एलोवेरा (Aloe Vera) शुष्क क्षेत्र की एक बहुउपयोगी वनस्पति है| भारत में यह घृतकुमारी, घीकुंआर, मुसाबर, ग्वारपाठा इत्यादि नामों से प्रसिद्ध है| यह उष्ण क्षेत्रानुकूल वनस्पति है| इसलिए इसे शुष्क प्रदेशों में जहाँ पानी की सुविधा कम हो सरलता से उगाया जा सकता है| एलोवेरा लिलिएसी कुल का सदस्य है| इसकी पत्तियाँ मांसल (गुद्देदार) तथा वर्ष भर हरी रहती है| इसके वंश में कुल 275 प्रजातियाँ हैं, जिनमें से भारत में केवल चार प्रजातियाँ पायी जाती हैं|
मूलरूप से एलोवेरा भूमध्य सागारीय देशों (इटली, ग्रीस आदि) की वनस्पति है| परन्तु माल्टा, केनरी कैप, साइप्रस, इजराइल आदि देशों में इसकी व्यवसायिक खेती की जाती है| भारतवर्ष में यद्यपि इसकी व्यवसायिक खेती अभी प्रारम्भिक अवस्था में ही है, परन्तु इसके पौधे राजस्थान, गुजरात, आन्ध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि प्रदेशों की अर्द्धशुष्क जलवायु में बहुतायत में पाये जाते हैं|
एलोवेरा का कमलाकृति पौधा देखने में बड़ा ही आकर्षक होता है| वातावरण के प्रति सहिष्णु होने के कारण विपरीत परिस्थितियों में यह अच्छा पनपता है| 5 से 7 सेंटीमीटर लम्बे तने के चारों तरफ से 40 से 50 सेंटीमीटर लम्बी ऊपर से नुकीली तथा नीचे से चौड़ी व मांसल पत्तियाँ निकली होती है| एलोवेरा में जड़-तंत्र पूर्ण विकसित एवं रेशेयुक्त होता है| पुष्प संरचना की वैज्ञानिक व्याख्या के अनुसार इसका पुष्पक्रम साधारण घना, असीमाक्ष तथा त्रिज्या जैसा होता है|
फूलों में भालाकार सहपत्र, पीले रंग का बेलनाकार नलीयुक्त परिदल पुंज तथा उच्चकोटि का अक्षीय बीजाण्डन्यास व त्रिकोष्ठकी अण्डाशय होता है| यदि किसान बन्धु इसकी खेती वैज्ञानिक पद्धति से करें, तो इसकी खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है| इस लेख में एलोवेरा की खेती वैज्ञानिक तकनीक से कैसे करें का उल्लेख किया गया है|
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एलोवेरा की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
बेहद सूखा सहन पौधा होने के कारण इसकी खेती न्यूनतम वर्षा (100 से 300 मिलीमीटर) वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है| अत्यधिक सर्दी पाले से घृतकुमारी की पौध बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है| एलोवेरा में क्षार को सहन करने की क्षमता होती है| अतः लवणीय पानी से सिंचाई करके भी इसकी खेती की जा सकती है|
एलोवेरा की खेती के लिए भूमि का चयन
यद्यपि एलोवेरा की खेती कंकरीली-पथरीली एवं वर्षा आधारित बारानी भूमि में हो सकती है| परन्तु अच्छे जल निकास वाली बलुई व बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए अच्छी मानी गई है| यह कम उर्वरा शक्ति वाली भूमि में भी अच्छी बढ़वार करके संतोषप्रद उपज दे सकता है| बंजर, परती भूमि विकास तथा रेगिस्तानी इलाके में भू-संरक्षण के लिए यह बहुत ही उपयोगी पौधा है|
एलोवेरा की खेती के लिए प्रवर्धन तकनीक
एलोवेरा के पौधे से कई छोटे-छोटे जड़दार पौधे निकलते हैं, जिन्हें “सकर” कहा जाता है| इन छोटे-छोटे पौधों को मुख्य पौधों से अलग करके अन्य स्थान पर लगाकर प्रवर्धन किया जाता है| एक विकसित पौधे से एक वर्ष में लगभग 5 से 10 पौधे प्राप्त किये जा सकते है|
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एलोवेरा की खेती के लिए पौध रोपाई
स्वस्थ पौधा, जिसमें 5 से 6 पत्तियाँ हो, रोपण हेतु उत्तम होता है| पौधों को लगभग 60 x 60 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाते हैं| खेत की तैयारी हेतु 100 टन गोबर की सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर मिलाकर अच्छी जोताई करनी चाहिए| दीमक से बचाव एवं अच्छी बढ़वार लेने के लिए प्रति पौधे में 10 ग्राम हैप्टाक्लोर या 100 ग्राम राख मिलाना अच्छा रहता है|
बारानी क्षेत्रों में एलोवेरा को वर्षा ऋतु में लगाना उपयुक्त रहता है, परन्तु जहाँ सिंचाई के साधन उपलब्ध हों वहाँ फरवरी से मार्च पौध रोपण के लिए बहुत उपयुक्त समय रहता है| पौधा लगाने के बाद एक सप्ताह तक प्रतिदिन बहुत हल्की सिंचाई करना जरूरी होता है| अच्छी प्रकार से खेत की तैयारी करके पौध रोपण करने पर शत-प्रतिशत सफलता प्राप्त की जा सकती है|
एलोवेरा में खाद और उर्वरक प्रबंधन
साधारणतः एलोवेरा में बिना खाद एवं उर्वरक के भी उत्पादन मिलता है| परन्तु उचित वैज्ञानिक विधियों द्वारा सीमित मात्रा में खाद एवं उर्वरक देकर अधिक उपज प्राप्ति की जा सकती है| 100 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद व 25 ग्राम प्रति पौधा डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) प्रति वर्ष देने से पत्तियों का उत्पादन अधिक मिला है|
इसी प्रयोग द्वारा शुष्क या मरूक्षेत्र में भी इसकी खेती से उल्लेखनीय उत्पादन प्राप्त किया गया है| उर्वरकों की दो खुराकों (जुलाई व फरवरी) के अलावा जुलाई माह में गोबर की खाद भी देना जरूरी होता है| अक्टूबर माह में 2 प्रतिशत यूरिया का पर्णीय छिड़काव करना भी एलोवेरा में लाभप्रद होता है|
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एलोवेरा की खेती में सिंचाई प्रबंधन
पौध रोपाई के बाद पौधों की बढ़वार को सुनिश्चित करने के लिए पहले माह में साप्ताहिक सिंचाई करनी पड़ती है| एक बार ठीक ढंग से स्थापित होने के बाद पौधे बिना सिंचाई के भी पनप सकते हैं| जिन स्थानों पर सिंचाई की सुविधा हो वहाँ पर व्यवस्थित ढंग से सिंचाई करके अधिक उपज पाई जा सकती है| सर्दी में 15 दिनों तथा गर्मी में 7 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करना इसके लिए पर्याप्त माना गया है| वर्षा ऋतु में साधारणतः सिंचाई की कोई जरूरत नहीं होती है| पर्याप्त पोषण एवं जल प्रबंधन से इसकी पत्तियाँ अधिक मोटी व गुद्देदार होती है|
एलोवेरा की फसल में निराई-गुड़ाई
खड़ी फसल में निराई-गुड़ाई करना जरूरी होता है| इस क्रिया से जहाँ एक तरफ खरपतवार नष्ट होते है, वहीं दूसरी तरफ कठोर मिट्टी की सतह के टूटने से पौधों को बढ़ने में मदद मिलती है| पत्तियों के ऊपरी 1.2 सेंटीमीटर भाग को तोड़कर अलग कर देने से पत्तियाँ अधिक गुद्देदार हो जाती है और इसके साथ ही इनमें श्लेष्मक की मात्रा भी बढ़ जाती है| घृतकुमारी में प्रायः कीट व्याधि का प्रकोप बहुत ही कम होता है| जंगली जानवरों द्वारा इसकी फसल को कोई नुकसान नहीं होता है|
एलोवेरा की फसल से पैदावार
एलोवेरा के पौधे से रोपाई के एक वर्ष बाद से उत्पादन मिलने लगता है| पौधे की सबसे निचली एवं पूर्ण रूप से पकी हुई पत्तियों को सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है| इसके एक स्वस्थ पौधे से एक वर्ष में औसतन 3 से 5 किलोग्राम प्रत्तियाँ प्राप्त की जा सकती है| पौधों से पत्तियों की कटाई सावधानीपूर्वक करनी चाहिए, क्योंकि पत्तियाँ काटते समय तने में कोई नुकसान होने से उत्पादन पर उल्टा प्रभाव पड़ता है|
पत्तियों की कटाई के बाद अच्छी तरह पानी से धोकर एवं टोकरी में पैक करके बाजार भेजना चाहिए| उद्योगों के उपयोग हेतु व दूर दराज क्षेत्रों में भेजने के लिए अधिक मात्रा में काटी गयी पत्तियों को ठीक से धो करके एवं ढंग से पैक करके ही भेजा जाना चाहिए, क्योंकि अच्छी पैक न होने पर परिवहन के समय आपस में टकराने से पत्तियाँ का भाव कम हो जाता है|
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