पपीता पोषक तत्वों से भरपूर अत्यंत स्वास्थ्यवर्धक जल्दी तैयार होने वाला फल है| पपीते का पके तथा कच्चे रूप में प्रयोग किया जाता है| इसका आर्थिक महत्व ताजे फलों के अतिरिक्त पपेन के कारण भी है| जिसका प्रयोग बहुत से औद्योगिक कामों में होता है| इसलिए पपीते की खेती की लोकप्रियता दिनों दिन बढ़ती जा रही है और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह हमारे देश का पांचवा लोकप्रिय फल है| देश के अधिकांश भागों में घर की बगिया से लेकर बागों तक पपीते की बागवानी का क्षेत्र निरन्तर बढ़ता जा रहा हैं|
देश के विभिन्न राज्यों आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडू, बिहार, आसाम, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर तथा मिजोरम में इसकी खेती की जा रही है| अतः इसके सफल उत्पादन के लिए वैज्ञानिक पद्धति या तकनीकों का उपयोग करके कृषक इसकी फसल से अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं| इस लेख में कृषकों के लिए पपीते की वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी कैसे करें की जानकारी का विस्तृत उल्लेख किया गया है|
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उपयुक्त जलवायु
पपीते की खेती की सबसे अच्छी उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रो में होती है| लेकिन समशीतोष्ण क्षेत्रो में भी अच्छी पैदावार देता है| शुष्क गर्म जलवायु में इसके फल अधिक मीठे होते है| परन्तु अधिक नमी इसके फलो के गुणों को ख़राब कर देती है, और पैदावार भी प्रभावित होती है| इसके उत्पादन के लिए तापक्रम 22 से 26 डिग्री सैंटीग्रेट के बिच और 10 डिग्री सेंटीग्रेट से कम नहीं होना चाहिए, क्योंकि अधिक ठण्ड तथा पाला इसके लिए शत्रु के समान है|
भूमि का चयन
पपीता किसी भी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, लेकिन इसकी सबसे अच्छी उपज जीवांश युक्त हलकी दोमट या दोमट मृदा जिसमे जल निकास कि व्यवस्था अच्छी हो, इसलिए इसके लिए दोमट हवादार काली उपजाऊ भूमि का चयन करना चाहिए और जिसका पीएच मान 6.5 से 7.5 के बिच होना चाहिए और पानी बिलकुल नहीं रुकना चाहिए, पपीते की खेती के लिए मध्य काली और जलोढ़ भूमि भी अच्छी होती है|
भूमि की तैयारी
पपीते की बागवानी के लिए अप्रैल से जून माह में भूमि की 2 से 3 गहरी जुताई करके 1.5 फीट (लम्बाई x चौड़ाई x गहराई) के आकार के गड्डे खोदकर कुछ दिनों के लिए खुले छोड़ दिये जाते हैं| इसके पश्चात गड्डे की उपरी मिट्टी में 15 से 25 किलोग्राम पकी हुई गोबर की खाद व 1 किलोग्राम नीम की खली प्रति गड्ढे में भर देना चाहिए|
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उन्नत किस्में
पपीता में नियंत्रित परागण के अभाव और बीजय प्रर्वधन के कारण किस्में अस्थाई हैं तथा एक ही किस्म में विभिन्नता पाई जाती हैं| अतः फूल आने से पहले नर और मादा पौधों का अनुमान लगाना कठिन है| इनकी कुछ प्रचलित किस्में जो देश के विभिन्न भागों में उगाई जाती हैं और अधिक संख्या में मादा फूलों के पौधे मिलते हैं| जिनमें मुख्य हैं, जैसे-
हनीड्यु या मधु बिन्दु, कुर्ग हनीड्यू, वांशिगटन, कोय- 1, कोय- 2, कोय- 3, फल उत्पादन तथा पपेन उत्पादन के लिए कोय- 5, कोय- 6, कोय- 7, एम एफ- 1 और पूसा मेजस्टी मुख्य हैं| पपेन का अन्तराष्ट्रीय व्यापार में महत्व है| इनमें पपेन अन्य किस्मों से अधिक निकलते हैं| उत्तरी भारत में तापक्रम का उतार-चढ़ाव काफी अधिक होता है| इसलिए उभयलिंगी फूल वाली किस्में ठीक उत्पादन नहीं दे पाती हैं|
जब कि कुर्ग हनीड्यू, दक्षिण भारत में अधिक पैदावार के लिए सफल सिद्ध हुई है| कोय- 1, पंजाब स्वीट, पूसा डेलिसियस, पूसा मेजस्टी, पूसा जाइन्ट, पूसा डुवार्फ, पूसा नन्हा, म्यूटेन्ट आदि किस्में, जिनमें मादा फूलों की संख्या अधिक होती हैं और उभयलिंगी हैं, उत्तरी भारत में काफी सफल हैं| हवाई की ‘सोलो” किस्म जो उभयलिंगी और मादा पौधे होते हैं, उत्तरी भारत में इसके फल छोटे और निम्न कोटि के होते हैं| पपीते की किस्मों की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- पपीता की उन्नत किस्में
पौधशाला तैयार करना
पपीता के उत्पादन के लिए पौधशाला में पौधों को उगाना बहुत महत्व रखता है| इसके लिए बीज की मात्रा एक हैक्टेयर में पपीता के लिए 500 ग्राम काफी होती है| बीज पूर्ण पका हुआ, अच्छी तरह सूखा शीशे की बोतल या जार में रखा हो, जिसका मुंह ढका हो और 6 महीने से अधिक पुराना न हो, उपयुक्त है| बोने से पहले बीज को केप्टान से उपचारित कर लेना चाहिए| इसके लिए 3 ग्राम केप्टान एक किलोग्राम बीज को उपचारित करने के लिए काफी है|
बीज बोने के लिए क्यारी जो जमीन से उंची उटी हुई संकरी होनी चहिए, इसके अलावा बड़े गमले या लकड़ी के बक्सों का भी प्रयोग कर सकते हैं| इन्हे तैयार करने के लिए पत्ती की खाद, बालु तथा सड़ी हुई गोबर की खाद बराबर भागों में मिलाकर मिश्रण तैयार कर लेते हैं| जिस स्थान पर नर्सरी होती हैं, जमीन की अच्छी गुड़ाई-जुताई करके समस्त कंकड़ पत्थर तथा खरपतवार निकाल कर साफ कर देना चाहिए और जमीन को 2 प्रतिशत फोरमिलीन से उपचारित कर लेना चाहिए|
वह स्थान जहां पर तेज धूप तथा अधिक छाया न आये चुनना चाहिए| एक एकड़ के लिए 4056 मीटर जमीन में उगाये गये पौधे काफी होते हैं| इसमें 2.5 X 10 X 0.5 आकार की क्यारी बनाकर उपर्युक्त मिश्रण अच्छी तरह मिला दें और क्यारी को उपर से समतल कर दें| इसके बाद मिश्रण की तह लगाकर 1/2 X 2 इंच गहराई पर 3 X 6 इंच के फासले पर पंक्ति बनाकर उपचारित बीज बो दें और फिर 1/2 X 2 इंच गोबर की खाद के मिश्रण से ढककर लकड़ी, से दबा दे ताकि बीज उपर न रह जाये|
यदि गमलों या बक्सों का उगाने के लिए प्रयोग करें, तो इनमें भी इसी मिश्रण का प्रयोग करें| बोई गई क्यारियों का सूखी घास या पुआल से ढक दें तथा सुबह व शाम हज्जारे द्वारा पानी देना आवश्यक है| बोने के लगभग 15 से 20 दिन के भीतर बीज का जमाव हो जाता हैं| जब इन पौधों में 4 से 5 पत्तियां निकल आयें तो छोटे गमले 6′ आकार में मिश्रण भर कर लगा दें|
जब पौधे खेत में प्रतिरोपण करने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो प्रतिरोपण करने से पहले गमलों को धूप में एक दिन रखना चाहिए और खेत में सदैव पौधे संध्या के समय लगाकर उचित पानी देना चाहिए| किसी भी हालत में पानी अधिक न हो जायें नहीं तो पौधों को तुरन्त सड़न और उकठा का रोग लग जायेगा| उत्तरी भारत में नर्सरी में बीज मार्च, अप्रेल, जून और अगस्त में उगाने चाहिए| पपीते की नर्सरी की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- पपीते की नर्सरी (पौधशाला) तैयार कैसे करें
प्लास्टिक थैलियों में बीज उगाना- इसके लिए 200 गेज और 20 X 15 सेंटीमीटर आकार की थैलियों की जरूरत होती है, जिनकों किसी कील से नीचे और साइड में छेद कर देते हैं| तथा 1:1:1:1 पत्ती की खाद, रेत, गोबर और मिट्टी का मिश्रण बनाकर थैलियों में भर देते हैं| प्रत्येक थैली में दो या तीन बीज बो देते हैं| प्रतिरोपण करते समय थैली का नीचे का भाग फाड़ देना चाहिए|
पौधरोपण और दुरी
पौध लगाने से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी करके खेत को समतल कर लेना चाहिए, ताकि पानी न भर सकें| फिर पपीता की सघन व्यावसायिक बागवानी के लिए 50 X 50 X 50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढ़े 1.5 X 1.5 मीटर के फासले पर खोद लेने चाहिए ओर प्रत्येक गड्ढे में 30 ग्राम बी एच सी 10 प्रतिशत डस्ट मिलाकर उपचारित कर लेना चाहिए| उंची बढ़ने वाली किस्मों के लिये 1.8 X 1.8 मीटर फासला रखते हैं| जब पौधे 20 से 25 सेंटीमीटर हो जायें तो पहले से तैयार किये पौधों को 2 से 3 की संख्या में प्रत्येक गड्ढ़े में 10 सेंटीमीटर के फासले पर लगा देते हैं|
पौधे लगाते समय इस बात का ध्यान रखते हैं, कि गड्ढ़े का ढाल पौधे की तरफ हो, पौधे लगाने के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए| पपीता लगाने का उचित समय अप्रैल, अगस्त और सितम्बर है| फूल आने के बाद केवल दस प्रतिशत नर पौधों को छोड़ कर सभी नर पौधों को निकाल देना चाहिए और उनकी जगह नये पौधे लगा दें| बरसात के दिनों में पेड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए, जिससे पानी तने से न लगे|
खाद एवं उर्वरक
पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है, इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरूरत है| अतः अच्छी फसल के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फास्फोरस और 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधा की आवश्यकता होती है| इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष पौधा 15 से 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, 1 किलोग्राम हड्डी का चूरा तथा 1 किलोग्राम नीम की खली की जरूरत पड़ती है|
खाद की यह मात्रा तीन बराबर मात्रा में मार्च से अप्रेल, जुलाई से अगस्त और अक्टूबर महीनों में देनी चाहिए| दिसम्बर से जनवरी माह में उर्वरक नहीं डालना चाहिए, क्योंकि तापमान उत्तर भारत में इस समय काफी कम होता है और जाड़े में पौधों की वृद्धि रुक जाती है| पपीता लगाने के 4 माह बाद से उर्वरक डालने की आवश्यकता होती है| खाद और उर्वरक प्रबन्धन की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- पपीता में पोषक तत्व प्रबंधन कैसे करें
सिंचाई प्रबंधन
पपीते के पौधे पानी के जमाव के प्रति संवेदनशील होते हैं| अतः इन्हें ऐसी भूमि में लगाना चाहिए जहाँ पानी के निकास का उत्तम प्रबंध हो खास तौर पर जहाँ अधिक वर्षा होती है और भारी मिट्टी है, वहाँ का विशेष ध्यान रखना चाहिए| पपीते के पौधों में समय-समय पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है| पानी की कमी होने पर उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है| यदि ठीक समय पर सिंचाई न कीजाये तो पौधे की वृद्धि रुक जाती है| जलवायु के अनुसार नये पौधों में 2 से 3 दिनों के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए, जबकि एक साल पुराने पौधों में गर्मी में 6 से 7 दिनों के अन्तराल पर तथा सर्दी में 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए (जब वर्षा न हो)|
पपीते के पौधे के पास पानी के जमाव होने पर पौधे में गलन की बिमारी लग जाती है और पौधा मर जाता है| इसलिए पपीते के खेत में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए और पौधे की जड़ के पास 15 से 20 सेंटीमीटर ऊँची मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए, ताकि सिंचाई या वर्षा का पानी तने के सम्पर्क में न आये| 60 से 80 प्रतिशत तक ज़मीन में उपलब्ध मृदा नमी सिंचाई के लिए उपयुक्त पायी गयी हैं| यदि लम्बे समय तक पपीते के पौधे को पानी न मिले तो पौधे की वृद्धि एवं विकास रुक जाता है|
यह भी देखा गया है, कि पानी की कमी होने पर नर फूल अधिक निकलते हैं| परन्तु यदि खेत में लम्बे समय तक अधिक नमी बनी हुई है, तो फल विकृत आकार के हो जाते हैं| केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान में प्रयोगों द्वारा यह पाया गया कि यदि पौधों को नाली से या पूरे खेत में पानी लगाने की तुलना में बेसिन विधि से सिंचाई करें, तो पानी कम लगता है तथा अधिक गुणवत्तायुक्त फल का उत्पादन होता है|
यदि खेत में पानी का पलेवा करते हैं, तो पौधे पानी के सम्पर्क में सीधे आने की सम्भावना रहती है| इससे तना गलन की समस्या हो जाती है और पानी भी अधिक खर्च होता है| सिंचाई की टपक विधि 50 से 60 प्रतिशत तक पानी बचाता है| पानी की उपयोग क्षमता भी टपक विधि द्वारा बढ़ जाती है| गर्मी में पर्याप्त नमी खेत में नहीं रहने पर फूल व फल गिरते हैं|
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पाले से पौधों की रक्षा
सर्दी में छोटे पौधों की पाले से रक्षा करना आवश्यक होता है| इसके लिए छोटे पौधों को नवम्बर में तीन तरफ से घास-फूस या सरपत से अच्छी प्रकार ढक देते हैं| पूर्व-दक्षिण दिशा में पौधा खुला छोड़ दिया जाता है| जिससे सूर्य का प्रकाश पौधों को मिलता रहे| पाले की संभावना होने पर पौधों की सिंचाई करें और धुआ करने से भी पाले का भी प्रकोप कम होता है| फरवरी के अन्त में जब पाले का डर नहीं रहता, उस समय घास-फूस को हटा देना चाहिए|
निराई-गुड़ाई
पपीते का बाग साफ-सुथरा होना चाहिए| इसमें किसी प्रकार का खरपतवार नहीं होना चाहिए| प्रत्येक सिंचाई के बाद पौधे के चारों तरफ हल्की गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए| पौधे के आस-पास गहरी गुड़ाई या जुताई नहीं करनी चाहिए| गहरी गुड़ाई करने से खुराक लेने वाली जड़े कट जाती हैं| पपीते के पौधे के 3 से 4 फिट तक के क्षेत्र में खरपतवार नियंत्रण आवश्यक होता है| जैविक पलवार के प्रयोग से खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है और मिट्टी में नमी भी अधिक समय तक सुरक्षित रखी जा सकती है| खरपतवार नियंत्रण द्वारा कीड़े-मकोड़ों से भी फसल की रक्षा हो जाती है एवं विषाणु रोग से भी बचाव होता है|
अन्तरवर्तीय फसलें
पपीते के पौधे के मध्य में प्रथम वर्ष में कम बढ़ने वाली सब्जियों जैसे फूलगोभी,पत्तागोभी प्याज, लहसुन आदि की खेती की जा सकती है|
विरलन
यदि पपीते में अधिक संख्या में फल लगते है, तो फल की अच्छी बढ़वार नहीं हो पाती है| कुछ फलों का आकार बहुत छोटा व कुरुप हो जाता है तथा कुछ अपने आप गिर जाते है| अतः अधिक पास पास लगे फलों को प्रारंभिक अवस्था में तोड़ देना चाहिए| जिससे बचे फल बड़े आकार के उच्च गुणवत्ता युक्त प्राप्त होते हैं|
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पौधों को हटाना
पपीते के पौधे लगाने के 28 से 30 माह बाद उसकी वृद्धि कम हो जाती है और जो फल लगते हैं| वे आकार में छोटे होते हैं| ऐसी अवस्था में पौधों को काट कर हटा देना चाहिए एवं नये पौधों का रोपण करना चाहिए|
कीट एवं नियंत्रण
सफेद मक्खी- यह कीट पपीते की पत्तियों का रस चूसकर हानि पहुँचाता है तथा विषाणु रोग फैलाने में भी सहायक होता है|
नियंत्रण- इसकी रोकथाम हेतु इमिडाक्लोरोप्रिड 17.8 एस एल दवा की 100 से 120 मिलीलीटर प्रति हैक्टेयर की दर से अथवा थायोमिथाकजॉम 25 डब्ल्यू जी दवा की 100 ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए|
लाल मकडी- यह कीट पपीते के पके फलो व पतियों की सतह पर पाया जाता हैं| इस कीट में प्रभावित पत्तियों पीली व फल काले रंग के हो जाते है|
नियंत्रण- इसकी रोकथाम हेतु डायमिथोएट 30 ई सी 800 से 1000 मिलीलीटर का प्रति हैक्टेयर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए|
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रोग एवं नियंत्रण
तना व पौध गलन- यह रोग किसी भी उम्र के पौधों को संक्रमित कर नष्ट कर सकता है| प्रभावित पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगती है और पौधा मुरझाकर गिर जाता है| तने के छिलके पर भी गीले से चकत्ते दिखाई देते हैं तथा पौधे की जड़े सड़ने लगती हैं|
नियंत्रण- बुवाई पूर्व बीजों को कार्बेन्डाजिम 2 से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए| खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखने पर कार्बेन्डाजिम मेनकोजेब की 750 ग्राम मात्रा का प्रति हैक्टयर की दर से छिड़काव करें|
पत्ती कुंचन रोग- पपीते का यह विषाणु जनित रोग है| इसमें पत्तियाँ छोटी व झुरीदार तथा शिराये पीली व मोटी हो जाती है| यह रोग सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है|
नियंत्रण- पपीते के रोग ग्रसित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए और सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोरोप्रिड दवा की 100 से 125 मिलीलीटर मात्रा का प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए|
पपीते का मोजेक रोग- यह भी एक विषाणु जनित रोग है| इस रोग के कारण पत्तियों में पानीदार लम्बी चित्तियों पड़ जाती हैं|
नियंत्रण- यह रोग रस चूसक कीटों के द्वारा फैलता है| अतः इस रोग की रोकथाम हेतु इमिडाक्लोरोप्रिड 17.8 एस एल की 100 से 120 मिलीलीटर मात्रा या थायोमिथाक्जॉम 25 डब्ल्यू जी की 100 ग्राम मात्रा का प्रति हैक्टयर की दर से छिड़काव करें|
एन्थेक्नोज- यह एक फफूंद जनित रोग है| रोग का आक्रमण तनो, पतियों और फलों पर होता है| फल और पत्तियों पर लम्बे धब्बे बन जाते है| जिसके कारण फल सड़ जाते है तथा गिर जाते हैं|
नियंत्रण- रोग के लक्षण दिखाई देने पर डाइथेन एम- 45 या कॉपर आक्सीक्लोराइड दवा की 500 ग्राम मात्रा का प्रति हैक्टर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहियें| पपीते के कीट एवं रोग की सम्पूर्ण जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- पपीते के कीट एवं रोग की रोकथाम कैसे करें, जानिए आधुनिक तकनीक
फल तोड़ना
पपीते के फल की यदि सही समय से एवं सही ढंग से तुड़ाई न की गई तो अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है, क्योंकि पपीता एक जल्दी खराब होने वाला फल है| फल को पेड़ पर तभी तक रखते हैं, जब तक कि फल परिपक्व न हो जाय| किन्तु पेड़ पर फल अधिक पका हुआ नहीं छोड़ते हैं| पकने पर कुछ प्रजातियों के फल पीले रंग के हो जाते हैं और कुछ प्रजातियाँ पकने पर भी हरी ही रहती हैं| फल की ऊपरी सतह पर हल्की खरोंच लगने से यदि पानी या दूध जैसा तरल पदार्थ न निकले तो समझना चाहिए कि फल परिपक्व हो गया है|
पपीते का पौधा लगाने के 6 से 7 माह बाद फूलना व फलना प्रारम्भ कर देता है| फल पौध लगाने के 10 से 11 माह बाद तोड़ने योग्य हो जाते हैं| फल तोड़ते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उन पर किसी तरह की खरोंच या दाग-धब्बे न पड़े अन्यथा उन पर कवकों का प्रकोप हो जायेगा| इससे फल सड़ जाते हैं|
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पैदावार
फल की पैदावार पपीते की किस्म, प्रकृति, मिट्टी, जलवायु और उचित देख-रेख पर निर्भर करती है| लेकिन पपीते की उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी करने पर औसतन 55 से 85 किलोग्राम फल प्रति पौधा प्राप्त होता है|
पैकिंग करना
खेत में फल तोड़ कर क्रेट में एक सतह में ही रखना चाहिए, साथ ही फल के वृन्त को भी हटा देना चाहिए, ताकि दूसरे फल को क्षति न पहुँचे बाद में फलों को अलग-अलग कागज में लपेट कर उन्हें लकड़ी या गत्ते के डिब्बे में रखना चाहिए| डिब्बे के अन्दर की ओर कुछ मुलायम वस्तु यथा कागज, भूसा आदि के टुकड़े बिछा देते हैं, ताकि फल पर खरोंच या दबाव न पड़े| ऐसा करने से फल से अधिक आय प्राप्त होती है|
पपेन उत्पादन
पपीते के कच्चे फलों को खरोंचने से जो दूधिया तरल निकलता है उससे पपेन तैयार होता है| पपेन में प्रोटीन हाइड्रोलाइजिंग इंन्जाइम (प्रोटिएज या प्रोटिओलाइटिक इन्जाइम) होते हैं| इसका उपयोग दवाई बनाने और दूसरे औद्योगिक कार्यों में किया जाता है| यह पेप्सिन के समान प्रोटीन पचाने वाला इन्जाइम होता है| पपीते से पपेन निकालना बहुत आसान होता है| फल लगने के करीब 70 से 90 दिनों बाद से फल से पपेन निकाला जा सकता है, जो जुलाई से शुरू हो कर मार्च माह तक चलता है|
ठंडे व नम वातावरण में सुबह 10 बजे तक सबसे अधिक मात्रा में पपेन का रिसाव होता है| किसी तेज ब्लेड से फल की सतह पर डंठल से लेकर नीचे तक 4 गहरे लंबे चीरे लगाये जाते हैं| इनकी गहराई 2 से 3 मिलीमीटर होनी चाहिए| चीरे कम से कम 3 सेंटीमीटर की दूरी पर होने चाहिए| यह चीरा एक फल पर चार बार 4 दिनों के अन्तर पर लगाया जाता है| इस रिसाव (पपेन) को एकत्रित करने के लिए अल्यूमूनियम या शीशे का बर्तन उपयुक्त रहता है|
कटे स्थान पर यदि तरल पदार्थ जम गया हो तो उसे भी खरोंच कर इकट्ठा कर लेना चाहिए| अब इस तरल पदार्थ को छायें या ओवन (बिजली के चूल्हे) में 40 से 45 डिग्री सेंटीग्रेट पर सुखा लिया जाता है| सुखाने से पहले 0.05 प्रतिशत पोटैशियम मेटा-बाई सल्फाइट इस तरल में मिलाने से रंग बना रहता है और भण्डारण क्षमता बढ़ जाती है| पपेन का औसत उत्पादन 200 से 350 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, तीस माह के फसल चक्र में होता है|
सूखे मौसम में पपेन का उत्पादन कम होता है| जुलाई से सितम्बर तक इसका सबसे अधिक उत्पादन होता है| बन्द बर्तन में इसे 6 माह तक रखा जा सकता है| सुखाने के बाद पपेन को पूर्णरूप में हवा बन्द बोतल या पॉलीथीन बैग में पैक कर दिया जाता है| पपेन का अच्छा उत्पादन देने वाली किस्में पूसा मैजेस्टी, को- 2, को- 5 तथा को- 6 हैं|
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बीज उत्पादन
पपीते में कम उत्पादन क्षमता का मुख्य कारण शुद्ध प्रमाणित, स्वस्थ बीज का न उपलब्ध होना है| अच्छी उपज के लिए बीज की आनुवांशिक शुद्धता बनाये रखना आवश्यक होता है| शुद्ध बीज या तो नियंत्रित परागण द्वारा या दो प्रजातियों के बीच एक निश्चित दूरी में उगाने पर प्राप्त किया जा सकता है| शुद्ध बीज तैयार करने के लिए एक ही प्रजाति के नर व मादा का नियंत्रित परागण किया जाता है| गाइनोडायोशियस प्रजाति में मादा पौधे को उभयलिंगी पौधों के पराग से परागण करते हैं|
बड़े पैमाने पर पपीते का बीज पैदा करने के लिए पृथक स्थान का चुनाव आवश्यक है| एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति के बीच की दूरी कम से कम 500 से 1000 मीटर तक होनी चाहिए| परिपक्व फल से बीज निकालने के बाद राख से रगड़ कर चिपचिपे पदार्थ को छुड़ा कर तथा फिर सफाई कर बीजों को छाया में सुखाना चाहिए और हवा बन्द बोतल में भण्डारित करना चाहिए|
बीज का रख-रखाव- पपीते के बीज की अंकुरण क्षमता बहुत शीघ्र समाप्त हो जाती है, क्योंकि इसका जीवन काल कम होता है| बीज का जीवन काल कम होने के कारण इसका सही भण्डारण आवश्यक है| बीज को अधिक दिनों तक उपयोग में लाने के लिए बन्द बोतल या पालीथीन की थैली में रख कर रेफ्रिजरेटर में रखते हैं, ताकि अंकुरण काल लंबे समय तक बना रहे|
तुड़ाई उपरान्त क्षति
पपीते के फल परिपक्वता के बाद शीघ्र खराब होने वाले होते हैं| फलों की तुड़ाई, रख-रखाव तथा परिवहन सावधानीपूर्वक करना चाहिए अन्यथा थोड़ी सी खरोंच के कारण तुड़ाई उपरान्त के अनेक रोग इसमें लग जाते हैं, इसलिए बचाव की आवश्यकता होती है| फल, पूर्ण परिपक्वता से पहले ही उपभोक्ताओं तक पहुँच जाना चाहिए| पके फल अधिक से अधिक एक सप्ताह तक रखे जा सकते हैं| पपीते का संग्रहकाल कुछ स्तर तक शीत भण्डारों में रख कर बढ़ाया जा सकता है|
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यान्त्रिक क्षति
पपीते के फल तोड़ते समय क्रेट या टोकरी में रखते समय फल की सतह पर खरोंच लगने से फल पर धब्बे बन जाते हैं, जो बाद में रोग फैलाते हैं| एक के ऊपर एक फल जब रखते हैं, तो भी फल दब कर खराब हो जाते हैं और बाद में सड़ जाते हैं| फल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक बार-बार स्थानान्तरण करने पर भी फलों में चोट लगती है तथा अधिक बीमारी आती है| अतः फल को सावधानीपूर्वक रखना चाहिए| इसके लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है, जैसे-
1. फल तोड़ने वाले आदमी को फल तोड़ने के तरीके की उचित जानकारी होनी चाहिए|
2. फलों को क्रेट या टोकरी में रखते समय पहले नीचे व बगल में कागज के टुकड़े आदि रख कर फल रखना चाहिए|
3. जिस साधन से फलों को खेत से भण्डारण स्थल तक लाया जाता है, उसे धीरे-धीरे चलाना चाहिए, जिससे फल पर चोट न लगने पाये|
4. फलों को रखते समय धीरे से रखना चाहिए, ज्यादा ऊपर से फल रखने पर चोट खा जाते हैं|
5. जब फल 50 प्रतिशत या उससे अधिक पक जाय, तब वे दूर स्थानान्तरण के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं, क्योंकि इसमें यांत्रिक क्षति अधिक होगी|
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कम तापमान से क्षति
यदि फल पूर्ण रूप से पका नहीं है और फलों की भण्डारण अवधि बढ़ाने के लिए 10 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान के नीचे भण्डारित करते हैं, तो पपीते में कम तापमान से क्षति (चिलिंग इन्ज्यूरी) हो जाती है| इसमें फल की सतह पर गड्ढे बन जाते हैं तथा छिलके व गूदे का रंग खराब हो जाता है| इससे फलों से दुर्गन्ध आती है, और फल ठीक से नहीं पकता है|
पूर्ण परिपक्व फल (पके फल) को कम तापमान पर संग्रहण कर सकते हैं| एन्टेक्नोज व अन्य तुड़ाई उपरान्त लगने वाली बीमारी लम्बे समय तक फल संग्रहण करने पर आ जाती हैं| तुड़ाई पूर्व के संक्रमण तथा छिपे हुए संक्रमण भी कम तापमान पर भण्डारण करने से नुकसान पहुंचाते हैं|
तुड़ाई उपरान्त फल प्रबन्धन
पपीता ज्यादातर ताजा खाने के लिए प्रयोग किया जाता है| चूंकि पपीता बहुत ही नाजुक, जल्दी खराब होने वाला फल है| अतः इसे तुड़ाई के बाद रख-रखाव या दूर तक ले जाने के लिए विशेष ध्यान देना आवश्यक है| एक-एक पके हुए फल को कागज में अलग-अलग लपेट कर गत्ते के बक्से में रखा जाता है| फल पर खरोंच न आये इसका ध्यान रखना पड़ता है अन्यथा अनेक फफूंदी जनित रोग विकसित होते हैं| पके फलों की भण्डारण क्षमता कम तापमान पर रखने से बढ़ाई जा सकती है|
जब पपीते का रंग हरा से बदल कर पीला होने लगे तब फल को तोड़ना चाहिए और फिर पकाना चाहिए| 13 से 16 डिग्री सेंटीग्रेट पर पपीता भण्डारित किया जा सकता है| 12 डिग्री सेंटीग्रेट से नीचे तापमान पर पपीते को रखने से कम तापमान द्वारा धब्बे बन जाते हैं| जिसमें फफूंदीजनित बीमारियाँ विकसित हो जाती हैं|
यदि पपीते के फल को गरम पानी 55 डिग्री सेंटीग्रेट पर 30 मिनट तक उपचारित करते हैं, तो फल पर लगने वाले रोग तथा फल मक्खी से बचाया जा सकता है| पपीते के महत्व को देखते हुए इसका इस्तेमाल पेठा, जैम, जेली, खीर, हलवा, बर्फी, रायता, अचार, स्क्वैश तथा नेक्टर आदि बनाने के लिए किया जा सकता है| इससे दैनिक आवश्यकता से अधिक फल का इस्तेमाल किया जा सकता है|
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