम
जौ फसल की कटाई
फसल के पौधे और बालियां जब सूखकर पीली या भूरी पड़ जाये तो कटाई कर लेनी चाहिये| अधिक पकने पर बालियां गिरने की आशंका अधिक हो जाती है| फसल की कटाई करने के बाद अच्छी प्रकार सूखाकर थ्रेसर द्वारा दाने को भूसे से अलग कर देना चाहिये तथा अच्छी प्रकार सूखाकर एवं साफ करके बोरों में भरकर सुरक्षित स्थान पर भण्डारित कर लेना चाहिये|
जौ की खेती से पैदावार
अनुकूल परिस्थितियों में उपरोक्त उन्नत तकनीक द्वारा जौ की खेती करने पर एक हैक्टेयर क्षेत्र में 35 से 50 क्विंटल दाने एवं 50 से 75 कुन्तल भूसे की उपज प्राप्त की जा सकती है|
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