अप्रैल माह में लहलहाती फसलें कटाई के लिए तैयार है तथा मौसम बड़ा ही मनमोहक है, जो लोगों में ऊर्जा भरने वाला है। तापमान में वृद्धि होने लगी है और रातें छोटी व दिन बड़े होने लगे हैं। इसके साथ ही रबी फसलों की कटाई, मड़ाई का कार्य भी शुरू हो जाता है। रबी की मुख्य फसलें जैसे-गेहूं, जौ, चना, मटर और मसूर फसलों की कटाई अप्रैल माह तक करके, अनाज को अच्छे से रखते हैं और टंकी, कोठी, बारदानों को अच्छी तरह से साफ करने के बाद नया अनाज उनमें रखते हैं।
इसी प्रकार अप्रैल माह में मौसम में भी अप्रत्याशित बदलाव आने लगते हैं, जैसे तेज हवाओं का चलना, आंधी-तूफान आना और असमय वर्षा होना। मौसम के स्वभाव पर विशेष ध्यान देना चाहिए और मौसम संबंधी भविष्यवाणी से अवगत रहकर सही समय पर फसल कटाई संबंधी कार्यों को पूर्ण करना चाहिए। इसके साथ-साथ खाली खेतों में जायद मौसम के अंतर्गत कृषि उत्पादन वृद्धि के लिए उपलब्ध संसाधनों का समुचित और सामयिक उपयोग आवश्यक है।
सिंचाई सुविधा संपन्न क्षेत्रों में जायद फसलें जैसे- सूरजमुखी, मूंगफली, मूंग, उड़द, बाजरा, मक्का, बेबीकॉर्न, गन्ना, चारे वाली फसलें (ज्वार, बाजरा, मक्का व लोबिया), मेंथा तथा हरी खाद की फसलों की बुआई शुरू हो जाती है। इसके लिए खेत को भलीभांति तैयार कर, उपयुक्त नमी बनाये रखने के लिए आवश्यक सिंचाई प्रबंधन करना चाहिए। इसके साथ ही बीज खाद और उर्वरक का समय पर प्रबंध कर लेना चाहिए। इस माह किये जाने वाले कृषि कार्यों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार से है।
अप्रैल महीने के प्रमुख कृषि कार्य
गेहूं, जौ और अनाज वाली फसलें
1. गेहूं की कटाई से लेकर बेचने तक की अवधि में कई प्रकार के कार्य किए जाते हैं, जिनका अलग-अलग महत्व है। यदि खेत छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरे हुए हैं, तो गेहूं के एक बड़े हिस्से की कटाई श्रमिकों द्वारा दरांती, हंसिए, रीपर या मोअर से की जाती है, जिसमें सतह से 3-6 सेंमी ऊपर से कटाई की जाती है। आजकल आसानी से कटाई के लिए रीपर का उपयोग बढ़ता जा रहा है। बड़े पैमाने पर खेती के लिए कम्बाइन प्रयोग में लाई जाती है। फसल को पकने के तुरंत बाद काट लेना चाहिए। फसल अधिक पकने पर कुछ प्रजातियों में दाने झड़ने लगते हैं।
इसके अतिरिक्त पकने के बाद काटने में देरी करने से चिड़ियों तथा चूहों से भी नुकसान हो सकता है। कभी-कभी काटने में देरी करने से गेहूं की गुणवत्ता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। पकने की अवस्था का अनुमान किसान अपने अनुभव के आधार पर लगा सकते हैं। अप्रैल के अंत तक प्रायः सभी किस्मों को काट लेना चाहिए। गेहूं में कुल उत्पादन का लगभग 8 प्रतिशत भाग कटाई उपरांत नष्ट हो जाता है। उचित तरीकों को अपनाकर इन नुकसानों को कम किया जा सकता है।
2. गेहूं की फसल अप्रैल महीने में पककर तैयार हो जाती है। जब दाने सुनहरे होकर सख्त होने लगे तथा दानों में 18-20 प्रतिशत नमी हो, वह कटाई की सही अवस्था होती है। सुबह का समय कटाई के लिए ज्यादा उपयुक्त होता है। अगर कटाई हाथ से की जाती है, तो फसल के बंडल को 3-4 दिनों तक खेत में छोड़ देना चाहिए।
बड़ी जोत वाली जगहों पर कम्बाइन हार्वेस्टर का प्रयोग करने से कटाई, मड़ाई तथा ओसाई एक साथ हो जाती है। भूसे को इकट्ठा करने के लिए भूसे बनाने की मशीन का उपयोग भी किया जा सकता है। परन्तु कम्बाइन हार्वेस्टर से कटाई करने के लिए दानों में 20 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं होनी चाहिए। दानों में ज्यादा नमी रहने पर मड़ाई या गहाई ठीक से नहीं हो पाती है।
3. उन्नत तकनीक से खेती करने पर सिंचित अवस्था में गेहूं की बौनी किस्मों से लगभग 50-60 क्विंटल दाने के अलावा 80-90 क्विंटल भूसा प्रति हैक्टर प्राप्त होता है। देसी लंबी किस्मों से इसकी लगभग आधी उपज प्राप्त होती है। देसी किस्मों से असिंचित अवस्था में 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज प्राप्त होती है।
4. भंडारण के लिए दानों में 10-12 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं होनी चाहिए। भंडारण से पूर्व कोठियों तथा कमरों को साफ कर लें और दीवारों व फर्श पर मैलाथियान 50 प्रतिशत के घोल को 3.0 लीटर प्रति 100 वर्गमीटर की दर से छिड़कें। अनाज को बुखारी, कोठिलों या कमरे में रखने के बाद एल्युमीनियम फॉस्फाइड 3.0 ग्राम की दो गोली प्रति टन की दर से रखकर बंद कर देना चाहिए। और अधिक पढ़ें- गेहूं का सुरक्षित भंडारण कैसे करें
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चना, मटर और मसूर
1. चना, मटर, मसूर, खेसारी आदि फसलों की परिपक्वता का अनुमान, पत्तियां पीली या भूरी पड़ जाएं और फलियां और फली के अदंर दाना पीला पड़ जाए, तो समझ लें कि फसल पकने वाली है। जब तक फसल या पौधे में नमी हो, तब तक कटाई नहीं करें। यदि दाने में नमी की मात्रा अधिक हो तो कटाई और मड़ाई तथा भंडारण के समय बीजों को क्षति होने का खतरा अधिक रहता है तथा बीज की जमाव क्षमता भी नष्ट होने का खतरा रहता है। कटाई के समय दाने में नमी की मात्रा 15 प्रतिशत से कम होना अति आवश्यक है।
पके हुए दाने में नमी की मात्रा की जांच बीज को दांतों तले दबाकर भी की जा सकती है। दांतों तले बीज दबाकर तोड़ने पर कट्ट की आवाज आए, तो समझ लें कि फसल पक गई है। फसलों का पकना वहां की जलवायु परिस्थिति जैसे – दाने में नमी की मात्रा, सूर्य की रोशनी, तापमान और आर्द्रता इत्यादि पर निर्भर करता है। अधिक समय तक फसल को सुखाने या खड़ी रखने पर नुकसान हो सकता है। जहां तक संभव हो, दलहनी फसलों की कटाई सुबह के समय करनी चाहिए। इस समय फलियों के चटकने की आशंका कम रहती है।
2. फसल को कटाई के बाद धूप में सुखाएं, ताकि वानस्पतिक भाग, फलियों और दाने में नमी कम हो सके। खलिहान में 3-4 दिनों तक धूप में रखने के बाद जांच लें कि दाने में नमी की मात्रा 10-12 प्रतिशत से कम हो। मड़ाई या गहाई बैलों या ट्रैक्टर द्वारा की जा सकती है। थ्रेशर मशीन द्वारा गहाई करने से समय और श्रमिकों की बचत होती है। भूसा या कचरा अलग करने के लिए बिजली या ट्रैक्टरचालित विनोवर द्वारा दानों की सफाई अच्छी तरह से की जा सकती है।
3. भंडारण दो तरीके से किया जा सकता है। वेयर हाउस या बोरों का इस्तेमाल कर सकते हैं। यदि लंबे समय तक भंडारण करना हो, तो बिन्स या साइलो सबसे बेहतर तरीका है। बोरों में भंडारण करना आसान रहता है। यह सस्ता तरीका है। परन्तु इसमें घुन लगने और खराब होने का खतरा ज्यादा रहता है। खास किस्म के बोरे, जो फाइबर या प्लास्टिक के बने हों, तो नुकसान कम होता है।
4. दाने वाली मटर की फसल मार्च के अंतिम सप्ताह या अप्रैल के प्रथम सप्ताह में पककर तैयार हो जाती है। फसल अधिक सूख जाने पर फलियां खेत में ही चटकने लगती हैं। इसलिये जब फलियां पीली पड़कर सूखने लगें उस समय कटाई कर लें। फसल को एक सप्ताह खलिहान में सुखाने के बाद बैलों की दांय चलाकर गहाई करते हैं। दानों को साफ कर 4-5 दिनों तक सुखाते हैं, जिससे कि दानों में नमी की मात्रा 10-12 प्रतिशत तक रह जाये। मटर का भंडारण करते समय कीटों से बचाने के लिए एल्युमीनियम फॉस्फाइड की 3 गोलियां प्रति मीट्रिक टन की दर से प्रयोग करें, जिससे भंडारण में कीटों से होने वाली हानि से बचा जा सके।
5. भंडारण से पूर्व दानों को अच्छी तरह से सुखा लेना चाहिए। मसूर को भंडारण में कीटों से बचाने के लिए एल्युमीनियम फॉस्फाइड की तीन गोली प्रति मीट्रिक टन की दर से प्रयोग करें, जिससे भंडारण में होने वाले कीटों की हानि से मसूर को बचाया जा सके।
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मूंगफली की फसल
1. मूंगफली की खेती के लिए दोमट बलुआ, बलुआ दोमट या हल्की दोमट मृदा अच्छी रहती है। ग्रीष्मकालीन मूंगफली की खेती, आलू, मटर, सब्जी मटर तथा राई की कटाई के बाद खाली खेतों में सफलतापूर्वक की जा सकती है।
2. ग्रीष्मकालीन मूंगफली की उन्नत प्रजातियां जैसे- अवतार (आईसीजीवी 93468), टीजी – 26, टीजी – 37, डी एच – 86, टीपीजी – 1, टीपीजी – 1, कौशल व प्रकाश उगाई जा सकती है। ग्रीष्मकालीन मूंगफली एसजी – 84 व एम – 522 किस्में सिंचित अवस्था में अप्रैल के अंतिम सप्ताह में गेहूं की कटाई के तुरंत बाद बोयी जा सकती हैं, जोकि अगस्त अंत तक या सितंबर अंत तक तैयार हो जाती है।
3. ग्रीष्मकालीन मूंगफली में नाइट्रोजन की अधिक मात्रा न डालें अन्यथा यह मूंगफली की पकने की अवधि बढ़ा देगा। नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को कूंड़ों में बुआई के समय बीज से लगभग 2-3 सेंमी गहरा डालना चाहिए। जिप्सम की शेष आधी मात्रा का मूंगफली में फूल निकलते तथा खूंटी बनते समय टॉप ड्रेसिंग करके प्रयोग करना चाहिए। और अधिक पढ़ें- मूंगफली की खेती
ग्रीष्मकालीन मूंग और उड़द
1. ग्रीष्मकालीन मूंग की बुआई 15 अप्रैल तक कर दें। बीज की बुआई सीडड्रिल या कूंड़ों से पंक्तियों में की जानी चाहिए तथा बीजों को 4-5 सेंमी गहराई में बोना चाहिए। मूंग और उड़द की पिछले माह बोयी गयी फसल में 25-30 दिनों बाद पहली सिंचाई करें। प्रति किग्रा बीज का 2.5 ग्राम थीरम तथा 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम से उपचार करने के बाद राइजोबियम या फॉस्फेट घुलनशील बैक्टीरिया (पीएसबी) कल्चर प्रति टीका एक पैकेट 10 किग्रा बीज की दर से बीजोपचार करके बुआई करनी चाहिए।
2. ग्रीष्मकालीन मूंग की अच्छी पैदावार तथा उत्तम गुणवत्तायुक्त उत्पादन लेने के लिए अच्छी प्रजाति का चयन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसीलिए पानी के साधन, फसलचक्र व बाजार की मांग की स्थिति को ध्यान में रखकर उपयुक्त प्रजातियों का चयन करें। ग्रीष्मकालीन मूंग की उन्नत प्रजातियां जैसे- पूसा विशाल, पूसा 1431, पूसा 1371, पूसा 9531, पूसा रत्ना, पूसा 0672, फुले मोरना ( केडीजी 123 ), आईपीएम 410-3 (शिखा), आईपीएम 205-7 (विराट), आईपीएम 512-1 (सूर्या), एसएमएल 1115, एमएच 318, एमएच 421, एमएसजे 118 (केशवानंद मूंग 2), जीएएम 5, गुजरात मुं – 7 (जीएम – 7) आदि उगाई जा सकती हैं। ये 65-80 दिनों में पककर तैयार हो जाती हैं। ग्रीष्मकालीन मूंग की औसत उपज 8.14 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त हो जाती है।
3. ग्रीष्मकालीन उड़द की उन्नत प्रजातियां जैसे- पीडीयू 1 (बसंत बहार), आईपीयू पंत 94-1 (उत्तरा), पंत उड़द 19, उड़द 30, पंत उड़द 31, पंत उड़द 35, एलयू 391, मैश 479 (केयूजी 479), मुकुंदरा उड़द- 2 आदि उगाई जा सकती हैं और ये 65-80 दिनों में पककर तैयार हो जाती हैं।
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ग्रीष्मकालीन बाजरा और मक्का
1. दोमट या बलुई दोमट मृदा बाजरा के लिए अच्छी रहती है। भलीभांति समतल व जीवांश वाली मृदा में बाजरा की खेती करने से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। खेत में जल निकास का सही इंतजाम होना चाहिए। यह फसल ज्यादा पानी नहीं सहन कर सकती है। बाजरे की बुआई मार्च के प्रथम सप्ताह से अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है। बाजरा एक पर परागित फसल है। इसके परागकण 46 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी जीवित रह सकते हैं, जहां तक बीज की मात्रा की बात है, तो 4-5 किग्रा बीज प्रति हैक्टर की दर से सही रहता है। बुआई के समय पंक्तियों की आपसी दूरी 25 सेंमी होनी चाहिए। बीजों को 2 सेंमी से ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिए।
2. बाजरे की संकर प्रजातियां जैसे- जीएचबी – 558 और 86, एम – 52 डीएच – 86, आईसीजीएस – 44, आईसीजीएस -1, आर – 9251, टीजी 37, आर – 8808, जीएचबी – 526, पीबी – 180, तथा बाजरे की संकुल प्रजातियां जैसे- पूसा कम्पोजिट – 383, आईसीटीपी – 8203, राज – 171 व आईसीएमवी – 221 प्रमुख हैं।
3. उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण से प्राप्त संस्तुतियों के आधार पर करें। मृदा परीक्षण की सुविधा उपलब्ध न होने की दशा में संकर प्रजातियों के लिए 80 किग्रा नाइट्रोजन, 40 किग्रा फॉस्फोरस, 40 किग्रा पोटाश तथा संकुल प्रजातियों के लिए 60 किग्रा नाइट्रोजन, 40 किग्रा फॉस्फोरस, 40 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए ।
4. अप्रैल माह या ग्रीष्मकालीन बाजरे की फसल में 4-5 सिंचाइयां पर्याप्त होती हैं। 10-15 दिनों के अंतराल से सिंचाई करते रहना चाहिए। कल्ले निकलते समय व फूल आने पर खेत में पर्याप्त मात्रा में नमी होनी चाहिए।
5. ग्रीष्मकालीन मक्का की संकर प्रजातियां जैसे – पीएमएच-2, पीएमएच – 7 (जेएच 3956), पीएमएच – 8, पीएमएच – 10, विवेक 4, विवेक 5, विवेक 15, पूसा अर्ली हाइब्रिड 3 तथा मक्का की संकुल प्रजातियां जैसे- पूसा कम्पोजिट 4, गौरव, आजाद उत्तम, सूर्या, किरण, आदि प्रमुख हैं।
6. बेबीकॉर्न मक्का के बिल्कुल कच्चे भुट्टे बिक जाते हैं, जोकि होटलों में सब्जी, सूप, सलाद व अचार बनाने के काम आते हैं। यह फसल 50-60 दिनों में तैयार हो जाती है और निर्यात भी की जाती है। बेबीकॉर्न की संकर प्रकाश व कम्पोजिट केसरी किस्मों के 16 किग्रा बीज को एक फीट पंक्तियों में और आठ इंच पौधों में दूरी रखकर बोया जाता है। जायद के लिए बेबीकॉर्न की उन्नत प्रजातियों का चयन करें।
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सूरजमुखी की फसल
1. अप्रैल में सूरजमुखी की बुआई भी कर सकते हैं, वैसे तो मार्च के प्रथम पखवाड़े तक इसकी बुआई हो जाती है, किन्तु गेहूं के बाद सूरजमुखी लेने पर अप्रैल में ही बुआई कर सकते हैं। सूरजमुखी के लिए 8-10 किग्रा बीज को पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45-60 सेंमी और पौधे से पौधे की दूरी 15-20 सेंमी एवं बीज की गहराई 4-5 सेंमी पर बुआई करें।
2. ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक सूरजमुखी की ईसी 68415 प्रजाति की बुआई कर सकते हैं, जो अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट मृदा तथा क्षारीय व अम्लीय स्तर को सहन कर सकती है। बीज को 12 घंटे पानी में भिगोकर छाया में 3-4 घंटे सुखाकर बोने से जमाव शीघ्र होता है।
3. बोने से पहले बीज को एप्रोन 35 एसडी की 6.0 ग्राम या कार्बेन्डाजिम की 2 ग्राम अथवा थीरम की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति किग्रा बीज से बीजोपचार अवश्य करें। सूरजमुखी की बुआई के 15-20 दिनों बाद सिंचाई से पूर्व विरलीकरण (थिनिंग) किसान भाई अवश्य कर दें और उसके पश्चात सिंचाई करें।
4. रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए पेंडिमेथिलिन 30 प्रतिशत की 3.3 लीटर प्रति हैक्टर की दर से 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर बुआई के बाद और अंकुरण से पूर्व अर्थात बुआई के 3-4 दिनों के अन्तर पर छिड़काव करना चाहिए। और अधिक पढ़ें- सूरजमुखी की खेती
मेंथा की फसल
1. हमारे देश में कई दशकों से औषधीय पौधों की खेती होती रही है। किसान इससे अच्छा मुनाफा भी कमाते हैं, क्योंकि इनका इस्तेमाल कई तरह की दवा बनाने में होता है और मांग हमेशा बनी रहती है। इसी तरह की एक फसल है मेंथा, जिसकी खेती कर किसान मोटा मुनाफा कमा रहे हैं।
2. मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और पंजाब के किसान मेंथा की खेती करते हैं। मेंथा की अच्छी उपज के लिए बलुई दोमट मृदा को उपयुक्त माना जाता है। इसके साथ ही जल निकासी की सुविधा अच्छी हो और मृदा का भुरभुरा होना भी जरूरी है। मेंथा की वृद्धि के लिए वर्षा को अच्छा माना जाता है।
3. मेंथा की रोपाई से पहले खेत की गहरी जुताई करनी होती है। अंतिम जुताई के समय खेत में 300 किग्रा सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट डालने से उपज अच्छी होती है। मेंथा में 10-12 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहें तथा तेल निकालने के लिए मेंथा में पहली कटाई करें। और अधिक पढ़ें- पुदीना (मेंथा) की खेती
गन्ना की फसल
1. गेहूं की कटाई के बाद अप्रैल में भी गन्ना लगा सकते हैं। इसके लिए उपयुक्त किस्म सीओएच – 35 व सीओएच – 37 हैं। गन्ने में आवश्यकतानुसार फसल की मांग के अनुरूप सिंचाई और गुड़ाई करते रहें। जिन खेतों से गन्ने का बीज लेना है, उन खेतों में बीज लेने से 5-7 दिनों पूर्व सिंचाई करें।
2. बसंतकालीन गन्ना, जो कि फरवरी में लगा है, में 1/3 नाइट्रोजन की दूसरी किश्त और 1 बोरा यूरिया अप्रैल में डाल दें एवं खेत में खाली स्थानों को नर्सरी में उगाएं गए पौधों से भर दें। ग्रीष्मकालीन गन्ने की बुआई उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तराखंड में अप्रैल व मई में की जाती है।
3. गन्ने की बुआई से पूर्व खेतों को अच्छी तरह से समतल कर लें। गन्ने की फसल खेत में 2-3 वर्षों तक रहती है। शीघ्र एवं कम अवधि में पकने वाली फसलों जैसे – मूंग, उड़द एवं लोबिया को गन्ने की दो पंक्तियों के बीच में बो सकते हैं। इससे प्रति इकाई क्षेत्र में अतिरिक्त लाभ के अलावा मृदा की उर्वरा शक्ति भी बढ़ा सकते हैं। इस मौसम की गन्ने की फसल के लिए खेत को जुताई करके भलीभांति तैयार कर लें। और अधिक पढ़ें- गन्ना की खेती
चारे वाली फसलें
1. इसकी खेती दोमट या बलुई और हल्की काली मृदा में की जाती है। भूमि का जल निकास अच्छा होना चाहिए। एक जुताई मृदा पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताइयां देसी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए।
2. अप्रैल माह या ग्रीष्मकालीन मक्का की हरे चारे के लिए संकर प्रजातियां जैसे – संकर मक्का गंगा – 2, गंगा – 7, विजय कम्पोजिट, जे – 1006, अफ्रीकन टॉल, प्रताप चारा-6 आदि प्रमुख उन्नत किस्में हैं।
3. जहां तक हो सके किसान भाइयों को ज्वार और मक्का की मिश्रित फसल ग्वार और लोबिया के साथ उगानी चाहिए। इससे चारे की पौष्टिकता एवं स्वादिष्टता बढ़ती है तथा मृदा की उर्वरा शक्ति में भी सुधार होता है।
4. ज्वार की प्रमुख किस्में जैसे- पूसा चरी – 23, पूसा हाइब्रिड चरी – 109, पूसा चरी – 615, पूसा चरी – 6, पूसा चरी – 9, चरी – 9, पूसा शंकर – 6, एसएसजी 59-3 ( मीठी सूडान), एमपी चरी, एसएसजी 988-898, एसएसजी – 59 – 3, जेसी 69 आदि प्रमुख हैं, जो अप्रैल में लगायी जा सकती हैं। ज्वार की इन किस्मों से 30- 60 टन प्रति हैक्टर तक हरे चारे की प्राप्ति होती है। बहु- कटाई वाली किस्में जैसे मीठी सूडान, एमपी चरी, पूसा चरी 23, जवाहर चरी में 60 से 69 टन प्रति हैक्टर तक हरे चारे की पैदावार ली जा सकती है।
5. हरे चारे के लिए संकर बाजरा या कम्पोजिट बाजरा तथा जायंट बाजरा, राज 171, एल – 72 एवं एल – 74 आदि प्रमुख किस्में हैं। 8-10 किग्रा बीज प्रति हैक्टर बीज शुद्ध फसल की बुआई के लिए पर्याप्त होता है। मिलवां फसल में बाजरा तथा लोबिया 2:1 अनुपात (2 पंक्ति बाजरा तथा 1 पंक्ति लोबिया) में बुआई के लिए 6-7 किग्रा बाजरा तथा 12-15 किग्रा लोबिया बीज की आवश्यकता होती है।
6. 2.5 ग्राम थीरम प्रति किग्रा बीज की दर से बीज उपचारित करें। बाजरा के लिए 60 किग्रा नाइट्रोजन एवं 40 किग्रा फॉस्फोरस प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है।
7. अप्रैल माह में बरसीम में 10-12 दिनों के अंतराल पर सिंचाई एवं कटाई करते रहें। यदि बरसीम की फसलें बीज उत्पादन के लिए उगाई गयी हैं, तो मार्च के बाद कटाई नहीं करनी चाहिए। फूल आ जाने पर बीज वाली फसल में सिंचाई नहीं करनी चाहिए। यानी अप्रैल के प्रथम सप्ताह के बाद सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। 10-15 मई तक फसल पककर तैयार हो जाती है।
8. अप्रैल माह या ग्रीष्मकाल में पशुओं के लिए चारे की कमी अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में एक आम समस्या है। इसके समाधान के लिए गर्मी के मौसम में अप्रैल में जहां सिंचाई की व्यवस्था है, वहां पर हरे चारे की खेती कर सकते हैं। इस समय प्रमुख हरे चारे में मक्का, लोबिया, ज्वार आदि फसलों की उत्तम किस्मों को सस्य क्रियाओं को अपनाकर उगाना चाहिए।
अधिक पढ़ें- हरे चारे के लिए ज्वार की खेती
अधिक पढ़ें- लोबिया की खेती
अधिक पढ़ें- बरसीम की खेती
मृदा परीक्षण
अप्रैल माह में रबी फसल की कटाई के बाद किसान अपने खेतों से मृदा नमूने इकट्ठे करें । इसके बाद मृदा के नमूने लेकर अपने नजदीक की मृदा परीक्षण प्रयोगशाला में मृदा के नमूनों की जांच करायें। प्रयोगशाला के प्रभारी से नमूनों की जांच के उपरान्त मृदा स्वास्थ्य कार्ड अवश्य प्राप्त करें, ताकि आगामी खरीफ की फसल में मृदा स्वास्थ्य के आधार पर खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग किया जा सके। और अधिक पढ़ें- मिट्टी परीक्षण क्यों और कैसे करें
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