टमाटर अत्यन्त ही लोकप्रिय तथा पोषक तत्वों से युक्त फलदार सब्जी है| सम्पूर्ण भारत में इसे व्यापारिक स्तर पर उगाया जाता है| लेकिन कई सूत्रकृमि (निमेटोड) प्रजातियां टमाटर के पौधो को संक्रमित करती है, जैसे- जड़ गांठ सूत्रकृमि और लेजन सूत्रकृमि आदि| यह प्रमुख सूत्रकृमि (निमेटोड) प्रजातियां है, जो टमाटर में आर्थिक नुकसान करती है|
सूत्रकृमि छोटे, पतले, खंडहीन तथा धागे जैसे द्विलैंगिक प्राणी होते हैं, जिनके पाद नहीं होते हैं| इन्हें गोल कृमि या धागा कृमि भी कहा जाता है| एक किये गये शोध के आधार पर सूत्रकृमि (निमेटोड) की भयानकता होने पर सब्जियों में मिर्च-टमाटर मे 60 से 65, बैगन मे 50 से 60 प्रतिशत तक का नुकसान पाया गया है| गाँठ रोग मिलोडोगाइन जाति की सूत्रकृमि से होता है| इनको गाँठ सूत्रकृमि या गोल कृमि के नाम से भी जाना जाता है|
ये आकार में बहुत छोटे होते हैं, जिन्हें नग्न नेत्रों से नहीं देखा जा सकता है| केवल सूक्ष्मदर्शी यंत्र से ही देखे जा सकते हैं| यह सूत्रकृमि व्यापक रूप से नर्सरी, उपरी भूमि तथा अच्छी जल निकाश वाली भूमि में पाये जाते हैं| इस लेख में टमाटर में सूत्रकृमि (निमेटोड) की समस्या, लक्षण और रोकथाम का विस्तृत उल्लेख किया गया है| टमाटर की वैज्ञानिक तकनीक से खेती कैसे करें, की जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- टमाटर की उन्नत खेती कैसे करें
टमाटर में सूत्रकृमि रोग के लक्षण
1. टमाटर के खेत में सूत्रकृमि रोगग्रस्त पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है, पौधा मुरझा जाता है, पौधा बौना भी रह जाता है|
2. पौधों को उखाड़कर देखने पर यह दिखता है, कि जड़े सीधी न होकर आपस मे गुच्छा बना लेती है, जड़ों पर गांठें बनकर फूल जाती हैं|
3. पौधों में फूल व फल देरी से लगते हैं व झड़ने लगते हैं, फलों का आकार छोटा हो जाता है व उसकी गुणवत्ता कम हो जाती है|
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टमाटर में सूत्रकृमि से हानि
टमाटर के खेत में सूत्रकृमि प्राथमिक तथा द्वितीयक जड़ों को प्रभावित करके फसल को नुकसान पहुंचते है| संक्रमित जड़ें भिन्न आकार की गांठे बनाती हैं, इसकी एक निश्चित संख्या से अधिक उपस्थिति पौधों में पानी तथा अन्य पोषक तत्वों को प्राप्त करने में अवरोध उत्पन्न करती है| जिससे गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव के साथ उत्पादन भी कम हो जाता हैं|
मृदा में पोषक तत्व एवं पानी की उपलब्धता होते हुए भी जडों द्वारा पौधे इन्हें पर्याप्त मात्रा में ग्रहण नहीं कर पाते हैं| जडें फूली हुई प्रतीत होती हैं और पौधे कमजोर, बौने, पीले हो जाते हैं| इस रोग से ग्रसित पौधों में उकठा फंफूदी रोग शीघ्र लग जाते हैं| सूत्रकृमियों से हानि मृदा में उपस्थित इनकी संख्या, बोई जाने वाली इनकी पोषक फसल आदि पर निर्भर करती है|
सामान्य अवस्था मे 20 से 40 प्रतिशत तक नुकसान होता है एवं रोग की अधिकता होने पर 70 से 80 प्रतिशत तक भी हानि हो सकती है| एक किये गये शोध के आधार पर रोग की भयानकता होने पर कददू वर्गीय सबिजयों में 65 से 70, मिर्च-टमाटर में 60 से 65, बैगन में 50 से 60, गाजर व चौलाई में 40 से 50 प्रतिशत तक का नुकसान पाया गया है|
टमाटर में सूत्रकृमि रोकथाम
टमाटर में सूत्रकृमि से रोकथाम के लिये निम्न विधियां अपनाई जा सकती है| जो इस प्रकार है, जैसे-
फसल चक्र- सूत्रकृमियों की कई प्रजातियां जैसे- ग्लोबोडेरा, मेलाइडोगायनी, हेटरोडेरा आदि मृदा मे लंबे समय तक सक्रिय नहीं रहते अतः फसल चक्र अपनाकर इनकी रोकथाम की जा सकती है| जिन खेतों मे जड़ गांठ रोग का प्रकोप हो रहा है वहां ऐसी सब्जियों या अन्य फसलों का चुनाव करें, जिनमे यह रोग नही लगता जैसे- राजमा, मटर, मक्का, गेहूं, ग्वार, पालक, सलाद आदि|
स्वच्छ कृषि औजारों का प्रयोग- एक खेत से दूसरे खेतों में कृषि औजारों के प्रयोग से पहले इन्हें अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिये| ताकि यदि एक खेत में सूत्रकृमियों की उपसिथति है, तो वे अन्य खेतों में कृषि औजारों के माध्यम से ना जायें|
रोग रहित पौध का चुनाव- स्वस्थ, साफ एवं रोगरहित पौध का चुनाव करना चाहिये|
कार्बनिक खाद का प्रयोग- कार्बनिक खादें सूत्र कृमियों के प्रति प्रतिरोध उत्पन्न करने वाले कुछ ऐसे कवक व बैक्टिरिया को बढ़ावा देती है, जिससे इनका संक्रमण कम हो जाता है| खादों को भूमि की जुताई करते समय या बीज बोने या पौध लगाने के 20 से 25 दिन पहले डालना चाहिये| इनमें मुख्यतरू नीम, सरसों, महुआ, अरण्डी, मूंगफली आदि की खली 25 से 30 किंवटल प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिये|
शत्रु फसलें या रक्षक फसलें- कुछ फसलें जैसे- शतावर, क्रिस्टेयी क्रोटोलेरिया आदि जड़ गांठ सूत्रकृमि की संख्या को कम करतें है| सफेद सरसों आलू की फसलें सिस्ट सूत्रकृमि को रोकती है, ये फसलें शत्रु फसले कहलाती है| इनके अलावा कुछ ऐसे फसलें है जिनके जडों से ऐसे रासायनिक द्रव्य निकलतें है जो सूत्रकृमियों के लिये विष का काम करतें है जैसे- गेंदा, सेवंती आदि| इन्हे अंर्तवर्तीय फसलों के रूप मे मुख्य फसलों के बीच मे या मुख्य फसल के चारो तरफ 2 से 3 कतारों मे लगाना चाहिये|
रोग ग्रस्त पौधों को नष्ट करके- यदि आरंभ में सूत्रकृमि का प्रकोप बहुत कम है, तो रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये| इससे रोग का प्रकोप कम हो जायेगा|
ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई- मई से जून के महीने मे खेतो की मिट्टी पलट हल से 15 से 30 सेंटीमीटर गहरी जुताई करके छोड़ दे, जिससे सूत्रकृमियों के अण्डे व डिंभक उपरी सतह पर आ जातें हैं जो सूर्य ताप व चिडियां आदि द्वारा नष्ट हो जाते हैं, जिससे सूत्रकृमि के प्रकोप को काफी हद तक कम किया जा सकता है|
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मृदा सौर निर्जलीकरण द्वारा- यह एक आसान, सुरक्षित व प्रभावशाली विधि है, जिसके द्वारा सूत्रकृमियों के साथ-साथ विभिन्न कीटों, रोगजनक एवं खरपतवारों की रोकथाम भी हो जाती है| इस विधि में गर्मियों में (मई से जून) मृदा में सिंचाई करके 15 से 30 सेंटीमीटर गहराई तक गहरी जुताई करके उसे 4 से 5 सप्ताह तक पालीथीन शीट से ढक दिया जाता है, जिससे मृदा मे उच्च तापक्रम द्वारा सूत्रकृमि नष्ट हो जाते हैं|
खरपतवार नियंत्रण- खेतों में उगने वाले कई प्रकार के खरपतवारों पर सूत्रकृमि पनाह लेकर पोषण प्राप्त करके अपना जीवन चक्र पूरा कर लेते हैं तथा आने वाली फसल पर आक्रमण करके हानि पहुंचाते हैं| अतः समय-समय पर खरपतवारों का नियंत्रण करते रहें|
गर्म जल उपचार- 46 डिग्री सेलियस तापक्रम जल द्वारा आलू एवं प्याज के कंदों-बीजों को 1 घण्टे तक उपचारित करने से सूत्रकृमि नष्ट हो जाते हैं|
आच्छादित फसलों द्वारा- कुछ आच्छादित फसलें जैसे- सनई, दूब घास, वेलवेट बिन आदि कुछ ऐसे हैं| जिन्हें मुख्य फसल के पहले या बाद मे उगाकर सामान्य रूप से जड़ गांठ सूत्रकृमि की रोकथाम की जा सकती है|
रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करके- सूत्रकृमियों के प्रबंधन का यह सबसे सरल, सस्ता व प्रभावकारी उपाय है| की प्रतिरोधी किस्मे उगानी चाहिए जैसे टमाटर की कल्यानपुर 1, 2 व 3 रेनीफोर्म सूत्रकृमि प्रतिरोधी किस्में है|
पौध संगरोध- एक देश से दूसरे देशों में सूत्रकृमि के प्रसार को रोकने के लिये पादप संगरोध नियमों का बहुत महत्व है| उदाहरण के लिये आलू के सिस्ट सूत्रकृमि पर ये नियम लागू है|
सूत्रकुमि का रासायनिक नियंत्रण- कार्बोफ्यूरान या फोरेट को 2 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टर भूमि मे मिलायें या बीज दर से उपचारित करें या पौध को कार्बोसल्फॉन 25 ई सी 500 पी पी एम से 1 घंटे तक उपचारित करके लगायें| कुछ दानेदार रसायन जैसे- एल्डीकार्ब को 11 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से मृदा मे मिलाये|
डाईक्लोरोप्रोपीन या ऑक्सामिल को 5 से 10 किंवटल प्रति हेक्टर या निमागान 120 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से भूमि मे मिलाना चाहिये| पौध (नर्सरी) को कार्बोसल्फान 1 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर आधा घंटा उपचारित करके लगाये|
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टमाटर में समन्वित सूत्रकुमि रोकथाम
रोग रोकथाम की विभिन्न विधियों में से किसी एक विधि द्वारा सूत्रकृमियों की पूरी तरह रोकथाम नही की जा सकती, अतः दो या दो से अधिक विधियों का समावेश करके समन्वित रोग प्रबंधन द्वारा टमाटर में सूत्रकृमि की रोकथाम की जा सकती है, जैसे-
1. गीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिये|
2. नर्सरी लगाने के पूर्व बीज भूमि को कार्बोफ्यूरान, फोरेट आदि से उपचारित करना चाहिये|
3. फसल लगाने के 20 से 25 दिन पहले कार्बनिक खाद को मृदा में मिलाना चाहिये|
4. फसल चक्र अपनाये|
5. अंर्तवर्तीय फसल के रूप मे शतावर, गेंदा की 2 से 3 कतार मुख्य फसल के बीच मे लगाये|
6. टमाटर में सूत्रकृमि रोग प्रतिरोधी जातियों का चयन करें|
7. अंत में यदि इन सबसे रोकथाम नहीं हो तब रसायनों का प्रयोग करें|
निष्कर्ष- टमाटर में सूत्रकृमियों के कारगर नियंत्रण के लिये सबसे पहले सूत्रकृमि की पहचान, रोगजनक, रोग के लक्षण आदि का पहचान होना आति आवश्यक है| जिससे इसकी रोकथाम करने के विभिन्न उपाय अपनाने मे आसानी हो सके तथा वर्तमान मे बढ़ते हुये रासायनिक तत्वों के प्रयोगों के कारण भूमि, जल, पर्यावरण, खाद्य पदार्थ के खराब होने एवं मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत असर को देखते हुये सूत्रकृमि नियंत्रण के लिये समन्वित रोग प्रबंधन का तरीका अपनाना चाहिये|
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