खजूर शुष्क जलवायु में उगाया जाने वाला प्राचीनतम फलदार वृक्ष है| इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम फीनिक्स डेक्टीलीफेरा है| यह मानव सभ्यता के सबसे पुराने खेती किये जाने वाले फलों में से एक है| इसकी उत्पत्ति फारस की खाड़ी में समझी जाती है| दक्षिण इराक (मेसोपोटोमिया) में इसकी खेती ईसा से 4000 वर्ष पूर्व प्रचलित थी| मोहनजोदड़ों की खुदाई के अनुसार भारत – पाकिस्तान में भी ईसा से 2000 वर्ष पूर्व विद्यमान था| पुरातन विश्व में खजूर की व्यवसायिक खेती पूर्व में सिन्धु घाटी से दक्षिण में तुर्की-परशियन-अफगान पहाड़ियों, इराक किरकुक – हाईफा तथा समुद्री तटीय सीमा के सहारे-2 ट्यूनिशिया तक बहुतायत में की जाती थी|
इसकी व्यवसायिक खेती की शुरूआत सर्वप्रथम इराक में शुरू हुई| ईराक, सऊदी अरब, इरान, मिश्र, लिबिया, पाकिस्तान, मोरक्को, ट्यूनिशिया, सूडान, संयुक्त राज्य अमेरिका और स्पेन विश्व के मुख्य खजूर उत्पादक देश है| हमारे देश में सर्वप्रथम 1955 से 1962 के मध्य संयुक्त राज्य अमेरिका व पाकिस्तान से खजूर की कुछ व्यवसायिक किस्मों के पौधे मंगवाये गये थे|
राजसथान के जैसलमेर, बारमेर, बीकानेर और जोधपुर आदि के शुष्क जलवायु वाले पश्चिमी क्षेत्र खजूर की खेती के लिए उपयुक्त पाए गये है| खजूर पर सामान्यतः अधिक तापक्रम और पाले का असर नही होने तथा लवण सहन करने की क्षमता के कारण राज्य का काफी बड़ा क्षेत्र खजूर की खेती के अन्तर्गत प्रभावी रूप से उपयोग में लाया जा सकता हैं| ऐसे क्षेत्र जो बहुत अधिक लवणीय हैं अथवा जहा जल निकास की पर्यापत व्यवस्था नही है अथवा सिंचाई हेतु लवणीय जल ही उपलब्ध है जो अन्य फसलों के लिए उपयुक्त नही वहा पर भी इसकी खेती की जा सकती है|
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खजूर की खेती के लिए जलवायु
खजूर की खेती मुख्यतः शुष्क और अर्द्ध शुष्क क्षेत्र जहां लम्बी गर्म हवाययें व गर्मी, अत्यधिक कम वर्षा व बहुत कम आर्द्धता होती है, में की जाती है| अरब देशें में मान्यता है कि अधिक बढ़वार और उपज के लिए खजूर के पेड़ों के सिर तपती आगनुमा गर्मी में तथा जड़ें पानी में रहनी चाहिए| खजूर के फल जुलाई- -अगस्त में पकते हैं| इस समय भी वर्षा और अधिक वातावरणीय नमी होने पर फल समुचित रुप से नही पक पाते तथा सड़कर नष्ट हो जाते हैं| भारत के अधिकांश भागों में इस समय मानसून सक्रिय हो जाते है|
पश्चिमी राजसथान के जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर और जोधपुर आदी ऐसे क्षेत्र हैं जहां मानसून की वर्षा प्रायः कम होती है| खजूर की खेती के लिए उपयुक्त क्षेत्रों में औसतन वार्षिक वर्षा जैसलमेर में 100-250 मिलीमीटर, बीकानेर में 304 मिलीमीटर, बारमेर में 330 मिलीमीटर तथा जोधपुर में 366 मिलीमीटर और गुजरात के कच्छ क्षेत्र में 322 मिलीमीटर तक होती है| फल पकते समय हल्की वर्षा भी शुरु की अवस्था में भारी वर्षा से अधिक हानीकारक होती है|
खजूर के फलों एवं फलों के समुचित विकास के लिए गर्म तथा शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती हैं| यह गर्मीयों में 50 डिग्री सेल्सियस और सर्दीयों में 5 डिग्री सेल्सियस से नीचे तक के तापमान को भी सह लेता है| 7 डिग्री सेल्सियस से 32 डिग्री सेल्सियस तापमान इसकी वानस्पतिक बढ़वार के लिये सर्वाधिक उपयुक्त है| खजूर में पुष्पन और फलों के पकने हेतु क्रमशः 24 डिग्री सेल्सियस व 40 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त पाया गया है| देश के खजूर उत्पादन योग्य क्षेत्रों को लगभग 4 भागों में बाटा जा सकता है| जो इस प्रकार है, जैसे-
1. जैसलमेर तथा बारमेर, बीकानेर और जोधपुर जिलों के अधिक शुष्क पश्चिमी भाग|
2. कच्छ का समुद्री तटीय क्षेत्र तथा सौराष्ट्र का कुछ भाग|
3. जोधपुर, बीकानेर और बारमेर के पूर्वा भाग और नागौर, चुरु व श्रीगंगानगर जिलोंके पश्चिमी भाग|
4. अबोहर, सिरसा, श्रीगंगानगर, चुरु जिलों के पूर्वी भाग और सीकर का पश्चिमी भाग|
खजूर की खेती के लिए भूमि
खजूर की खेती ऐसी लवणीय मृदायें जिनका पीएच मान 8 से 9 तक हो सफलतापूर्वक की जा सकती हैं| खजूर का वृक्ष भूमि में 3 से 4 प्रतिशत तक क्षारीयता सहन कर सकता है, यद्यपि जड़ों की सामान्य कार्य शक्ति के लिए एक प्रतिशत से अधिक क्षारीयता नही होनी चाहिए| भूमि में अधिक पीएच लवण और क्षार पौधों की वानस्पतिक वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है| बलुई दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए सबसे अधिक उपयुक्त होती हैं| भूमि में 2 मीटर गहराई तक कंकड़ अथवा पत्थर या कैल्शियम कार्बोनेट की सख्त परत नही होनी चाहिए| अच्छी जल धारण क्षमता और जल निकास की समुचित व्यवस्था वाली खजूर की खेती के लिए उत्तम रहती है|
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खजूर की खेती के लिए किस्में
भारत में खजूर की किस्में अरब देशों से लाई गई हैं| वैसे तो अरब देशों में खजूर की एक हजार से भी अधिक किस्में हैं, लेकिन इनमें से कुछ ही व्यावसायिक रुप से पैदा की जाती है, जैसे- इराक की हलावी, खदरावी, सायर, बरही और जाहिदी, उत्तर अफ्रीकी देशों की डेग्लेटनूर, मैडजूल, घार्स तथा पाकिस्तान की बेगम जंगी एवं ढक्की मुख्य हैं| भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा वर्ष 1955–1962 के दौरान खजूर की कुछ किस्में इन देशों से लाई गई तथा उनका पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के फल अनुसंधान केन्द्र, अबोहर में मूल्यांकन किया गया| इस परियोजना के अन्तर्गत देश के चार केन्द्रों (अबोहर, बीकानेर, जोधपुर, मुन्द्रा (कच्छ) पर अनुसंधान प्रगति पर है| खजूर की किस्मों की विशेषताएं, फल अवस्था और पैदावार की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें-
खजूर का प्रवर्धन
खजूर के पौधें में नर और मादा फूल अलग-अलग पौधों पर आते हैं| एक बीजपत्री होने के कारण खजूर के पौधें कायिक प्रवर्धन के अन्य तरीकों, जैसे कलम बांधना (ग्राफ्टिंग), चश्मा चढाना (बडिंग), गुटी व कलम विधियों द्वारा तैयार नही किये जा सकते| इसका प्रसारण बीज, सकर्स (अंतःभूस्तारी) व टिश्यूकल्चर तीन विधियों से किया जाता है, जैसे-
बीज द्वारा: खजूर के एकलिंगी (डायोसिस) होने से बीज से तैयार किये पौधों में नर और मादा का अनुपात 50:50 रहने की सम्भावना रहती है| इस विधि से तैयार पौधों में फूल व फल आना शुरु होने के बाद ही उनके नर मादा होने का पता चल पाता है| बीज से नीकले नर पौधे सिर्फ परागकण के ही होते हैं, इन पर फल नही बनतें है| वहीं इसके मादा पौधे मातृ पौधे से भिन्न गुणों वाले होते है| ऐसे पौधो में फल देरी से आने शुरु होते है और उपज में भी असमानता रहती है इस कारण खजूर के पौधों का प्रर्वधन अच्छी गुणवत्ता वाले मादा मातृ पेड़ों से सकर्स (अंतःभूस्तारी ) द्वारा किया जाता है|
सकर्स द्वारा: सकर्स (अंतःभूस्तारी) द्वारा तैयार पौधे मातृ पौधे से गुणवत्ता में समान होते है| ये पूर्ण विकसित पेड़ों की जड़ों के पास तने के भाग की कलिकाओं से निकलते है| सकर्स द्वारा तैयार पौधे बीज से तैयार पौधों की तुलना में 2-3 वर्ष पहले फलत में आते है| खजूर के एक पेड़ से उसके पूरे जीवन काल में 15 से 20 सकर्स प्राप्त होते है| ये पौधें के रोपण के बाद शुरु के 10 से 15 वर्ष की उम्र तक पैदा होते हैं| पौधें लगाने के लगभग 4 वर्ष बाद से पौधे से किस्म के आधार पर 3 से 5 सकर्स प्रतिवर्ष अलग किए जा सकते है| पेड़ की आयु लगभग 10 वर्ष होने के पश्चात सकर्स पैदा होना लगभग बन्द हो जाते है| इसी कारण अच्छी किस्मों के सकर्स पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाने में काफी कठिनाई आती है|
सकर्स द्वारा प्रवर्धन करने पर सकर्स का भार 8-10 किलो ग्राम तथा इनकी जड़े पूर्ण विकसित होनी चाहिए| सकर्स में जड़े पूर्ण विकसित करने के लिए पेड़ों के तने के पास मिट्टी चढ़ाई जाती हैं और उसको पानी लगाकर नम रखा जाता है| मातृ पेड़ से सकर्स को काफी सावधानी से अलग किया जाना चाहिए| पेड़ से अलग करने के एक-दो दिन पहले खेत में पानी लगाना चाहिए|
अलग करने से पहले सकर्स की पत्तियों को उसके शीर्ष भाग से लगभग 30 सेंटीमीटर ऊपर से काट दें तथा पत्तियों की बची हुई डण्डियों को मिलाकर रस्सी से बांध दें| इसके पश्चात् उसके पास की मिट्टी को हटा कर उनको मातृ पेड़ के साथ उनके जोड़ स्थान से कुंट और हथोड़े की सहायता से काट कर अलग कर दें| तत्तपश्चात सकर्स को जड़ समेत अलग निकाल लें तथा दूसरे खेत में रोपाई की तैयारी कर लगा देना चाहिए और तुरन्त सिंचाई देनी चाहिए|
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टिश्यू कल्चर द्वारा: खजूर के पौधों पर सकर्स पर्याप्त मात्रा में नही बनने से वृहद स्तर पर प्रसारण के लिए पर्याप्त मात्रा में अच्छी गुणवत्ता के पौधे नही मिल पाते है| इस समस्या का समाधान टिश्यू कल्चर तकनीक है| टिश्यू कल्चर से पौधे तैयार करने कई लाभ हैं, जैसे-
1. कुछ पौधों से ही बड़ी संख्या में पौधे तैयार किये जा सकते है|
2. पौधों की आनुवंशिकता गुणवत्ता मातृ वृक्ष के समान रहती है|
3. वृहद स्तर पर पौधे तैयार किये जा सकते है|
4. वर्ष भर पौधे तैयार किये जा सकते हैं, मौसम का फर्क नही पड़ता|
विश्वस्तर पर टिश्यू कल्चर तकनीक से खजूर के पौधे तैयार करने के प्रयास किये जा रहे है, लेकिन इनमें से कुछ ही प्रयोगशालाओं को इसमें सफलता मिल पायी है| अभी लगभग 6-8 प्रयोगशालायें यह कार्य कर रही हैं इनमें से इग्लेंड में चार, फ्रांस में दो, इजरायल, नामिबिया, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान में एक – एक हैं| अधिकांश प्रयोगशालाओं द्वारा बरही तथा मेडजूल किस्मों के पौधे टिश्यू कल्चर तकनीक से तैयार किये जा रहे है| खजूर के टिश्यू कल्चर से तैयार पौधे प्रथमिक हार्डनिंग अवस्था पर प्रयोगशाला से निकाल कर खेत में रोपण के लिए तैयार किये जाते है| प्राथमिक हार्डनिंग अवस्था के मापदण्ड व प्रक्रिया इस प्रकार है, जैसे-
1. दो से तीन पत्तियां आने पर|
2. पौधों की ऊँचाई 10 से 15 सेन्टीमीटर होने पर|
3. लगभग 5 सेन्टीमीटर आकार की जड़े विकसित होने पर|
4. तने का आधार प्याज के बल्ब के आकार का होने पर|
खजूर की पौध लगाने का समय
खजूर का वृक्ष कम से कम 40 से 50 वर्षों तक फलत में रहता है, इसलिए इसके पौधों को उचित फासले पर लगाना बहुत आवश्यक हैं| प्रायः कतार से कतार तथा पौधे से पौधें के बीच 8 मीटर का फासला रखा जाता है| इससे पौधें की समुचित फैलाव होता है और पौधों के बीच में की जाने वाली कृषि क्रियाएं सुगमतापूर्वक की जा सकती है| इस प्रकार एक हैक्टर में लगभग 156 पौधे लगाये जा सकते हैं| खजूर एकलिंगी पेड़ होने से नर व मादा पुष्पन अलग-अलग पेड़ों पर आते है| इसलिए खेत में परागण हेतु नर पेड़ों का होना आवश्यक है| एक नर पेड़ से 10-15 मादा पेड़ों के लिए पर्याप्त परागकण उपलब्ध हो सकते है|
पौधें लगाने के लिए 1 मीटर लम्बे, 1 मीटर चौड़ें और 1 मीटर गहरे गड्ढे पौध लगाने के एक माह पहले खोद लेने चाहिए| गड्ढों में ऊपर की उपजाऊ मिट्टी तथा 20 किलो ग्राम सड़ी हुयी गोबर की खाद, 1.60 किलो ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट एवं 250 ग्राम क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण या फैनवलरेट 0.4 प्रतिशत चूर्ण मिलाकर गड्ढे को भर देना चाहिए| पौधे लगाने से पहले गड्ढों में पानी देना चाहिए ताकि मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाये|
पौधों को लगाते समय थैली को पैंदें से काट लें| इसके बाद थैली में नीचे आधे ऊपर तक चीरा (कट) लगा दे| थैली के नीचे हाथ रखकर थैली को पकड़कर गड्ढे के बीच में रख कर चारों तरफ मिट्टी से दबा दें| पौधे लगाते समय ध्यान रखना चाहिए कि पौधे के बल्ब का केवल 3/4 हिस्सा मिट्टी के अन्दर रहे तथा क्राउन मिट्टी में नही दबे| इसके बाद पौधों की अच्छी तरह सिंचाई कर दे|
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खजूर में सिंचाई प्रबंधन
मिट्टी की संरचना और जल धारण क्षमता सिंचाई की आवश्यकता को बहुत हद तक प्रभावित करती है| बलुई भूमि में सिंचाई की आवश्यकता दोमट और चिकनी भूमि की अपेक्षा बहुत अधिक होती है| खजूर के पौधों में समुचित वानस्पतिक वृद्धि और फल प्राप्त करने के लिए भूमि में 2 मीटर तक नमी रहनी चाहिए| टिश्यू कल्चर (ऊतक संर्वधित) से तैयार पौधों में ड्रिप पद्धति से नियमित रुप से सिंचाई देना आवश्यक होता है|
खजूर के साथ अंतर-काश्त
खजूर के नये बगीचे में वृक्षों की कतारों के बीच खाली स्थान में अंतर-काश्त सफलतापूर्वक की जा सकती है| इससे वृक्षों के फलत में आने से पूर्व के वर्षों में न केवल अतितिक्त आय प्राप्त की जा सकती है अपितु इससे प्रभावी खरपतवार नियंत्रण एवं जल व मृदा प्रबंध में काफी सहायता मिलती हैं| दलहनी फसले जैसे- चना, मूंग, मोठ, चवला, ग्वार व उर्द, सब्जियां, चारे वाली फसल जैसें- रिजका, बरसीम और छोटे आकार के फल जैसे- पपीता के पौधे अंतरकाश्त के लिए एगाये जा सकते है| अंतरकाश्त में ली जाने वाली फसलों के लिए पोषक तत्वों व जल की अतिरिक्त व्यवस्था करनी होती है|
खजूर में खाद और उर्वरक
वृक्षों के समुचित स्वास्थ्य और उनसे अच्छी उपज लेने के लिए उनका नियमित पोषण बहुत आवश्यक है| खजूर के 1 से 4 वर्ष के पौधों को प्रतिवर्ष 262 ग्राम नत्रजन, 138 ग्राम फास्फॉरस और 540 ग्राम पोटाश देना जरुरी होता है| इसके साथ में अगस्त-सितम्बर माह में 25-30 किलों ग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद भी देना चाहिए| पांच वर्ष से अधिक आयु के खजूर के पौधों में प्रतिवर्ष 40-50 किलो ग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति पौधा की दर से अगस्त-सितम्बर माह में देवें| इसके अतिरिक्त 650 ग्राम नत्रजन, 650 ग्राम फॉस्फोरस तथा 870 ग्राम पोटाश प्रति पौधा देना चाहिए| नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा गोबर की खाद के साथ पौधे के तने के चारों तरफ रिंग बनाकर देवें|
नत्रजन की आधी मात्रा फल विकास के समय सिंचाई के साथ देना लाभप्रद रहता है| खाद प्रक्रिया को और अधिक वैज्ञानिक स्वरुप देने के लिए गोबर की खाद आधी-आधी मात्रा जूलाई, अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर, फरवरी, मार्च तथा अप्रेल में देना अधिक लाभप्रद रहता है| इसी प्रकार फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा को चार हिस्सों में बांटकर जूलाई, नवम्बर, फरवरी व अप्रेल में देना चाहिए| इसके अलावा भूमि परिक्षण के आधार पर बोरोन, मैबनीज तथा लोहे का छिड़काव पौधों को स्वस्थ एवं फलदायक बनाने में लाभप्रद रहता है|
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खजूर पेड़ की सधाई और छटाई
खजूर के पौधों को प्राय: कटाई-छटाई की आवश्यकता नही होती| पौधे के समुचित विकास के लिए उसमें से निकलने वाले सकर्स को पूर्ण विकसित होने के पश्चात शीघ्र निकाल देना चाहिए| आवश्यकता से अधिक पुरानी अथवा सूखी हुई रोग और कीट ग्रसित पत्तियों को समय-समय पर निकालते रहना चाहिए| अच्छी फसल हेतु पूर्ण विकसित पेड़ पर लगभग 100 पत्तियां होनी चाहिए| इससे अधिक पत्तियों को निकाल देना चाहिए|
खजूर में परागण-
खजूर मे नर और मादा पुष्पक्रम अलग-अलग पौधों पर आते हैं तथा परागण नर पेड़ों से मादा पेड़ों मक हवा द्वारा जाने से परागण सम्पन्न होता है| प्राकृतिक रुप से परागण हेतु खेत में आधे नर और आधें मादा पेड़ होने चाहिए, लेकिन इससे प्रति हैक्टर उपज काफी कम हो जाती है| अच्छे उत्पादन के लिए कृत्रिम परागण किया जाता है, इस हेतु खेत में लगभग 5 प्रतिशत नर पेड़ पर्याप्त होते है| कृत्रिम परागण के लिए परागकणों को रुई के फाहों की सहायता से मादा पुष्पक्रमों पर पुष्पों के खिलने के तुरन्त पश्चात् प्रातःकाल छिटकका कर सकते है|
मादा पुष्पक्रमों को जो तुरन्त ही खिले हो, परागकणों में डुबोये गये रुई के फाहो से दो तीन दिन तक परागित करे या नर पुष्पक्रमों की लडियों को काटकर खुले मादा पुष्पकम के माध्यम में उल्टी करके हल्के से बांध दी जाती हैं जिससे उनमें से परागकण शनै- शनै गिरते रहें| फाहों द्वारा परागण प्रक्रिया हर मादा पुष्पक्रम में कम से कम 2-3 दिन तक लगातार करनी चाहिए| परागकणों को कुछ समय बाद परागण हेतु संग्रहित भी किया जा सकता है|
इसके लिए ताजे और पूर्ण रुप से खुले हुए नर पुष्पक्रमों को अखबार के कागज पर झाड़कर एकत्रित कर लेते| इसके पश्चात् उनको बारीक छलनी से छान लेते हैं जिससे अनावश्यक रुप से उनमें विद्यमान पुष्पक्रमों के अवशेष इत्यादि अलग हो जाएं| तत्पश्चात उनको 6 घण्टे सूर्य की रोशनी में तथा 18 घण्टे छाया में सुखा लेते है, जिससे भण्डारण में उनकों फफूंदी द्वारा हानी न हो| सुखाए गये परागकणों को कांच की शीशियों में कमरे के सामसन्य तापक्रम पर 8 सप्ताह के लिए तथा रेफ्रीजरेटर में 9 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर लगभग 1 वर्ष तक संग्रहित किया जा सकता है|
फल गुच्छों की सधाई एवं छंटाई-
खजूर में फल गुच्छों की प्रति पेड़ संख्या का नियन्त्रण भी बहुत महत्वपूर्ण होता है| पौधों पर आवश्यकता से अधिक संख्या में गुच्छों के होने से समुचित विकास न होने पर फलों का आकार, वनज एवं गुणवत्ता कम हो जाती है| गुच्छों की संख्या प्रति वृक्ष 5 से 20 तक रखी जा सकती है, खजूर की किस्म, वृक्ष की आयु एवं वानस्पतिक वृद्धि इत्यादि पर निर्भर करती है| सामान्यतः प्रत्येक पेड़ पर 10 से 12 से अधिक फल गुच्छे होने पर उनको निकालना उचित रहता है|
एक गुच्छे के लिए 7 से 9 पत्तियों की आवश्यकता होती है| गुच्छों में फल बनने के पश्चात् उनके मुख्य डंठल को अप्रेल-मई में इस प्रकार मोड़ना चाहिए कि गुच्छे पत्तियों के डंठलों के घर्षण से बचे रहते है| प्रत्येक फल गुच्छे के केन्द्र की एक तिहाई लड़ियों को निकाल देने से गुच्छों में फलो का समुचित विकास होता है, फल शीघ्र और भली भांति पकने से उच्च गुणवत्ता वाले तैयार होते है| यह कार्य फल बनने के तुरन्त पश्चात कर देना चाहिए|
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खजूर में कीट – व्याधि प्रबन्धन
मिथ्याकंड (ग्रफियोल): अन्य फलदार पौधों की अपेक्षा खजूर के वृक्षों में बीमारियों का कम प्रकोप होता हैं बीमारियों में प्रमुख ग्रफियोला या रुमट है जो प्रायः अधिक आर्द्रता की परिस्थिति में अधिक होती है| यह ग्रफियोला फिनिसिस नामक फफूंद से होती है| पत्तियों की दोनों सतहों पर भूरे रगं के असंख्य धब्बे दिखाई पड़ते है| इस रोग से पूर्ण ग्रसित पत्तियां सूख जाती हैं| इसके नियंत्रण हेतु प्रभावित पत्तियों को काटकर नष्ट कर देना चाहिए | तांबायुक्त फफूंदनाशी या डाईथेन एम–45 या फाइटोलान (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) का छिड़काव असकी काफी रोकथाम करता है|
आल्टरनेरिया पत्ति धब्बा रोग (लीफ स्पोट): यह रोग आल्ट्रनेरिया फंगस द्वारा होता है| जिससे पत्ति की दोनों सतह पर अनियमित आकार के भूरे काले रंग के धब्बे पाये जाते है| उग्र अवस्था में ये रोग पौधे के तने और फलों को भी प्रभवित करता है| इसकी रोकथाम के लिए अधिक प्रभावित पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए तथा पौधों पर कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम या मेन्कोजेब 2 ग्राम प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर दो या तीन छिड़काव करना चाहिए|
फल विगलन रोग (फूट रोट): गुच्छों में हवा के कम संचार व अधिक वर्षा के कारण फलों के गलने की समस्या उत्पन्न हो जाती है| गुच्छों की छंटाई और सधाई द्वारा वायु सुचार की समुचित व्यवस्था करके उन पर पकने से पूर्व कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव करके इस रोग का नियन्त्रण किया जा सकता है|
दीमक: खजूर के वृक्षों और फलों को कीड़ों से हानी होती है| वृक्षों में दीमक से बहुत अधिक हानी होती है| यह भूमिगत व जमीन के पास के तने को खाकर क्षतिग्रस्त कर दकती है| छोटे पौधों की वृद्धि रुक जाती है तथा वे मुरझाकर सूख जाते है| इसके नियंत्रण हेतु प्रत्येक माह या दो माह के अंतराल पर क्लोरपायरीफोस (1 मिलीलीटर प्रति 1 लीटर पानी) के घोल को थांवलों में अच्छी तरह से सिंचाई करें|
खजूर के पूर्ण विकसित वृक्षों में अच्छी तरह से सिंचाई करें| खजूर के पूर्ण विकसित वृक्षों के तने पर दीमक का प्रकोप होने से बड़े-बड़े सूख बन जाते हैं तथा तना खोखला होने लगता है| इनमें फूल या फल भी कम आने लगते है| नियंत्रण हेतु दीमक ग्रस्त तने को भली भांति साफ करके कार्बोफ्युरॉन चूर्ण (4 प्रतिशत) का तने पर लेप दें अथवा क्लोरपायरीफोस का छिड़काव करना चाहिए|
स्केल कीट: खजूर का शल्क अथवा स्केल कीट भी बहुत हानिकारक होता है| निम्फ और मादा पत्तियों का रस चूसकर क्षति पहुंचाते है| अधिक प्रकोप होने पर ये कीट कच्चें फलों को भी खते है| इनके प्रकोप से पौधों के सामान्य विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, फल छोटे रह जाते हैं, ठीक से पक नही पाते और सूख जाते है| नियंत्रण हेतु इस कीट से अधिक प्रभावित पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए तथा प्रभावित पत्तियों पर डायमेथोएट 30 ईसी 1 मिली अथवा मोनोक्रोटोफॉस 1.5 मिली अथवा प्रोफेनोफोस 50 ईसी 3 मिली लीटर अथवा डीडीवीपी 0.5 मिली लीटर प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए|
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खजूर फल की तुड़ाई
फल पकने के समय वर्षा प्रारंभ हो जाने से पेड़ पर पूर्ण परिपक्वता प्राप्त करना संभव नही हैं| अतः अधिकतर जगह फलों के गुच्छों को डोका अवस्था में ही पेड़ों से काट लिया जाता हैं| कम वर्षा वाले क्षेत्र में भी तुड़ाई प्रायः डांग अवस्था में की जाती है| छुहारा बनाने के लिए भी डोका अवस्था में ही फलों को तोड़ा जाता है| फलों को तुड़ाई के बाद प्लास्टिक क्रेटस में रखकर चाकू से गुच्छों से अलग करके छटनी करे| फलों की छटनी के उपरान्त अच्छी पैकिंग करके बाजार भेजे या उपयुक्त तापक्रम पर भण्डारित रखे|
पके फलों को टोकरियों में 5.5 से 7.2 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 85 से 90 प्रतिशत आपेक्षित आर्द्रता में शीतगृह में 2 सप्ताह तक भण्डारित करके रखा जा सकता है| छुहारा बनाने हेतु पूर्ण डोका फलों को अच्छी प्रकार से धोने के पश्चात 5-10 मिनट गर्म पानी में उबालकर 45-50 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर वायु संचारित भट्टी में 70-90 घंटों के लिए सुखाते है|
इन्हे सूर्य की धूप में भी सुखाया जा सकता है| पिंड खजूर बनाने हेतु पूर्ण डोका अवस्था अथवा डांग अवस्था के फलों को 20-30 सैकण्ड के लिए उबलते पानी में डुबोने के पश्चात 38 से 40 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर वायु संचारित भट्टी में रखते हैं| छुहारों को 1 से 11 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 65-75 प्रतिशत सापेक्षित आर्द्रता में 13 महीनों तक भण्डारित किया जा सकता हैं|
खजूर की खेती से पैदावार
खजूर के वृक्ष को पूर्ण फलत आने में लगभग 4 वर्ष का समय लग जाता है| टिश्यू कल्चर से तैयार पौधों में तीसरे वर्ष ही फल आना शुरु हो जाते है| प्रारंभ के वर्षों में लों की उपज कम होती है, वृक्षों की आयु में वृद्धि के साथ उपज में भी बढ़ोत्तरी होती जाती है| दस वर्ष की आयु के वृक्षों से प्रति वृक्ष औसतन 50 से 70 किलोग्राम फलों की उपज होती है जो 15 वर्ष की आयु के वृक्षों से लगभग 75 से 200 किलोग्राम तक हो जाती है| वैसे खजूर प्रौद्योगिकीयों का प्रयोग करके इजरायल खजूर के पूर्ण विकसित पौधे से 400 किलोग्राम प्रति पेड़ तक उपज प्राप्त की गयी है|
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