लहसुन की जैविक विधि से खेती किसानों के लिए वरदान हो सकती है| क्योंकि कंदीय फसलों में आलू और प्याज के बाद लहसुन एक महत्वपूर्ण फसल हैं| यह नगदी फसल के रूप में हमारे देश में रबी मौसम में उगायी जाती है| यदि कृषक लहसुन की जैविक खेती करें तो एक तो उनकी उत्पादन लागत कम होगी दूसरा स्वस्थ और उच्च गुणवता के फल प्राप्त होंगे| जबकि मानव स्वस्थ्य और पर्यावरण पर भी कोई दुष्परिणाम नही होगा|
वहीं रसायनिक खेती से रसायनों और कीटनाशकों के प्रयोग से लहसुन के कंद विषेले हो जाते है| जिसके उपयोग से मानव शरीर में अनेक बीमारी जन्म लेती है और पर्यावरण को भी नुकसान पहुचता है| इसलिए लहसुन की जैविक खेती आवश्यक है| किसान बन्धु थोड़ी सी जागरुकता के साथ लहसुन की जैविक खेती सफलतापूर्वक कर सकते है और अच्छी पैदावार भी प्राप्त कर सकते है| इस लेख में लहसुन की जैविक उन्नत खेती कैसे करें की पूरी जानकारी उपलब्ध है|
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लहसुन की जैविक खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
लहसुन एक सख्त फसल है, जिसके पौधे में पाला बर्दाश्त करने की क्षमता होती है| इसलिए इसकी वृद्धि के समय ठण्डा और नम मौसम तथा शल्क कंदों के परिपक्वता के समय अपेक्षाकृत शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है| लहसुन की खेती मुख्यतः रबी मौसम में ही की जाती है, क्योंकि अत्यन्त गर्म तथा लम्बे दिनों वाला समय इसके कंदों की बढ़वार के लिए उपयुक्त नहीं होता है|
ऐसी जगह जहाँ न तो बहुत गर्मी हो और न ही बहुत ठण्ड हो, लहसुन की जैविक खेती के लिए उपयुक्त है| लहसुन की खेती समुद्र तल से लेकर 1000 से 1300 मीटर तक की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में भली भांति की जा सकती है|
लहसुन की जैविक खेती के लिए भूमि का चयन
लहसुन की जैविक खेती विभिन्न प्रकार की भूमि में की जा सकती है| परन्तु जीवांशयुक्त दोमट मिटटी इसकी अच्छी पैदावार के लिये उपयुक्त है| वैसे बलुई दोमट से लेकर चिकनी दोमट मिटटी में भी इसकी खेती की जा सकती है| भारी भूमि में कंद टेढ़े-मेढ़े तथा छोटे बनते हैं और खुदाई कठिन होती है| बहुत हल्की भूमियों में उगाये गये कंदों का वजन हल्का तथा रंग एवं भण्डारण क्षमता खराब होती है|
इसकी खेती हेतु मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अधिक होने के साथ-साथ जल निकास की व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए| मिट्टी का पी एच मान 6 से 7 होना चाहिए| बहुत क्षारीय भूमि लहसुन की जैविक खेती हेतु उपर्युक्त नहीं होती है| मिटटी सुधारक के प्रयोग के उपरान्त आंशिक रूप से सुधरी हुई भूमि में जीवांश की पर्याप्त मात्रा मिलाकर 8.5 पी एच तक लहसुन की जैविक खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है|
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लहसुन की जैविक खेती के लिए किस्मों का चयन
किसान बन्धुओं को लहसुन की जैविक फसल से अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए अपने क्षेत्र की प्रचलित और उत्तम पैदावार देने वाली के साथ विकार रोधी किस्म का चयन करना चाहिए और जहां तक संभव हो सके जैविक प्रमाणित बीज ही उपयोग में लायें| हमारे देश की कुछ प्रचलित उन्नत किस्में इस प्रकार है, जैसे-
यमुना सफेद (जी- 1), यमुना सफेद- 2 (जी- 50), यमुना सफेद- 3(जी- 282), यमुना सफेद- 5 (जी- 189), एग्रीफाउण्ड व्हाइट (जी- 41), एग्रीफाउण्ड पार्वती (जी- 313), पार्वती (जी- 323), जामनगर सफेद, गोदावरी (सेलेक्सन- 2), स्वेता (सेलेक्सन- 10), टी- 56-4, भीमा ओंकार, भीमा पर्पल, वीएल गार्लिक- 1 और वीएल लहसुन- 2 आदि प्रमुख है| किस्मों की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- लहसुन की उन्नत किस्में, जानिए उनकी विशेषताएं और पैदावार
लहसुन की जैविक खेती के लिए खेत की तैयारी
लहसुन की जैविक फसल हेतु गर्मी की जुताई करके उसमें मौजूद कीटों की अवस्थाओं को नष्ट करके हरी खाद हेतु उपयुक्त फसल जैसे- सनई या ढेंचा की बुवाई करें और समय से हरी खाद की फसल को मिट्टी में पलट कर उसे सड़ने हेतु पर्याप्त नमी उपलब्ध करायें इसके बाद दो से तीन जुताई करके खेत को अच्छी प्रकार समतल बनाकर क्यारियों तथा नालियों में बांट देते हैं|
क्यारी की चौड़ाई इस प्रकार रखनी चाहिए कि मेढ़ों पर बैठकर निराई-गुड़ाई आसानी से की जा सके| लम्बाई भूमि के ढाल की आवश्यकतानुसार रखी जा सकती है| इसके बाद सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट क्यारियों में अच्छी तरह मिला देते हैं|
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लहसुन की जैविक खेती के लिए प्रवर्धन और बुवाई की विधि
लहसुन का प्रवर्धन वानस्पतिक रूप से इसके कलियों (क्लोव) या जवा द्वारा किया जाता है| कुछ प्रजातियों में बनने वाली बुलबिल्स भी प्रबर्धन हेतु रोपण सामग्री के रूप में इस्तेमाल की जा सकती है| अच्छे और स्वस्थ लहसुन के शल्क कंद उत्पन्न करने के लिए अब उत्तक संवर्धन विधि भी विकसित कर ली गई हैं|
उत्पादन लागत कम करने और कृषि श्रमिक की कमी के कारण विदेशों में लहसुन की रोपाई हेतु राजमा प्लान्टर प्रयोग किया जाता है| लहसुन की बुवाई के लिए हमारे देश में प्रचलित विभिन्न विधियाँ इस प्रकार है, जैसे-
डिबलिंग- इस विधि में सिंचाई की सुविधानुसार खेत को छोटी-छोटी क्यारियों में बाँट लिया जाता है| इसके बाद जवे (फाक) का नुकीला भाग ऊपर रखते हुए 5 से 7 सेंटीमीटर की गहराई पर जवे की डबलिंग कर दी जाती है|
कूड में बुवाई- इस विधि में हैंड हो की सहायता से वांछित दूरी पर कूड़े बना ली जाती हैं| इन कूड़ो में लहसुन के जवे को हाथ की सहायता से गिरा दिया जाता है| इसके बाद इनको भुरभुरी मिट्टी से ढक दिया जाता है|
छिटकवां विधि- इस विधि में बुवाई 15 से 20 सेंटीमीटर की दूरी पर 6 सेंटीमीटर ऊँची पतली मेढ़ पर दस सेंटीमीटर की दूरी पर करने पर अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं|
चूँकि लहसुन की बुवाई की सबसे उपयुक्त विधि डिबलिंग और उसके बाद कुंड में बुवाई हैं| इसलिए आगे इसी विधि के अनुसार वर्णन किया गया है|
लहसुन की जैविक खेती के लिए बुवाई का समय
लहसुन की जैविक खेती से अच्छी पैदावार के लिये मैदानी भागों में लहसुन की बुवाई का उपयुक्त समय अक्टूबर से नवम्बर तक है और पहाड़ी क्षेत्रों में मार्च से मई तक का समय उपयुक्त मन गया है|
लहसुन की जैविक खेती के लिए बीज व बीज मात्रा
लहसुन के कंदों में कई कलिया (क्लोव्स) होती हैं| इन्हीं कलियों को गांठों से अलग करके बुवाई की जाती है| अधिक पैदावार और अच्छी गुणवत्ता के लिये लहसुन की बुवाई हेतु बड़े आकार के क्लोव्स (जवे) जिनका व्यास 8 से 10 मिलीमीटर हो, प्रयोग करना चाहिए| इसके लिये शल्क कंद के बाहरी तरफ वाली कलियों को चुनना चाहिए|
कंद के केन्द्र में स्थित लंबी खोखली कलिया बुवाई के लिए अनुपयुक्त होती हैं| क्योंकि इनसे अच्छे कंद प्राप्त नहीं होते| इस प्रकार एक हैक्टेयर क्षेत्र में 15 X 10 सेंटीमीटर रोपण दूरी रखने पर लहसुन की बुवाई हेतु 8 से 10 मिलीमीटर व्यास के लगभग 5 से 7 कुन्तल (500 से 700 किलोग्राम) जवा की आवश्यकता पड़ती है|
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लहसुन की जैविक खेती के लिए भूमि और बीज उपचार
मृदा उपचार- 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ट्राइकोडर्मा विरिडी को 60 से 70 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर 8 से 10 दिन तक हल्की नमी बनाये रखकर छाया में रखने के उपरान्त बुआई से पूर्व आखिरी जुताई के समय भूमि में मिला देना चाहिए और साथ में 200 किलोग्राम नीम खली का भी उपयोग करें|
शल्ककंद या बीज उपचार- बुआई से पहले कलियों को ट्राईकोडर्मा 200 ग्राम प्रति 15 से 20 लीटर पानी के धोल में 15 से 20 मिनट डुबोयें|
लहसुन की जैविक खेती के लिए रोपण की दूरी
सम्पूर्ण गुणवत्ता उत्पादन के लिए लहसुन की जैविक फसल को पर्याप्त धूप, हवा एवं कर्षण क्रियायें सुविधाजनक ढंग से संपन्न करने हेतु जवों (क्लोव) को उपयुक्त दूरी (पंक्ति से पंक्ति x पौधे से पौधे) प्रदान करते हुए बीज बुवाई की जानी चाहिए| लहसुन में रोपण की दूरी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होती है|
कम दूरी पर रोपाई करने से लहसुन के रोगों में विशेषकर बैगनीं धब्बा रोग का प्रकोप अधिक होता है| मैदानी क्षेत्रों में उन्नतशील किस्मों से अधिक व्यास के जवे (क्लोव्स) तथा बड़े आकार के निर्यात योग्य शल्क कंद पैदा करने के लिए लहसुन की बुवाई 15 x 10 सेंटीमीटर की दूरी पर करने की संस्तुति की गई है|
लहसुन की जैविक खेती के लिए बुवाई का तरीका
लहसुन की जैविक खेती हेतु बुवाई उपरोक्त संस्तुत दूरी पर लगभग 5 से 6 सेंटीमीटर गहरी करते हैं| बुवाई करते समय यह ध्यान देना आवश्यक है, कि कलियों (क्लोव्स) का नुकीला भाग ऊपर ही रखा जाये| बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है|
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लहसुन की जैविक खेती के लिए खाद की मात्रा
लहसुन की रसायनिक खेती से अच्छी पैदावार के लिये 100 से 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फॉस्फोरस तथा पोटाश 40 किलोग्राम की प्रति हेक्टेयर आवश्यकता पड़ती है| परन्तु लहसुन की जैविक खेती में उपरोक्त तत्वों की पूर्ति के लिए 125 से 175 कुन्तल नादेप कम्पोस्ट खाद या 40 से 50 टन सडी गोबर की खाद के साथ 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से जैव उर्वरक को अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए| इससे मुख्य पोषक तत्वों और सूक्ष्म पोषक तत्वों की पूर्ति संभव है| खड़ी फसल में जीवामृत और मटका खाद का उपयोग भी उपज बढ़ाने में लाभप्रद पाया गया है|
लहसुन की जैविक फसल में सिंचाई प्रबंधन
समान्यतया लहसुन को वानस्पतिक वृद्धि के समय 7 से 8 दिन के अन्तर पर तथा परिपक्वता के समय 10 से 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है| पहली सिंचाई बुवाई के बाद की जाती हैं| अंकुरण के लिए उपयुक्त भूमि नमीं, फील्ड क्षमता की 80 से 100 प्रतिशत होती है| लहसुन के वृद्धि काल में भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए अन्यथा कंदों का विकास प्रभावित होता हैं| लहसुन उथली जड़ वाली फसल है|
जिसकी अधिकांश जड़ें भूमि के उपर 5 से 7 सेंटीमीटर के स्तर में रहती है| इसलिए प्रत्येक सिंचाई में मिटटी को इस स्तर तक नम कर देना चाहिए| उत्तर भारत में साधारणतया सर्दी के मौसम में 10 से 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करते हैं, परन्तु गर्मियों में सिंचाई प्रति सप्ताह करते हैं| जिस समय गांठें बन रहीं हों, सिंचाई जल्दी-जल्दी करते हैं| जब फसल परिपक्वता पर पहुँच जाये तो सिंचाई बंद कर खेत सूखने देना चाहिए|
लहसुन की जैविक खेती में निराई-गुड़ाई
लहसुन की जैविक फसल से अच्छी उपज और गुणवत्तायुक्त कंद प्राप्त करने के लिए समय से निराई-गुड़ाई करके लहसुन की क्यारी को साफ रखना आवश्यक है| पहली निराई रोपण या बुआई के एक माह बाद एवं दूसरी निराई, पहली के एक माह बाद अर्थात बुआई के 60 दिन बाद करनी चाहिए| कंद बनने के तुरन्त पहले निराई-गुड़ाई करने से मिट्टी ढीली हो जाती है|
जिससे बड़े आकार के तथा जवे से अच्छी तरह भरे कंदों को बनने में सुगमता होती है| लहसुन की जड़े अपेक्षाकृत कम गहराई तक जाती हैं| इसलिए गुड़ाई हमेशा उथली करके खरपतवार निकाल देते हैं| बुआई के 45 दिन पश्चात् एक बार निराई-गुड़ाई कर देने से फसल अच्छी पनपती है|
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लहसुन की जैविक फसल में कीट नियंत्रण
थ्रिप्स कीट- इस कीट के अर्भक व वयस्क दोनों ही लहसुन की पत्तियों को खुरचकर रस चूसते हैं| क्षतिग्रस्त पत्तियाँ चमकीली सफेद दिखती है, जो बाद में ऐंठकर मुड़ और सूख जाती है| ऐसे पौधों के कन्द छोटे रह जाते हैं, जिससे पैदावार में भारी कमी आ जाती है| इस कीट के प्रकोप से लहसुन के पौधों में बीमारियाँ अधिक आने लगती है|
नियंत्रण के उपाय-
1. रोपाई हमेशा समय पर ही करनी चाहिए|
2. शुष्क वातावरण वाली जगहों पर 2 से 6 सप्ताह के अन्तर पर लहसुन की रोपाई करनी चाहिए, जिससे थ्रिप्स के जीवन-चक्र को नियंत्रित किया जा सके|
3. थ्रिप्स कीट को फव्वारा सिंचाई द्वारा भी कम कर सकते हैं, क्योकि बौछारीय सिंचाई से यह कीट मर जाते हैं|
4. खड़ी फसल में एजाडिरेक्टिन 0.15 प्रतिशत ई सी की 2.5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर आवश्यकतानुसार 15 दिन के अंतराल पर सायंकाल छिड़काव करना चाहिए|
5. क्राइसोपर्ला के 50000 से 100000 लारवा या 500 से 1000 प्रौढ़ प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए, सामान्यतयाः इन्हें 2 बार छोड़ना चाहिए|
माइट- इस कीट के कारण पौधों की पत्तियां पूर्णरूप से नहीं खुल पाती है| पत्तियों के किनारे पर पीलापन आता है तथा पूरी पत्तियॉ कुकड़ कर एक दूसरे से लिपट जाती है|
नियंत्रण- इस कीट की रोकथाम के लिए नीम के बीजों को पीसकर पाउडर बनाकर पानी में घोलकर और इस घोल को कपड़े से छानकर पांच प्रतिशत के हिसाब से पानी में घोल बनाकर हर 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें|
चैपा- यह कीट पौधों का रस चूसते हैं, जिससे पौधे कमज़ोर बनाते हैं| गंभीर हमले से पौधे के पत्ते मुड़ जाते हैं तथा पत्तों का आकार बदल जाता है|
नियंत्रण के उपाय-
1. खेतों के आस-पास के खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिये|
2. नत्रजन उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा ही कम में लेवें|
3. आवश्यकतानुसार सिंचाई करें|
4. खेतों में नीम के बीजों के पाउडर या नींबौली के पाउडर का छिड़काव करते रहना चाहिये|
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लहसुन की जैविक फसल में रोग नियंत्रण
सफेद गलन- इस रोग के लक्षण जमीन के समीप प्याज का ऊपरी भाग गल जाता है और संक्रमित भाग पर सफेद फफूंद और जमीन के ऊपर हल्के भूरे रंग के सरसों के दाने की तरह सख्त संरचनायें बन जाती है, संक्रमित पौधें मुरझा जाते हैं तथा बाद में सूख जाते हैं|
नियंत्रण के उपाय-
1. मई से जून में खेत की हल्की सिंचाई करने के बाद जुताई करना चाहिए, जिससे फफूंद के स्केलेरोशिया अंकुरित होकर नष्ट हो जाते है|
2. खेत में ट्राइकोडर्मा हारजिएनम या ट्राईकोडर्मा विरिडी जैव नियंत्रक फफूंद की 5 से 6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद के साथ मिलाये|
3. स्यूडोमोनास फ्लूओरिसेन्स की 5.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाना चाहिए|
बैंगनी धब्बा- इस रोग को फैलाने वाले रोगकारक फफूंद बीज और मिटटी जनित होते हैं| इस रोग के लक्षण लहसुन की पत्तियों और बीज फसल की डंठलो पर शुरूआत में सफेद भूरे रंग के धब्बे बनते हैं| जिनका मध्य भाग बैगनी रंग का होता है| इस रोग का संक्रमण उस समय अधिक होता है, जब वातावरण का तापक्रम 27 से 30 सेंटीग्रेट तथा आर्द्रता अधिक हो, खरीफ मौसम में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है|
नियंत्रण के उपाय-
1. फसल अवशेष को एकत्र करके जला देना चाहिए|
2. गर्मी के महीने मई से जून में खेत की गहरी जुताई करना चाहिए|
3. उचित फसल-चक्र अपनाना चाहिए|
4. स्वस्थ पौधों से बीज का चुनाव करें और प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करें|
5. बीज और मिटटी उपचार को अहमियत दें|
झुलसा– लहसुन में इस रोग से प्रारंभ में छोटे सफेद और हल्के भूरे धब्बे बनते हैं, जो बाद में गहरे भूरे या काले रंग के हो जाते हैं| यह धब्बे पत्ती के भीतरी सतह में फैल जाते है, जबकि बाहरी सतह हरी रहती है व बीज फसल में डंठलों पर भी फैल जाते हैं| जिसमें बीज फसल की डंठले संक्रमित भाग से मुड़कर लटक जाती हैं| लहसुन में पत्ती के किनारे शुरू में भूरे या पीले दिखाई देते हैं, बाद में बीजाणु बनने पर किनारे काले रंग के हो जाते हैं|
नियंत्रण के उपाय-
1. फसल अवशेष को एकत्र करके जला देना चाहिए|
2. गर्मी के महीन मई से जून में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए|
3. उचित फसल-चक्र अपनाना चाहिए|
4. स्वस्थ पौधों से बीज का चुनाव करे या प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करें|
5. रोग के लक्ष्ण फसल पर दिखाई देने पर गोमूत्र के 2 से 3 छिडकाव 7-7 दिन पर करें|
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लहसुन की जैविक फसल की खुदाई और भंडारण
जिस समय लहसुन की जैविक फसल की पत्तियाँ पीली पड़ जायें तथा सूखने लग जायें, फसल को परिपक्व समझना चाहिए| इसके बाद सिंचाई बंद कर देनी चाहिए और 15 से 20 दिनों बाद कंदों की खुदाई कर लेना चाहिए| लहसुन की फसल किस्म एवं मिट्टी के अनुसार बुआई के लगभग 4 से 5 माह बाद तैयार हो जाती है| जब कंद अच्छी तरह पक जायें तब खुरपी की सहायता से खुदाई मैनुअली की जानी चाहिए|
खुदाई के बाद कंदों को 3 से 4 दिनों तक छाया में सुखा लेते हैं| फिर 2 से 2.5 सेंटीमीटर छोड़कर पत्तियों को कंदों से अलग कर कंदों को साधारण भण्डारण में पतली तह में रखते हैं| फर्श पर नमी नहीं होनी चाहिए, लघु कृषकों को सीमित क्षेत्र में लहसुन की खेती करने पर खुदाई के बाद सम्पूर्ण पौध के साथ ही छाया में बांस के टट्टर या रस्सियों पर टांग कर भण्डारित करना चाहिए|
लहसुन की जैविक खेती से पैदावार
लहसुन की जैविक खेती की पैदवार किस्म के चयन, देखभाल और अन्य सस्य क्रियाओं पर निर्भर करती है| लेकिन उपरोक्त तकनीक से लहसुन की जैविक खेती से 100 से 225 क्विंटल पैदावार प्रति हैक्टर तक प्राप्त हो जाती है|
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