तिल खरीफ ऋतु में उगाये जाने वाली भारत की मुख्य तिलहनी फसल है, जिसका हमारे देश में बहुत प्राचीन इतिहास रहा है| तिल की फसल प्रायः गर्म जलवायु में उगायी जाती है और इसकी खेती भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में की जाती है, जैसे- पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, आन्ध्रप्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल तथा हिमाचल प्रदेश इत्यादि|
इसकी खेती शुद्ध एवं मिश्रित रूप से की जाती है| मैदानी क्षेत्रों में प्रायः इसे ज्वार, बाजरा तथा अरहर के साथ बोते हैं| तिल की उत्पादकता बहुत कम है| इसका अधिक उत्पादन उन्नत किस्मों के प्रयोग व आधुनिक सस्य क्रियाओं के अपनाने से लिया जा सकता है| इस लेख में तिल की वैज्ञानिक तरीके से खेती का उल्लेख है|
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तिल की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
तिल की अच्छी पैदावार के लिये लम्बा गर्म मौसम ठीक रहता है| तापमान 20 सेन्टिग्रेड से नीचे होने पर तिल का अंकुरण रूक जाता है| इसकी खेती के लिये 25 से 27 सेन्टिग्रेड तापमान उपयुक्त है| अधिक वर्षा वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिये उपयुक्त नहीं हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों में फफूद जनित रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है|
तिल की खेती के लिए उपयुक्त भूमि
उचित जल निकास होने पर तिल लगभग सभी प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है| लेकिन पर्याप्त नमी की अवस्था में बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती हैं| अत्यधिक बलुई क्षारीय भूमि इसकी खेती के लिये उपयुक्त नहीं हैं| तिल 8 पी एच मान वाली भूमि में भी आसानी से उगाया जा सकता है|
तिल की खेती के लिए खेत की तैयारी
तिल का बीज बहुत छोटा होता है, इसलिये भूमि भुरभुरी होनी चाहिये ताकि बीज का अंकुरण अच्छा हो| एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा आवश्यकतानुसार 2 से 3 जुताईयां देशी हल, कल्टीवेटर या हैरो चलाकर करें| खेत तैयारी के समय ध्यान रखना चाहिये की बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी हो ताकि अंकुरण अच्छा हो|
तिल की खेती के लिए उन्नत किस्में
तिल की प्रमुख उन्नत किस्में, जैसे- टी- 4 टी- 12, टी- 13, टी- 78, राजस्थान तिल- 346, माधवी, शेखर, कनिकी सफेद, प्रगति, प्रताप, गुजरात तिल- 3, हरियाणा तिल, तरूण, गुजरात तिल- 4, पंजाब तिल- 1, ब्रजेश्वरी (टी एल के- 4) आदि है| किस्मों की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- तिल की उन्नत किस्में, जानिए राज्यवार, विशेषताएं और पैदावार
तिल की खेती के लिए बीज की मात्रा
सामान्यतः शाखा वाली किस्मों के लिये 2.5 से 3 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर और शाखारहित किस्मों के लिये 3 से 4 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर बीज पर्याप्त रहता है| बीज और मिटटी उपचार तिल की बुवाई से पूर्व जड़ व तना गलन राग से बचाव के लिये बीजों को 1 ग्राम कार्बोन्डिजम + 2 ग्राम थाईरम या 2 ग्राम कार्बोन्डिजम या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें|
जीवाणु अंगमारी रोग से बचाव हेतु बीजों को 2 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन का 10 लीटर पानी में घोल बनाकर बीज उपचार करें| कीट नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्लू एस की 7.5 ग्राम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित कर बुवाई करें| बुवाई से पूर्व 2.5 किलोग्राम ट्राईकोडर्मा को 2.5 टन गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर खेत में प्रयोग करने में जड़ और तना गलन रोग की रोकथाम में मदद मिलती है|
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तिल की खेती के लिए बुवाई की विधि
तिल का बीज आकार में छोटा होता है, इसलिये इसे गहरा नही बोना चाहिये| इसकी बुवाई कम वर्षा वाले क्षेत्रों तथा रेतीली भूमियों में 45 x 10 सेंटीमीटर पर करने से अधिक पैदावार प्राप्त होती है| सामान्य अवस्था में लाइन से लाइन की दूरी 30 x 10 सेंटीमीटर रखी जाती है|
तिल की खेती के लिए बुवाई का समय
तिल की बुवाई उचित समय पर करें, मानसून की प्रथम वर्षा के बाद जुलाई के प्रथम सप्ताह में बुवाई करें| बुवाई में देरी करने से फसल के उत्पादन में कमी होती जाती है| बुवाई के समय यदि तापमान 25 से 27 डिग्री सेन्टिग्रेड हो तो वह अंकुरण के लिये अच्छा रहता है|
तिल की खेती के लिए खाद और उर्वरक
खाद और उर्वरक का प्रयोग मिटटी जांच के आधार पर करें| फसल के अच्छे उत्पादन के लिये बुवाई से पूर्व 250 किलोग्राम जिप्सम का प्रयोग लाभकारी रहता है| बुवाई के समय 2.5 टन गोबर की खाद के साथ ऐजोटोबेक्टर व फास्फोरस विलय बैक्टिरिया (पी एस बी) 5 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर प्रयोग करें| तिल बुवाई से पूर्व 250 किलोग्राम नीम की खली का प्रयोग भी लाभदायक है|
तिल की भरपूर पैदावार के लिए अनुमोदित और संतुलित मात्रा में उर्वरकों का उपयोग आवश्यक है| मिट्टी की जांच संभव न होने की अवस्था में सिंचित क्षेत्रों में 40 से 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 से 30 किलोग्राम फॉस्फोरस और 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देनी चाहिए| लेकिन वर्षा आधारित फसल में 20 से 25 किलोग्राम नाइट्रोजन और 15 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फॉस्फोरस की मात्रा का प्रयोग करें|
मुख्य तत्वों के अतिरिक्त 10 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गंधक का उपयोग करने से तिल की पैदावार में आशातीत वृद्धि की जा सकती है| सिंचित क्षेत्रों में नाइट्रोजन की आधी मात्रा और अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा जबकि असिंचित क्षेत्रों में सभी उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय बीज से 3 से 4 सेंटीमीटर गहराई पर प्रयोग करें| नाइट्रोजन की आधी मात्रा को बुवाई के 30 से 35 दिन बाद खड़ी फसल में प्रयोग करें|
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तिल की फसल में निराई-गुडाई
तिल खरीफ की फसल है, जिसमे खरपतवारों की संख्या अधिक होती है| यदि खरपतवार समय पर नियन्त्रित नहीं किये जाते हैं तो पैदावार में भारी गिरावट आती है| खरपतवार की रोकथाम के लिये बुवाई के 3 से 4 सप्ताह बाद निराई-गुड़ाई कर खरपतवार निकालें| जहां निराई-गुड़ाई संभव नहीं हो वहां एलोक्लोर 2 किलोग्राम दाने या 1.5 लीटर तरल प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई से पूर्व प्रयोग करें फिर आवश्यकतानुसार 30 दिन बाद एक निराई-गुड़ाई अवश्य करें|
अन्तराशष्य- अच्छे उत्पादन के लिये तिल की मोठ या मूंग के साथ बुवाई करें| तिल को मोठ या मूंग के साथ 2:2 लाइनों में बुवाई करने से दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक उत्पादन मिलता है, जिसमें प्रति ईकाई उत्पादन के साथ आमदनी बढ़ती है|
तिल की फसल में कीट नियंत्रण
पत्ती व फली छेदक- इस कीट का प्रकोप जुलाई से अक्टूबर तक रहता है| इसकी सूंडी पत्तियों, फूलों व फलियों को हानि पहुचाती है| कीट की लटें जाला बनाती हैं, जिससे पौधे की बढ़वार रूक जाती है| जब तिल की फसल में पत्ती एवं फली छेदक कीट का प्रकोप 10 प्रतिशत या इससे अधिक हो तो कीटनाशी का प्रयाग करें|
कीट के नियंत्रण के लिये क्यूनालफॉस 25 ई सी एक लीटर या कारबोरिल 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण 2 से 3 किलोग्राम या सेवीमोल 2.5 से 3 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर के हिसाब से फूल व फली आते समय छिड़काव करें| कीड़ों का प्रकोप अधिक होने की अवस्था में आवश्यकता पड़ने पर इस छिड़काव को 15 दिन के अन्तराल पर पुनः करें|
फसल में कीट नियंत्रण के लिये बुवाई के 35 दिन बाद क्यूनालफॉस 25 ई सी एक लीटर प्रति हैक्टेयर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें| इसके बाद 45 दिन की अवस्था पर नीम के तेल की 10 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर एक समान छिडकाव करें|
पत्ती और फली छेदक कीट के प्रकोप को कम करने के लिये तिल की मूंग के साथ मिश्रित खेती करें| इससे फसल में कीटों का प्रकोप कम होने के साथ ही पैदावार भी बढ़ती है|
कीट नियंत्रण के लिये प्रोफेनोफॉस 50 ई सी 2 मिलीलीटर या स्पाईनोसेड 45 एस सी 0.15 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से फसल पर 30 से 40 और 45 से 55 दिन की अवस्था पर छिड़काव करें| गाल मक्खी, सैन्यकीट, हॉक मॉथ एवं फड़का का नियंत्रण फली छेदक कीट के लिये प्रयोग की गयी दवाओं से हो जाता है|
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बिना रासायनिक कीटनाशीयों के कीट नियन्त्रण- तिल की बुवाई पूर्व नीम की खली 250 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर और मित्र फफूद ट्राइकोडरमा विरिडी 4 ग्राम प्रति किलोग्राम के हिसाब से बीज उपचार व 2.5 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर को भूमि में मिलायें तथा फसल पर 30 से 40 और 40 से 55 दिन की अवस्था पर नीम आधारित कीटनाशी एजेडिरीक्टीन 3 मिलीलीटर प्रति लीटर के हिसाब से छिड़काव करें|
तिल में समन्वित कीट नियन्त्रण- तिल के बीजों को थाइरम 0.2 प्रतिशत + कार्बोन्डिजम 50 डब्ल्यू. पी. 0.1 प्रतिशत से बीज उपचार कर बुवाई करें तथा 30 से 45 दिन की फसल होने पर मेन्कोजेब 0.2 प्रतिशत + क्यूनालफॉस 0.05 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करें| आवश्यक होने पर इस छिड़काव को 45 से 55 दिन की अवस्था पर पूनः दोहराएं|
तिल की फसल में रोग नियंत्रण
झुलसा एवं अंगमारी- इस बीमारी में पत्तियों पर छोटे भूरे रंग के शुष्क धब्बे दिखाई देते हैं| ये धब्बे बड़े होकर पत्तियों को झुलसा देते हैं| इसका प्रकोप अधिक होने पर तने पर भी गहरी धारियों के रूप में दिखाई देता है|
नियंत्रण- फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैन्कोजेब या जाईनेब डेढ़ किलोग्राम या कैप्टान दो से ढाई किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें| 15 दिन पश्चात छिड़काव पुनः दोहराएं|
छाछया (पाउडरी मिल्ड्यू)- छाछिया का प्रकोप सितम्बर माह के आरम्भ में शुरू होता है| इसमें पत्तियों की सतह पर सफेद पाउडर सा जमा हो जाता है| प्रकोप बढ़ने पर पत्तियां पीली पड़ कर सूखने और झड़ने लगती हैं|
नियंत्रण- रोग के लक्षण दिखाई देते ही 20 किलोग्राम गन्धक चूर्ण का भुरकाव या 200 ग्राम कार्बोन्डिजम या 2 किलोग्राम घुलनशील गंधक का प्रति हैक्टेयर के हिसाब से छिडकाव करें| आवश्यक होने पर भुरकाव या छिड़काव को पुनः दोहराएं|
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जड तथा तना गलन- इस रोग से प्रभावित पौधों की जड़ एवं तना भूरे हो जाते हैं| प्रभावित पौधे को ध्यान से देखने पर तने, पत्तियों, शाखाओं और फलियों पर छोटे-छोटे काले दाने दिखाई देते हैं|
नियंत्रण- नियंत्रण के लिये बुवाई से पूर्व 1 ग्राम कार्बण्डिजम + 2 ग्राम थाइम या 2 ग्राम कार्बण्डिजम या 4 ग्राम ट्राइकोडरमा विरिडी प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करें|
पर्ण कुचन (लीफ कर्ल)- यह रोग विषाणु से होता है और सफेद मक्खी से फैलता है| रोगी पौधे की पत्तियां नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं| पत्तियां गहरी हरी छोटी रह जाती हैं| रोग के उग्र होने पर पौधा छोटा रह जाता है व बिना फलियां आये ही पौधा सूख जाता है|
नियंत्रण- रोगी पौधे खेत में दिखाई देते ही इन्हें उखाड़ कर नष्ट कर दें| मिथाइल डिमेटॉन 25 ई सी, 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर या थायोमिथोक्सम 25 डब्ल्यू जी, 100 ग्राम तथा एसिटायोप्रिड़ 20 एस पी, 100 ग्राम प्रति हैक्टेयर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें| आवश्यक होने पर छिड़काव पुनः दोहराएं|
तिल में समन्वित रोग नियंत्रण- तिल के बीजों को थाइम 0.2 प्रतिशत + कार्बोन्डिजम 50 डब्ल्यू. पी. 0.1 प्रतिशत से बीज उपचार कर बुवाई करें और 30 से 45 दिन की फसल होने पर मेन्कोजेब 0.2 प्रतिशत + क्यूनालफॉस 0.05 प्रतिशत का घोल बनाकर छिडकाव करें| आवश्यक होने पर इस छिडकाव को 45 से 55 दिन की अवस्था पर पूनः दोहराएं| तिल की फसल में कीट और रोग नियंत्रण की अधिक जानकारी हेतु यहाँ पढ़ें- तिल में एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन कैसे करें
तिल की फसल की कटाई
फसल पकने पर तने और फलियों का रंग पीला पड़ जाता है, जो फसल कटाई का उपयुक्त समय है| खेत में पकी फसल को ज्यादा समय तक रखने पर फलियां फटने लगती हैं, जिससे बीज बिखरने लगते हैं| अतः उचित समय पर फसल कटाई करें| फसल सूखने पर गहाई करें, गहाई बाद बीजों को साफ करके धूप में सुखायें| भण्डारण से पूर्व बीजों में 8 प्रतिशत से कम नमी होनी चाहये|
तिल की खेती से पैदावार
कृषि की उपरोक्त उन्नत तकनीक अपनाकर तिल की फसल से 8 से 12 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है|
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