मसालों का भोजन में विशेष स्थान है| मसाले जहां भोजन को स्वादिष्ट बनाते हैं वहीं शरीर के लिए आवश्यक जैव रसायन भी उपलब्ध कराते हैं| जिससे भोजन शीघ्र पचता है, व शरीर स्वस्थ रहता है| जीवन के लिए उपयोगी इन मसाले की फसलों का रोगों से बचाव करना बहुत जरूरी है| सौंफ, अजवायन, जीरा एवं धनिया बीज मसाले वाली महत्वपूर्ण फसलें हैं, जिनकी खेती प्रायः राजस्थान, गुजरात और हरियाणा के आलावा अन्य राज्यों में भी की जाती है|
इन फसलों का उपयोग मसाले के अलावा औषधियां बनाने में भी किया जाता है| इन फसलों का निर्यात भी किया जाता है| मसाला फसलों में कई प्रकार के रोग लगते हैं, जिससे पैदावार कम हो जाती है| अगर बीमारियों का समय पर नियंत्रण कर लिया जाए, तो अधिक उपज ले सकते हैं| मसाले वाली फसलों की मुख्य बीमारियां और उनके नियंत्रण के उपाय इस लेख में प्रस्तुत हैं, जो इस प्रकार है, जैसे-
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मसाले वाली फसल सौंफ
सफेद चूर्णी रोग (पाऊडरी मिल्ड्यू)-
लक्षण- इस रोग का प्रकोप एक फफूद इरीसाइफी पॉलीगोनाई द्वारा होता है| रोग का प्रकोप फसल में देर से आता है, इसलिए पैदावार में अधिक नुकसान नहीं होता है| रोग के लक्षण पत्तियों की दोनों सतह पर सफेद धब्बों के रूप में उत्पन्न होते हैं और कई धब्बे आपस में मिलकर पत्तियों के ऊपर सफेद चूर्ण जैसे दिखाई देते हैं|
रोकथाम- सल्फैक्स 0.25 प्रतिशत या कैराथेन 0.1 प्रतिशत नामक दवा के एक या दो छिड़काव 10 दिन के अंदर करने से रोग का नियंत्रण किया जा सकता है|
झुलसा रोग-
लक्षण- यह रोग रैमिलेरिया फोनीकुली नामक फफंद के द्वारा होता है| इस रोग के प्रकोप से मसाले वाली फसलों की पत्तियों, तनों, बीज तथा ठण्डल पर भूरे-काले रंग के धब्बे बनते हैं| रोग से अधिक प्रभावित पौधे झुलसे हुए दिखाई देते हैं| प्रभावित पौधों में फलों का विकास बहुत ही कम होता है, जिससे पैदावार में कमी आ जाती है|
रोकथाम- मैन्कोजेब, इण्डोफिल एम- 45 या डाईथेन एम-45 दवा 0.2 प्रतिशत के घोल 2 ग्राम दवा एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देते ही करें| यदि बाद में आवश्यकता पड़े तो अन्य छिड़काव 10 से 12 दिन के अंतराल पर करें|
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मसाले वाली फसल अजवायन
सफेद चूर्ण रोग (पाउडरी मिल्ड्यू)-
लक्षण- यह रोग इरीसाइफी कवक से पैदा होता है| इससे मसाले वाली फसलों की रोगग्रसित पौधों पर सफेद चूर्ण दृष्टिगोचर होता है, यह अपनी उग्र अवस्था में फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है|
रोकथाम- इस रोग की रोकथाम 0.2 प्रतिशत घुलनशील सल्फर या 0.05 प्रतिशत कलैक्सीन या कैराथेन 0.1 प्रतिशत को 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें| यह छिड़काव 15 दिन बाद दोबारा करें|
झुलसा (ब्लाइट)-
लक्षण- आमतौर से पुष्पन के बाद जहां तहां झुलसा का आक्रमण देखा जा सकता है| इस रोग के कारणों का पता नहीं लगा है, न ही इसके रोकथाम के उपाय उपलब्ध हैं|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए रोग रोधी किस्मों का चुनाव करें, और बीज को अच्छे से उपचारित करें|
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मसाले वाली फसल जीरा
मसाले वाली जीरे की फसल की सफल खेती के लिए इसके रोगों की समय पर पहचान करना बहुत जरूरी है| ताकि उनका नियंत्रण करके अधिक उपज ली जा सके| इस मसाले वाली फसल पर लगने वाली मुख्य रोगों के लक्षण उनके रोकथाम के उपाय इस प्रकार हैं, जैसे-
झुलसा रोग (आल्टरनेरिया ब्लाइट)-
लक्षण- यह मसाले की जीरा फसल का एक घातक रोग है| रोग के प्राथमिक लक्षण पौधे की ऊपर वाली पत्तियों पर सफेद बिखरे हुए मृत धब्बों के रूप में पाए जाते हैं, बाद की अवस्था में ये धब्बे आकार में बढ़कर एक दूसरे से मिल जाते हैं और इनका रंग बैंगनी एवं अंत में भूरा या काला हो जाता है| अधिक नमी के कारण तने और फूलों पर भी रोग का संक्रमण हो जाता है|
प्रायः जीरे की फसल फूल आने के पश्चात ही इस रोग से प्रभावित होती है| पौधे की कोमल पत्तियां तथा पुष्प अधिक रोगग्राही होते हैं एवं रोग के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं| रोग के अधिक प्रकोप से बीज नहीं बनता है तथा यदि बन भी जाए तो प्रायः सिकुड़े हुए, काले, हल्के एवं जमाव रहित होते हैं| यह रोग एक फफूद (आल्टरनेरिया बर्नसाई) द्वारा होता है|
रोकथाम- बिजाई से पूर्व बीज का उपचार थीरम 2.5 ग्राम या एमिसान 2.0 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें| फसल पर रोग के प्राथमिक लक्षण दिखाई देते ही मैन्कोजेब (इण्डोफिल एम- 45 या डाईथेन एम- 45) 400 ग्राम दवा 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ 10 से 12 दिन के अन्तर पर छिड़काव करें|
बीच का उपचार ‘डाइफोलेटॉन’ (कैप्टाफाल) से 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से तथा छह छिड़काव (2 फूल आने से पूर्व और 4 फूल आने के बाद) इण्डोफिल एम- 45 या डाईथेन एम- 45 या इण्डोफिल जेड- 78 या कॉपरऑक्सीक्लोराइड (ब्लाईटॉक्स) के 0.2 प्रतिशत घोल (2 ग्राम दवा एक लीटर पानी में) से 7 दिन के अन्तराल पर करने से रोग की रोकथाम सम्भव हो सकती है| जीरे की आर जेड-19 किस्म पर रोग का प्रकोप दूसरी किस्मों की तुलना में कम होता है|
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उखेड़ा रोग (विल्ट)-
लक्षण- यह रोग भी मसाले वाली जीरा फसल का घातक रोग है| इसका प्रकोप प्राय: 25 से 40 प्रतिशत या कभी-कभी अधिक भी होता है, वैसे तो यह रोग फसल पर किसी भी समय लग सकता है, परन्तु इसका प्रकोप अधिकतर दिसम्बर माह के अन्त में जब फसल लगभग एक माह की होती है, खेत के कुछ हिस्सों में देखा जा सकता है|
प्रभावित पौधे पीले पड़ने लगते हैं और मुरझाकर सूख जाते हैं। रोगग्रस्त पौधे आसानी से उखड़ जाते हैं और जड़ों का रंग भूरा हो जाता है, जो इस रोग का एक प्रमुख लक्षण है| इस रोग का कारक भी एक भूमि जनित फफूद (फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पेरम एफ.एस.पी.क्यूमिनी) है|
रोकथाम- थीरम या बाविस्टीन नामक दवा 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज का उपचार करें| जिस खेत में रोग पहले पाया गया हो उसमें 2 से 3 वर्ष तक जीरे की फसल की जगह अन्य फसल उगायें|
सफेद चूर्णी रोग-
लक्षण- रोग का आरम्भ प्रायः देर से होता है तथा अधिकतम प्रकोप फुल एवं बीज बनने के समय पर होता है| यदि रोग का प्रकोप फूल आने के समय पर होता है, तो उत्पादन में अधिक क्षति होती है| रोग के लक्षण निचली पत्तियों की सतह पर सफेद या मटमैले रंग के छोटे-छोटे धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं| बाद में ये धब्बे आकार में बढ़कर आपस में मिल जाते हैं और पत्ती की पूरी सतह पर छा जाते हैं|
रोग के अत्यधिक प्रकोप के समय पत्तियों के ऊपर राख जैसा पदार्थ दिखाई देता है, जो वास्तव में फफूद के कवक जाल तथा बीजाणु होते हैं| रोग का संक्रमण पौधे के तने, फूल और बीज पर भी होता है| यह रोग भी एक फफूद (इरीसाइफी पॉलीगोनाई) द्वारा ही होता है|
रोकथाम- लक्षण दिखाई देते ही सल्फैक्स (0.25 प्रतिशत) या केराथेन नामक दावा के एक या दो छिड़काव 10 से 15 दिन के अंतर पर करने चाहिएं|
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मसाले वाली फसल धनिया
धनिया मसाले वाली एक महत्वपूर्ण फसल है| इसकी खेती भारत में कई प्रान्तों में हरी पत्तियों व सूखे दानों के लिए की जाती है| सब्जियां और अचार बनाने में इसका काफी महत्व है| धनिया को औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है| इस पर अनेक प्रकार की रोगों का प्रकोप होता है, जिनकी रोकथाम अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए अतिआवश्यक है| धनिया के प्रमुख रोगों का नियंत्रण निम्न प्रकार करें, जैसे-
ट्यूमर (गाल फारमेशन)-
लक्षण- इस मसाले वाली फसल में इस रोग का प्रकोप पौधे के तने, फूल के डण्ठल, पंखुड़ियों और पत्तियों आदि पर होता है| प्रभावित भागों पर लम्बी उभरी हुई आकृतियां बन जाती हैं| फलों में भी विकृतियां आ जाती हैं तथा आमतौर पर फल लम्बे आकार के हो जाते हैं| रोगजनक फफूद भूमि में लम्बे समय तक जीवित रह सकता है और इसके अतिरिक्त रोगी फसल के अवशेष एवं रोगी बीज द्वारा भी रोग एक फसल से दूसरे वर्ष की फसल में लगता है|
रोकथाम- रोगी फसल के अवशेषों को जला कर नष्ट कर दें| थीरम नामक दवा 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार करना चाहिए|
सफेद चूर्णी रोग-
लक्षण- इस मसाले वाली फसल में इस रोग का प्रकोप प्राय: फरवरी से मार्च में होता है और पौधे के सभी ऊपरी भाग प्रभावित हो सकते हैं| रोग का प्रकोप पहले कोमल तनों एवं पत्तियों पर सफेद छोटे-छोटे धब्बों या सफेद चूर्ण के रूप में आरंभ होता है| बाद की अवस्था में ये धब्बे आपस में मिल जाते हैं और रोग उग्र रूप धारण कर लेता है तथा कभी-कभी फलों पर भी रोग के लक्षण दिखाई देते हैं| रोग के प्रकोप से पत्तियां छोटी रह जाती हैं| इससे उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत की कमी हो सकती है|
रोकथाम- सल्फैक्स (0.25 प्रतिशत) या कैराथेन (0.1 प्रतिशत) या कैल्वसिन (0.2 प्रतिशत) दवा के एक या दो छिड़काव 10 से 12 दिन के अन्तर पर करें|
उखेडा रोग (विल्ट)-
लक्षण- इस मसाले वाली फसल में यह रोग पौधे की जड़ में लगता है, जिससे पौधा हरा ही मुरझा कर सूख जाता है| यह रोग किसी भी अवस्था में लग सकता है, लेकिन प्रकोप पौधे की छोटी अवस्था में अधिक होता है|
रोकथाम- गर्मी में खेत की गहरी जुताई कर खेत को खाली छोड़ें, जिस खेत में इस रोग का प्रभाव हो वहां तीन साल का फसलचक्र अपनायें, बीज हमेशा रोग रहित फसल का ही बनाएं बीज का उपचार कैप्टान या बाविस्टिन या एमिसान नामक दवा 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें|
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