किन्नों नींबू वर्गीय फलों की एक संकर किस्म है| किन्नू की बागवानी पुरे भारत में सफलतापूर्वक की जा सकती है| किन्नू के उत्पादक राज्य में पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, जम्मू और कश्मीर आदि प्रमुख है| किन्नू में विटामिन सी के आलावा विटामिन ए, बी तथा खनिज तत्व भी अच्छी मात्रा में पाए जाते हैं| इसका रस खून बढ़ने, हड्डियों की मजबूती तथा पाचन में लाभकारी होता है| इसमें खटास व मिठास का अच्छा संतुलन होता है| इसके फल का छिलका न तो संतरे की तरह बहुत ढीला हैं न माल्टा की तरह बहुत ही सख्त होता है|
पिछले कुछ वर्षों में इसकी खेती अपरम्परागत क्षेत्रों में भी तेजी से बढ़ रही है| किन्नू के क्षेत्रफल में जो निरंतर लगातार बढ़ोतरी हो रही है, इसका मुख्य कारण इस फल की देश में बढ़ती हुई लोकप्रियता है| इसकी उत्पादन क्षमता अच्छी रस की मात्रा तथा अच्छी कीमत के कारण इस फल को बढ़ावा मिल रहा है| किन्नू का फल पूरे देश की मंडियों में अपनी एक अलग ही पहचान बना चुका है|
इसका मुख्य आकर्षक इसका आकर्षण रंग 55 प्रतिशत जूस तथा दूर स्थानों तक परिवहन द्वारा जाने में सक्षम होना है| विदेशों में भी इसके निर्यात की अच्छी संभावनाए है| यदि कर्षक बन्धु इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो इसकी फसल से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है| इस लेख में किन्नू की खेती वैज्ञानिक तकनीक से कैसे करें की पूरी जानकारी का उल्लेख किया गया है| नींबू वर्गीय अन्य फलों की बागवानी वैज्ञानिक तकनीक से कैसे करें की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- नींबू वर्गीय फलों की खेती कैसे करें
उपयुक्त जलवायु
किन्नू की खेती उपोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रो की जाती है, यानि की अर्द्ध-शुष्क जलवायु अच्छी रहती है अर्थात किन्नू का पौधा 10 से 35 डिग्री सेल्सियस तापमान में अच्छा पनपता है| यह सर्दियों में बहुत कम तापमान तथा गर्मियों में अधिक तापमान सह सकता हैं| परन्तु यदि तापमान 0 डिग्री सेल्सियस से कम और 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो तो पौधे तथा फल पर प्रतिकूल असर पड़ता है और बहुत अधिक सर्दियों में फल गिरने की संभावना होती है| इसके लिए औसत वर्षा 50 से 60 सैंटीमीटर होनी चाहिए, सिंचाई का उचित प्रबंध भी आवश्यक है|
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भूमि का चयन
किन्नू की खेती अनेक प्रकार की मिट्टी, जैसे कि रेतली-दोमट से चिकनी-दोमट या गहरी चिकनी-दोमट या तेज़ाबी मिट्टी में की जा सकती है| लेकिन इसके लिए गहरी जल निकासी वाली दोमट व उपजाऊ भूमि जिसमें 2 मीटर गहराई तक किसी प्रकार की सख्त परत नहीं हो उपयुक्त रहती है और क्षारीय मिट्टी में इसके पौधे अच्छे से विकास नही कर पाते है| पौधों के उचित विकास के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.5 से 7.5 होना चाहिए|
खेती की तैयारी
किन्नू की बागवानी के लिए 6 x 6 या 5 x 6 मीटर की दूरी (कतार से कतार व पौधे से पौधा) पर लगाए जाते है| इस प्रकार पौधो की संख्या करीब 210 से 256 पौधे प्रति हेक्टेयर रहेगी| लेकिन किन्नू के सघन पौधे के बाग लगाकर भूमि का उचित प्रयोग किया जा सकता है तथा प्रति हैक्टेयर उत्पादन दो ढाई गुणा बढ़ सकता है| किसान यदि 6 x 6 या 5 x 6 मीटर की जगह 4 x 6 मीटर की दूरी पर पौधे लगाकर प्रति हैक्टेयर 256 पौधों के स्थान पर 400 से अधिक पौधे लगा सकता है|
बाग का रेखांकन करने के बाद प्रत्येक पौधे के लिए 1 x 1 x 1 मीटर व्यास के गड्ढ़ों की खुदाई की जाती है| इन गड्डों को 15 से 20 दिन के लिए खुली धुप में छोड़ दे| अब इन गड्ढों को खुदी हुई ऊपर की मिट्टी में 40 से 50 किलोग्राम की गोबर की खाद, 50 ग्राम क्लोरापायरीफॉस दीमक के लिए और आवश्कतानुसार अन्य उर्वरक मिलाकर गड्ढे को भर दें| गड्ढा समतल भूमि से 15 से 20 सैंटीमीटर ऊपर उठा हुआ होना चाहिए तथा गड्ढा भरने के बाद सिंचाई करनी चाहिए|
उन्नत किस्में
किन्नों- यह किन्नू की उत्तर भारत की मुख्य फसल है| इसके फल सुनहरी-संतरी रंग के होते है और रस मीठा होता है| इसके फल हल्के खट्टे और स्वादिष्ट होते हैं| इसके फल जनवरी में तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं|
लोकल- यह किस्म किन्नो की अपेक्षा कम क्षेत्र में उगाई जाती है| इसके फल आकार में छोटे और सामान्य होते हैं| इसका छिलका संतरी-पीले रंग का होता है| इसके फल दिसंबर से जनवरी महीने में पक कर तैयार हो जाती है|
नर्सरी तैयार करना
प्रयोगों के आधार पर किन्नू के लिए जट्टी-खट्टी सबसे उपयुक्त मूलवृंत (बीजू पौधा) पाया गया है| इस फल को लगाने का उचित समय अगस्त से अक्टूबर तथा फरवरी माह है| इसकी बुआई ऊंची उठी क्यारी में की जाती है| जो कि 2 से 3 मीटर लम्बी, दो फुट चोड़ी व 15 से 20 सैंटीमीटर जमीन से ऊंची होती है| बीजों को 15 सेंटीमीटर के फासले पर कतारों में बोये| बीजाई के 3 से 4 सप्ताह के बाद अंकुरण हो जाता है| छोटे पौधों को पाले व शीत लहर से बचाने के लिए सूखी घास का छप्पर बनाकर रात को ढक दे तथा दिन में हटा ले| समय-समय पर सिंचाई व गुड़ाई करते रहना चाहिए|
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प्रवर्धन तकनीक
किन्नू का प्रजनन टी-बडिंग विधि द्वारा किया जाता है| टी-बडिंग आमतौर पर फरवरी से मार्च और अगस्त से सितंबर महीने में की जाती है| नर्सरी में, पौधे जब पेंसिल जैसे मोटे हो जाएं तब बडिंग करें| प्रजनन के लिए शील्ड बडिंग या टी-बडिंग विधि का भी प्रयोग किया जाता है, जिसमे वृक्ष की चल ज़मीन से 15 से 20 सैंटीमीटर ऊपर की तरफ से निकाला जाता है|
फिर इस पर 1.5 से 2 सैंटीमीटर लम्बा कट बाएं से दाएं की तरफ लगाएं| फिर इस कट के बिलकुल बीच में 2.5 सैंटीमीटर लम्बा कट ऊपर से निचे की तरफ लगाएं| बडिंग वाले भाग को काट कर दूसरी टहनी से जोड़ दे और फिर इसे प्लास्टिक पेपर से लपेट दे| प्रवर्धन की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- नींबू वर्गीय पौधों का प्रवर्धन कैसे करें
पौधारोपण
किन्नू की खेती के लिए पौधारोपण फरवरी से मार्च तथा अगस्त से अक्तूबर में लगाए जाते है| पौधों को बिल्कुल सीधा लगाना चाहिए ताकि उनकी जड़े स्वाभाविक अवस्था में रहे और ताज हवा से बचाव के लिए प्रबंध करें| पौधारोपण के लिए जो 1 x 1 x 1 मीटर व्यास के गड्ढे बनाए थे, उनके बीच में 60 × 60 × 60 सैंटीमीटर के आकार के गड्ढे खोदें और उनमें पौधों की रोपाई कर दे| रोपाई के समय मिट्टी की आवश्यकतानुसार खाद व उर्वरक का प्रयोग करें, और रोपण के बाद हल्की सिंचाई अवश्य करे|
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खाद व उर्वरक
किन्नू की खेती के लिए 1 से 3 साल के पौधे को 15 से 30 किलोग्राम गोबर की खाद, 250 से 750 ग्राम यूरिया प्रति पौधा डालें| 4 से 7 साल के पौधे को 50 से 80 किलोग्राम गोबर की खाद, 950 से 1650 ग्राम यूरिया और 1375 से 2400 ग्राम सिंगल सुपर फासफेट प्रति वृक्ष डालें| 8 साल के पौधे को 90 से 100 किलोग्राम गोबर की खाद, 1950 ग्राम यूरिया और 2750 ग्राम सिंगल सुपर फासफेट प्रति वृक्ष डालें|
गोबर की खाद की पूरी मात्रा दिसंबर के महीने में डालें, जबकि यूरिया को दो बराबर भागों में डालें| पहला फरवरी और दूसरा अप्रैल से मई महीने में डालें| यूरिया का पहला हिस्सा डालते समय सिंगल सुपर फासफेट की पूरी मात्रा डालें| पौधे की आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग भी लाभप्रद रहता है| उर्वरकों का उपयोग मुख्य तने से 30 से 35 सेंटीमीटर छोड़ कर करना चाहिए|
किन्नू की खेती में यदि फल गिरते हो तो, इसकी रोकथाम के लिए 2,4-डी 10 ग्राम को 500 लीटर पानी में मिला कर स्प्रे करें| पहली स्प्रे मार्च के अंत और फिर अप्रैल के अंत में करें| अगस्त और सितंबर महीने के अंत में दोबारा स्प्रे करें| यदि किन्नू की खेती के साथ अन्य अंतर फसलें उगाई है, तो 2,4-डी की जगह कोई अन्य दवा का उपयोग करें, जैसे की जीऐ 3 आदि|
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सिंचाई प्रबंधन
किन्नू की खेती में उपयुक्त सिंचाई का बहुत महत्व है| अधिक पैदावार व अच्छी बढ़ोतरी के लिए सही समय पर सिंचाई करना बहुत आवश्यक है| शुरुआती विकास के समय इस फसल को बार-बार पानी लगाएं| 3 से 4 साल की फसल को हफ्ते के फासले पर पानी दे| इससे ज्यादा उम्र के पौधों को मिट्टी, मौसम और बारिश के अनुसार 2 से 3 हफ्तों के फासले पर पानी दे|
इस फसल को ज्यादा पानी ना दे, क्योंकि इससे जड़ गलन, तना गलन आदि बीमारीयां लगती है| बढियां पैदावार के लिए थोड़े थोड़े समय के बाद हल्की सिंचाई करें| अंकुरण से पहले और फल बनने के बाद का समय सिंचाई के लिए नाज़ुक होता है| अच्छे उत्पादन और पानी की बचत के लिए बूंद-बूंद सिंचाई विधि को प्राथमिकता देनी चाहिए|
बूंद-बूंद सिंचाई-
इस विधि द्वारा पौधों की जड़ों के आसपास नियमित तथा नियंत्रित पानी दिया जाता है| जिससे पौधों की तथा भूमि की वाष्पीकरण मांग पूरी होने के साथ-साथ भूमि में पानी का रिसाव कम होता है और हवा व पानी का एक उचित अनुपात बना रहता है तथा पौधों की वृद्धि भी अच्छी होती है| इस विधि से पानी की बचत होती है तथा गुणवत्ता लिए अधिक फलत होती है|
अगर पौधा पांच वर्ष का हो तो पानी की मात्रा एक दिन छोड़कर एक दिन में 58 लीटर (मार्च), 92 लीटर (अप्रैल), 115 लीटर (मई), 120 लीटर (जून), 110 लीटर (जुलाई), 105 लीटर (अगस्त), 86 लीटर (सितम्बर), 64 लीटर (अक्टूबर), 18 लीटर (नवम्बर), 24 लीटर (दिसम्बर), 24 लीटर (जनवरी), 38 लीटर (फरवरी) प्रति पौधा देनी चाहिए|
इस विधि द्वारा पौधों में उर्वरक, कीटनाशक तथा फफूंदनाशक दवाइयां भी दी जा सकती है| इस तकनीक द्वारा पानी व खाद का उचित मिश्रण पौधों की विभिन्न आवश्यकता अनुसार दिया जा सकता है| परन्तु केवल पानी में घुलनशील उर्वरक या तरल उर्वरक ही दिए जा सकते हैं|
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काट-छांट, अंतर-फसलें
कटाई-छंटाई- किन्नू की खेती में टहनियों और पौधे के विकास के लिए कटाई-छंटाई करनी जरूरी है| यह क्रिया किसी भी समय की जा सकती है, पर इसकी कटाई छंटाई का सबसे बढ़िया समय फल तुड़ाई के बाद होता है| जब पौधों का विकास हो रहा हो तो कटाई-छंटाई ना करें| रोगी, प्रभावित, मुरझाई और नष्ट टहनियों को समय समय पर हटाते रहें|
अंतर-फसलें- नए और फल ना देने वाले बागों में अंतर-फसलें ली जा सकती है| अंतर-फसलों के तौर पर किसान भाई हल्की और मिट्टी की उर्वरक शक्ति बनाएं रखने वाली फसले ही उगाएँ जैसे दलहनी फसलें या सब्जियां लेना उपयुक्त है|
खरपतवार- किन्नू की खेती में पौधों की रोकथाम के लिए अंकुरण के बाद पौधों की निराई गुड़ाई आवश्यक है, बाग़ को खरपतवार मुक्त रखें| इसके लिए खरपतवारनाशी का भी प्रयोग कर सकते है, लेकिन पौधों को बचके छिड़काव करें|
रोग एवं रोकथाम
टहनीमार रोग- किन्नू की खेती में टहनियां ऊपर से सूखनी शुरू हो जाती है| कभी कभी बड़ी बड़ी टहनियां भी सूख जाती है और फल व तने भी गल सकते है| इसकी रोकथाम के लिए काट-छांट करके बाद 0.3 प्रतिशत कापर ऑक्सीक्लोराइड का छिड़काव करें या 500 मिलीग्राम प्लान्टोमाइसिन और 3 ग्राम कापर ऑक्सीक्लोराइड को प्रति लीटर पानी की दर से जुलाई, अक्तूबर, दिसम्बर व फरवरी में छिड़काव करें|
धब्बा रोग- इसके लक्षण पत्तों, टहनियां और फलों पर देखे जा सकते हैं| शुरू में पत्तों पर पीले धब्बे दिखाई देते हैं, फिर यह बड़े और भूरे हो जाते हैं और फिर बाद में खुरदरे और दोनो तरफ बन जाते हैं| इसकी रोकथाम हेतु प्रभावित पत्तों को निकाल दे कीटनाशी पेस्ट लगाएं और कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 20 ग्राम और स्ट्रैप्टोसाइक्लिन 6 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर दो बार छिड़काव करे, दूसरा छिड़काव पहले से एक महिना बाद करें|
गोंदिया रोग- किन्नू की खेती में इस रोग का प्रभाव दिखे तो प्रभावित को हटा दे, और तने के नज़दीक मैटालैक्सिल + मैनकोजेब 20 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर डालें| फोसटाइल 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दो छिड़काव अप्रैल से सितंबर महीने में करें|
फलों का हरापन- किन्नुओं पर सूरज की रोशनी पड़ने वाले फल का भाग संतरी रंग का हो जाता है, लेकिन दूसरी तरफ वाला भाग हल्के हरे रंग का होता है| पत्तों पर भी हरे रंग के धब्बे देखे जा सकते हैं| इस स्थिति में प्रभावित और अनउत्पादित वृक्षों को निकाल दें| टैट्रासाइक्लिन 500 पी पी एम 5 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर 10 से 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करने से कुछ हद तक इसपर नियन्त्रण किया जा सकता है| रोग रोकथाम की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- नींबू वर्गीय फसलों के रोग एवं दैहिक विकार और उनकी रोकथाम कैसे करें
किट एवं रोकथाम
सिल्ला- सिल्ला नींबू वर्गीय वृक्षों का प्रमुख कीट है, इसका प्रकोप नींबू वर्गीय सभी प्रजातियों में होता है| शिशु व प्रौढ नई टहनियों से रस चूसते रहते है, जिससे पौध की बढवार रूक जाती है व फल कम लगते है| इसकी रोकथाम के लिए 750 मिलीलीटर मैटासिस्टोक्स 25 ईसी को 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें या इमीडाक्लोप्रिड 5 मिलीलीटर को प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें, 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा छिड़काव करें|
तितली- इस कीट की सुण्डी पत्तो को नुकसान पहुंचाती है| इसकी रोकथाम के लिए 750 मिलीलीटर एण्डोसल्फान को 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें|
छाल भक्षक कीट- किन्नू की खेती के लिए यह सबसे हानिकारक कीट है| कीट वृक्ष की छाल को खाता है तथा छिपने के लिये डाली में गहराई तक सुरंग बनाता है जिसके फलस्वरूप डाली या शाखा सुख जाती है| रोकथाम हेतु सूखी शाखाओं को काट कर जला दे, एण्डोसल्फान 35 ईसी 2 से 3 मिलीलीटर प्रति एक लीटर पानी का घोल बनाकर शाखाओं तथा डालियों पर छिड़काव करें और साथ ही सुरंगों को साफ करके किसी सिरिंज की सहायता से 3 से 5 मिलीलीटर मिट्टी का तेल प्रति सुरंग डाले बाद में ऊपर से सुरंग को गीली मिटटी से बंद कर दे|
मिली बग- यदि मिली बग जैसे रस चुसने वाले कीट का हमला दिखे तो रोकथाम के लिए क्लोरपाइरीफॉस 50 ईसी का छिड़काव करें| कीट रोकथाम की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- नींबूवर्गीय फलों के प्रमुख कीट और उनकी रोकथाम कैसे करें
फल तुड़ाई
किन्नू फल के उचित आकार और आकर्षक रंग लेने पर तुड़ाई करनी चाहिए| किस्म के अनुसार किन्नू आमतौर पर मध्य जनवरी से मध्य फरवरी में पक जाते है| सही समय पर तुड़ाई करना आवश्यक है, क्योंकि समय से पहले या देरी से तुड़ाई करने से फलों की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है|
पैदावार
किन्नू की खेती से उपज जलवायु, भूमि, किस्म तथा पौधे के रखरखाव पर निर्भर करती हैं| परन्तु उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी करने पर एक पूर्ण विकसित पौधे से 80 से 170 किलोग्राम फलत मिल जाती है|
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