मसूर की जैविक या परम्परागत खेती प्रमुख रूप से दाल के लिए की जाती है| इसकी दाल अन्य दालों की अपेक्षा अधिक पोष्टिक होती हैं| मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 60.8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 3.2 ग्राम रेशा, 68 मिलीग्राम कैल्सियम, 7 मिलीग्राम लोहा, 0.21 मिलीग्राम राइबोफ्लेविन, 0.1 मिलीग्राम थाइमिन और 4. 8 मिलीग्राम नियासिन पाया जाता है|
रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यन्त लाभप्रद मानी जाती है| इसका प्रोटीन उबालने पर शीघ्र घुलनशील होने के कारण अन्य दालों की तुलना में कम समय में पक जाता है| दानों का प्रयोग नमकीन और मिठाईयां बनाने में भी किया जाता है| हरा एवं सूखा चारा जानवरों के लिए स्वादिष्ट तथा पौष्टिक होता है|
दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में गांठ पाई जाती है, जिसमें उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल की स्वतंत्र नाइट्रोजन का स्थिरीकरण भूमि में करते हैं| इसलिए फसल चक्र में इसे शामिल करने से भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है| भूमि क्षरण को रोकने के लिए मसूर को आवरण फसल के रूप में भी उगाया जाता है|
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मसूर की जैविक खेती के लिए उपयुक्त भूमि
मसूर की खेती के लिए बलुई दोमट एवं मध्यम दोमट मिट्टी उत्तम रहती है| अच्छी फसल के लिए मिट्टी का पी एच मान 5.8 से 7.5 के बीच होना चाहिए| अधिक क्षारीय और अम्लीय मृदा मसूर की खेती के लिए उपयुक्त नही है|
मसूर की जैविक खेती के लिए खेत की तैयारी
खरीफ फसल काटने के बाद 2 से 3 आड़ी खड़ी जुताइयां देसी हल या कल्टीवेटर से की जाती है| प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर मिट्टी बारीक तथा समतल बना लेते हैं| बोने के समय खेत में पर्याप्त नमी रहनी चाहिये|
मसूर की जैविक खेती के लिए उन्नत किस्में
नूरी (आई पी एल- 81)- यह अर्द्ध फैलने वाली और शीघ्र पकने 110 से 120 दिन वाली किस्म है| इसकी औसत उपज 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है| 100 दानो का वजन 2.7 ग्राम है| यह किस्म संपूर्ण मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है|
मलिका (के- 75)- यह 120 से 125 दिनों में पकने वाली उकठा निरोधी किस्म है| बीज गुलाबी रंग के और बड़े आकार का 100 बीजो का भार 2.6 ग्राम के होते हैं, औसतन 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार देती है|
लेन्स 4076- यह देरी से 135 से 140 दिनों में पककर तैयार होती है| पौध मध्यम फैलावदार और बड़े दाने वाली किस्म 100 बीजो का भार 2.8 ग्राम होता है| इसकी औसत उपज 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है| गेरूआ और उकठा निरोधी किस्म है| उत्तरी और मध्य क्षेत्र के सिंचित एवं असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है|
आर वी एल 31- यह 107 से 110 दिनों में पककर तैयार होने वाली किस्म है, जो 14 से 15 क्विंटल औसत उत्पादन देती है| यह बड़े दानों वाली किस्म 3.0 ग्राम प्रति 100 बीज है| मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है|
विशेष- किसान भाई अपने क्षेत्र की ही प्रमाणित, चर्चित और उन्नतशील किस्म उगाएँ, क्योंकि हर किस्म अपने क्षेत्र विशेष के लिए उपयोगी होती है|
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मसूर की जैविक खेती के लिए बीज दर
मसूर की जैविक खेती में अधिक उपज के लिए खेत में पर्याप्त पौध संख्या होना आवश्यक है| इसके लिए प्रमाणित किस्म का स्वस्थ बीज संस्तुत मात्रा में प्रयोग करना अनिवार्य है| समय पर बुवाई हेतु उन्नत किस्मों का 30 से 35 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है| विलम्ब से बुवाई करने की दशा में 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर बोना चाहिए|
मसूर की जैविक खेती के लिए बीज उपचार
स्वस्थ बीजों को बुवाई के पूर्व ट्राइकोडरमा 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें| इसके उपरांत बीजों को मसूर के राइजोबियम कल्चर एवं स्फुर घोलक जीवाणु खाद प्रत्येक का 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर छायादार स्थान में सुखाकर बुवाई करना चाहिए|
मसूर की जैविक खेती के लिए बुवाई का समय
मसूर की बुआई अक्टूबर से दिसम्बर तक होती है| परन्तु अधिक उपज के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर का समय उपयुक्त है| ज्यादा विलम्ब से बुवाई करने पर कीट व्याधि का प्रकोप ज्यादा होता है| देर से बोने पर यदि भूमि में नमी कम हो तो सिंचाई करने के पश्चात् बोना चाहिए|
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मसूर की जैविक खेती के लिए बुवाई की विधि
खेत में पर्याप्त नमी होने पर विशेषकर धान वाले खेतों में मसूर की बुआई छिटकवां विधि से की जाती है| परन्तु अच्छी उपज के लिए कतार में उगाना उत्तम है| इसके लिए हल या सीड ड्रील का उपयोग करना चाहिए| अगेती फसल की बुआई पंक्तियों में 30 सेंटीमीटर की दूरी पर करना चाहिए| पिछेती फसल की बुआई के लिए पंक्तियों की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर रखते हैं| बीज को 3 से 4 सेंटीमीटर निचे बोना लाभप्रद रहता है|
मसूर की जैविक फसल में सिंचाई प्रबंधन
मसूर से सूखा सहन करने की क्षमता होती है| सामान्य तौर पर सिंचाई नहीं की जाती है| फिर भी सिंचित क्षेत्रों में 1 से 2 सिंचाई करने से उपज में वृद्धि होती है| पहली सिंचाई शाखा निकलते समय अर्थात् बुआई के 30 से 35 दिन बाद और दूसरी सिंचाई फलियों में दाना भरते समय बुआई के 70 से 75 दिन बाद करना चाहिए|
ध्यान रखें- कि पानी अधिक न होने पावे तथा संभव हो तो स्प्रिंकलर से सिंचाई करें या खेत में स्ट्रिप बनाकर हल्की सिंचाई करना लाभकारी रहता है| अधिक सिंचाईयां मसूर की फसल के लिए लाभकारी नही रहती हैं| खेत में जल निकास का उत्तम प्रबंध होना आवश्यक है|
मसूर की जैविक फसल में खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार प्रकोप से मसूर की उपज घट जाती है| मसूर बुआई से 45 से 60 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त रहना आवश्यक है| बुवाई के 25 से 30 दिन बाद एक निंदाई गुड़ाई करने से उपज में वृद्धि होती है|
मसूर की जैविक खेती और फसल पद्धति
मसूर की खेती खरीफ की फसलें जैसे- धान, ज्वार, बाजरा, मक्का, कपास आदि लेने के बाद की जाती है| मसूर की मिश्रित खेती जैसे सरसों + मसूर, जौ + मसूर का भी प्रचलन है| शरदकालीन गन्ने की दो कतारों के बीच मसूर की दो कतारें 1:2 बोई जाती है| इसमें मसूर को 30 सेंटीमीटर की दूरी पर उगाया जाता है|
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