जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत एक आम धारणा के अनुसार जैविक कृषि का अर्थ है, बिना रसायनिक उत्पादों के खेती करना परन्तु वास्तव में यह एक ऐसी जीवन शैली है| जिसमें प्रकृति के सहयोग से सभी जीव स्वरूपों जैसे पौधे, पशु, मानव आदि के बीच सामंजस्य स्थापित कर बिना किसी बाहरी उत्पादों, की मदद के एक दूसरे की जरूरतें पूरी होती है| यह पूरी प्रक्रिया प्रकृति आधारित होने के कारण विशिष्ट होती है और इसका स्वरूप कुछ अलग हो सकता हैं| इस प्रक्रिया के कुछ महत्वपूर्ण कार्य बिन्दु इस प्रकार प्रकार हैं, जैसे-
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जैविक कृषि प्रबंधन
कम से कम जुताई-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत जमीन की बार-बार गहरी जुताई करते रहने से मिट्टी के सूक्ष्मजीव तथा जंतुओं पर बुरा प्रभाव पड़ता है| भूमि क्षरण से पोषक तत्वों की उपलब्धता में कमी आती है इसलिए जमीन की जुताई केवल आवश्यकतानुसार ही करनी चाहिए|
मिट्टी की सुरक्षा-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत वायु और जल से होने वाले भू-क्षरण को हर हाल में रोका जाना चाहिए| कोई भी प्राकृतिक संसाधन बेकार न जाए तथा उसका सदुपयोग हो, सारी मिटटी वनस्पति से ढकी रहे, वनस्पति और पत्तियां वर्षा के वेग को कम कर मिट्टी की सुरक्षा करती है एवं जैव अवशेषों से मिट्टी के अवशेषों को ढक कर रखा जाए|
मिश्रित खेती-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत मिश्रित खेती में फसल उत्पादन और पशुपालन एक दूसरे के पूरक है और जैविक खेती के आधार स्तंभ है| फसलों और किस्मों का चुनाव अलग-अलग फसलों और उनकी किस्मों की चयन प्रक्रिया मानवीय आवश्यकता आधरित न होकर स्थान विशेष की मिट्टी, वातावरण तथा मौसम पर आधारित होनी चाहिए| जहां तक संभव हो ऐसी किस्मों का चुनाव किया जाना चाहिए जो स्थानीय हो एवं वहां के वातावरण के अनुकूल हो, प्रत्येक फसल को उसके निर्धारित मौसम में ही उगाना चाहिए|
समन्वित कीट प्रबंधन-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत समन्वित कीट प्रबंधन से हानिकारक रसायनों के प्रयोग को बहुत कम किया जा सकता है| कृषि वैज्ञानिक अनुशंसाओं में यह बताया जाता है, कि रसायनिक कीटनाशकों के बजाय वानस्पतिक कीटनाशक या कीट रोधक जैसे नीम तेल, नीम अर्क, करंज, महुआ उत्पादों का प्रयोग किया जाना चाहिए| इससे न केवल पर्यावरण की सुरक्षा होगी, बल्कि वातावरण तथा जल प्रदूषण से भी मुक्ति मिलेगी साथ ही कीटनाशको के फसल में अवशेष रहने जैसी समस्या से निजात मिलेगी|
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सिंचाई जल का समुचित प्रयोग-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत कृषि उत्पादन में जल अति आवश्यक आदान है एवं इसका प्रयोग सही मात्रा में किया जाना चाहिए| जल के अधिक प्रयोग के नुकसान सर्वविदित है| इसलिए जैविक खेती प्रक्रिया में जल प्रबंधन को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है तथा अनुशंसा की गई कि सिंचाई आवश्यकतानुसार सही समय एवं सही मात्रा में ही की जानी चाहिए|
फसल चक्र-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत अंतर फसल, सहफसल, मिश्रित फसल एवं बह फसलों का प्रयोग, जैविक खेती में फसल चक्र का एक प्रमुख स्थान है| विभिन्न फसलें भूमि की अलग-अलग परतों में से पोषक तत्व प्राप्त करती है| फसल परिवर्तन से भूमि की सभी परतों से पोषक तत्वों का उपयोग बराबर मात्रा में होता है| जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है|
जैविक खाद का प्रयोग-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत निसंदेह कृषि का मुख्य आधार जैविक पदार्थ है, इसलिए किसी भी जैव अवशिष्ट या जैव पदार्थ का दुरूपयोग और बर्बादी रोकना अति आवश्यक है| इसे जलाकर या वैसे ही खुला छोड़कर नष्ट होने देने के बजाय संरक्षित कर जैविक खाद में परिवर्तित करना चाहिए|
जैव उर्वरकों का प्रयोग-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत वैज्ञानिकों ने निर्विवाद रूप से यह सिद्ध कर दिया है, कि मिटटी में रहने वाले कुछ सूक्ष्म जीव वायुमण्डलीय नत्रजन और मिट्टी में उपलब्ध फास्फोरस को उपलब्ध कराने में सक्षम है| इन सूक्ष्मजीवों की आबादी और कियाशीलता मिटटी में उपलब्ध जैविक पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करती है|
ये जीवाणु जैसे एजेंटोबेक्टर, एजोस्पाइरिलम, राइजोबियम, नील हरित शैवाल और पी एस बी, इत्यादि जैव उर्वरक के रूप में प्रयोग करने पर, पौधे की जड़ों के आसपास तीव्र गति से बढ़ते हैं तथा अपनी जैविक क्रिया द्वारा विभिन्न पोषक तत्वों को उपलब्ध रूप में परिवर्तित कर फसलों को लाभ पहुंचाते हैं|
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जैविक पदार्थ का पुन प्रयोग-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत मिटटी में जैविक पदार्थ की मात्रा बढ़ाने का एक प्रमुख तरीका है, फसल के अवशेषों का प्रयोग, इसमें फसल और अन्य पौधों के अवशेषों को मिट्टी में दबा दिया जाता हैं तथा प्राकृतिक रूप से धीरे-धीरे सड़ने दिया जाता है| इससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती जाती है|
खरपतवार द्वारा पल्वार-
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत हालाकि कृषि विज्ञान के विद्यार्थियों को सर्वप्रथम यह बताया जाता है, कि खरपतवारों को खेतों में बिल्कुल न पनपने दिया जाए परन्तु इन्दौर में किए अनेक परीक्षणों से ज्ञात हुआ है| कि इन खरपतवारों को उखाड़ने के पश्चात बाहर फेंकने के बजाए यदि उसी खेत में भूमि की सतह को ढकने के काम में लिया जाए तो उससे फसल और मिट्टी दोनों को लाभ होता है|
चूंकि यह खरपतवार अवशेष ताजा तथा हरा होता है, इसलिए बहुत शीघ्रता से सड़ता है और भूमि की सतह पर जैविक पदार्थ की सतह बना देता है, जिससे न केवल पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है, बल्कि मिटटी के लाभदायक सूक्ष्म जीवों की संख्या में बढ़वार होती है तथा मिट्टी में नमी की भरपूर मात्रा लम्बे
समय तक बनी रहती है|
जैव उर्वरकों से बीजोपचार-
उत्तम गुणवता के बीज को उपलब्ध जैव उर्वरक जैसे राइजोबियम, एजेटोबेक्टर, एजोस्पाइरिलम, ट्राइकोर्डमा आदि द्वारा बीज और मिटटी को उपचारित करके बोने से फसल को वातावरण में उपस्थिति नाइट्रोजन की मात्रा उपलब्ध हो जाती है| इससे उत्पादन में वृद्धि होगी, बीमारियों से बचाव और रासायनिक उर्वरकों की कमी का भी यह अच्छा विकल्प है|
बीजों को बीमारियों, फफूदनाशक रोगों से बचाने के लिए गोमूत्र से उपचारित करके बोयें| इस प्रकार अधिकतर फफूदनाशक रोगों से फसल की सुरक्षा हो जायेगी तथा उर्वरकों द्वारा उपचारित बीज बोने से फसल की वानस्पतिक वृद्धि भी अच्छी होगी|
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जैविक खेती के लाभ
जैविक कृषि प्रबंधन के अन्तर्गत जैविक खेती से होने वाले लाभ इस प्रकार हैं, जैसे-
पर्यावरण सुरक्षा- जैविक कृषि अपनाने से प्रदूषण में कमी होगी जिससे पर्यावरण स्वस्थ रहता है, इससे सभी प्राकृतिक संसाधन का उचित प्रयोग सुनिश्चित होता है, ताकि भविष्य के लिए उन्हें संरक्षित करने में मदद मिलती है|
पैदावर में बढ़ोतरी- जैविक कृषि में उत्पादन लागत कम आने के बावजूद उत्पादन में टिकाऊपन एवं वृद्धि होती है| चूकि ये उत्पादन अच्छी गुणवत्ता के होते है, इसलिए बाजार भाव भी अच्छे मिलते हैं|
मानव और पशु स्वास्थ्य- खाद्य पदार्थों में रसायनिक कीटनाशकों के अवशेष न होने से मानव व पशु स्वास्थ्य को कोई खतरा नहीं होता और पोषण की दृष्टि से संतुलित उत्पाद प्राप्त होते हैं|
आर्थिक लाभ- चूंकि इस पद्धति में कोई भी आदान बाजार से क्रय नहीं करना होता है, इसलिए कम खर्चीली तथा अधिक लाभप्रद है, साथ ही कृषि अवशेषों का समुचित उपयोग भी हो जाता है|
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जैविक खेती में बाधाएं
1. स्थानीय उपलब्ध संसाधन जैसे- गोबर, कम्पोस्ट, फसलों के अवशेष, वर्मीकम्पोस्ट इत्यादि की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध नहीं हो पाती है|
2. जैविक खादों से पोषक तत्वों की भरपाई में थोड़ा समय लग जाता है, जो कि ज्यादा उपज देने वाली किस्मों की पोषक तत्वों की आवश्यकता के साथ मेल नहीं खाता है|
3. बढ़ती जनसंख्या एवं खाद्यान्न की मांग को ध्यान में रखकर भारतीय खेती को तुरन्त पूरी तरह जीवित कर पाना कठिन है|
4. कुछ कीटों और बीमारियों का सिर्फ जैविक विधि अपनाकर नियंत्रण कर पाना कठिन है|
5. जैविक उत्पादों की प्रमाणीकरण तथा खर्चा अधिक होता है|
6. जैविक खाद्य के बाजार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है, जिससे जैविक उत्पादों का किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पाता है|
7. स्थानीय उपलब्ध संसाधनों पर आधारित जैविक खेती के तरीको की कमी होना भी एक प्रमुख बाधा है|
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