भारत में बाजरा के बाद ज्वार मोटे अनाज वाली दूसरी महत्वपूर्ण फसल है| जिसका धान्य फसलों में चॉवल, गेहूं, मक्का और बाजरा के बाद पांचवा स्थान है| उच्च तापमान तथा सूखा सहनशीलता के कारण यह फसल अधिक तापमान और बारानी क्षेत्रों की कम उर्वरता वाली मिटटी में आसानी से उगायी जा रही है| गहरे जड तंत्र के कारण ज्वार मिटटी की निचली परतों से जल का अवशोषण कर लेता है, इस क्षमता के कारण इसको कम वर्षा वाले क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है| ज्वार की फसल मुख्यतया महाराष्ट्रा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में उगायी जाती है|
हमारे देश में ज्वार की औसत पैदावार केवल 10 किंवटल प्रति हेक्टेयर है, जो शोध संस्थानों की 25 से 30 किंवटल प्रति हेक्टेयर से बहुत कम है| जिसका मुख्य कारण ज्वार के अन्र्तगत अधिकांश क्षेत्रफल का असिंचित होना, ज्वार की खेती अपेक्षाकृत कम उपजाउ भूमियों पर करना, पुरानी देशी किस्में उगाना तथा खेती की अवैज्ञानिक व परम्परागत सस्य विधियाँ अपनाना आदि हैं| ज्वार के महत्व और खाद्यान्न की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए ज्वार की उत्पादकता बढ़ाना आवश्यक हो गया है एवं यह तभी संभव है जब ज्वार की अधिक उपज देने वाली नवीनतम संकर और संकुल प्रजातियों की खेती उन्नत सस्य विधियाँ अपनाकर की जाये|
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ज्वार की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
ज्वार गर्म जलवायु की फसल है, ज्वार की खेती समुद्रतल से लगभग 1500 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है| ज्वार के अंकुरण के लिए न्यूनतम तापमान 9 से 10 डिग्री सेल्सियस उपयुक्त होता है| पौधों की बढ़वार के लिए सर्वोत्तम औसत तापमान 26 से 30 डिग्री सेल्सियस पाया गया है| फसल में भुट्टे निकलते समय 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान फसल के लिए हानिकारक होता है|
ज्वार की फसल कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है, क्योंकि इसमें सूखे की दशा को सहन करने की अधिक क्षमता होती है| लगभग 600 से 1000 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र ज्वार की खेती के लिए सबसे अनुकूल होते हैं|
ज्वार की खेती के लिए उपयुक्त भूमि
ज्वार की खेती देश के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि में की जाती है परन्तु अच्छे जल निकास वाली चिकनी दोमट या दोमट मिटटी जिसका पीएच मान 6.0 से 8.5 के बीच हो इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम होती है| मध्य भारत की कपास की काली मिटटी ज्वार की खेती के लिए बहुत उपयुक्त समझी जाती हैं| ज्वार की फसल हल्की लवणीय या क्षारीय मिटटी में भी आसानी से उगाई जा सकती है|
ज्वार की खेती और अंतरवर्ती एवं फसल-चक्र
ज्वार की फसल को दलहनी, तिलहनी एवं अन्य फसलों के साथ अंतरवर्ती फसल पद्धति के रूप में उगाया जाता है| कुछ प्रमुख अन्तर या मिश्रित फसल पद्धतियां निम्नलिखित हैं, जैसे-
ज्वार + उड़द /मूंग; ज्वार + लोबिया /ग्वार, ज्वार + सोयाबीन, ज्वार + अरहर, ज्वार + तिल; ज्वार + अरण्डी|
देश के विभिन्न क्षेत्रों में ज्वार आधारित कुछ प्रमुख फसल चक्र निम्नलिखित हैं, जैसे-
उत्तरी भारत- ज्वार-गेहूं/जौ; ज्वार-चना/मटर/मसूर, ज्वार-बरसीम; ज्वार-आलू-मूंग; ज्वार-आलू-गेहूं; ज्वार-लाही-बसंतकालीन गन्ना|
दक्षिणी भारत- मूंगफली-ज्वार-अरहर, ज्वार-धान-धान; ज्वार-कपास; कपास-ज्वार-चना; ज्वार-मंडुआ|
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ज्वार की खेती के लिए उन्नत किस्में
ज्वार की नई किस्में अपेक्षाकृत बौनी हैं एवं उनमें अधिक उपज देने की क्षमता है| ये किस्में उपयुक्त मात्रा में खाद, उर्वरक और पानी के प्रयोग से अच्छी उपज देती हैं और गिरती भी नहीं हैं| पकने में कम समय लेती हैं| विभिन्न राज्यों के लिए अनुमोदित दाने के लिए ज्वार की उन्नतशील किस्में इस प्रकार है, जैसे-
दाने के लिए खरीफ ज्वार की किस्में-
राज्य | संकर किस्में | संकुल किस्में |
महाराष्ट्र | सी एस एच 14, सी एस एच 9, सी एस एच 16, सी एस एच 18 | सी एस वी 13, सी एस वी 15, एस पी वी 699 |
कर्नाटक | सी एस एच 14, सी एस एच 17, सी एस एच 16, सी एस एच 13, सी एस एच 18 | एस वी 1066, डी एस वी 1, डी एस वी 2, सी एस वी 10, सी एस वी 11, सी एस वी 15 |
आन्ध्र प्रदेश | सी एस एच 14, सी एस एच 13, सी एस एच 16, सी एस एच 18, सी एस एच 9, सी एस एच 1 | सी एस वी 10, सी। एस वी 11, सी एस वी 15, एस पी वी 462, मोती |
मध्य प्रदेश | सी एस एच 11, सी एस एच 13, सी एस एच 16, सी एस एच 17, सी एस एच 18 | सी एस वी 15, एस. पी वी 235, जे जे 741, जे जे 938, जे जे 1041 |
गुजरात | सी एस एच 9, सी एस एच 13, सी एस एच 16, सी एस एच 17, सी एस एच 18 | सी एस वी 13, सी एस वी 15, जी जे 35, जी जे 38, जी जे 40, जी जे 39, जी जे 41 |
राजस्थान | सी एस एच 14, सी एस एच 13, सी एस एच 16, सी एस एच 18 | सी एस वी 10, सी एस वी 13, सी एस वी 15, एस पी वी 96 |
तमिलनाडु | सी एस एच 14, सी एस एच 17, सी एस एच 13, सी एस एच 16, सी एस एच 18 | एस पी वी 881, सी ओ 24, सी ओ 25, सी ओ 26, सी एस वी 13, सी एस वी 15, सी ओ 27, सी ओ (एस) 28 |
उत्तर प्रदेश | सी एस एच 13, सी एस एच 14, सी एस एच 16, सी एस एच 18 | सी एस वी 10, सी एस वी 11, सी एस वी 15 |
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दाने के लिए ज्वार की रबी सीजन की किस्में-
राज्य | संकर किस्में | संकुल किस्में |
महाराष्ट्र | सी एस एच 13 आर, सी एस एच 15 | आर सी एस वी 83, सी एस वी 143, एस पी वी 21 आर स्वाति, एम 35-1 |
कर्नाटक | सी एस एच 13 आर, सी एस एच 15 आर, सी एस एच 19 | आर एन टी जे 3, सी एस वी 8 आर, एम 35-1, डी एस वी 5, सी एस वी 21 |
आन्ध्र प्रदेश | आर सी एस एच 13 आर, सी एस एच 15 आर, सी एस एच 12 आर, सी एस एच 19 | आर सी एस वी 14 आर, मोती, एन टी जे 2, एम 35-1, सी एस वी 216 |
गुजरात | आर सी एस एच 8 आर, सी एस एच 12 आर, सी एस एच 15 आर, सी एस एच 19 | आर सी एस वी 14 आर, सी एस वी 8 आर, सी एस वी 216 |
तमिलनाडु | सी एस एच 15 आर, सी एस एच 5, सी ओ एच 13 आर, सी ओ एच 3 | सी ओ 24, सी ओ 25, सी ओ 26, सी एस वी 14 आर, सी एस वी 8 आर, सी एस वी 216 आर |
ज्वार की खेती के लिए बुआई का समय
उत्तरी भारत में ज्वार की बुआई का उचित समय जुलाई का प्रथम सप्ताह है| जून के आखिरी सप्ताह से पहले बुआई करना उचित नहीं है, क्योंकि ज्वार की अगेती फसल में फूल बनते समय अधिक वर्षा की सम्भावना रहती है| बारानी क्षेत्रों में अपनायी जाने वाली फसल प्रणाली के अन्र्तगत उगाई जाने वाली दूसरी फसल के लिए बुआई समय का महत्व काफी अधिक बढ़ जाता है, क्योंकि इस फसल का सम्पूर्ण जीवन चक्र मिटटी में संचित जल पर ही निर्भर करता है|
यदि फसल की बुआई समय कर दी जाती है| तो बीजों का अंकुरण अच्छी प्रकार से हो पाता है और पौधों का ओज भी अच्छा होता है| इसलिए ज्वार की बुआई मानसून की पहली बरसात के साथ कर देनी चाहिए| देश के दक्षिणी राज्यों जैसेः महाराष्ट्रा, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु जहां ज्वार रबी के मौसम में उगाई जाती है, बुआई 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर के मध्य करना अच्छा रहता है|
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ज्वार की खेती के लिए बीज और बीजोपचार
सफल फसल उत्पादन के लिए उचित बीजदर के साथ उचित दूरी पर बुआई करना आवश्यक होता है| बीज की मात्रा उसके आकार, अंकुरण प्रतिशत, बुवाई का तरीका और समय, बुआई के समय भूमि में उपस्थित नमी की मात्रा पर निर्भर करती है| साधारणतया एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में बुआई के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है| देरी से बुआई तथा लवणीयता की दशा में 20 से 25 प्रतिशत अधिक बीजदर का उपयोग करें|
बुआई से पहले बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए| बीजोपचार के लिए कार्बण्डाजिम (बॉविस्टीन) 2 ग्राम अथवा एप्रोन 35 एस डी 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने वाले रोगों को काफी हद तक कम किया जा सकता है| इसके अतिरिक्त बीज को जैविक खाद एजोस्पाइरीलम व पी एस बी से भी उपचारित करने से 15 से 20 प्रतिशत अधिक उत्पादन लिया जा सकता है|
ज्वार की खेती के लिए बुआई की विधि
बुआई के लिए कतार के कतार की दूरी 45 सेंटीमीटर रखें और बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर गहरा बोयें| यदि बीज अधिक गहराई पर बोया गया हो एवं बुवाई के बाद तथा अंकुरण से पहले अधिक वर्षा हो गई तो बीज का जमाव अच्छा नहीं होता, क्योंकि भूमि की उपरी परत सूखने पर काफी कड़ी हो जाती है|
कतार में बुआई देशी हल के पीछे कुडो में या सीडड्रिल द्वारा की जा सकती है| सीडड्रिल द्वारा बुवाई करना सर्वोत्तम रहता है क्योंकि इससे बीज समान दूरी पर एवं समान गहराई पर पड़ता है| यदि ज्वार की खेती बड़े पैमाने पर की जा रही हो तो सीडड्रिल का प्रयोग करना आर्थिक दृष्टि से भी उपयोगी रहता है| ज्वार का बीज बुआई के 5 से 6 दिन बाद अंकुरित हो जाता है| यदि पंक्ति में बीजों का पूरा अंकुरण न हुआ हो तो शीघ्र ही रिक्त स्थानों में नया बीज डाल देना चाहिए|
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ज्वार की फसल में पोषक तत्व प्रबंधन
उर्वरकों का उपयोग- मिटटी की उर्वरता और उत्पादकता बनाये रखने के लिए उर्वरकों का संतुलित उपयोग बहुत आवश्यक होता है| संतुलित उर्वरक उपयोग के लिए नियमित भूमि परीक्षण आवश्यक होता है| मिटटी परीक्षण के आधार पर उर्वरकों की मात्रा निर्धारित की जा सकती है| ज्वार की फसल भूमि से अत्यधिक मात्रा में पोषक तत्वों का अवशोषण करती है| इसलिए अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि फसल में उचित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग किया जाये|
सिंचित क्षेत्रों में ज्वार की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए 100 से 120 किलोग्राम नत्रजन, 50 से 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 से 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है, जबकि असिंचित या बारानी क्षेत्रों में 50 से 60 किलोग्राम नत्रजन, 30 से 40 किलो ग्राम फास्फोरस और 30 से 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है|
सिंचित क्षेत्रों में नत्रजन की आधी मात्रा और फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय, बीज से 5 सेंटीमीटर नीचे मिटटी में देना चाहिए और नत्रजन की शेष आधी मात्रा को बुआई के 3 से 4 सप्ताह के बाद खड़ी फसल में छिटक कर देना चाहिए| असिंचित या बारानी क्षेत्रों में उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा बुआई के समय ही भूमि में मिला दें|
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सूक्ष्म पोषक तत्व- ज्वार की फसल से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपयोग अतिआवश्यक होता है| जिंक की कमी वाली मिटटी में जिंक डालने से करीब 15 से 20 प्रतिशत तक पैदावार में वृद्धि होती है| जिंक की पूर्ति हेतु भूमि में बुआई से पहले 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर अकेले या जैविक खाद के साथ प्रयोग किया जा सकता है|
अगर खड़ी फसल में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दे तो 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट एवं 0.25 प्रतिशत बुझे हुए चूने (200 लीटर पानी में 1 किलो ग्राम जिंक सल्फेट और 0.5 किलो ग्राम बुझे हुए चूने) का घोल बनाकर पर्णीय छिड़काव करना चाहिए|
कार्बनिक खादें- कार्बनिक खादों में पोषक तत्व बहुत कम मात्रा में पाये जाते है परन्तु इनके उपयोग से मिटटी की भौतिक, रासायनिक और जैविक दशाओं में सुधार होता है जिससे मिटटी की जल धारण क्षमता और उर्वरता में वृद्धि होती है| कार्बनिक खादें पौधों को मुख्य पोषक तत्वों के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्व भी प्रदान करती है| ज्वार की फसल के लिए 5.0 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद बुआई के एक माह पूर्व खेत में डालकर जुताई कर अच्छी तरह मिटटी में मिला दें|
जैव उर्वरक- जैव उर्वरकों जैसे एजेटोबेक्टर, एजोस्पाइरीलम, पी एस बी, वॉम आदि के उपयोग से फसल उत्पादन में 20 से 40 प्रतिशत तक वृद्धि की जा सकती है| समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन के लिए 20 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से एजोटोबैक्टर एवं पी एस बी से बीजोपचार लाभदायक रहता है, इससे नत्रजन और फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ती है एवं पैदावार में वृद्धि होती है|
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उर्वरकों का पर्णीय छिड़काव- अगर खड़ी फसल में पोषक तत्वों की कमी के लक्षण दिखाई देने लगे और मिटटी में नमी के अभाव में उर्वरक प्रयोग संभव नहीं हो तो इस दशा में उर्वरकों का पर्णीय छिड़काव लाभदायक होता है| नत्रजन की पूर्ति हेतु ज्वार में 3 प्रतिशत यूरिया का पर्णीय छिड़काव फूल आते समय करना चाहिए|
इसके लिए प्रति लीटर पानी में 30 ग्राम यूरिया को मिलाकर घोल तैयार करे और प्रति हेक्टेयर 500 से 700 लीटर घोल की दर से छिड़काव करें| बारानी क्षेत्रों में उर्वरकों के पर्णीय छिड़काव से पौधों को पोषक तत्वों के साथ-साथ कुछ मात्रा में पानी भी प्राप्त हो जाता है| जिससे पत्तियां लंबे समय तक हरी बनी रहती है और प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती रहती है|
ज्वार की खेती और पौधों का विरलीकरण
खेत में पौधों के उचित संरक्षण और समान बढ़वार के लिए बुआई के 20 से 25 दिन बाद पौधों का विरलीकरण आवश्यक रूप से करना चाहिए| विरलीकरण द्वारा पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए जिससे प्रति हेक्टेयर लगभग 1,50,000 से 1,75,000 पौधों की संख्या बनी रहें एवं फसल की उचित बढ़वार हो सकें|
ज्वार की फसल में खरपतवार प्रबंधन
खरपतवार फसल के साथ जल, पोषक तत्वों, स्थान एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं| खरपतवारों को खेत से निकालने तथा नमी संरक्षण के लिए बुआई के 20 से 25 दिन बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिए| खरपतवारों के कारण ज्वार की उपज में 30 से 40 प्रतिशत तक की कमी आ जाती है|
खरपतवार नियंत्राण के लिए खुरपी को खस्सी (हैण्ड हो) का प्रयोग किया जाता है| रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए एट्रोजिन एक लीटर सक्रिय तत्व की दर से 800 लीटर पानी में मिलाकर बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव कर देना चाहिए परन्तु यह ध्यान रहें की छिड़काव के समय मिटटी में उचित नमी होनी चाहिए|
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ज्वार की फसल में जल प्रबंधन
वैसे तो ज्वार की खती मुख्यतया बारानी या असिंचित दशाओं में की जाती है जहाँ फसल का जीवन वर्षा पर निर्भर करता है| परन्तु जिन क्षेत्रों में सिंचाई की व्यवस्था उपलब्ध हो वहां पर वर्षा न होने की दशा में सिंचाई कर देनी चाहिए| ज्वार की फसल में पौधे की वृद्धि, फूल और दाना बनते समय पानी की अधिक आवश्कता पड़ती है| इसलिए इन अवस्थाओं पर सिंचाई करना आवश्यक होता है|
ज्वार की फसल के लिए सिंचाई देने की चार क्रान्तिक अवस्थाएँ होती हैं जो इस प्रकार हैं- प्रारम्भिक बीज पौध की अवस्था, भुट्टे निकलने से पहले की अवस्था, भुट्टे निकलते समय और भुट्टों में दाना बनने की अवस्था| उपरोक्त अवस्थाओं में पानी का अभाव होने पर ज्वार की पैदावार पर प्रतिकूल पभाव पड़ता है|
ज्वार की फसल में कीट और रोग नियंत्रण
ज्वार की फसल में अनेक कीट एवं रोग लगते हैं, जो फसल की उपज वृद्धि और टिकाउपन में एक प्रमुख समस्या है| इस फसल को कीटों तथा रोगों से काफी नुकसान पहुंचता है जिससे इसकी पैदावार में काफी कमी हो जाती है| यदि समय रहते इन रोगों और कीटों का नियंत्रण कर लिया जाये तो ज्वार की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की जा सकती है| तना मक्खी, तना छेदक, पर्ण फुदका, दाना मिज़, बालदार सुंडी और माहू ज्वार के मुख्य नाशी कीट, जबकि दाने का कंडवा रोग, अर्गट, ज्वार का किट्ट, मूल विगलन और मृदुरोमिल आसिता ज्वार के मुख्य रोग हैं|
कीट रोकथाम-
तना छेदक– इसकी गिडार या सुंडियां छोटे पौधों की गोफ को काट देती हैं, जिससे गोफ सूख जाती है| इसका प्रभाव बुवाई के 15 दिन बाद से आरंभ होकर फसल में भुट्टे आने के समय तक होता है| पौधे की बढ़वार के साथ ही ये तने में सुरंग सी बना लेती हैं तथा अन्दर ही अन्दर तने के मुलायम हिस्सों को खाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पौधे के वृद्धि भाग की मृत्यु हो जाती है, जिसे ‘डैड-हर्टस’ के नाम से जाना जाता है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए बुवाई के 25 दिनों बाद कार्बोफ्युरॉन (3 प्रतिशत) दानेदार कीटनाशक 7.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए और 10 दिनों के बाद दूसरा बुरकाव इसी मात्रा में पौधों की गोफ में करना चाहिए|
पर्ण फुदका (पाइरिला)- इस कीट का आक्रमण बेमौसम एवं पेड़ी ज्वार में अधिक पाया गया है| यह कीट पौधों की पत्तियों का रस चूसकर नुकसान पहुंचाता है, जिससे पौधों का हरापन कम हो जाता है एवं पौधे सूख जाते हैं|
रोकथाम- इस कीट का नियंत्रण सामान्यतया स्वयं ही हो जाता है| अधिक आक्रमण होने पर मोनोक्रोटोफॉस 36 डब्ल्यू एस सी कीटनाशी की 1 लीटर दवा का 600 से 700 लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए|
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तना मक्खी- यह ज्वार का एक प्रमुख कीट है| इसका प्रकोप पौधों के जमाव के लगभग 7 दिन बाद से 30 दिन तक होता है| कीट की इल्लियां उगते हुए पौधों की गोफ को काट देती हैं, जिससे शुरू की अवस्था में ही पौधे सूख जाते हैं| कुछ पौधों की गोफ सूख जाने के बाद भी कल्ले निकलते हैं, पर उनमें भुट्टे देर से आते हैं तथा उनका आकार भी छोटा होता है|
रोकथाम- इसके रोकथाम के लिए कार्बोफ्युरॉन 3 जी या फोरेट 10 जी बुवाई के समय 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से कूड़ों में डालना चाहिए| यह कीटनाशक पौधों की जड़ों द्वारा अवशोषित होकर पौधों में पहुंचता है एवं ऐसे पौधों को खाने के बाद गिडारें मर जाती हैं|
ज्वार का मिज़- यह देश के दक्षिणी राज्यों जैसे- महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में ज्वार की फसल को हानि पहुंचाने वाला मुख्य कीट है| यह कीट ज्वार में भुट्टे निकलने के समय फसल को नुकसान पहुंचाता है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए कार्बारिल 50 डब्ल्यू पी या कार्बारिल 3 डी कीटनाशक का ज्वार में भुट्टे निकलते समय 4 से 5 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करना चाहिए|
ज्वार का माइट- यह बहुत ही छोटा कीट होता है, जो पत्तियों की निचली सतह पर जाले बुनकर उन्हीं के अन्दर रहकर पत्तियों से रस चूसता है| ग्रसित पत्ती लाल रंग की हो जाती हैं तथा बाद में सूख जाती हैं|
रोकथाम- इसकी रोकथाम अन्य कीटों की रोकथाम के साथ स्वतः ही हो जाती है|
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बालदार सुंडी- यह कीट विभिन्न फसलों को नुकसान पहुंचाता है| इस कीट के शरीर पर घने बाल होने के कारण इस कीट को बालदार सुंडी कहा जाता है| इस कीट की छोटी-छोटी सूंडी पौधे की मुलायम पत्तियों को खा जाती हैं, जिससे पौधे की पत्तियों पर केवल शिरायें ही शेष बचती हैं|
रोकथाम- इस कीट की रोकथाम के लिए फोलीडोल 2 प्रतिशत धूल का 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या थायोडान (35 ई सी) का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए|
माहू (एफिड)- इस कीट के शिशु और वयस्क पौधों का रस चूसते रहते हैं, जिससे पौधों की पत्तियों के किनारे पर पीली-नीली धारियां दिखाई पड़ती हैं| इस कीट के प्रकोप से तरल द्रव बनने लगता है, जिससे फसल पर फंफूदी का आक्रमण होने लगता है तथा दाने की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए मेटासिस्टॉक्स 25 ई सी की एक लीटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए|
पक्षी- ज्वार की फसल को भुट्टे लगने के समय से लेकर कटाई तक चिड़ियों से भी बहुत नुकसान पहुंचता है| इसलिए फसल को नुकसान से बचाने के लिए चिड़ियों से रखवाली करना भी बहुत आवश्यक है|
रोग प्रबंधन-
दाने का कंड (स्मट)- यह ज्वार का सबसे हानिकारक कवक जनित रोग है| इसका प्रकोप पौधों में भुट्टे निकलते समय होता है| यह मुख्यतः बीज द्वारा फैलता है| इस कवक के बीजाणु अंकुरण के समय जड़ों द्वारा पौधों में प्रवेश कर जाते हैं| पौधों में भुट्टे आने पर दानों की जगह कवक के काले बीजाणु भर जाते हैं| बीजाणु बाहर से एक कड़ी झिल्लीदार परत से ढके रहते हैं जिसके फटने पर वे बाहर आकर फैल जाते हैं|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए बीज को किसी कवकनाशी दवा जैसे- केप्टान या वीटावैक्स पावर से 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बुवाई करें|
अर्गट- संकर ज्वार में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है| इस बीमारी के बीजाणु हवा द्वारा फैलते हैं और बीमारी का प्रकोप फसल में फूल आने के समय होता है| पुष्प शाखा पर स्थित स्पाइकिल से हल्के गुलाबी रंग का गाढ़ा व चिपचिपा शहद जैसा पदार्थ निकलता है, जो मनुष्य और पशुओं दोनों के लिए हानिकारक होता है|
रोकथाम- अर्गट रोग से ग्रसित भुट्टों को काटकर जला देना चाहिए| भुट्टों में दाना बनने की अवस्था पर थिरम 0.2 प्रतिशत के 2 से 3 छिड़काव करके रोग के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है|
ज्वार का किट्ट- यह भी एक कवक जनित रोग है, इस रोग का असर पहले पौधे की निचली पत्तियों पर दिखाई पड़ता है तथा बाद में ऊपर की पत्तियों पर भी फैल जाता है| पत्तियों पर लाल या बैंगनी रंग के धब्बे पड़ जाते हैं एवं पत्तियां समय से पहले ही सूख जाती हैं|
रोकथाम- किट्ट रोग की रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्में उगानी चाहिए तथा पौधों पर रोग के लक्षण दिखाई देने पर डाइथेन एम- 45 (6.2 प्रतिशत) नामक कवकनाशी का 10 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करना चाहिए|
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जड़ विगलन- ज्वार की फसल में यह रोग कवक द्वारा फैलता है| यह बीमारी मिटटी एवं बीज दोनों के द्वारा फैलती है परन्तु मिटटी द्वारा यह बीमारी मुख्य रूप से फैलती है| फसल में बीमारी के लक्षण बुवाई के 30 से 35 दिन बाद दिखाई देते हैं| रोगग्रसित पौधों की बढ़वार रूक जाती है पत्तियां मुड़ जाती हैं और पुरानी पत्तियों का ऊपरी भाग पीला पड़ जाता है| बीमारी का प्रकोप अधिक होने पर पौधों की संपूर्ण पत्तियां पीली पड़ जाती हैं तथा पौधे मर जाते हैं|
रोकथाम- इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पूर्व किसी कवकनाशी रसायन जैसे थिरम या केप्टान 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करना चाहिए एवं ज्वार की रोगरोधी प्रजातियां उगानी चाहिए|
मृदुरोमिल आसिता (डाउनी मिल्ड्यू)- रोग के लक्षण पौधों की ऊपरी नई पत्तियों पर पहले दिखाई पड़ते हैं| जिसमें पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग का चूर्ण जमा हो जाता है| रोगग्रसित पत्तियां पीली पड़कर झड़ जाती हैं| यदि रोग का आक्रमण फसल की प्रारंभिक अवस्था में हो जाता है, तो पौधों की वृद्धि रूक जाती है और पौधों में भुट्टे नहीं निकलते है|
रोकथाम- रोग की रोकथाम के लिए रोगरोधी प्रजातियां उगानी चाहिए, रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए, बीज को बुवाई से पूर्व एपरान- 35 एस डी या रिडोमील एम जेड- 72 से 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करना चाहिए तथा फसल पर रिडोमिल (0.1 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए|
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तना-विगलन (चार कोल विगलन)- इस रोग का प्रकोप तमिलनाडु व महाराष्ट्र में रबी में उगाई जाने वाली ज्वार की फसल पर अधिक देखा गया है| यदि रोग का आक्रमण छोटी अवस्था में होता है तो पौधा सूख जाता है| बड़े पौधों पर इसका प्रभाव होने पर भुट्टे छोटे रह जाते हैं और समय से पहले ही पक जाते हैं| तना कमजोर एवं खोखला हो जाता है तथा अक्सर पौधे गिर जाते हैं| तने के निचले भाग के पिथ में कवक के काले रंग की बढ़वार दिखाई देती है, क्योंकि यह रोग मिटटी द्वारा फैलता है इसलिए
रोकथाम- इसके प्रभावी नियंत्रण के लिए फसल चक्र व अन्तः फसलीकरण प्रणाली अपनानी चाहिए| फसल में नाइट्रोजन का कम प्रयोग करना चाहिए और भूमि में नमी संरक्षण की विधियां अपनानी चाहिए|
ज्वार फसल की कटाई
ज्वार की विभिन्न किस्में 100 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं| फसल पकने पर भुट्टे के हरे दाने सफेद या पीले रंग में बदल जाते हैं| भुट्टों में दानों के अन्दर जब नमी घटकर 20 प्रतिशत तक रह जाए तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए| संकर ज्वार में फसल पकने तक पौधे हरे बने रहते हैं| इसलिए खड़ी फसल से भुट्टों की कटाई हंसिया या दराँती से करके, फसल को चारे के रूप में खिलाते रहते हैं| पौधों से भुट्टे अलग करने के बाद, पौधों को सुखाकर कड़वी (सूखे चारे) के रूप में रखा जाता है|
ज्वार फसल की मड़ाई
कटाई के पश्चात् ज्वार के भुट्टों को खलिहान में कम से कम एक सप्ताह तक सूखने देना चाहिए| भुट्टों की मड़ाई डण्डों से पीटकर, बैलों द्वारा दांय चलाकर या श्रेशर द्वारा कर लेते हैं| मड़ाई के तुरंत बाद ओसाई करके दानों को भूसे से अलग कर लिया जाता है|
ज्वार की खेती से पैदावार
ज्वार की खेती यदि उपरोक्त उन्नत सस्य विधियां अपनाकर की जाए तो संकर ज्वार से सिंचित दशा में औसतन 35 से 45 क्विंटल दाना और 100 से 120 क्विंटल कड़वी एवं असिंचित (बारानी) क्षेत्रों में 20 से 30 क्विंटल दाने तथा 70 से 80 क्विंटल कड़वी प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है
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