अरहर खरीफ की मुख्य फसल है| यह कम सिंचाई और बरानी क्षेत्रों के लिए उत्तम फसल मानी जाती है| अरहर को मिश्रित फसल के रूप में अन्य किसी फसल के साथ उगाकर अतरिक्त लाभ लिया जा सकता है| दलहनी फसल होने के कारण यह मिटटी की उर्वरा शक्ति को भी बढ़ती है| इसमें कार्बोहाइड्रेट, कैल्सियम, लोहा और खनिज पदार्थ पर्याप्त मात्रा में पाए जाते है|
अरहर की दीर्घकालीन किस्मे मिटटी में 200 किलोग्राम तक वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर मिटटी उर्वरता और उत्पादकता में वृद्धि करती है| इस लेख में अरहर की खेती- किस्में, रोकथाम और पैदावार का विस्तार से उल्लेख है|
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अरहर की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
अरहर आर्द्र और शुष्क दोनों ही प्रकार के गर्म क्षेत्रों में भली प्रकार उगाई जा सकती है| लेकिन शुष्क भागों में इसे सिंचाई की आवश्यकता होती है| फसल की प्रारंभिक अवस्था में पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए नम जलवायु की आवश्यकता होती है| इसे 75 से 100 सेंटीमीटर वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है|
अरहर की खेती के लिए उपयुक्त भूमि
भूमि का चयन करते समय ध्यान रखना चाहिए कि खेत ऊंचा और समतल हो एवं उसमें जल निकास अच्छा हो| अरहर को अधिकांश प्रकार की मिटटी में उगाया जा सकता है| उत्तर भारत में अरहर को मटिमार दोमट मिट्टी से लेकर रेतीली दोमट मिट्टी में उगाया जाता है| अरहर की फसल के लिए बलुई-दोमट या दोमट मिट्टी जिसका पी एच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो तथा भूमि जल का तल गहराई पर हो, सर्वोत्तम रहती है|
अरहर की खेती और फसल चक्र
अरहर की शीघ्र पकने वाली किस्मों जो 130 से 160 दिनों में पक जाती है, उनके विकास होने से अरहर के बाद रबी की फसल की बुवाई संभव हुई है| इन किस्मों की बुवाई जून के प्रथम पखवाड़े में की जाती है और दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक फसल की कटाई कर ली जाती है| अरहर के साथ बहुत से फसल चक्र अपनाए जाते हैं, जैसे-
1. अरहर + बाजरा/ज्वार/मक्का/तिल/सोयाबीन/उडद/मूंग आदि
2. अरहर – गेहूं
3. अरहर – गेहूं – मूंग
4. अरहर – गन्ना
5. मूंग (ग्रीष्म) + अरहर – गेहूं
6. अरहर (अति अगेती) – आलू – उड़द
7. अरहर + उड़द – मसूर / तारामीरा (बारानी क्षेत्रों में) आदि|
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अरहर की खेती के लिए उन्नत किस्में
बांझपन रोग प्रतिरोधी किस्में- बी आर जी- 2, टी जे टी- 501, बी डी एन- 711, बी डी एन- 708, एन डी ए- 2, बी एस एम आर -853, पूसा- 992 और बी एस एम आर- 736 मुख्य है|
शीघ्र पकने वाली किस्में- पूसा- 855, पूसा- 33, पूसा अगेती, पी ए यू- 881, (ए एल- 1507) पंत, अरहर- 291, जाग्रति ( आई सी पी एल- 151) और आई सी पी एल- 84031 (दुर्गा) आदि प्रमुख है|
मध्यम समय में पकने वाली किस्में- टाइप- 21, जवाहर अरहर- 4 और आई सी पी एल- 87119 (आशा) इत्यादि प्रमुख है|
देर से पकने वाली किस्में- बहार, एम ए एल- 13, पूसा- 9 और शरद (डी ए- 11) आदि है|
हाईब्रिड किस्में- पी पी एच- 4, आई सी पी एच- 8, जी टी एच- 1, आई सी पी एच- 2671 और आई सी पी एच- 2740 आदि|
उकटा प्रतिरोधी किस्में- वी एल अरहर- 1, बी डी एन- 2, बी डी एन- 708, विपुला, जे के एम- 189, जी टी- 101, पूसा- 991, आजाद (के- 91-25), बी एस एम आर- 736 और एम ए- 6 आदि प्रमुख है| अरहर की किस्मों की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अरहर की उन्नत किस्में, जानिए क्षेत्रवार, विशेषताएं एवं पैदावार
अरहर की खेती के लिए खेत की तैयारी
मिट्टी पलट हल से एक गहरी जुताई के बाद 2 से 3 जुताई देशी हल या हैरो या कल्टीवेटर से करना उचित रहता है| खेत में जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था आवश्यक है|
अरहर की खेती के लिए बुआई का समय
शीघ्र पकने वाली किस्मों की बुआई जून के प्रथम पखवाड़े में पलेवा करके करना चाहिए और मध्यम तथा देर से पकने वाली किस्मों की बुआई जून से जुलाई के प्रथम पखवाड़े में करना चाहिए|
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अरहर की फसल में खाद एवं उर्वरक
मिटटी परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अन्तिम जुताई के समय हल के पीछे कूड़ में बीज की सतह से 5 सेंटीमीटर गहराई तथा 3 से 5 सेंटीमीटर साइड में देना सर्वोत्तम रहता है| बुआई के समय 20 से 25 किलोग्राम नत्रजन, 40 से 50 किलोग्राम फास्फोरस, 20 से 25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टर कतारों में बीज के नीचे दिया जाना चाहिए|
अरहर की फसल में सूक्ष्म पोषक तत्व
गंधक (सल्फर)- काली और दोमट मिटटी में 20 किलोग्राम गंधक (154 किलोग्राम जिप्सम या 22 किलोग्राम बेन्टोनाइट सल्फर) प्रति हेक्टर की दर से बुवाई के समय प्रत्येक फसल के लिये देना पर्याप्त होता है| कमी होने पर लाल बलुई मिटटी के लिए 40 किलोग्राम गंधक (300 किलोग्राम जिप्सम या 44 किलोग्राम बेन्टोनाइट सल्फर) प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए|
जिंक- बलुई मिटटी में उगाई जाने वाली अरहर की फसल में 3 से 5 किलोग्राम जिंक प्रति हैक्टर की दर से आधार उर्वरक के रूप में प्रयोग करें| खेतों में प्रत्येक तीन वर्ष में एक बार जिंक सल्फेट को आखिरी जुताई पूर्व बुरकाव करने से पैदावार में अच्छी बढोतरी होती है|
लोहा- हल्के संरचना वाली मिटटी में अरहर की फसल में बुवाई के 60, 90 और 120 दिन बाद 0.5: फेरस सल्फेट के घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए|
अरहर की खेती के लिए बीज शोधन
मिटटी जनित रोगों से बचाव के लिए बीजों को 2 ग्राम थाइम 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलोग्राम या 3 ग्राम थाइम प्रति किलोग्राम की दर से शोधित करके बुआई करें या कार्बोक्सिन 2 ग्राम + 5 ग्राम ट्रायकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें| बीज शोधन बीजोपचार से 2 से 3 दिन पहले करें|
अरहर की खेती के लिए जैविक बीजोपचार
10 किलोग्राम अरहर के बीज के लिए राइजोबियम कल्चर का एक पैकेट (100 ग्राम) पर्याप्त होता है, इसके लिए 50 ग्राम गुड़ या चीनी को 1/2 लीटर पानी में घोलकर उबाल लें| घोल के ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर मिला दें| इस कल्चर में 10 किलोग्राम बीज डाल कर अच्छी प्रकार मिला लें, ताकि प्रत्येक बीज पर कल्चर का लेप चिपक जायें| उपचारित बीजों को छाया में सुखा कर, दूसरे दिन बोया जा सकता है| उपचारित बीज को कभी भी धूप में न सुखायें तथा बीज उपचार दोपहर के बाद करें तो अच्छा रहेगा|
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अरहर की खेती की बुआई की दूरी
शीघ्र पकने वाली किस्मों हेतु- पंक्ति से पंक्ति की दुरी- 45 से 60 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दुरी- 10 से 15 सेंटीमीटर|
मध्यम एवं देर से पकने वाली किस्मों हेतु- पंक्ति से पंक्ति की दुरी 60 से 75 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दुरी 15 से 20 सेंटीमीटर उचित है|
अरहर की खेती के लिए बीज की मात्रा
जल्दी पकने वाली किस्मों का 20 से 25 किलोग्राम और मध्यम पकने वाली किस्मों का 15 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टर बोना उचित है|
अरहर की खेती के साथ अंतरवर्तीय फसल
अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार और अंतरवर्तीय फसल की अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होती है| मुख्य फसल में कीटों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता न हाने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा| साथ ही साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीटों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है|
अरहर फसल की सिंचाई और जल निकासी
बुवाई से 30 दिन बाद पुष्पावस्था और बुवाई से 70 दिन बाद फली बनते समय तथा बुवाई से 110 दिन बाद फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए| अधिक अरहर उत्पादन के लिए खेत में उचित जल निकासी का होना प्रथम शर्त है, इसलिए निचले और अधो जल निकासी की समस्या वाले क्षेत्रों में मेड़ों पर बुआई करना उचित रहता है| मेड़ों पर बुवाई करने से अधिक जल भराव की स्थिति में भी अरहर की जड़ों के लिए पर्याप्त वायु संचार होता रहता है|
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अरहर की फसल में खरपतवार रोकथाम
खरपतवारनाशक पेन्डीमिथालिन 0.75 से 1.00 किलोग्राम सकिय तत्व प्रति हेक्टर बुआई के बाद और अंकुरण से पहले प्रयोग करने से खरपतवार नियंत्रण होता है| खरपतवारनाशक प्रयोग के बाद एक निराई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना लाभदायक होता है| किन्तु यदि पिछले वर्षों में खेत में खरपतवारों की गम्भीर समस्या रही हो तो अन्तिम जुताई के समय खेत में फ्लूक्लोरेलीन 50 प्रतिशत की 1 किलोग्राम सकिय मात्रा को 800 से 1000 लीटर पानी में घोलकर या एलाक्लोर 50 प्रतिशत ई सी की 2 से 2.5 किलोग्राम (सक्रिय तत्व) मात्रा को बीज अंकुरण से पूर्व छिड़कने से खरपतवारों पर प्रभावी नियन्त्रण पाया जा सकता है|
अरहर की फसल में कीट रोकथाम
फलीमक्खी या फलीछेदक- यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है, इल्ली अपना जीवनकाल फली के अंदर दानों को खाकर पूरा करती है| जिसके कारण दानों का विकास रूक जाता है| दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है तथा दानों का आकार छोटा रह जाता है|
रोकथाम- क्विनालफास, 20 ई सी, 2 मिलीलीटर या एसीफेट 75 एस पी, 1 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए|
पत्ती लपेटक- मादा आमतौर पर फलियों पर गुच्छों में अंडे देती है| इस कीट के शिशु और वयस्क दोनों ही फली तथा दानों का रस चूसते हैं| जिससे फलियाँ आड़ी-तिरछी हो जाती है व दाने सिकुड़ जाते है| आपना जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते है|
रोकथाम- मोनोक्रोटोफास 36 एस एल, 1 मिलीलीटर + डाईक्लोरोवास 76 ई सी, 0.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए|
प्लू माथ- इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है| प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी जा सकती है| कुछ समय बाद प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फफूंद लग जाती है| इसकी इल्लियॉ हरी और छोटे-छोटे काटों से आच्छादित रहती है| इल्लियां फलियों पर ही शंखी में परिवर्तित हो जाती है| यह अपना जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करती है|
रोकथाम- डायमिथिाएट 30 ई सी या प्रोफेनोफॉस 50 ई सी की 1000 मिलीलीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें| कीटों की प्रभावी रोकथाम के लिए समन्वित संरक्षण प्रणाली अपनाना आवश्यक है, जो इस प्रकार है, जैसे-
सस्य क्रियाओं द्वारा-
1. गर्मी में खेत की गहरी जुताई करे|
2. कीटों हेतु शुद्ध या सतत अरहर न उगाएं|
3. फसल चक अपनायें|
4. क्षेत्र विशेष में एक समय पर बोनी (बुआई) करना चाहिए|
5. रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा ही फसल में डालें|
6. अरहर में अन्तरवर्तीय फसले जैसे- ज्वार , मक्का, सोयाबीन या मूंगफली को उगाना चाहिए|
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यांत्रिकी विधि द्वारा-
1. प्रकाश प्रपंच 5 से 7 प्रति हेक्टेयर की दर से लगाना चाहिए|
2. फेरोमेन ट्रेप्स उपयोग में लाएं|
3. पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें और उनकों इकटठा करके नष्ट करें|
जैविक नियंत्रण द्वारा-
1. एन पी बी 500 एल ई प्रति हेक्टेयर + यू वी रिटारडेन्ट 0.1 प्रतिशत + गुड 0.5 प्रतिशत मिश्रण का शाम के समय छिड़काव करें|
2. बेसिलस थूरेंजियन्सीस 1 किलोग्राम प्रति हेक्टर + टिनोपाल 0.1 प्रतिशत + गुड़ 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करे|
जैव-पौध पदार्थों के छिड़काव द्वारा-
1. निंबोली सत 5 प्रतिशत का छिड़काव करें|
2. नीम तेल या करंज तेल 10 से 15 मिलीलीटर +1 मिलीलीटर चिपचिपा पदार्थ (सेन्डोविट या टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें|
3. निम्बेसिडिन 0.2 प्रतिशत या अचूक 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करें|
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अरहर की फसल में रोग रोकथाम
तना विगलन- तना विगलन अरहर के पौधे की परवर्ती वृध्दि अवस्थाओं पर जल स्तर के निकट बाहरी पर्ण-छद पर छोटे, काले से अनियमित क्षतिचिह्नों के साथ प्रारंभ होता है| इससे पौधा सुख जाता है|
रोकथाम-
1. इस रोग की रोकथाम हेतु बीज को रोडोमिल 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करके बीज की बुआई करें|
2. रोगरोधी किस्में जैसे- आशा, मारूति बी एस एम आर- 175 और बी एस एम आर- 736 का चुनाव करना चाहिए|
उकठा रोग- यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है| रोग के लक्षण आमतौर पर फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई पड़ते है| सितंबर से जनवरी महीनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता है| पौधा पीला होकर सूख जाता है| इसमें जडें सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है और छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की ऊंचाई तक काले रंग की धारिया पाई जाती है|
रोकथाम-
1. रोगरोधी किस्में जैसे- जे के एम- 189, सी- 11, जे के एम- 7, बी एस एम आर- 853, बी एस एम आर- 736, आशा इत्यादि उगाएं|
2. उन्नत किस्मों का बीज उपचार करके ही बुआई करें|
3. गर्मी में गहरी जुताई और अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम होता है|
मोजेक रोग- यह रोग विषाणु (वायरस) से होता है| इसके लक्षण ग्रसित पौधों के ऊपरी शाखाओं में पत्तियां छोटी, हल्के रंग की एवं अधिक लगती है तथा फूल-फली नहीं लगती है| यह रोग माईट, कीट के द्वारा फैलता है|
रोकथाम-
1. रोग रोधी किस्मों को उगाना चाहिए|
2. खेत में रोग ग्रसित अरहर के पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए|
3. माईट कीट की रोकथाम करनी चाहिए|
4. बांझपन विषाणु रोग रोधी जातियां जैसे- आई सी पी एल- 87119 (आशा), बी एस एम आर- 853, 736, राजीव लोचन, बी डी एन- 708, की बुआई करनी चाहिए|
5. माईट कीट की रोकथाम के लिए डाइकोफाल 18.5 ई सी, 2 मिलीलीटर प्रति लीटर या डायमिथिएट 30 ई सी,1.7 मिलीलीटर प्रति लीटर या मिथाइल डिमेटान 25 ई सी, 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिडकाव करें|
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झुलसा रोग- रोग ग्रसित पौधे पीला होकर सूख जाते है| इसमें तने पर जमीन के ऊपर गठान नुमा असीमित वृद्धि दिखाई देती है और पौधे हवा आदि चलने पर यहीं से टूट जाते है|
रोकथाम-
1. 3 ग्राम मेटालेक्सिल 35 डब्लू एस फफूदनाशक दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें|
2. बुआई पाल (रिज) पर करना चाहिए|
3. चवला या मूंग की फसल को साथ में लगाये|
4. रोग रोधी किस्मे जैसे- जे ए- 4 और जे के एम- 189 को उगाना चाहिए|
अरहर फसल की कटाई और गहाई
जब पौधों की पत्तियाँ पिली लगे और फलियां सूखने पर भूरे रंग की हो जाएं तब फसल को काट लेना चाहिए| खेत मे 8 से 10 दिन धूप में सूखाकर ट्रैक्टर या बेलों द्वारा फलियों से दानों को अलग कर लेना चाहिए|
अरहर की खेती से पैदावार
उपरोक्त उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से 15 से 30 किंवटल प्रति हेक्टेयर असिंचित अवस्था में और 25 से 40 किंवटल प्रति हेक्टेयर पैदावार सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है और 50 से 60 क्विंटल फसल अवशेष प्राप्त होते है|
भण्डारण- भण्डारण हेतु नमी का प्रतिशत 8 से 12 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए|
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