फलदार या अन्य पौधों का प्रवर्धन दो प्रकार से होता है| लेकिन इस दो प्रकार में भी अनेक विधियां शामिल है| जिनका उपयोग कर के पौधों को एक किस्म का रूप दिया जाता है| इस लेख में किसान और बागवान भाइयों की सुविधा के लिए हम उन सब विधियों की जानकारी देंगे जो प्रमुख है| साथ साथ प्रवर्धन के लाभ और कमियों को भी उजागर किया जाएगा| जिनकी जानकारी होना भी अति आवश्यक है, तो जानिए बागवानी पौधों का प्रवर्धन, और फलदार पौधों के लिए प्रवर्धन की की प्रक्रिया क्या है| पौधों का प्रवर्धन दो प्रकार से होता है, जैसे-
1. बीज प्रवर्धन
2. वानस्पतिक प्रवर्धन
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बीज द्वारा प्रवर्धन
इस प्रकार के प्रवर्धन में बीजों का उपयोग किया जाता है|
विशेषताएँ-
नवीन किस्मों का विकास- फल और फूलों की नवीन किस्मों का विकास बीज द्वारा ही सम्भव हो पाता है|
अनिवार्य विधि- फलों की कुछ ऐसी प्रजातियां हैं, जिन्हें वानस्पतिक विधि से प्रवर्धित नहीं किया जा सकता है, इसलिए बीज प्रवर्धन, उनके लिए एक अनिवार्य विधि है, जैसे- पपीता आदि|
सरलता- बीज प्रवर्धन और अन्य प्रवर्धन विधियों की तुलना में सरल है, उपयुक्त समय पर उपयुक्त वातावरण में बीज की बीजाई करके पौधे तैयार किये जा सकते हैं|
मूलवृंत तैयार करने में सहायक- कलिकायन एवं ग्राफटिंग विधि में पहले मूलवृंत तैयार किया जाता है, जिन पर कलिकायन और प्रफटिंग की जाती है|
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कमियां-
पैतृक गुणों में विभिन्नता- बीज से प्रवर्धित पौधों में उनके पैतृक गुणों में विभिन्नता रहती है| उनके विशिष्ट गुणों को बनाये रखना सम्भव नहीं होता है|
किशोर प्रावस्था में वृद्धि- बीजू पौधों में किशोर प्रावस्था अधिक समय तक चलती है| इसलिए वृक्षों में फल आने के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है| नींबू के बीजू पौधे में 7 से 8 वर्ष में फल लगते हैं, जबकि वानस्पतिक विधि से तैयार किया गया पौधा 3 से 4 वर्ष में ही फलने लगता है|
आकार में वृद्धि- बीजू पौधे आकार में अधिक फैले हुए तथा ऊंचे रहते हैं|इसलिए इनमें उद्यानिक क्रियाएं जैसे- रोग और कीटनाशक औषधियों का उपयोग या छिड़काव, कंटाई, छंटाई और फलों की तुड़ाई आदि, करने में असुविधा होती है। बीजू पौधे अधिक फैलने के कारण प्रति हेक्टर पौधों की संख्या कम होती है|
मूलवृंत के लाभ से वंचित- बीज प्रवर्धन में मूलवृंत के लाभ या हानि प्राप्त करने की संभावना नहीं रहती|
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वानस्पतिक प्रवर्धन
वानस्पतिक प्रवर्धन के अंतर्गत बीज के अतिरिक्त पौधे के अन्य अंगों जैसे- जड़, तना, पत्तियां और कलिकाओं का उपयोग पौधे तैयार करने के लिए किया जाता है| इस विधि में कोशिकाओं का समसूत्री विभाजन होता है| जिसमें गुणसूत्रों का विभाजन नहीं होता है, जनन कोशिकाएँ इस विधि में क्रियाशील नहीं होती हैं, यानि की नर और मादा कोशिकाओं का मिलन नहीं होता है|
विशेषताएं-
किस्मों के पैतृक गुणों का स्थायीकरण- वानस्पतिक प्रवर्धन से तैयार किये गये पौधों में पैतृक विभिन्नता नहीं आ पाती है, इसलिए वे अपने मातृ वृक्षों के गुणों के समान ही होते हैं| वृद्धि, पुष्पन, फलन और फलों की गुणवता आदि गुणों में परिवर्तन नहीं आता है|
बीज के अभाव की पूर्ति- पौधों की कुछ ऐसी प्रजातियां होती है, जो प्रवर्धन के लिए बीज उत्पन्न नही करती हैं अथवा उनके बीजों में प्रवर्धन की क्षमता कम होती है, जैसे- केला, अनन्नास, अंजीर, बीज रहित नींबू, अमरूद, अंगूर आदि में बीज, प्रवर्धन के लिए उतने सक्षम नहीं होते हैं| ऐसी परिस्थितियों में इन्हें उनके विभिन्न अंगों द्वारा वानस्पतिक विधि में प्रवधिति किया जाता है|
अनुपयुक्त बीजों का विकल्प- कुछ ऐसी प्रजातियां हैं, जो बीज तो उत्पन्न करती हैं, किन्तु बीज के अंकुरण में कठिनाई होती है| उनमें या तो सुप्तावस्था होती है, अथवा उनके अंकुरण के लिए विशेष उपचार की आवश्यकता होती है, ऐसी परिस्थितियों में इनका प्रवर्धन वानस्पतिक विधियों से सुगमतापूर्वक किया जा सकता है गुलाब, अनार और शहतूत आदि के पौधे वानस्पतिक विधि से बीज की अपेक्षा सरलता से तैयार किये जा सकते है|
वृक्षों में किशोर-प्रावस्था की कमी- इस विधि से तैयार पौधों में परिपक्वता शीघ्र आ जाती है, इनमें किशोर प्रावस्था की अवधि कम हो जाती है|
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कमियां-
नवीन किस्मों का विकास संभव नहीं होता- वानस्पतिक प्रवर्धन द्वारा फल और पुष्प की नवीन किस्मों का विकास नहीं किया जा सकता है|
अधिक तकनीकी कुशलता की आवश्यकता- वानस्पतिक प्रवर्धन की विधियों, जैसे- कलिका और ग्राफटिंग को सम्पन्न करने के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है, पौधों की स्थिति, पौधों की उम्र और वायुमण्डलीय वातावरण का भी समुचित ध्यान रखना पड़ता है|
अधिक समय की आवश्यकता- कलिकायन एवं ग्राफटिंग विधि से पौधे तैयार करने में आमतौर पर डेढ़ से दो वर्ष लग जाते हैं, मूलवृंत तैयार करने में एक वर्ष लग जाता है|
अतिरिक्त व्यय और परिश्रम- मूलवृंत तैयार करना, सांकुरडाली या उपचार करना और पौधे तैयार करने के पश्चात उनकी सघन रूप से देखभाल करना आदि, विशेष कार्यों के सम्पन्न करने में व्यय तथा परिश्रम की अधिक आवश्यकता होती है, यही कारण है कि, वानस्पतिक विधि से तैयार पौधे अधिक महंगे होते हैं|
आइए अब हम वानस्पतिक प्रवर्धन की कुछ उन विधियों की जानकारी की तरफ चलते है, जिनका उपयोग बागवानी में सबसे अधिक किया जाता है, जैसे-
विनियर कलम बंधन-
फलदार पौधों का प्रवर्धन की यह एक प्रमाणित विधा है, जिसका मानकीकरण भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा वर्ष 1964 से 65 में किया गया था| इसका उपयोग उत्तर भारत में फलदार पौधों के प्रवर्धन के लिए विशेषकर कृषि विश्वविद्यालयों एवं शोध संस्थाओं में व्यापक स्तर पर किया जा रहा है| इस विधि का उपयोग कर के पौधों का प्रवर्धन क्रमवार इस प्रकार किया जाता है, जैसे-
1. इसके लिए एक वर्ष आयु के स्वस्थ बीजू पौधे 0.50 से 0.75 मीटर व्यास वाले मूलवृंत के रूप में प्रयोग किये जाते हैं|
2. सांकुर हेतु वांछित किस्म की 3 से 4 माह पुरानी स्वस्थ डाली उपयोग में लायी जाती है|
3. सांकुर डाली की पत्तियों की 7 से 10 दिन पहले पर्ण फलक को डंठल छोड़ते हुये काट दिया जाता है|
4. मूलवृंत में 15 से 20 सेंटीमीटर की ऊँचाई पर बगल में 3 से 4 सेंटीमीटर तिरछा चीरा लगाया जाता है|
5. चीरा के आधार पर एक छोटा चीरा इस प्रकार लगाया जाता है, कि इसमें सांकुर डाली सुविधा पूर्वक स्थापित की जा सके|
6. सांकुर डाली जिसमें शीर्ष कलिका फूल गया हो, फूटने से पहले, मातृवृक्ष से सुबह या सायंकाल एकत्रित की जानी चाहिए|
7. सांकुर डाली में मूलवृंत के विपरीत दिशा में एक लम्बा तथा दूसरा छोटा चीरा इस प्रकार बनाते है, कि मूलवृंत के बनाये स्थान में सुगमता पूर्वक बैठ जाएं|
8. सांकुर डाली को मूलवृंत में भली भाँति स्थापित कर 1.5 सेंटीमीटर चौड़ी, 200 से 300 गेज मोटी पालीथीन स्ट्रिप से अच्छी प्रकार बांध देना चाहिए| जब सांकुर डाली कुछ दिन बाद अच्छे से चिपक जाए तो पालीथीन स्ट्रिप को ढीला कर देना चाहिए|
9. भारत में ज्यादातर मार्च से सितम्बर तक खुली क्यारियों तथा पालीहाउस की सुविधा उपलब्ध होने पर किसी भी समय पौधों के प्रवर्धन इस विधि द्वारा सम्भव है|
10. सांकुर डाली में फुटाव होने पर मूलवृंत की शीर्ष शाखा को काट दिया जाता है, तथा 2 से 3 बार में जब डाली 20 से 30 सेंटीमीटर की हो जाए, तो मिलाप के ऊपर तिरछा इस प्रकार काटा जाए कि यह मुख्य डाली का रूप ले सके| इस प्रकार अगले वर्ष रोपण हेतु पौधे उपलब्ध हो जाते हैं|
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प्रांकुर प्रवर्धन-
यह पौधों का प्रवर्धन की सरल तथा कम समय की विधि है| इसमें मूलवृंत तथा सांकुर शाक कोमल होते हैं, अतः प्रवर्धन के प्रारम्भिक अवस्था में उचित वातावरण नमी एवं तापमान सुलभ रहने पर ही अच्छी सफलता मिल पाती है, बहुत से क्षत्रों में व्यावसायिक स्तर पर इस विधि द्वारा आम का प्रवर्धन किया जाता है| इस विधि द्वारा पौधों का प्रवर्धन,इस प्रकार से क्रमवार किया जाता है, जैसे-
1. पौधों का प्रवर्धन के मूलवृंत हेतु 10 से 15 दिन आयु के नव पौधे जिनमें पत्तियाँ हरापन में आ रही हों, का उपयोग किया जाता है|
2. नव पौधों को 0.1 प्रतिशत बेविस्टीन में 5 से 10 मिनट तक उपचारित कर लिया जाता है|
3. नव पौधे की शीर्ष शाख 7 से 9 सेंटीमीटर ऊँचाई से काट दिया जाता है, तथा शीर्ष भाग से मध्य 3 से 4 सेंटीमीटर लम्बवत् चीरा लगाया जाता है|
4. 3 से 4 माह आयु की सांकुर डाली जिन्हें विनियर की भाँति तैयार किया गया हो प्रत्यारोपण हेतु उपयोग किया जाता है|
5. सांकुर डाली के आधार पर दोनों तरफ से तिरछा काट बनाकर मूलवृंत में बनाये खाचें बैठाकर किया जाता है|
6. प्रवर्धन के बाद पालीथीन थैली, जिनमें पूर्व मिश्रण का उपयोग किया गया है, में गुठली के साथ प्रवर्धित पौध रोपित कर दिया जाता है|
7. सांकुर डाली के ऊपर प्रत्यारोपण के बाद 10 से 15 दिनों तक ऊपर से पतली पालीथीन नलिका लगा दी जाती है|
8. शीर्ष कलिका के फुटाव के बाद पालीथीन नलिका को सावधानी पूर्वक हटा दिया जाता है|
9. प्रवर्धन बाद पौधों को 1 से 1.5 माह तक पालीहाउस में नियंत्रित वातावरण में रखा जाता है|
10. फुटाव के बाद 1.5 से 2 माह तक साधारण पालीहाउस में पौधों को स्थानान्तिरत किया जाता है|
11. इन पौधों को कुछ सप्ताह के लिए नेट हाउस तथा बाद में खुली क्यारियों में रखा जाता है, बाद रोपण के लिए तैयार हो जाते हैं|
12. वर्षा ऋतु जून से जुलाई में इस विधि द्वारा प्रवर्धन से अच्छी सफलता की संभावना होती है|
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कोमल डाली पर कलम बांधना-
यह विधि विनियर तथा प्राकुंर कलम बंधन के बीच की है, जिसे सफलतापूर्वक पौधों के प्रवर्धन में व्यावसायिक स्तर पर उपयोग किया जाता है| इस विधि द्वारा फरवरी से अक्टूबर तक खुले क्यारियों तथा पालीहाउस सुविधा होने पर लगभग वर्ष भर पौधों का प्रवर्धन किया जा सकता है| इसकी विधि द्वारा पौधों का प्रवर्धन क्रमवार इस प्रकार है, जैसे-
1. 6 माह से 1 वर्ष तक आयु के मूलवृंत, जब कोमल तथा पत्तियाँ हल्की पीली हो रही हों प्रवर्धन हेतु उपयोग किया जाता है|
2. मूलवृंत खुली क्यारियों अथवा व्यवस्था उपलब्ध होने पर पालीथीन की थैलियों में किया जाता है|
3. विनियर की भाँति सांकुर डाली को तैयार किया जाता है|
4. मूलवृंत एवं सांकुर डाली का एक ही मोटाई से चयन किया जाना चाहिए|
5. मूलवृंत के शीर्ष कटे भाग से 4 से 6 सेंटीमीटर का लम्बवत् चीरा बीचों बीच सावधानी पूर्वक लगाया जाता है|
6. पहले से तैयार सांकुर डाली के आधार पर 4 से 6 सेंटीमीटर तिरछी कटाई दो तरफ से की जाती है|
7. सांकुर डाली का प्रत्यारोपण मूलवृंत पर कर 1.5 सेंटीमीटर चौड़ी 200 से 300 गेज मोटी पालीथीन स्ट्रिप से अच्छी प्रकार बांध दिया जाता है|
8. आवश्यकतानुसार आरोपित सांकुर डाली के ऊपर पतली पालीथीन नलिका 10 से 15 दिनों तक शीर्ष कलिका के फुटाव होने के पहले तक लगाई जाती है|
9. शीर्ष कलिका के फुटाव के साथ नलिका दूसरे प्रवर्धित पौधे पर आरोपित की जाती है|
10. सुविधा उपलब्ध होने पर एक से डेढ़ माह तक वातावरण नियंत्रित या पालीहाउस और बाद में नेट हाउस तथा खुली क्यारियों में रखने बाद पौधे रोपण हेतु तैयार हो जाते हैं|
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अन्य महत्वपूर्ण बिंदु-
1. अनुभव के आधार पर विनियर, सांकुर तथा कोमल डाली कलम बांधना में “कोमल डाली कलम बंधन” आसान विधि है|
2. कोमल डाली कलम बंधन विधि द्वारा स्वस्थ पौधों के बागों की स्थापना भी सम्भव है|
3. बीज से उत्पन्न पौधो को मूलवृंत के रूप में प्रयोग किया जाता है| उनको उपचारित क्यारियों में लगाया जाता है, और खाद और उर्वरक व सिंचाई का समय समय पर उचित मात्रा में प्रयोग किया जाता है|
4. पौधों का प्रवर्धन के लिए, बीजू पौधों को 2 से 3 माह के उपरान्त पहले से तैयार क्यारियों या गमलों में रोप देना चाहिए तथा पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रोपित करने की इस विधि में सिंचाई का पूरा ध्यान रखना चाहिए|
5. इन छोटे पौधों को पाले से बचाने के लिए छायादार पेड़ों के नीचे रखना चाहिए अथवा घास-फूंस से ढक देना चाहिए|
6. सामान्यत देखा गया है, की किसी भी बीजू पौधे के मूलवृंत को लेने के बाद भी बहुभ्रूणीय मूलवृंतों के प्रयोग से पेड़ों में बौनापन तथा जल्दी फल देने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है|
तो किसान भाई उपरोक्त विधियों पौधों का प्रवर्धन के द्वारा अपने पौधों का प्रवर्धन कर सकते है, जिससे वे अपनी पसंद की किस्मों की बागवानी भी कर सकते है, लेकिन किसान भाइयों को पौधों का प्रवर्धन करते समय उपरोक्त सभी बातों का ध्यान रखना आवश्यक है|
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