आलू की खेती भी लगभग पुरे विश्व में की जाती है| आलू की सम्भावनाओं को देखते हुए, आलू की जैविक खेती किसानो के लिए वरदान साबित हो सकती है| क्योंकि आलू पौष्टिक तत्वों का खजाना है, इसमें सबसे प्रमुख स्टार्क, जैविक प्रोटीन, सोडा, पोटाश और विटामिन ए व डी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते है| जो मानव शरीर के लिए आवश्यक है|
हालाँकि हमारे देश में भी आलू की जैविक खेती बड़े क्षेत्रफल में की जाती है| परन्तु अच्छी तकनीकी तथा जानकारी के आभाव में आलू उत्पादक इसकी अच्छी पैदावार नही ले पाते है| इस लेख द्वारा किसान भाइयों को उन सभी उपायों से अवगत कराना चाहेगे| जिनको उपयोग में लाकर कृषक आलू की जैविक खेती अच्छी पैदावार प्राप्त कर सकते है|
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आलू की जैविक खेती के लिए जलवायु
आलू कि खेती ठन्डे मौसम में जहाँ पाले का प्रभाव नहीं होता है, सफलता पूर्वक कि जा सकती है| आलू के कंदों का निर्माण 20 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर सबसे अधिक होता है| जैसे जैसे तापक्रम में वृद्धि होती जाती है, वैसे ही कंदों का निर्माण में भी कमी होने लगती है तथा 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापक्रम होने पर कंदों का निर्माण रुक जाता है|
पौधों की बढ़वार के लिए लम्बे दिनों कि अवस्था तथा कंद निर्माण के लिए छोटे दिनों कि अवस्था आवश्यक होती है| हमारे देश में विभिन्न भागों मे उचित जलवायु कि उपलब्धता अनुसार किसी न किसी भाग में पुरे साल आलू कि खेती होती है|
आलू की जैविक खेती के लिए उपयुक्त भूमि
आलू को क्षारीय भूमि के अलावा सभी प्रकार की भूमियों में उगाया ज सकता है, परन्तु जीवांशयुक्त रेतीली दोमट या दोमट भूमि इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम रहती है| भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध अतिआवश्यक है, नही तो कंदों के निर्माण में कठिनाई होती है, कंद विकृत तथा अविकसित हो जायेंगे और उन पर दरारे पड़ जाएगी| इसकी खेती के लिए मिटटी का पी एच मान 5.2 से 6.5 सर्वोतम माना गया है|
आलू की जैविक खेती के लिए उन्नत किस्में
अगेती किस्में- कुफऱी चंदरमुखी, कुफरी अलंकार, कुफरी पुखराज, कुफरी ख्याती, कुफरी सूर्या, कुफरी अशोका, कुफरी जवाहर, जिनकी पकने की अवधि 80 से 100 दिन है|
मध्यम समय वाली किस्में- कुफरी बादशाह, कुफरी ज्योति, कुफरी बहार ,कुफरी लालिमा, कुफरी सतलुज, कुफरी चिप्सोना- 1, कुफरी चिप्सोना- 3, कुफरी सदाबहार, कुफरी चिप्सोना- 4, कुफरी पुष्कर जिनकी पकने की अवधि 90 से 110दिन है|
देर से पकने वाली किस्में- कुफरी सिंधुरी कुफरी फ़्राईसोना और कुफरी बादशाह जिनकी पकने की अवधि 110 से 120 दिन है|
संकर किस्में- कुफरी जवाहर (जे एच- 222), 4486- ई, जे एफ- 5106, कुफरी सतुलज (जे आई 5857) और कुफरी अशोक (पी जे- 376) आदि है|
विदेशी किस्में- कुछ विदेशी किस्मों को या तो भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल पाया गया है या अनुकूल ढाला गया है, जो इस प्रकार है, जैसे- अपटूडेट, क्रेग्स डिफाइन्स और प्रेसिडेंट आदि है| किस्मों की विस्तार से जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- आलू की उन्नत किस्में, जानिए उनकी विशेषताएं और पैदावार
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आलू की जैविक खेती के लिए खेत की तैयारी
आलू के कंद मिटटी के अन्दर तैयार होते है इसलिए मिटटी का भुरभुरा होना नितांत आवश्यक है| पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करे दूसरी तथा तीसरी जुताई देशी हल या हेरों से करनी चाहिए| यदि खेत में ढेले हों तो पाटा चलाकर मिटटी को भुरभूरा बना लेना चाहिए| बुवाई के समय मिटटी में नमी का पर्याप्त होना अनिवार्य है| यदि खेत में नमी की कमी हो तो खेत में पलेवा करके बुवाई करना चाहिए|
आलू की जैविक और फसल-चक्र
आलू की फसल शीघ्र तैयार हो जाती है| कुछ किस्में तो 70 से 90 दिन में ही तैयार हो जाती है| इसलिए फसल विविधिकरण के लिए यह एक आदर्श नकदी फसल है| मक्का-आलू-गेहूं, मक्का-आलू-मक्का, भिन्डी-आलू-प्याज, लोबिया आलू-भिन्डी आदि फसल प्रणाली को देश के विभिन्न हिस्सों में अपनाया जा रहा है|
आलू की जैविक खेती के लिए बुआई का समय
आलू की जैविक खेती हेतु बुआई का समय किस्म और जलवायु पर निर्भर करता है| वर्ष भर में आलू की तीन फसलें ली जा सकती है| आलू की अगेती फसल (सितम्बर के तीसरे सप्ताह से अक्टूबर प्रथम सप्ताह तक), मुख्य फसल (अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के द्वितीय सप्ताह तक) और बसंतकालीन फसल (25 दिसम्बर से 10 जनवरी तक) ली जा सकती है|
जल्दी तैयार हो ने वाले आलू जब सितम्बर से अक्टूबर में बोये जाते है, तब आलू बिना काटे ही बोये जाने चाहिए| क्योकि काटकर बोने से ये गर्मी के कारण सड़ जाते है, जिससे फसल पैदावर में भारी हांनि होती है| अल्पकालिन आलू सितम्बर में बो कर नवम्बर में काटा जा सकता है|
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आलू की जैविक खेती के लिए बीज का चुनाव
आलू की खेती में बीज का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है| क्योंकि आलू उत्पादन में कुल लागत का 40 से 50 प्रतिशत खर्च बीज पर आता हैं| इसलिए आलू का बीज ही उत्पादन का मूल आधार है| शुद्ध किस्म का, उपजाऊँ, कीट व रोग मुक्त, कटा, हरा या सड़ा न हो| स्वच्छ तथा सुडोल बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए| आलू के बीज की मात्रा आलू की किस्म, आकार, बोने की दूरी तथा भूमि की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है|
अगेती फसल में पूरा आलू बोते हैं, टुकड़े नहीं काटे जाते, क्योंकि उस समय भूमि में नमी अधिक होती है, जिससे कटे टुकड़ों के सड़ने की सम्भावना रहती है| बड़े आलू को टुकड़ों में काट लेते हैं, एक टुकड़ें में कम-से-कम 2 से 3 आँखें रहनी चाहिये| कटे हुए टुकड़े देर से बोई जाने वाली फसल में प्रयोग करते हैं| क्योंकि उस समय इनके सड़ने की सम्भावना नहीं रहती है| इसके अलावा काटने से आलुओं की सृषुप्तावस्था समाप्त हो जाती है तथा अंकुरण शीघ्र होने लगता है|
आलू की जैविक खेती के लिए बीज का आकार और दूरी
आलू की जैविक खेती हेतु स्वच्छ बीज 30 ग्राम से 125 ग्राम वजन के होना चाहिए| इनकी मोटाई 25 से 65 मिलीमीटर हो सकती है| इससे कम या अधिक आकार या भार का बीज आर्थिक दृष्टिकोण से लाभप्रद नहीं है, क्योंकि अधिक बड़े टुकड़े बोने से अधिक व्यय होता है और कम आकार या भार के टुकड़े बोने से पैदावार में कमी आती है| कन्द वजन के अनुसार रोपण की दूरी और बीज की मात्रा इस प्रकार होनी चाहिए, जैसे-
बीज कंद का भार | कतार से कतार दूरी (सेंटीमीटर) | बीज से बीज दूरी (सेंटीमीटर) | बीज दर (क्विंटल प्रति हेक्टेयर) |
25 से 30 | 50 से 60 | 10 से 20 | 20 से 25 |
30 से 50 | 60 | 20 | 25 से 41 |
50 से 60 | 60 | 30 | 27 से 33 |
60 से 100 | 60 | 40 | 27 से 43 |
जीवांश युक्त उपजाऊ भूमि में छोटे बीजो को पास-पास बोना अच्छा रहता है| कमजोर भूमि में मोटा बीज बोने में अधिक अन्तर रखाना लाभकारी होता है| आलू बोने की गहराई बीज के आकार, भूमि की किस्म तथा जलवायु पर निर्भर करती है| बलुई भूमि में गहराई 10 से 15 सेंटीमीटर तथा दोमट भूमि में 8 से 10 सेंटीमीटर गहराई पर बुआई करनी चाहिए| कम गहराई पर बोने से आलू सूख जाते हैं तथा अधिक गहराई पर नमी की अधिकता से बीज सड़ सकता है|
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आलू की जैविक खेती के लिए बीज उपचार
शीतगृह से तुरन्त निकाले गये आलू को बोने से अंकुरण देर से और एक समान नहीं होता है| इसलिए बीज वाले आलू को शीत गृह से बुआई के 10 से 15 दिन पहले निकाल कर ठंडी तथा छायादार जगह पर फैला देना चाहिए| जिससे आलू में अंकुर फूट जाते हैं और फसल अंकुरण अच्छा तथा एक समान होगा| आलू की जैविक खेती हेतु बीज जनित व मृदा जनित रोगों से बचाव के लिए बीज को जीवामृत और टराईकोड़रमा विरीडी 50 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी के घोल के हिसाब से 15 से 20 मिनट के लिए भिगो कर रखें, बिजाई से पहले छाँव में सूखा ले| ध्यान दें, टराईकोड़रमा क्षारीय मृदाओं के लिए उपयोगी नही है|
आलू की जैविक खेती के लिए बुआई की विधियाँ
आलू की बुआई की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं, जो कि भूमि की किस्म, नमी की मात्रा, यंत्रों की उपलब्धता, क्षेत्रफल इत्यादि पर निर्भर करती है| आलू लगाते समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है, लगाने के तुरन्त बाद सिंचाई करना उचित नहीं रहता हैं| आलू बुआई की विधियां इस प्रकार है, जैसे-
समतल खेत में आलू बोना- हल्की दोमट मिटटी के लिए यह सर्वोत्तम विधि है| रस्सी की सहायता से निश्चित दूरी पर कतारे बनाकर देशी हल या कल्टीवेटर या प्लान्टर से खुड बना ली जाती है| इन्हीं कूँडों में निश्चित दूरी पर आलू बो दिये जाते हैं| बोने के पश्चात् आलुओं को पाटा चलाकर मिट्टी से ढँक दिया जाता है|
समतल खेत में आलू बोकर मिटटी चढ़ाना- इस विधि में खेत में 60 सेंटीमीटर की दूरी पर कतार बना ली जाती है| इन कतारों में 15 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर आलू के बीज कंद रख दिये जाते हैं| इसके बाद फावड़े से बीजों पर दोनों और से मिटटी चढ़ा दी जाती है| हल्की मिटटी में बनी हुई कतारों पर 5 सेंटीमीटर गहरी कूँड़ें बनाकर आलू के बीज बो दिये जाते हैं तथा पुनः मिट्टी चढ़ा दी जाती है|
मेंड़ों पर आलू की बुआई- इस विधि में मेंड बानने वाले यंत्रों की सहायता से निश्चित दूरी पर मेंड़ें बना ली जाती हैं, मेंड़ों की ऊँचाई प्रारम्भ में 15 सेंटीमीटर रखी जाती है| तत्पश्चात् 15 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर 8 से 10 सेंटीमीटर की गहराई पर आलू के बीजों को खुरपी की सहायता से मेंड़ों पर गाड़ देते हैं| अधिक नम व भारी भूमि के लिए यह विधि उपयुक्त रहती है, क्योंकि मेंड़ों पर बोने से नमी कम हो जाती है|
पोटैटो प्लांटर से बुआई- इस विधि में पोटैटो प्लांटर से मेंड व कूँड़ बनाते चलते हैं| पहली मेंड पर आलू बो दिये जाते हैं| जब प्लांटर पहली कूँड़ के पास से दूसरी कूँड़ में गुजरता है, तो पहली मेंड पर बोये हुए कन्दों को हल्की मिट्टी से ढँकता हुआ चला जाता है तथा अगली मेंड और कूँड तैयार हो जाते हैं|
दोहरा कूँड़ विधि- इस विधि में आलू की दो पंक्तियाँ एकान्तर विधि से बोई जाती हैं| दो पंक्तियों के मध्य 75 सेंटीमीटर की दूरी रखते हैं| यदि बुआई मेंड़ों पर करनी है, तब इनकी चैड़ाई 75 सेंटीमीटर रखते हैं तथा आलू की दो पंक्तियाँ इसी मेंड़ पर बनाकर बोआई करते हैं| इस विधि से अंकुरण तथा आलू का विकास अच्छा होता है| यह विधि हरियाणा और पंजाब में प्रचलित है|
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आलू की जैविक फसल में सिंचाई प्रबंधन
आलू उथली जड़ वाली फसल है इसलिए इसे बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है| सिंचाई की संख्या और अंतर भूमि की किस्म तथा मौसम पर निर्भर करता है| औसतन आलू की फसल की जल माँग 60 से 65 सेंटीमीटर होती है| बुआई के 3 से 5 दिन बाद पहली सिंचाई हल्की करनी चाहिए| अधिक उपज के लिए यह आवश्यक है कि मिटटी हमेशा नम रहे|
जलवायु व मिटटी की किस्म के अनुसार आलू में 5 से 10 सिंचाइयाँ देने की आवश्यकता पड़ती है| भारी भूमि में कम तथा हल्की भूमि में अधिक पानी की आवश्यकता होती है| नालियों का केवल आधा भाग ही पानी से भरना अच्छा होता हैं| मिटटी में नमी की हानि रोकने के लिए नालियों में पलवार बिछा देनी चाहिए|
आलू की फसल में अंकुरण समय, मिट्टी चढ़ाने के बाद तथा कंदों की वृद्धि के समय सिंचाई करना आवश्यक रहता है| सिंचाई की इन क्रांतिक अवस्थाओं के समय खेत में नमी की कमी से उपज में बहुत गिरावट हो जाती है| खेत में जल निकास का उचित प्रबंधन होना चाहिए| जल भराव की स्थिति में कन्द सड़ जाते हैं| आलू की खुदाई के 7 से 10 दिन पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए|
आलू की जैविक फसल में खरपतवार नियंत्रण
आलू की जैविक फसल के साथ उगे खरपतवार को नष्ट करने हेतु आलू की फसल में एक बार ही निंदाई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है, जिसे बुआई के 20 से 30 दिन बाद कर देना चाहिये| गुड़ाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि भूमि के भीतर के तने बाहर न आ जायँ नहीं तो वे सूर्य की रोशनी से हरे हो जाते है| खरपतवार नियंत्रण के अन्य तरीके इस प्रकार है, जैसे-
1. जुताई खरपतवारो के बीजों के अंकुरण में सहायक होती है, जिससे इनको यांत्रिक विधियों से आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है|
2. गर्मी की जुताई से बहुवर्षीय खरपतवारों की जड़ें बरोह कंद और प्रकंद आदि भूमि की सतह पर आ जाते हैं, जो सूर्य की तीव्र रोशनी से सूखकर मर जाते हैं|
3. फसल-चक्र और अंतरवर्ती फसलों द्वारा खरपतवार को नियंत्रित किया जा सकता है|
4. हस्तचलित यंत्रो से निराई-गुड़ाई करके खरपतवारों को नष्ट किया जा सकता है|
5. पलवार के रूप में कम्पोस्ट खाद पुआल सूखी घास पत्तियां पौधे की छाल फसल अवशेष इत्यादि का उपयोग किया जा सकता है, इनके द्वारा प्रभावी खरपतवार नियंत्रण होता है और खेत में नमी भी बनी रहती है|
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आलू की जैविक फसल में मिटटी चढ़ाना
आलू की जैविक खेती से भरपूर तथा गुणवत्ता युक्त उपज लेने के लिए पौधों पर मिटटी चढ़ाना आवश्यक रहता है| इससे कन्दों का विकास अच्छा होता है, मिटटी न चढ़ाने से पौधों का आलू बनाने वाला भाग भूमि की ऊपरी सतह पर आकर हरे कन्द पैदा करने लगता है| खुले आलू के कन्दों में, सूर्य का प्रकाश या धूप पड़ने पर एन्थोसायनीन तथा क्लोरोफिल के संश्लेषण से, सोलेनिन नामक एल्केलाइड बनने लगता है|
इससे आलू हरे रंग के होने लगते हैं, जो कि स्वाद में कसैले एवं स्वास्थ के लिए हांनिकारक होते है| इस प्रकार के आलुओं की गुणवत्ता खराब हो जाती है| इसलिए जब आलू के पौधे 10 से 15 सेंटीमीटर ऊँचे हो जाएँ, तब उन पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य बुआई के 25 से 30 दिन पहली सिंचाई के बाद करना चाहिए| यदि आलू की बुआई प्लांटर मशीन से की गई है, तब मिटटी चढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती है|
आलू की जैविक खेती की देखभाल
आलू की जैविक खेती में किसी भी प्रकार के रासायनिक का प्रयोग नही करना चाहिए, इसलिए रोगों व कीटों पर नियंत्रण कृषकों को कृषिगत, शस्य और जैविक विधि से करना होता है, जो इस प्रकार है, जैसे-
प्रमुख कीट-
माहू- यह कीट पत्तियों व तनों का रस चूस कर क्षति पहुँचाता है| प्रकोप होने पर पत्तियाँ पीली पड़ कर गिर जाती हैं एवं यह मोजैक रोग के प्रसारण में भी सहायक होता है|
आलू का पतंगा- यह कीट आलू के कन्दों, खड़ी फसल और भण्डारण दोनों स्थानों पर क्षति पहुँचाता है| इसका वयस्क कीट आलू की आँखों में अण्डा देता है| जिनसे 15 से 20 दिन बाद सूड़ियाँ निकलती हैं| ये सूड़ियाँ कन्दों में घुसकर क्षति पहुँचाती हैं|
कटुआ- यह कीट खेत में खड़ी फसल तथा भण्डारित कन्दों, दोनों पर ही आक्रमण करता है| इस कीट की विकसित इल्ली लगभग 5 सेंटीमीटर लम्बी होती है| और पत्तियों, तनों आदि पौधों के वायुवीय भाग को काट कर अलग कर देती है| दिन के समय यह भूमि के भीतर छुपी रहती हैं और रात में फसल को नुकसान पहँचाती है|
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कीटों का एकीकृत (आईपीएम) प्रबंधन-
1. आलू की जैविक खेती के लिए गर्मी की गहरी जुताई करें|
2. आलू की शीघ्र समय से बुआई करें|
3. उचित जल प्रबंधन की व्यवस्था रखें|
4. आलू में येलो स्टीकी ट्रेप का प्रयोग करें|
5. माहू के लिए आलू की जैविक खेती में नीम युक्त कीटनाशी का प्रयोग करें|
6. आलू में कीट व्याधिकारक ब्यूवेरिया का छिड़काव करें|
7. परभक्षी लेडी वर्ड बीटल एवं क्राइसोपरला को बढ़ावा दें तथा इनका संरक्षण करें|
8. कटुआ कीट के लिए बीजाई से पहले खेतों में कीट व्याधिकारक मैटरीजियम या व्यूबेरिया को गोबर की खाद के साथ मिलाकर डालें|
9. जुताई करते समय कटुआ कीट की जो सुण्डियां दिखाई दे उन्हें इक्कठा करके नष्ट कर दें|
10. पतंगा की रोकथाम के लिए केवल प्रमाणित व स्वस्थ बीज ही बोयें साथ में आलू की गहरी बुवाई करनी चाहिए|
11. आलू के कन्दों को नगां न रहने दें तथा ठीक समय पर मिट्टी चढाएं|
12. अण्ड परजीवी ट्राइकोग्रामा किलोनिस 50,000 अण्डे प्रति हेक्टेयर तथा अण्ड सुण्डी परजीवी किलोनस ब्लैकवर्नी 15,000 व्यस्क प्रति हेक्टेयर की दर से 2 से 3 बार छोड़े|
13. आलूओ की खुदाई के बाद खेत में उन पर तरपाल या चादर से ढक दें, ताकि पतंगे उन पर अंडे न दे सकें|
14. आलू की जैविक खेती में जीवामृत के 4 से 5 छिडकाव करें|
15. खेतो में प्रकाश प्रपंच का प्रयोग अवश्य करें|
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प्रमुख रोग-
अगेती झुलसा- पत्तियों पर गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे बनते हैं| बीच में कुण्डाकार घेरे स्पष्ट दिखाई देते हैं| रोग ग्रसित पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं| धब्बे पत्तियों के अतिरिक्त तनों पर भी दिखाई पड़ते हैं|
पछेती झुलसा- यह अत्यन्त भयंकर रोग है| जिससे कभी-कभी सम्पूर्ण फसल नष्ट हो जाती है| पत्तियों पर भूरे मृत धब्बे, शुरू में पत्तियों के सिरे या किनारे से शुरू होकर अन्दर की ओर नम मौसम में तेजी से बढ़ते हैं| इस रोग के तीव्र प्रकोप से सम्पूर्ण पौधा झुलस जाता है और अधिक प्रकोप होने पर कन्दों पर भी इसका फैलाव हो जाता है| अधिक आर्द्रता इसके फैलाव में सहायता करती है|
रोगों का एकीकृत (आई पी एम) प्रबंधन-
1. आलू की जैविक खेती हेतु 2 से 3 वर्षीय का फसल चक्र अपनाना चाहिए|
2. रोग रोधी प्रजातियां जैसे- कुफरी-नवीन, सिंदूरी, जीवन, बादशाह, ज्योति, सतलज, आनन्द, गिरीराज, मेघा, चन्दन, धनमलाई आदि को उगाना चाहिए|
3. बीज की बुआई 4 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से ट्राइकोडर्मा द्वारा शोधित करके बुआई करना चाहिए|
5. आलू की जैविक खेती में रोगग्रस्त पत्तों को इकटठा करके नष्ट कर दें|
6. आलू में बोआई से पहले रोगग्रस्त कन्दों को निकाल देना चाहिए|
7. रोगों के आक्रमण के सम्भावित समय से पहले हर 15 दिन के अंतराल पर नीम या गौ मूत्र आधारित कीटनाशक का छिड़काव करे| कीट व रोगों के नियंत्रण की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- आलू में एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन कैसे करें, जानिए उत्तम पैदावार हेतु
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आलू की जैविक फसल की खुदाई
आलू की जैविक खेती की खुदाई उसकी किस्म तथा उगाये जाने के उद्देश्य पर निर्भर करती है| आलू की फसल उस समय पूरी तरह तैयार हो जाती है, जब पौधे सूख जाएँ या पत्ते पीले पड़ जाये एवं खोदने पर आलू के छिलके न उतरें| खुदाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि कन्द पर किसी भी प्रकार की खरोच न हो, नहीं तो उनके जल्द सड़ने का भय रहता है| उपलब्धता के अनुसार, आलू के कंदो की खुदाई यांत्रिक रूप से करने के लिए पोटेटो डिगर या मूँगफली हारवेस्टर का उपयोग किया जा सकता है|
आलू की जैविक खेती से पैदावार
आलू की जैविक खेती द्वारा पैदावार, भूमि के प्रकार, खाद का उपयोग, किस्म तथा फसल की देखभाल आदि कारकों पर निर्भर करती है| सामान्य रूप से आलू की अगेती किस्मों से औसतन 250 से 400 क्विंटल और पिछेती किस्मों से 300 से 600 क्विंटल पैदावार प्राप्त की जा सकती है|
ध्यान दें- यदि किसान बन्धु अपने खेत में रासायनिक पद्धति से हट कर आलू की जैविक पद्धति अपना रहें है, तो शुरू के 1 से 2 वर्ष तक उत्पादन में 5 से 15 प्रतिशत तक गिरावट संभव है|
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