करेला (Bitter gourd) हमारे देश के लगभग सभी प्रदेशों में एक लोकप्रिय सब्जी है| इसके फलों का उपयोग रसेदार, भरवाँ या तले हुए शाक के रूप में होता है| कुछ लोग इसे सुखाकर भी संरक्षित करते हैं| यह खीरा वर्गीय फसलों की एक मुख्य फसल है| करेला केवल सब्जी ही नहीं बल्कि गुणकारी औषधि भी है| इसके कडवे पदार्थ द्वारा पेट में उत्पन्न हुए सूत्रकृमि तथा अन्य प्रकार के कृमियों को खत्म किया जा सकता है| करेले का उपयोग अनेक दवाइयों में भी होता है|
गठिया रोग के लिए यह एक अत्यंत गुणकारी औषधि है| इसको टॉनिक के रूप में भी प्रयोग किया जाता है| अनेक रोग जैसे मधुमेह आदि के उपचार के लिये यह एक रामबाण है| करेला के फलों तथा पत्तियों का रस आदि से उदर (पेट) के अनेक प्रकार के रोगों को दूर किया जाता है| करेला में अनेक प्रकार के खनिज तत्वों का समावेश होता है|
इसके फलों में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन ए तथा सी आदि पाए जाते हैं| करेला की खेती से अधिकतम पैदावार के लिए किसानों सामान्य तरीके से खेती की तुलना में वैज्ञानिक तकनीक से खेती करनी चाहिए| इस लेख में करेला की उन्नत या वैज्ञानिक खेती कैसे करें का विस्तृत उल्लेख किया गया है| करेला की जैविक खेती का तरीका जानने के लिए यहाँ पढ़ें- सब्जियों की जैविक खेती: प्रमुख घटक, कीटनाशक एवं लाभ की प्रक्रिया
करेला की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
गर्म और आर्द्र जलवायु में करेला की उपज सर्वोत्तम होती है| करेला यद्यपि अपने वर्ग के अन्य शाकों की अपेक्षा अधिक शीत सहन कर लेता है। परन्तु यह पाला नहीं सहन कर पाता है|
करेला की खेती के लिए भूमि का चयन
करेला की फसल को पूरे भारत में अनेक प्रकार की भूमि में उगाया जाता है| लेकिन इसकी अच्छी वृद्धि और खेती के लिए अच्छे जल निकास युक्त जीवांश वाली दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है|
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करेला की खेती के लिए भूमि की तैयारी
करेला को खेत में बोने से पहले खेत को तैयार करना बहुत जरूरी है| खेत में 2 से 3 गहरी जुताइयां करने के बाद पाटा लगायें ताकि मिट्टी के ढेले टूट जाए तथा मिट्टी भूरभूरी तथा पोली हो जाए| इसके बाद सुविधा अनुसार क्यारियां और थाले बना लेने चाहिए|
करेले की खेती के लिए लम्बाई में 2 मीटर तथा चौडाई 2 मीटर की क्यारियों में बांटना चाहिए| लेकिन क्यारियों के बीच में 50 सेंटीमीटर की एक नाली होनी चाहिए| क्यारियों के दोनों किनारों पर 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज के लिए थाले बनाए जाने चाहिए|
करेला की खेती के लिए उन्नत किस्में
यदि करेला की किस्मों की बात की जाये तो इसकी अनेकों उन्नत और संकर किस्में उपलब्ध है| किसानों को अपने क्षेत्र की प्रचलित तथा अधिकतम पैदावार वाली किस्म का चयन करना चाहिए ताकि इसकी बाजार में मांग के अनुसार अधिकतम उपज प्राप्त की जा सके| करेला की कुछ प्रचलित उन्नत और संकर किस्में इस प्रकार है जैसे-
पूसा संकर- 1, पूसा हाइब्रिड- 2, पूसा औषधि, पूसा दो मौसमी, हिसार सेलेक्शन, पूसा विशेष, अर्का हरित, प्रिया को- 1, एस डी यू- 1, कोइम्बटूर लांग, कल्यानपुर सोना, बारहमासी करेला, पंजाब करेला- 1, पंजाब- 14, सोलन हरा और सोलन सफेद आदि प्रमुख है| किस्मों की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- करेले की उन्नत व संकर किस्मों की विशेषताएं और पैदावार
करेला की खेती के लिए बीज की मात्रा
करेला बुआई के लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेयर में लगभग 5 से 8 किलोग्राम होनी चाहिए अंकुरण क्षमता 80 से 85 प्रतिशत होना उत्तम है|
करेला की खेती के लिए खाद और उर्वरक
करेला की खेती के लिए खेत में गोबर की खाद 150 से 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर और यूरिया 200 किलोग्राम सुपर फास्फेट 300 किलोग्राम व म्यूरेट ऑफ पोटाश 90 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से डालनी चाहिए|
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करेला की खेती के लिए बीजाई का समय
मैदानी क्षेत्र- फरवरी से मार्च (सिंचित क्षेत्र) मई से जून (असिंचित क्षेत्र) बीजाई के लिए उपयुक्त है|
मध्य क्षेत्र- अप्रैल से मई बीजाई के लिए उपयुक्त है|
ऊँचे क्षेत्र- अप्रैल बीजाई के लिए उपयुक्त है|
वर्षा ऋतू- 15 जुलाई से 30 जुलाई उपयुक्त है|
करेला के लिए 90 से 150 सेंटीमीटर की दूरी पर तीन या चार बीज लगाने चाहिए और बाद में अंकुरण के बाद एक या दो अच्छे तथा स्वस्थ पौधे ही रखें| बीज को बोने से पहले 24 घण्टे पानी में भिगों लेना चाहिए|
खेत को तैयार करते समय गोबर की खाद व सुपर फास्फेट की पूरी मात्रा तथा यूरिया व म्यूरेट ऑफ पोटाश की आधी मात्रा मिट्टी में बीजाई के समय डालनी चाहिए| शेष यूरिया को दो भागों में एक महीने के बाद व फूल आने के समय डालें | पोटाश की शेष आधी मात्रा अच्छी फसल बढ़ने पर देनी चाहिए| लताओं के नीचे लकडियाँ (झांबे आदि) इस प्रकार रखनी चाहिए कि लताएं सीधे जमीन पर न फैलें जिससे वर्षा के पानी से पौधे तथा फल खराब न होने पाएं|
जल निकासी के लिए खेत में उचित व्यवस्था करनी चाहिए| इसके साथ-साथ खरपतवार की रोकथाम के लिए भी निराई-गुडाई समय पर करते रहें| सिंचाई तभी करें जब आवश्यकता हो| गर्मी के मौसम में 4 से 5 दिन के अन्तर पर सिंचाई करना आवश्यक है|
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करेला की खेती के लिए बीज बुआई
खेत में पहले 45 सेंटीमीटर चौडी नालियां 90 से 150 सेंटीमीटर की दूरी पर बना लें| उसके बाद नालियों के दोनों तरफ बनी मेढों की ढाल पर बीज की बोआई करें| बीजों की बोआई इस तरह करने से पौधों की सिंचाई सुचारू व सही ढंग से होती है| बीज 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई में तथा प्रत्येक नाली या क्यारी में 2 से 3 बीज बोते हैं|
इसके अलावा करेले की बुआई प्रो ट्रे या पॉलीथीन की थैलियों में भी कर सकते हैं| इन प्रो ट्रे या पॉलीथीन की थैलियों में गोबर की सडी खाद और मिट्टी को बराबर मिलाकर भर देते हैं| हर थैली में 2 से 3 बीज बोते हैं| थैलियों को दिन के समय धूप में तथा रात के समय छायादार स्थान आदि के नीचे रख दिया जाता है|
इसके बाद जो पौधे तैयार हो जाएं, उनको तैयार किए गए खेत में 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बनी हुई नालियों या क्यारियों में लगा दिया जाता है| गड्ढ़ों का आकार 20 x 20 x 20 सेंटीमीटर बना उसमें आधी मिट्टी तथा आधी गोबर की खाद मिलायें| उसके बाद ही रोपण करना चाहिए| पौधों को लगाने से पहले तैयार किए गए थैली के पौधों में चीरा लगाकर पॉलीथीन की थैली को अलग कर लेते हैं| ताकि इसके द्वारा जड़ो का विकास आसानी से हो सके| पौधे लगाने के बाद हल्की सिंचाई करें|
करेला की फसल में कीट नियंत्रण
फल मक्खी- यह कीट, गूदे में अण्डे देते हैं तथा फल को तेजी से खाते हैं, जो बाद में खाने योग्य नहीं रहते|
नियंत्रण- जब मक्खी फसल पर नजर आए तभी उन्हें आकर्षित करने के लिए 50 ग्राम गुड या चीनी तथा 10 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ई सी को 5 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें|
माईट्स- ये छोटे कीट कोमल पत्तों से रस चूसते हैं तथा वहां पर सफेद स्थान बन जाते हैं| इस तरह पौधों की बढवार रूक जाती है या कम हो जाती है|
नियंत्रण- कीट का प्रकोप होने पर मैलाथियान 750 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ई सी का 750 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें, 10 दिन बाद फिर छिडकाव करें|
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करेला की फसल में रोग नियंत्रण
पाऊडरी मिल्ड्यू- फफूंद के कारण पत्तों, तने तथा अन्य रसीले भागों पर सफेद आटे जैसे धब्बे पड़ते हैं| फल सिकुडे हुए, घटिया किस्म के हो जाते हैं|
नियंत्रण- कैराथेन 10 मिलीलीटर प्रति 10 लीटर पानी के 2 से 3 बार 10 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करें या हेक्सा कोनाजोल 5 ई सी 0.05 प्रतिशत या टेबूकानोंजोल 0.04 प्रतिशत का 15 दिन के अन्तराल पर छिकाव करें|
डाऊनी मिल्ड्यू- फलों पर फीके कोणीय पीले भूरे धब्बे बनते हैं, जो बाद में काले हो जाते हैं तथा फिर पौधा मुरझा जाता है|
नियंत्रण- जुलाई के अन्त में डाइथेन एम- 45, 0.25 प्रतिशत तथा उसके बाद एक छिडकाव रिडोमिल एम जैड 0.25 प्रतिशत और फिर 15 दिन के अन्तर पर दो छिडकाव डाइथेन एम- 45 के करें|
एन्थेकनोज- पत्तों और फलों पर धब्बे से बन जाते हैं|
नियंत्रण- मैनकोजैब या डाइथेन एम- 45 या हैक्साकैप 25 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी का छिडकाव 15 दिन के अन्तराल पर करें| कीट एवं रोग नियंत्रण की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- कद्दूवर्गीय सब्जी की फसलों में समेकित नाशीजीव प्रबंधन कैसे करें
करेला फसल के फलों की तुडाई
करेला के फलों की तुडाई बीजाई के लगभग 60 से 65 दिनों के बाद आरम्भ हो जाती है| फल तुडाई के लिए फलों के रंग, आकार व साईज आदि को भी ध्यान में रखा जाता है| जब केरेले के फल देखने में हरे, नर्म और आकर्षक लगें तो उस अवस्था में तुडाई करें| तुडाई 4 से 5 दिन के अन्तराल पर होनी चाहिए| फलों के साथ में डंठल की लम्बाई 2 सेंटीमीटर से कम नहीं होनी चाहिए| इससे फल अधिक समय तक टिके हुए रहते हैं|
करेला की खेती से पैदावार
उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक और उन्नत या संकर किस्मों का चयन करने पर करेले की औसत उपज 150 से 225 किंवटल प्रति हैक्टेयर होती हैं|
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