मक्का का विश्व की कृषि में प्रमुख स्थान है| भारत में मक्का खेती का, चावल और गेहूं के बाद तीसरा स्थान है| कुछ वर्ष पहले के आकड़ों के अनुसार भारत में मक्का खेती का उत्पादन 86 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में, एवं औसत उत्पादन 212.8 लाख टन रिकार्ड किया गया| उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले कारकों में फसल की बढ़त के विभिन्न चरणों में सर्वव्यापक रूप से उद्घटित होने वाले रोग इस फसल की पैदावार बढ़ाने में बाधक हैं|
इसलिए बेहतर सस्य वैज्ञानिक क्रियाओं और रोगों एवं कीटों के प्रबंधन द्वारा ही मक्का खेती से उत्पादन बढ़ाया जा सकता है| पिछले तीन दशकों में किए गए अनुसंधान प्रयासों के आधार पर भारत में मक्का खेती पर लगने वाले 35 रोगों में से 16 रोग मुख्य हैं| इन रोगों द्वारा फसल के आर्थिक नुकसान में कुल हानि 13.2 प्रतिशत आंकी गई है|
मक्का खेती के कुछ आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण रोगों, इनके रोगजनक, लक्षण, इनका वितरण एवं प्रबंध क्रियाओं का विवरण इस लेख में प्रस्तुत किया गया है| इन रोगों के नियन्त्रण और प्रबंधन की जानकारी निचे दी गयी है| यदि किसान बंधु मक्का की खेती की अधिक जानकारी चाहते है, तो यहां पढ़ें- मक्का की खेती कैसे करे पूरी जानकारी
मक्का खेती के रोगों का प्रबंधन
मक्का खेती हेतु बीज उपचार
रोग | प्रबंधन के उपाय |
बीज तथा पौध विगलन | बीज उपचार थिरम/कैप्टान 2 ग्रा./कि.ग्रा. की दर से बीज के साथ फफूदनाशी का उपचार |
पट्टित पर्ण पर्णच्छद अंगमारी | 16 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से स्युडोमोनास फ्लोरीसेंस पीट आधारित संयोजन से बीज उपचार |
रोमिल मृदुल | 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज मेटलेक्सील (रिडोमिल 25 डब्लू पी) फफूदनाशी का उपचार |
भूरा धब्बा | फफूदनाशी जैसे बीनोमिल (बेनलेट) कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) आक्सीकार्बोक्सीन (प्लांटवैक्स) के साथ 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार |
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मक्का खेती हेतु फसल पद्धति
रोग | प्रबंधन के उपाय |
उकठा | क्षतिग्रस्त बीजों को फटकना तथा छान कर अलग करना |
पछेती उकठा | जल दबाब की स्थिति की रोकथाम |
पट्टित पर्ण पर्णाच्छद अंगमारी | नीचे की 2 से 3 पत्तियाँ पर्णाच्छद समेत निकाल देना |
टर्सिकम पत्ती अंगमारी, मेडिस पत्ती अंगमारी, भूरा धब्बा, रोमिल मृदुल पिथियम वृन्त सड़न, जीवाणु वृन्त सड़न, फ्युजेरियम वृन्त, काठकोयला वृन्त सड़न, पछेती उकठा | खेत में उचित जल निकासी, पूर्व फसल कचरे को नष्ट करना, स्वच्छ संक्रमित फसल तथा फसल चक्र |
मक्का खेती हेतु मिट्टी उपचार
रोग | प्रबंधन के उपाय |
पट्टित पर्ण पर्णाच्छद अंगमारी | 7 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से स्युडोमोनास फ्लोरोसेंस या, कार्बेन्डाजिम, थायोफिनेट मिथाईल और कैप्टान से मृदा उपचार |
पिथियम वृन्त सड़न | 75 प्रतिशत कैप्टान का 12 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी की दर से मृदा में या पौधों की सतह पर 5 से 7 हफ्तों पर छिड़काव |
जीवाण्विक सड़न | अभ्रमक चूर्ण (33 प्रतिशत क्लोरीन युक्त) द्वारा 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से पुष्पन पूर्व मृदा का उपचार |
फ्युजेरियम वृन्त सड़न, पछेती उकठा, बीज तथा पौध विगलन | नाइट्रोजन तथा पोटेशियम की सन्तुलित मात्रा |
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मक्का खेती में छिड़काव उपचार
रोग | प्रबंधन के उपाय |
मेडिस पत्ती अंगमारी, सामान्य रतुआ | डाइथेन एम- 45 तथा जिनेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 15 दिन के अन्तर पर 2 से 4 बार छिड़काव |
पट्टित पर्ण पर्णच्छद अंगमारी | राईजोलेक्स 50 डब्लू पी 10 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 30 से 40 दिन पुरानी फसल पर छिड़काव |
काठकोयला वृन्त सड़न | ट्राईकोडरमा संयोजन को गोबर की खाद में 10 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से मिलाकर मदा में मिश्रण |
रोग प्रतिरोधी किस्मों की बुआई
पी ई एम एच 5- टर्सिकम पत्ती अंगमारी, मेडिस पत्ती अंगमारी, रोमिल मृदल, जीवाण्विक सड़न की प्रतिरोधी|
प्रताप, कंचन 2- टर्सिकम पत्ती अंगमारी, मेडिस पत्ती अंगमारी, रोमिल मृदल की प्रतिरोधी|
पी ई एम यू 352- मेडिस पत्ती अंगमारी, जीवाण्विक सड़न, रोमिल मृदुल की प्रतिरोधी|
प्रताप मक्का 3- रोमिल मृदुल, फ्युजेरियम वृन्त सड्न, नित्यश्री- टर्सिकम पत्ती अंगमारी, रतुआ, रोमिल मृदुल की प्रतिरोधी|
एच क्यू पी एम 4- मेडिस पत्ती अंगमारी, पिथियम वृन्त सड़न की प्रतिरोधी|
एक्स 1280- रोमिल मृदुल, पिथियम वृन्त सड़न, फ्युजेरियम वृन्त सड़न की प्रतिरोधी|
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बीज एवं पौध विगलन
मक्का खेती का यह रोग समस्या पिथियम प्रजाति, फ्यूजेरियम प्रजाति, एक्रीमोनियम प्रजाति, पेनिसिलियम प्रजाति, स्कीलरोशियम जातियों से जुड़ी हुई है| पहाडी क्षेत्रों में, जहाँ रोपण अवधि के दौरान तापमान 13 डिग्री सेंटीग्रेट से कम होता है, वहाँ यह एक गम्भीर समस्या है, परन्तु उष्णकटिबंधीय पर्यावरण में, क्योंकि पौधे तेजी से बढ़ते हैं, यह समस्या गम्भीर नहीं है| बीज सड़न एवं पौध में विगलन उत्पन्न होना, इस रोग के मुख्य लक्षण हैं|
पर्णीय रोग
मक्का खेती के पर्णीय रोगों में पत्ती अंगमारी, पत्ती धब्बा, रतुआ, रोमिल मृदुल और पट्टित पत्ती एवं पर्णच्छद अंगमारी प्रमुख समस्याये हैं|टर्सिकम पत्ती अंगमारी की समस्या एक्सीरोहाईलम टर्सीकम द्वारा जनित है| शीत, मामुली आर्द्र स्थितियाँ (180-27 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान) इस रोग के विकास के लिए अनुकूल हैं|
रोग के लक्षण निचले पत्तों में लंबे, अण्डाकार, धूसर हरे 2.5 से 15 सेंटीमीटर धब्बों के रूप में उदित होते हैं| एंथिसिस के बाद धब्बे तीव्र गति से ऊपर की ओर फैलते हैं तथा रोग अधिक संक्रमण हो जाता है| आर्द्र मौसम में धब्बों में धूसर काले बीजाणु उत्पन्न होते हैं| गंभीर संक्रमण में अपरिपक्व स्थिति में पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है|
भूरा धब्बा
मक्का खेती में यह रोग फाइसोडरमा मेडिस द्वारा जनित है और उपोष्ण क्षेत्रों संहित उच्च तापमान पर वर्षा वाले क्षेत्रों की गम्भीर समस्या है| रोग के लक्षण पत्ती पर हल्के पीले धब्बों के रूप में उभरते हैं, जो स्वस्थ उत्तकों के वैकल्पिक बैंड्स के रूप में क्रमबद्ध होते हैं| पत्ती के मध्य भाग में वृताकार, गहरे भूरे धब्बे और परत पर सफेद या हल्के पीले धब्बे बनते हैं| गम्भीर संकमण में ये धब्बे सम्मिलित हो जाते हैं एवं वृन्त सड़न के कारण पौधे टूट कर गिर जाते हैं|
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रतुआ
रतुआ रोग दो प्रकार का होता है, सामान्य रतुआ एवं पोलीसोरा रतुआ, जैसे-
सामान्य रतुआ- पक्सीनिया सोरघाई द्वारा जनित होता है, मामूली तापमान (16 से 25 डिग्री सेंटीग्रेट) एवं उच्च आपेक्षित आर्द्रता इस रोग के विकास में अनुकुल कारण हैं| पत्तियों में प्रचुर मात्रा में फफूद के फफोले उत्पन्न होते हैं, जो सुनहरे भूरे रंग के होते हैं|
पोलीसोरा रतुआ- पक्सीनिया पोलीसोरा द्वारा होता है, यह लक्षणों में सामान्य रतुआ जैसा ही होता है, इसके बीजाणु सामान्य रतुआ से लम्बे होते हैं|
पट्टित पर्ण तथा पर्णच्छद अंगमारी
मक्का खेती का यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनाई प्रजाति द्वारा जनित होता है| हिमालय की गर्म आर्द्रता वाले, निचले पहाड़ी क्षेत्रों में एवं मैदानी क्षेत्रों में व्यापक रूप से उद्घटित होता है| निचले पर्णच्छद में सर्वप्रथम इसके लक्षण दिखते हैं| संक्रमित पत्तों पर वैकल्पिक गहरे भूरे रंग की पट्टियां बन जाती हैं| विकसित भुट्टा पूर्णत: नष्ट हो जाता है तथा भूसी वाली पत्तियाँ टूट कर अपरिपक्व स्थिति में सूख जाती हैं|
रोमिल मृदुल
रोपण के बाद 15 से 20 दिन की फसल रोमिल मृदुल के प्रति अधिक संवेदनशील होती है, यह तीन प्रकार का होता है, भूरी पट्टीदार रोमिल मृदुल (कारक स्कलैरोप्थोरा रेसी), ज्वार रोमिल मृदुल (कारक पैरोनोस्कीलीरोस्पोरा सोरघाई) और राजस्थान रोमिल मृदुल (कारक पैरोनोस्कीलीरोस्पोरा हीट्रोपोगोनी)| यह रोग उत्तर भारत के हिमालय क्षेत्रों और कुछ मैदानी क्षेत्रों में प्रचलित है|
प्रारम्भिक लक्षण धब्बों के रूप में पत्तों पर विकसित होते हैं, जो संकीर्ण, हल्की पीली पट्टियों के रूप में नसों द्वारा परिसीमित होते हैं| इसलिए पट्टियां बेंगनी हो जाती हैं| असामान्य बीज तैयार होते हैं, पुष्पगुच्छों में फिलौड़ी दिखाई देती है| विकृत पराग कण पैदा होते हैं, धब्बों की सतह पर प्रातः कालीन समय में रोमिल या ऊनी कपासीय परत दिखाई देती है|
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वृन्त सड़न
यह समस्या पौधों के विकास के दो चरणों में पृथक-पृथक कारकों से उत्पन्न होती है, जैसे-
पुष्पन-पूर्व वृन्त सड़न- यह दो प्रकार का होता है, जैसे-
1. पिथियम वृन्त सड़न (कारक पिथियम एफेनिड़रमेटम)- उत्तर भारत की निम्न भूमि में यह गम्भीर समस्या है| तापमान 30 से 35 डिग्री सेंटीग्रेट एवं 80 से 100 प्रतिशत आपेक्षित आर्द्रता इस रोग के विकास के लिए प्रतिकूल है| मृदा रेखा से ठीक ऊपर की अंत: ग्रन्थियाँ रोगग्रस्त होने से सड़न के साथ भूरी नरम हो कर टूट जाती है । परन्तु पौधा कई हफ्तों तक हरा-भरा रहता है, क्योंकि संवहनी बण्डल स्वस्थ होते हैं|
2. जीवाणु वृन्त सड़न (कारक इर्विनिया क्राईसेंथिमी)- यह रोग उच्च तापमान (320 से 350 सेंटीग्रेट) एवं अधिक आपेक्षित आर्द्रता पर सक्रिय होता है| उत्तर भारत के तराई क्षेत्र इस समस्या से ग्रस्त हैं| मिट्टी स्तर से ऊपर की अन्तः ग्रथियों के रोगग्रस्त होने से गहरे भूरे रंग का चिपचिपा धब्बा दिखाई देता है| संक्रमित ऊत्तक गल जाते हैं एवं सड़न की दुर्गन्ध आती है|
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पुष्पन उपरान्त वृन्त सड़न- यह दो प्रकार का होता है, जैसे-
1. फ्युजेरियम वृन्त सड़न (कारक फ्युजेरियम मोनिलिफोर्मी)- यह उत्तर प्रदेश, राजस्थान बिहार, आन्ध्र प्रदेश में व्याप्त है| रोग के लक्षण पुष्पन के बाद स्पष्ट होते हैं| जड़ के शीर्ष क्षेत्र की अन्तः ग्रन्थियाँ रोगग्रस्त होती हैं| तने की चीरने पर वृन्त में गुलाबी-जामुनी बेरंग दिखाई देता है|
2. काठकोयला सड़न (कारक मैक्रोफोमिना फेसिओलिना)- पुष्पन के बाद जल दबाब उत्पन्न होने से पौधा इस रोग के प्रति संवेदनशील होता है, अतः शुष्क क्षेत्रों में मक्का की खेती पर यह रोग गम्भीर प्रभाव डालता है| प्रभावित अंतः ग्रन्थियाँ समेकित नहीं होती, पौधा अपरिपक्व अवस्था में सूख जाता है| वृन्त की छाल पर लघु पिन हैड़ जैसे काले स्कलिरोशिया दिखाई देते हैं|
पछेती उकठा
मक्का खेती का यह रोग (कारक सिफलोस्पोरियम मेड़िस) आमतौर पर आन्ध्र प्रदेश में गम्भीर रूप से व्याप्त है, पत्तों में मामूली गलन होने लगता है| पत्तियां मन्द हरी हो कर सूख जाती हैं| वृन्त का निचला हिस्सा सूखकर छिलके की तरह उतर जाता है और खोखला हो जाता है| वृन्त बैंगनी या गहरे भूरे रंग का होकर गीली सड़न के साथ प्रगलित हो जाता है|
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