
मसूर की फसल को बहुत से हानिकारक कीट और रोग नुकसान पहुचाते है| जिससे किसानों को मसूर की फसल से अपनी इच्छित उपज प्राप्त नही हो पाती है| यदि समय पर आर्थिक स्तर से अधिक हानि पहुचाने वाले कीट एवं रोगों पर नियंत्रण कर लिया जाए तो मसूर की फसल से अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है| इस लेख में मसूर की फसल में प्रमुख कीट और रोगों पर समेकित नियंत्रण कैसे करें का विस्तार से उल्लेख किया गया है| मसूर की वैज्ञानिक खेती की जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- मसूर की खेती की जानकारी
मसूर की फसल में रोग नियंत्रण
उखेड़ा रोग- यह मसूर की फसल का प्रमुख रोग है| यह सामान्यतः मृदा तथा बीज जनित रोग है| इसके फफूंद बगैर पोषक या नियन्त्रक के भी मृदा में लगभग छः वर्षों तक जीवित रह सकती है| यह व्याधि पर्याप्त मृदा नमी होने पर और तापमान 25 से 30 डिग्री सेन्टिग्रेड होने पर तीव्र गति से फैलती है| इससे रोग ग्रसित मसूर के पौधे के उपरी हिस्से की पत्तियाँ और डंठल झुक जाते हैं| पौधा सूखना शुरू कर देता है और मरने के लक्षण दिखाई देने लगते हैं|
नियंत्रण-
1. खेत को ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई कर बिना पाटा दिए छोड़ देना चाहिए|
2. लगातार तीन 3 वर्ष तक फसल चक्र अपनाए यानि दलहनी के बदले तिलहनी, गेहूँ, मक्का उगायें|
3. मसूर की फसल हेतु उखड़ा रोग रोधी किस्मों का चुनाव करें|
4. थीरम, कैप्टान, ट्राईकोडरमा की अनुशंसित मात्रा से बीजोपचार करें|
5. ट्राईकोडरमा के अनुशंसित (2 से 5 किलोग्राम) मात्रा से मिट्टी शोधन करना लाभप्रद होता है|
6. बीज को मिट्टी में 8 से 10 सेंटीमीटर गहराई में गिराने से उखड़ा रोग का प्रभाव कम होता है|
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हरदा रोग- मसूर की फसल का यह रोग भी फफूंद जनित है| पौधों में वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा होने, मिट्टी में नमी बहुत बढ़ जाने और वायुमंडलीय तापमान बहुत गिर जाने पर इस रोग का आक्रमण होता है| पौधों के पतियों, तना, टहनियों और फलियों पर गोलाकार प्यालिनुमा सफेद भूरे रंग का फफोले बनते हैं| बाद में तना के फफोले काले हो जाते हैं तथा पौधे सूख जाते हैं|
पौधों पर इस रोग का आक्रमण जितना अगेता होता है, क्षति उतना ही अधिक होती है| इस रोग से 80 प्रतिशत तक क्षति पाई गई है| फसल में यह रोग हर वर्ष नहीं आता है| पौधे में रोग के आक्रमण के बारे में तब जान पाते हैं जब फफूंद प्रजननता अवस्था में रहता है| इसलिए फफूंद के लिए उपर्युक्त वातावरण बनते ही सुरक्षात्मक उपचार करना चाहिए|
नियंत्रण-
1. मसूर की फसल हेतु रोग रोधी प्रजाति का चुनाव करना चाहिए|
2. फफूंद नाशी से बीजोपचार करना चाहिए|
3. फफूंद के उपर्युक्त वातावरण बनते ही मेनकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण 2 किलोग्राम का सज्ञात्मक छिड़काव करना चाहिए|
मृदरोमिल रोग- मसूर की फसल में यह रोग फफूंद जनित है| बोआई के लगभग तीन महीने बाद रोग के लक्षण प्रकट होते हैं| पहले पत्तियों पर छोटे सफेद फफोले बनते हैं, जो बाद में तना एवं फलियों पर भी छा जाते हैं|
नियंत्रण-
1. इस रोग के प्रबंधन के लिए फसल अवशेष को नष्ट देना चाहिए|
2. घुलनशील सल्फर 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या ट्राइडेमार्फ 80 प्रतिशत 500 से 600 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए तथा आवश्यकतानुसार 15 दिनों बाद छिड़काव को दोहराएँ|
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मसूर की फसल में कीट नियंत्रण
कजराकीट/कट वर्म- कजरा कीट कभी-कभी मसूर उत्पादक क्षेत्रों में कटवर्म समूह के कीटों का आक्रमण हो जाता है| कजरा कीट 3 से 4 सेंटीमीटर लम्बा काले भूरे रंग का चिकना एवं मुलायम होता है| दिन में कीट मिट्टी में छिपे रहते हैं और शाम में निकलकर पौधे को काटते हैं| यह कीट बहुभक्षी है और दलहनी के अलावे मक्का, आलू, तम्बाकू आदि में क्षति करता है|
नियंत्रण-
1. खड़ी में फसल क्षति नजर आने पर खेत में कुछ-कुछ दूरी पर खरपतवार का ढेर लगा देना चाहिए| सवेरा होते ही ये कीट इन ढेरों में छिप जाते है, जिन्हें चुनकर नष्ट कर देना चाहिए|
2. खड़ी फसल में क्लोरोपायरीफॉस 20 प्रतिशत ई सी 2.5 लीटर या इण्डोसल्फॉन 35 प्रतिशत ई सी, क्यूनलफॉस 25 प्रतिशत ई सी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से शाम में छिड़काव करना लाभप्रद होता है|
3. मसूर की फसल में सिंचाई द्वारा इस कीट के आक्रमण को कम किया जा सकता है|
मधुआ कीट- यह हल्के रंग के छोटे आकार का फुदकने वाला कीट है| कभी-कभी इसका आक्रमण मसूर की आरंभिक अवस्था में पौधों पर हो जाता है| इसके शिशु एवं व्यस्क दोनों ही मसूर की फसल को क्षति पहुचाते है|
नियंत्रण-
1. मसूर की फसल में उपस्थित मित्र कीटों का संरक्षण करना चाहिए|
2. पौधे-से-पौधे की दूरी अनुशंसा के आधारित होना चाहिए और फसल खरपतवार से मुक्त रहनी चाहिए|
3. अंतिम उपचार के रूप में मोनोक्रोटोफॉस 36 प्रतिशत या डायमोथोएट 30 प्रतिशत ई सी 750 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर छिड़काव किया जा सकता है|
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थ्रिप्स कीट- यह सूक्ष्म आकृति वाला काला एवं भूरे रंग का बेलनाकार कीट होता है| यह पत्तियों को खुरचता है और उससे निकले द्रव्य को पीता है| पत्तियों पर छोटे सफेद दाग बन जाते हैं व पौधे की बढ़वार रूक जाती है|
नियंत्रण-
1. मसूर की फसल में उपस्थित मित्र कीटों का संरक्षण करना चाहिए|
2. पौधे से पौधे की दूरी अनुशंसा के आधारित होना चाहिए तथा फसल खरपतवार से मुक्त रहना चाहिए|
3. अधिक प्रकोप की स्थिति में मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत या डायमोथोएट 30 प्रतिशत, ई सी 750 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर छिड़काव किया जा सकता है|
कैटर पिलर- इस कीट लगभग एक सेंटीमीटर लम्बा हरे रंग का होता है| जिसका अगला भाग पतला तथा पीछे का भाग अपेक्षाकृत मोटा होता है| मादा पतंगा फुनगियों पर अंडे देती है| जिससे निकला नवजात अपने स्रावित धागे से ऊपरी पत्तियों को बांध देता है और उसी में रहकर मुलायम पत्तियों को खाता है| इससे पहले शाखाएं और बाद में पूरा पौधा सूख जाता है|
नियंत्रण-
1. मसूर की फसल में उपस्थित मित्र कीटों का संरक्षण करना चाहिए|
2. मसूर की फसल में पक्षी बैठने की जगह बनानी चाहिए|
3. इस कीटा का ज्यादा प्रकोप होने पर इन्डोसल्फान 35 प्रतिशत ई सी या क्वीनलफॉस 25 प्रतिशत ई सी एक लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए या किसी धूल कीटनाशी का बुरकाव अनुशंसित मात्रा में कर देने से भी यह कीट नियंत्रित हो जाता है|
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लाही कीट- कभी-कभी पुष्पण के समय आसमान में बादल छा जाने और पूर्वी हवा चलने पर मसूर की फसल पर लाही कीट का आक्रमण हो जाता है| लाही कीट सूक्ष्म आकृति वाला मुलायम पंख युक्त एवं पंख विहीन काले रंग का या हरे रंग का कीट होता है| मादा कीट बिना नर से मिले भी कीट को जन्म देती है| ये टहनियों पर बहुत जल्द ही अपना समूह बना लेते हैं| लाही कीट समूह में रहकर मुलायम पत्तियों या टहनियों का रस चूसते हैं, जिससे पौधे कमजोर एवं फलन में कमी आ जाती है|
नियंत्रण-
1. इस कीट के प्रबंधन के लिए अनुकूल वातावरण बनते ही प्रति हेक्टेयर 20 एलो स्ट्रीकी ट्रैप लगाना चाहिए| लाही कीट का पीले रंग के प्रति आकर्षण होता है, जिस कारण लाही कीट सटकर मर जाते हैं| मादा कीटों के ट्रैप हो जाने के कारण इनकी संख्या बढ़ नहीं पाती है|
2. लेडी वर्ड बिटिल, सिरफीड फ्लाई आदि इस कीट के शत्रु हैं, लेकिन मौसम ठंढा होने के कारण लेडी वर्ड बिटिल की संख्या बढ़ नहीं पाती है|
3. कीट की तीव्रता बढ़ जाय तो मधुआ कीट के लिए अनुशंसित किसी एक कीटनाशी या नीम आधारित कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिए|
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फली छेदक कीट- पौधे में फली आने के पूर्व कीट पत्तियों को खा जाते है| फली आने के बाद कीट अपना मुख्य भाग फली के अन्दर डाल कर दानों को खाता है तथा उसके शरीर का कुछ भाग फली के बाहर लटका रहता है| कीट के स्वभाव के अनुसार इसे अनेक नामों से जानते हैं|
नियंत्रण-
1. मध्य नवम्बर से यदि किसान दस फेरोमोन फंदा जिसमें हेलिकाकोभरषा अर्मीजोरा का लियोर लगा हो प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगावें, अधिकतर नर पतंगा मारे जाएगें, जिससे प्रजनन बाधित होगा और कीटों की संख्या में कमी आएगी|
2. यदि प्रति ट्रेप 6 नर कीट प्रतिदिन फसते हैं, तो इस स्थिति में उपलब्ध रहने पर 50 हजार प्रति हेक्टेयर की दर से ट्राईकोग्रामा छोड़े। यह कीट फली छेदक के अण्डे में अपना अण्डा डाल देता है, जिससे ट्राईकोग्रामा कीट निकलते हैं|
3. न्यूक्लीयर पोलीहाईड्रोसिस वायरस 250 एल ई का घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए|
4. मसूर की फसल में प्रकाश फंदा लगाकर पतंगों को नष्ट किया जाना चाहिए|
5. खेत में बांस के T आकार के बीस वर्ड पर्चर प्रति हेक्टेयर लगाना चाहिए, इस पर पंक्षी बैठते हैं तथा कीटों का भक्षण कर फसल में इनकी संख्या को नियंत्रित रखते हैं|
6. इसके नियंत्रण के लिए इण्डोसल्फॉन 35 प्रतिशत ई सी 1 से 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से या, मोनोक्रोटोफॉस 36 प्रतिशत तरल 750 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से या, क्यूनलफॉस 25 प्रतिशत ई सी एक लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें|
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