पपीता में अनेक कीट एवं रोगों का प्रकोप होता है| लेकिन पपीते के बागों में कीटों की अपेक्षा रोगों से हानी अधिक होती है| हमारे देश में पपीते की फसल को विषाणु रोग, खेत के फफूंदी जनित रोग और फलों के फफूंदी जनित वर्ग के प्रमुख रोग आर्थिक स्तर से अधिक हानी पहुंचाते है| कीट पपीते को बहुत कम हानी पहुंचाते है, परन्तु माहूँ, सफेद मक्खी और लाला मकड़ी नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख कीट है|
यदि कृषक बन्धु पपीते की बागवानी से अधिकतम उत्पादन लेना चाहते है, तो समय रहते इन सबकी रोकथाम आवश्यक है| इस लेख में बागवान बन्धुओं के लिए पपीते के प्रमुख कीट एवं रोग उनके लक्षण और रोकथाम की जानकारी का विस्तृत उल्लेख किया गया है| पपीते के वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी की जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- पपीते की खेती कैसे करें
पपीते के रोग और रोकथाम
विषाणु रोग
पपीते का विकृत वलय रोग- इस रोग का प्रकोप पौधे में किसी भी अवस्था तथा भाग में हो सकता है| परन्तु ऐसा देखा गया है कि 5 से 10 माह के पौधे मुख्यतः वर्षा ऋतु में अधिक प्रभावित होते हैं| वर्षा ऋतु में लक्षण प्रकट होने में सबसे कम समय लगता है| रोग के लक्षण सर्वप्रथम ऊपर की नई पत्तियों पर दिखाई देते हैं| इसके प्रभाव से पपीते की पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है|
पत्तियों की सतह खुरदरी दिखती है और पत्ते हरे-पीले रंग के चित्तीदार हो जाते हैं| पत्तियों पर गहरे रंग के धब्बे कभी-कभी फफोलों के रूप में देखे जाते हैं| रोग के प्रभाव से पत्तियाँ पीली पड़ने लगती हैं तथा धीरे-धीरे पूरा पौधा पीला हो जाता है| रोग-ग्रसित पौधों की पुरानी पत्तियाँ स्वस्थ पौधे की तुलना में शीघ्र गिर जाती हैं| जिसके फलस्वरूप पौधे के सिरे पर छोटी-छोटी पत्तियों का समूह ही शेष रह जाता है|
यदि पौधे में इस विषाणु का आक्रमण छोटी अवस्था में होता है, तो वर्षा तथा सर्दी के मौसम में पत्तियाँ बहुत पतली होकर सूइयों के आकार की हो जाती हैं| रोग-ग्रसित पौधों के पर्णवृंत छोटे हो जाते हैं और पत्तियाँ ऊपर की ओर खड़ी दिखाई देती हैं| तने की दो गाठों के बीच की दूरी भी कम हो जाती है| पर्णवृन्त तथा तनों के ऊपरी भाग पर गहरे रंग की धारियाँ दिखाई देती हैं|
इस रोग के कारण फलों पर प्रायः गोल जलीय धब्बे भी बनते हैं, जो इस रोग का प्रमुख लक्षण है| प्रायः रोग-ग्रसित फलों में पपेन और शर्करा दोनों की मात्रा कम हो जाती है| इस रोग का कारक पपाया रिंग स्पाट विषाणु है, जो पॉटी वाइरस समूह का सदस्य है| इसका संचरण एवं फैलाव माहू ऐफिड कीट की विभिन्न प्रजातियों द्वारा नान परसिस्टैन्ट ढंग से होता है|
रोकथाम-
1. रोग-ग्रसित पौधों के दिखाई देते ही उन्हें उखाड़ कर जला या ज़मीन में दबा देना चाहिए, इससे रोग बढ़ता नहीं है|
2. पपीते के पौधे के मध्य या आस-पास कद्दू वर्गीय फसलें नहीं लगानी चाहिए|
3. पपीते की पौध यथासम्भव एग्रोनेट जाली या कांच घरों में उगानी चाहिए, जिससे रोग फैलाने वाले कीट इसे संक्रमित न कर सकें|
4. पपीते की फसल को माहू से बचाने के लिए खेत के चारों ओर ऊँचाई वाली फसलें जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा आदि लगाना चाहिए|
5. दानेदार कीटनाशक (थिमेट- 10 जी) फैलने वाले कीट को रोकता है| रोगर, मेटासिस्टाक्स या मैलाथियान के 1 प्रतिशत घोल के नियमित रूप से 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करने से रोग को कम किया जा सकता है|
6. रोपण से 60 से 70 दिनों पहले पपीते के पौधों का क्षीण मोजैक (माइल्ड स्ट्रेन) से संक्रमित करने से अधिक मोजैक (सीवियर स्ट्रेन) के प्रभाव को कम किया जा सकता है|
7. पपीते की विषाणु प्रतिरोधी किस्मों को लगाना चाहिऐ|
8. जंगली गोम्फरीना, ट्राइकोसैन्थस स्पे., इम्पेशेन्ट बालसैमिया, बोरहेविया डिफ्यूजा, गौसीपियम स्पे., सोलेनम मेलोन्जेना, आइपोमिया स्पे., धतूरा के रस में रोग को रोकने की क्षमता पाई गई है|
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पर्णकुंचन- जब रोग फूल व फल लगने से पूर्व पौधों पर आ जाता है, तो शत-प्रतिशत तक की हानि हो सकती है| रोग का जनक जेमिनी समूह का विषाणु है| इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम ऊपर की नई कोमल पत्तियों पर दिखाई देते हैं| धीरे-धीरे प्रभावित पत्तियाँ छोटी, झुर्रादार, खुरदरी एवं भंगुर हो जाती हैं| इनके किनारे नीचे की तरफ से मुड़ जाते हैं तथा पत्तियाँ उलटे कप की भाँति दिखायी देती हैं|
पौधे के ऊपरी भाग में पत्तियों का गुच्छा सा बन जाता है| धीरे-धीरे यह रोग नीचे की ओर बढ़ता है| पत्तियों की शिराओं का रंग पीला पड़ने लगता है तथा शिरायें और शिरकायें पत्तों के नीचे भाग पर मोटी एवं गहरे रंग की दिखायी देती हैं| ऐसे में पौधों की वृद्धि रुक जाती है, फलों का आकार-प्रकार बदल जाता है तथा फल छोटे ही रह जाते हैं और नये फल बनने बन्द हो जाते हैं|
रोग के अधिक प्रकोप की स्थिति में पौधों के ऊपरी भाग पर पत्तों का गुच्छा बनता है| रोग का संचरण सफेद मक्खी द्वारा होता है| सफेद मक्खी का प्रकोप पपीते के खेतों में मई से अगस्त तक देखा गया है| परन्तु इसकी सर्वाधिक संख्या जून तथा जुलाई में दिखाई देती है|
रोकथाम-
चूँकि विषाणु रोगकारक पौधों की कोशिकाओं के अन्दर होते हैं| इसलिए इनकी रोकथाम कठिन है| इनके नियंत्रण के लिए यह आवश्यक है, कि विषाणु कारकों को रोगी पौधों से स्वस्थ पौधों तक न पहुँचने दिया जाए जो निम्नलिखित उपायों द्वारा किया जा सकता है, जैसे-
1. रोगी पौधों के दिखायी देते ही उन्हें उखाड़ कर ज़मीन में दबा या जला देना चाहिए|
2. पपीते के खेत को खरपतवार रहित रखना चाहिए|
3. पपीते के बाग में अन्तः फसलों के रूप में तम्बाकू, जीनिया, मिर्च, टमाटर, रसभरी आदि फसलों को नहीं लगाना चाहिए|
4. पपीते के पौधे को ग्लास हाऊस या नेट हाऊस में तैयार करना चाहिए, जिससे इसे सफेद मक्खी से बचाया जा सके|
5. पौधशाला में पपीते के पौधों पर नियमित रूप से मोनोक्रोटोफॉस (0.05 प्रतिशत) या इसी प्रकार के अन्य कीटनाशकों का प्रयोग 10 से 12 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए|
6. पपीते के पौधे की रोपाई के उपरान्त थिमेट- 10 जी, 10.15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिट्टी में मिलाना चाहिए तथा इसी कीटनाशक का प्रयोग 60 से 70 दिनों पश्चात् पुनः करना चाहिए|
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खेत के फफूंदी जनित रोग
तना या पाद विगलन- तना एवं पाद विगलन रोग पपीते का एक प्रमुख रोग है| हमारे देश में आमतौर पर यह रोग जून से अगस्त के महीने फैलता है| यह पपीते का एक गंभीर फफूंदी जनित रोग है और इससे पपीते की पूरी फसल नष्ट हो जाती है| इस रोग से करीब 35 प्रतिशत तक की हानि हो सकती है| इससे पपीते के तने पर भूमि के पास के क्षेत्र पर जलसिक्त धब्बे बनते हैं, जो आकार में बढ़ते हैं और अन्त में पूरे तने के आधार को घेर लेते हैं|
प्रभावित भाग के ऊत्तक गाढ़े भूरे रंग के या काले हो कर सड़ जाते हैं| शीर्ष पर स्थित पत्तियाँ पीली होकर मुरझा कर गिर जाती हैं| यदि फल बनते हैं, तो वे भी गिर जाते हैं| अंत में तने के विगलन के कारण पेड़ गिर जाता है| विगलन ज़मीन से तने के ऊपर और नीचे भी फैलता है|
रोकथाम-
1. बुरी तरह से प्रभावित पौधों को जड़ से निकाल कर जला देना चाहिए|
2. खेतों में जल भराव को रोकना चाहिए तथा पौधों को ऐसे स्थान पर लगाना चाहिए जहाँ जल निकास की अच्छी सुविधा हो|
3. प्राकृतिक रूप से होने वाले जड़ विगलन को रोकने के लिए तने के पास की मिट्टी की खुदाई करके उसमें 6:6:50 बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करना लाभप्रद होता है| बोर्डो मिश्रण का चिपकने वाले पदार्थ के साथ उपचार उपयोगी है|
4. बीजों का थीरम फफूंदीनाशक (0.1 प्रतिशत) से उपचार, अंकुरण उपरान्त जड़ विगलन रोग से बचाव करता है|
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पाउडरी मिल्ड्यू- रोग के लक्षण पत्तियों की ऊपरी और निचली सतह पर तथा नवोभिदों के तनों पर छोटे गोलाकार धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं| धब्बे आकार में धीरे-धीरे बढ़ कर आपस में मिल जाते हैं एवं सम्पूर्ण पत्ती को ढक लेते हैं| अधिक प्रभावित पत्तियाँ मुरझा कर सूख कर लटक जाती हैं और कुछ समय बाद गिर जाती हैं| जब अधिक पत्तियाँ इससे प्रभावित होती हैं, तब पूरा नया पौधा मर जाता है|
जब नए पौधे के तने इससे प्रभावित होते हैं, तब नए पौधों की मृत्युदर बढ़ जाती है| तने का प्रभावित भाग सिकुड़ जाता है, जिससे तना गिर जाता है और यह फुट रॉट जैसे लक्षण दिखाता है| नये पपीते के पौधों में संक्रमण मुलायम ऊत्तकों में जैसे- पत्तियों, पर्णवृन्तों आदि पर बना रहता है और तनों में नहीं फैलता है|
इस रोग से कभी कभी जलसिक्त धब्बे बनाते हैं, जिस पर रुई जैसी कवक की वृद्धि होती है एवं यह कवक डाउनी मिल्ड्यू जैसी दिखती है| कॉलोनी 5 से 7 मिलीमीटर तक की ही होती है| फफूंद की यह वृद्धि केवल पत्तियों की निचली सतह पर होती है| इससे लगी ऊपरी सतह पीले रंग की और मृत हो जाती है|
रोकथाम-
1. धुलनशील सल्फर (0.2 प्रतिशत) या डिनोकैप (0.1 प्रतिशत) पाउडरी मिल्ड्यू के नियंत्रण में प्रभावी है|
2. कैरिका मोनोइका, कैरिका गोडोशिआना, और कैरिका कॉलीफ्लोरा, एक्रोस्पोरियम कैरिकी के प्रति प्रतिरोधी पाये गये है|
3. कैरिका क्वरसीफोलिया, लेवीलुला टउरिका के प्रति प्रतिरोधी होती है|
पत्ती मुरझाना- सामान्यतः रोग के लक्षण सबसे पहले नीचे की पत्तियों पर उत्पन्न होते हैं| सबसे पहले पत्तियों के किनारों पर छोटे पीले-भूरे रंग के विभिन्न आकारों के और भूरे रंग का केन्द्र लिये हुये धब्बे उत्पन्न होते हैं| धब्बे किनारों पर आकार में बढ़ते हैं और पत्ती के एक बड़े भाग को ढक लेते हैं|
प्रभावित पत्ती का हरा भाग पीले रंग का हो जाता है, पत्तियों का किनारा तैलीय या अन्दर की तरफ तेल सिक्त हो जाता है| अंत में पत्तियाँ झुलस जाती हैं और सूख कर मुड़ जाती हैं तथा पौधा समय से पूर्व ही सूख जाता है|
रोकथाम- डाइथेन एम- 45 (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव रोग की रोकथाम में प्रभावी होता है|
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एन्ट्रेक्नोज- आरम्भ में पत्तियों पर छोटे स्पष्ट धब्बे उत्पन्न होते हैं| धब्बे माप में बढ़ते हैं तथा पास-पास के धब्बे आपस में जुड़ कर संपूर्ण पर्णक को ढक लेते हैं| पूर्णरूप से विकसित धब्बों के चारों तरफ पीला प्रभामण्डल बना होता है| धब्बे के केन्द्र के ऊत्तक असामान्य रूप से पतले और सफेद कागजनुमा होते हैं| पुराने धब्बे के मध्य में ऊत्तकक्षय होता है और वे फट जाते हैं तथा बीच में एक छिद्र बनाते हैं|
गम्भीर रूप से प्रभावित पत्ती में बहुत से छिद्र दिखाई देते हैं| संक्रमण की वृद्धि की अवस्था मंद पत्ती पीली पड़ कर झुलसी सी दिखाई देती है| पत्ती से संक्रमण बढ़ कर पर्णवृन्त पर पहुँचता है, जहाँ धब्बे फंसी जैसे उभरे दिखाई देते हैं| पुष्पन के दौरान पुष्पों में भी संक्रमण होता है, जिससे बड़ी मात्रा में पुष्प गिर जाते है|
रोकथाम- रोग की रोकथाम के लिए बैवेस्टीन (0.1 प्रतिशत) का छिड़काव 45 दिनों के अन्तराल पर या डैकोनिल (0.2 प्रतिशत) 15 दिनों के अन्तराल पर प्रभावी होता है|
एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा- धब्बे पीले रंग के भूरे रंग का किनारा लिये होते हैं| रोग की गम्भीरता मार्च माह के मध्य में बढ़ जाती है| जब छोटे धब्बे आपस में मिल कर बड़े आकार के हो जाते हैं, जो कभी-कभी किनारों और शीर्ष से बढ़ कर मध्य शिरा तक पहुँच जाते हैं| प्रभावित पत्तियों की दोनों सतहों पर काले रंग की फलनकाय बनती हैं| रोगग्रस्त भाग कमजोर हो कर गिर जाते है|
रोकथाम-
1. पपीते की एस्को काइटा पत्ती धब्बा रोग प्रतिरोधी प्रजाति का चुनाव करें|
2. एस्कोकाइटा पत्ती धब्बे रोग को डायथेन जेड- 78 (0.2 प्रतिशत) फफूंदीनाशक के प्रयोग से नियन्त्रित किया जा सकता है|
फाइलोस्टिक्टा पत्ती धब्बा- पत्ती पर उत्पन्न धब्बे विभिन्न माप के होते हैं| कुछ गोल 1 x 1 या 3 से 4 मिलीमीटर के, और दूसरे अनियमित, अण्डाकार या लम्बे 3 से 5 x 2 से 11 मिलीमीटर के होते हैं| ये केन्द्र में सफेद रंग के और पीले या भूरे रंग के किनारों से घिरे होते हैं| धब्बे का केन्द्र कागजी हो जाता है और अन्त में गिर जाता है| रोगकारक पादप अवशेषों में जीवित रहता है और हवा द्वारा फैलता है|
रोकथाम- इस रोग को 1 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण के तीन छिड़काव से रोका जा सकता है|
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फलों के फफूंदी जनित रोग
एन्ट्रेक्नोज- यह पपीते के फलों का एक प्रमुख रोग है, जिससे भारी क्षति होती है| सबसे पहले भूरे रंग के धब्बे ऊपरी सतह पर उत्पन्न होते हैं जो बाद में गोल हो जाते हैं| ये हल्के धंसे हुये क्षेत्र के रूप में 1 से 3 सेंटीमीटर व्यास के होते हैं| सामान्यतः ये जलसिक्त होते हैं| धीरे-धीरे ये क्षेत्र आपस में जुड़ जाते हैं और इसके किनारों पर हल्के कवक जाल बनाते हैं| नमी की स्थिति में पुराने धब्बों पर गुलाबी रंग के घेरे में बीजाणु बनते हैं|
फल बाद में गन्दे भूरे रंग का हो कर सड़ जाता है| पपीता फल विगलन, तुड़ाई पूर्व भी फलों पर होता है, क्योंकि इसके रोगकारक पौधों के अन्य भागों जैसे तने और पर्णवृन्त पर भी पाये जाते हैं| छोटे फलों के विकास की अवस्था में संक्रमण होने से फल सूख कर विरूपित हो जाते हैं और परिपक्व होने पर मृदु विगलन करते हैं|
मैक्रोफोमिना फल विगलन- गर्मी के मौसम में इस रोग से 5 से 20 प्रतिशत की क्षति आंकी गई है| सड़न पपीते के अर्धविकसित से परिपक्व फलों पर पायी गयी है| फल की सतह पर गोल, जलसिक्त धब्बे उत्पन्न होते हैं| धब्बे माप में बढ़ते हैं और सतह में धंसे से होते हैं तथा रोगकारक फल में गहराई तक चले जाते है, जिससे फल में सड़न और विघटन आरम्भ हो जाता है|
प्रभावित फल नमी को खो देता है और फल गहरे भूरे से काले रंग का हो जाता है| संक्रमित ऊत्तक कड़ा हो कर धब्बेयुक्त हो जाता है जिसमें रोगकारक के स्कलेरोशिया होते हैं| जब फल को काटा जाता है तो इसका गूदा भूरे-काले रंग का होता है और काले रंग की कवकीय वृद्धि इस पर होती है| जब फलवृन्त प्रभावित होता है तो फल गिर जाते हैं|
रोकथाम- जिराम और कैप्टान रोग की रोकथाम में प्रभावी होता है| इसके अतिरिक्त फरबम भी रोग की रोकथाम में प्रभावी पाया गया है|
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एस्कोकाइटा फल विगलन- पपीते का फल विगलन एस्कोकाइटा कैरिकी द्वारा होता है, जो अत्यन्त गम्भीर रोग है तथा असम तथा अन्य पपीता उगाने वाले क्षेत्रों में अत्यधिक फैला हुआ है| यह रोग अर्ध विकसित या परिपक्व फलों पर उत्पन्न होता है| छोटे गोलाकार जलसिक्त धब्बे जो 2.75 सेंटीमीटर या उससे अधिक के होते हैं, फलों पर बनते और धीरे-धीरे बढ़ते हैं|
5 से 8 दिनों के बाद तापमान और आर्द्रता की स्थिति के अनुसार ये धब्बे बढ़ कर 7.5 सेंटीमीटर तक व्यास के हो जाते हैं| विगलन बाहर की ओर अनियमित रूप से बढ़ता है| धब्बे समूहों में बढ़ते हैं और बाद में मिल कर काफी फैल जाते हैं।|विगलन 30 डिग्री सेल्सियस पर ज्यादा अधिक होता है| तोड़े हुये फलों पर यह काफी गम्भीर होता है|
रोकथाम- फल लगते समय बोर्डो मिश्रण (2:2:50) का 21से 30 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करने पर रोग की रोकथाम की जा सकती है|
फोमॉप्सिस फल विगलन- यह रोग फलों पर जलसिक्त धब्बों के रूप में उत्पन्न होता है जो बाद में आकार में बढ़ते हैं| प्रभावित भाग मृदु और पिलपिला हो जाता है और मृदु विगलन के लक्षण दिखाता है| विगलित भाग गहरे भूरे रंग से काले रंग का हो जाता है और बाद में इसमें हल्की दरार पड़ जाती है| रोगग्रस्त भाग के चारों ओर का क्षेत्र जलसिक्त हो जाता है और विगलित भाग उठा हुआ तथा सफेद रंग का हो जाता है| फल अपने वृद्धि की सभी अवस्थाओं में, पकने तक, इससे संक्रमित होता है|
रोकथाम- तोड़े हुये फलों पर बोरेक्स, बेनलेट, कैप्टान, डाइफोलेटान और डाइथेन एम- 45 का छिड़काव रोग की रोकथाम में प्रभावी होता है|
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राइजोपस या जलीय फल विगलन- राइजोपस द्वारा फलों पर जलसिक्त धब्बे उत्पन्न होते हैं, जो जल्द ही फल के एक बड़े भाग को ढक लेते हैं| फल का गूदा मृदु और जलीय हो जाता है| परन्तु इसके रंग में परिवर्तन नहीं होता, बाद में फल पर सफेद या सलेटी रंग के कवक तन्तु दिखाई देते हैं| पूरा फल शीघ्र सड़ जाता है और सड़न दूसरे फलों पर भी चली जाती है| प्रभावित फल से दुर्गन्ध आती है| पपीते का हरा फल भी राइजोपस नाइग्रीकैन्स (आर. स्टोलोनीफर) से प्रभावित होता है|
रोकथाम-
1. फलों का गर्म जल उपचार (49 + 1 डिग्री सेल्सियस बीस मिनट के लिए) विगलन की रोकथाम में प्रभावी होता है|
2. ऑरियोफन्जिन 1000 पी पी एम और 500 पी पी एम से उपचार कुछ हद तक रोग की रोकथाम में प्रभावी होता है| फलों को 10 डिग्री सेल्सियस या उससे नीचे संग्रहित करने पर विगलन को रोका जा सकता है| परन्तु यदि इन फलों को फिर 20 डिग्री सेल्सियस पर रखा जाता है तो 2 से 3 दिनों में विगलन के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं|
फ्यूजेरियम फल विगलन- बड़े और हल्के धसे हुये धब्बे उत्पन्न होते हैं| धब्बे जलसिक्त रूप में उत्पन्न होते हैं, जो मृदु और धंसे तथा कुछ कवकीय वृद्धि लिए होते हैं| रोगकारक सिर्फ पके एवं क्षतिग्रस्त फलों पर उत्पन्न होता है| 8 से 10 दिनों में फल पूरी तरह से विगलित हो जाता है| अपरिपक्व एवं क्षतिरहित फलों पर संक्रमण नहीं होता है| पपीते का लेटेक्स बीजाणुओं के अंकुरण को रोकता है|
रोकथाम-
1. तुड़ाई उपरान्त फलों का गर्म जल उपचार (49 + 1 डिग्री सेंटीग्रेट 20 मिनट के लिए) रोग की रोकथाम में प्रभावी होता है|
2. ऑरियोफन्जिन 1000 पी पी एम और 500 पी पी एम से उपचार भी कुछ हद तक प्रभावी पाया गया है|
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कीट एवं रोकथाम
माहू- पपीते की फसल का यह प्रमुख कीट है| जो पत्तियों के निचले हिस्से पर छेद कर के रस चूसता है| जिससे पत्तियों में अनेक विकृति आ जाती है| यह कीट विषाणु रोग फैलाने का वाहक भी है|
रोकथाम- इसके नियंत्रण के लिए डाईमेथोएट 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव करना चाहिए|
सफेद मक्खी- यह पपीते का कीट भी पत्तियों का रस चूसकर हानि पहुँचाता है तथा विषाणु रोग फैलाने में भी सहायक होता है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम हेतु इमिडाक्लोरोप्रिड 17.8 एस एल दवा की 100 से 120 मिलीलीटर प्रति हैक्टेयर की दर से अथवा थायोमिथाकजॉम 25 डब्ल्यू जी दवा की 100 ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए|
लाल मकडी- यह कीट पके फलो व पतियों की सतह पर पाया जाता हैं| इस कीट में प्रभावित पत्तियों पीली व फल काले रंग के हो जाते है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम हेतु डायमिथोएट 30 ई सी 800 से 1000 मिलीलीटर का प्रति हैक्टेयर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए|
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