आलूबुखारा या प्लम की खेती कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड में प्रमुख रूप से की जाती है| कुछ किस्में उप-पर्वतीय तथा उत्तरी पश्चिमी मैदानी भागों में भी पैदा की जाती है, ये सहिष्णु किस्में हैं और ये किस्में इस जलवायु में आसानी से पैदा होती है| आलूबुखारा को प्लम और अलूचा नाम से भी जाना जाता है|
यदि बागान बंधु आलूबुखारा या प्लम की बागवानी से अधिकतम और गुणवत्तायुक्त उत्पादन चाहते है, तो इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीक से करनी चाहिए| इस आर्टिकल में कृषकों की जानकारी के लिए आलूबुखारा या प्लम की खेती वैज्ञानिक तकनीक से कैसे करें, की जानकारी का उल्लेख विस्तार से किया गया है|
यूरोपीय- प्लम को प्रुनसडोमेस्टिका कहते हैं और यह पश्चिमी एशिया का देशज है|
जापानी- प्लम का वैज्ञानिक नाम प्रूनससालिसिना है जो चीन का देशज समझा जाता है| दोनों रोजेसी कुल के अन्तर्गत आते है|
उपयोग- आलूबुखारा एक स्वास्थवर्धक रसदार फल है| इसमें मुख्य लवण, विटामिन, प्रोटीन, कार्वोहाडट्रेट आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते है| आलूबुखारा फल ताजे खाये जाते है और विभिन्न प्रकार के उत्पाद जैसे जैम, जैली, चटनी एवं अच्छी गुणवत्ता वाली बरांडी बनायी जाती है| बीज में पाये जाने वाले 40 से 50 प्रतिशत तेल का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों में दवा के रूप में प्रयुक्त होता है|
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उपयुक्त जलवायु
आलूबुखारा या प्लम की खेती पर्वतीय आंचल और मैदानी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है| इसका पेड़ लगाने के दो वर्ष बाद ही फूलना-फलना आरम्भ कर देता है और अधिक परिपक्वता के साथ साथ इसके पौधे से काफी अधिक उपज मिलती है|
आलूबुखारा या प्लम की खेती के लिए शीतल और गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है| यूरोपीय आलूबुखारा को 7º सेल्सीयस से कम ताममान लगभग 800 से 1500 घण्टों तक चाहिए जब कि जापानी आलूबुखारा को उक्त तापमान 100 से 800 घण्टो तक चाहिए| यही कारण है कि इसका उत्पादन कम ऊँचाई वाले स्थानों में और मैदानी क्षेत्रों में भी किया जाता है|
परन्तु इसकी उत्तम खेती समुद्रतल से 900 और 2500 मीटर वाले क्षेत्रों में होती है, ऐसे स्थान जहाँ बसन्त ऋतु में पाला पड़ता हो इसकी खेती के लिये अनुपयुक्त होते है| यूरोपीय अधिक ठंडक वाले तथा जापानी आलूबुखारा कम ठंडक वाले स्थानों में सफलतापूर्वक उगाये जाते है|
भूमि का चयन
आलूबुखारा या प्लम की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है, लेकिन उपजाऊ अच्छे जल-निकास वाली गहरी 1.5 से 2 मीटर गहरी भूमि खेती के लिये उपयुक्त होती है| अधिक अल्यूमिनियम तत्व वाली और अधिक अम्लता वाली मिट्टी आलूबुखारा के लिए उपयुक्त नहीं है|
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उन्नत किस्में
आलूबुखारा या प्लम की खेती के लिए आपको अनेक किस्में मिल जाएंगी लेकिन हम यहां कुछ किस्मों के नामों का सुझाव दे रहे है, जो व्यावसायिक तौर पर उगाई जाती है, जैसे-
1. समुद्र तल से 2000 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों के लिये सलिसिनावर्ग की प्रमुख किस्में-
जल्दी पकने वाली किस्में- फर्स्ट प्लम, रामगढ़ मेनार्ड, न्यू प्लम आदि प्रमुख है|
मध्य समय में पकने वाली किस्में- विक्टोरिया, सेन्टारोजा आदि आदि प्रमुख है|
देर से पकने वाली किस्में- मेनार्ड, सत्सूमा, मैरीपोजा आदि आदि प्रमुख है|
2. समुद्र तल से 2000 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों के लिये डोमेस्टिकावर्ग की मुख्य किस्में- ग्रीन गेज, ट्रान्समपेरेन्ट गेज, स्टैनले, प्रसिडेन्ट आदि|
सुखाकर खाने वाली प्रून किस्में- एगेन, शुगर प्रून तथा इटैलियन प्रून आदि|
3. समुद्र तल से 1000 मीटर तक ऊँचाई वाले क्षेत्रों के लिये- फंटीयर, रैड ब्यूट, अलूचा परपल, हो, जामुनी, तीतरों, लेट यलो और प्लम लद्दाख प्रमुख है|
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कुछ प्रमुख किस्मों का वर्णन इस प्रकार है, जैसे-
फंटीयर- फल सैंटारोजा से भारी और आकार में बड़ा, छिलका गहरा लाल बैंगनी, गूदा गहरे लाल रंग का, मीठा, स्वादिष्ट, सख्त, एक समान मीठा, सुगन्धित, गुठली से अलग होने वाला, फल भण्डारण की अधिक क्षमता तथा जून के अन्तिम सप्ताह तक पककर तैयार, पैदावार अधिक, पौधा ओजस्वी, सीधा ऊपर की ओर बढ़ने वाला, अधिक फलन के लिए परपरागण आवश्यक, इसके लिए सैन्टारोजा अच्छी परागण किस्म है|
रैड ब्यूट– फल मध्यम आकार के, ग्लोब की तरह व लाल एवं चमकीली त्वचा वाले, गूदा पीला, पिघलने वाला, मीठा और सुगंधित व गुठली से चिपके रहने की प्रवृति वाला, सैंटारोजा से दो सप्ताह पहले मई के अन्तिम सप्ताह में पक कर तैयार, पौधे ओजस्वी, मध्यम आकार के और नियमित फल धारण करने वाले होते है|
टैरूल- फल मध्यम से बड़े आकार के गोल, पीले रंग के व लालिमा लिए हुए, गूदा पीला, पिघलने वाला, समान रूप से मीठा, अच्छी सुगन्ध वाला, गुठली से चिपका हुआ व सैंटारोजा से एक सप्ताह बाद में जुलाई के दूसरे सप्ताह में पकने वाला, पौधे ओजस्वी, मध्यम आकार के व अधिक पैदावार देने वाले होते है|
ध्यान दे- कुछ आलूबुखारा की किस्में स्वयं परागण करने में समर्थ नही है, इसलिए बीच बीच में परागण किस्में लगाएं जो उत्तम पैदावार के लिए अति आवश्यक है|
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परागण
आलूबुखारा की यूरोपीय वर्ग की किस्मों, जैसे- ग्रीन गेज, इटैलियन प्रून तथा शुगर प्रून में फल स्वपरागण से बनते है| इसलिए इन किस्मों की फलत के लिए किसी परागकारी किस्म की आवश्यकता नहीं होती है| परन्तु कुछ किस्में जैसे- एगेन, ‘जेफरसन’ तथा ‘प्रेसिडेट’ अपने पराग से फल नहीं बनाती, इन्हें परागण तथा फलत के लिए अन्य किस्मों के पराग की आवश्यकता होती है| इसलिए परागकर्ता के रूप में सेन्टारोजा और रेड हार्ट किस्मों को प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि यह एक बहुत अच्छी व्यावसायिक किस्म है|
जापानी वर्ग की अधिकाशं आलूबुखारा किस्मों में स्व-अनिशेच्यता पायी जाती है| इसलिए इन्हे परागण के लिए अन्य किस्मों जैसे- सेन्टारोजा या मेरीपोजा की आवश्यकता पड़ती है| ब्यूटी और मिथले जो कि जापानी वर्ग की किस्में है, में स्वय-परागण से फल लग जाते हैं| यदि इन किस्मों के साथ अन्य परागकर्ता किस्में भी लगा दी जायें तब फलत और भी अच्छी होगी|
इसलिए आलूबुखारा का बाग लगाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए, कि बगीचे में एक से ज्यादा किस्म के पेड़ परागकर्ता के होने चाहिए| आलूबुखारा की सतसुमा किस्म से अच्छी फलत प्राप्त करने के लिए सेन्टारोजा किस्म को बगीचे में लगाना चाहिए| अच्छे परागण के लिए बाग में मधुमक्खियों के बक्से भी रखने चाहिए|
प्रवर्धन और मूलवृन्त
आलूबुखारा का प्रसारण प्लम, आडू और खूबानी के बीजू स्कन्ध पर रिंग तथा टी-कलिकायन विधि द्वारा जून से जुलाई माह में किया जाता है| पैच बडिग विधि द्वारा भी इसका प्रसारण किया जा सकता है|
मिट्टी के अनुसार प्रसारण इस प्रकार कर सकते है, जैसे- बलुई व भारी भूमि जहां निमेटोड की समस्या हो वहां माईरोबेलान आलूबुखारा के बीजू पेड़, हल्की भूमि जिसमें अच्छा जल निकास हो के लिए आडू के बीजू पेड़ और निमेटोड वाली बलुई भूमि के लिए खुबानी के बीजू पेड़ मूलवृन्त के रुप में प्रयोग करे| अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अलूचा या आलूबुखारा का प्रवर्धन कैसे करें
पौध रोपण
आलूबुखारा या प्लम की खेती के लिए नवम्बर और फरवरी माह के बीच निर्धारित स्थान पर 1 x 1 x 1 मीटर आकार के 6 x 6 मीटर की दूरी पर गड्डे खोद लेना चाहिए| इसके बाद प्रत्येक गड्डे में 40 किलोग्राम गोबर की खाद मिट्टी में मिला कर गड्डों में भर देना चाहिये| जनवरी से फरवरी में नर्सरी से स्वस्थ व रोगमुक्त पौधों को लेकर इन गड्डों में लगाकर अच्छी तरह से मिट्टी को दबा देनी चाहिए और हल्की सिंचाई करनी चाहिए|
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जल एवं सिंचाई
आलूबुखारा की खेती में फलत तथा फल विकास के समय इसे भी पानी की कमी नहीं होनी चाहिए| मैदानी भागों में ग्रीष्म ऋतु में कम से कम 2 से 3 दिन में सिंचाई करना आवश्यक होता है| पर्वतीय क्षेत्रों में टपक सिंचाई के माध्यम से जलपूर्ती की जा सकती है, जो बागवानी के लिए उपयोगी भी है|
सधाई और कटाई-छटाई
आलूबुखारा के पौधे की अच्छा आकार देने के लिए सधाई हेतु उसकी काटना-छाँटना करना आवश्यक है| सेलिसिना वर्ग की बहुत सी किस्में ऊपर वृद्धि करने के बजाय अलग-बगल में फैलकर वृद्धि करती है| ऐसी किस्मों की सधाई खुला मय विधि से करनी चाहिए| जो किस्में ऊपर की तरफ वृद्धि करती है, उन्हे रूपान्तरित अग्रप्ररोह विधि (मॉडीफाइड लीडर विधि) द्वारा करनी चाहिए| इस विधि में मूल तने को 3 से 4 मीटर तक सीधा बढ़ने देने के बाद इसको ऊपर से काट दिया जाता है, इस 3 से 4 मीटर ऊँचे तने पर ही समुचित दूरी पर शाखायें रखी जाती हैं|
सेलिसिना वर्ग के आलूबुखारा में स्पर व एक साल पुरानी शाखाओं पर फल लगते हैं| स्पर आठ साल तक लगातार फल देते रहते है| अतः आठ साल से अधिक उम्र के स्पर को काट कर निकाल देना चाहिए| एक साल पुरानी शाखाओं को लगभग एक-तिहाई काट कर अलग कर लें, जिससे अगले वर्ष के लिए नई शाखायें प्राप्त हो सकती हैं|
डोमिस्टिका वर्ग ( यूरोपीय वर्ग) के अधिकांश किस्मों में फल स्पर पर आते हैं| फलत वाली इन किस्मों में काट-छाँट नही के बराबर करनी चाहिए, कमजोर, रोग ग्रसित तथा अन्दर की ओर बढने वाली टहनियों को काटते रहना चाहिए| जिससे पेड़ में रोशनी का समुचित समावेश हो और इसके स्पर फलत की अवस्था में अधिक दिनों तक रहें|
खाद और उर्वरक
आलूबुखारा या प्लम की खेती में जब वृक्ष 1 से 2 वर्ष का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 10 से 15 किलोग्राम, यूरिया 150 से 200 ग्राम, एसएसपी 200 से 300 ग्राम, और म्यूरेट ऑफ पोटाश 150 से 300 ग्राम प्रति वृक्ष डालें| जब वृक्ष 3 से 4 वर्ष का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 20 से 25 किलोग्राम, यूरिया 500 से 700 ग्राम, एसएसपी 500 से 700 ग्राम, और म्यूरेट ऑफ पोटाश 400 से 600 ग्राम प्रति वृक्ष डालें|
जब वृक्ष 5 वर्ष या इससे ज्यादा उम्र का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 25 से 35 किलोग्राम, यूरिया 1000 ग्राम, एसएसपी 1000 ग्राम और म्यूरेट ऑफ पोटाश 800 ग्राम प्रति वृक्ष डालें|
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कीट रोकथाम
आलूबुखारा की खेती में लगने वाले मुख्य कीट इस प्रकार है, जैसे-
पत्ते मोड़ने वाली माहू (लीफ कर्ल एफिस)- इस कीट के शिशु तथा वयस्क पत्तियों का रंग चूसते है, जिससे पंत्तियाँ विकृत होकर मुड़ और सूख जाती हैं|
रोकथाम- आक्सिडेमेंटान-मिथायल 200 मिलीलीटर को 200 लिटर छिड़काव करें|
शल्क (स्केल)- इस कीट की मादा पौधे के तने तथा शाखाओं पर छोटी गोलाकार घुण्डियों के रूप में दिखाई पड़ती है, छोटे शिशु पत्तियों पर स्थिर रह कर रस चूसते है|
रोकथाम- कापर आक्सीक्लोराइड 600 ग्राम को 200 लिटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें|
तना-बेधक कीट (स्टेम बोरर)- इसके कैटर पिलर शाखाओं व तने में छेद करते हैं और उनके अन्दर सुरंग बना कर तन्तुओं को खाते रहते हैं और क्षति पहुँचाते हैं, कैटर पिलर शाखाओं तथा तने में बनाई सुरंगों के छेदो से गुलाबी रंग के बुरादे जैसे पदार्थ की गोलियाँ बना-बना कर बाहर फेंकते रहते हैं| जिससे आलूबुखारा की शाखाएं सुख जाती है, कभी कभी तो पौधे भी शुख जाते है|
रोकथाम- पूर्व फसल के डंठलो को जला दें, क्विनल्फास या फोसालोन या क्लोरपाईरिफास या इन्डोसल्फान का छिड़काव करें और छेदों में दवा डाल कर गीली मिट्टी से बंद कर दे|
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रोग रोकथाम
आलूबुखारा की खेती में लगने वाले मुख्य रोग इस प्रकार है, जैसे-
जड़-सड़न रोग (रूट रॉट)- यह रोग पौधों की जड़ों में सफेद रंग की फफूँदी द्वारा होते है, जिससे पौधे धीरे-धीरे कमजोर होते जाते हैं|
रोकथाम- बागवान सर्दियों में रोगग्रस्त पौधों की जड़ों से मिट्टी हटाकर धूप लगने के लिए खोल दें, रोगग्रस्त पौधों की जड़ों से जख्म को साफ करके उसमें फफूंदीनाशक पेस्ट लगाएं|,जड़ों में पानी को न रुकने दें, पानी की निकासी के लिए नालियां बनाएं, बगीचे में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, खरपतवार को पौधे की जड़ों में न उगने दें|
जीवाणु धब्बे- इस बीमारी के लगने पर पत्तियों में छोटे-छोटे धब्बे पड़ जाते है|
रोकथाम- पत्तों के गिरने या कलियों के सूखने के समय ज़ीरम या थीरम 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करें|
सिलवर लीफ कैंकर- पंखुड़ी पतन के तुरंत बाद संक्रमण के प्रारंभिक अवस्था में ग्रसित पेड़ों की पत्तियॉ चांदी की तरह धातुई चमक लिए हुए होती हैं, शाखाओं पर यह फफोलों के रूप में परिलक्षित होती है, पेड़ की छाल का बाह्य भाग कागज की तरह उतर जाता है|
रोकथाम- स्ट्रेप्टोमाइसीन सल्फेट के 2 से 3 छिड़काव 15 दिनों पर करें, बाविस्टीन/ब्लूकापर (3 ग्राम प्रति लिटर पानी) का छिड़काव करें|
फल तुडाई और पैदावर
फल तुडाई- आलूबुखारा फलों के अच्छे स्वाद के लिए फलों को पेड़ पर पकने के बाद ही तोड़ना अच्छा होता है| तोड़ने के बाद इसके स्वाद की वृद्धि नहीं होती| फिर भी दूर भेजने के लिए इसे पेड़ पर पूरा पकने के कुछ दिन पहले ही तोड़ा जाता है, आलूबुखारा को अधिक दिन तक अच्छी दशा में रखा जा सकता है|
पैदावर- भारतीय दशाओं में औसत प्रति पेड़ उपज लगभग 50 से 80 किलोग्राम आती है|
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