फागुन माह एक खास महत्व रखता है, क्योंकि इसमें होली का त्यौहार आता है। मार्च महीने में रबी फसलें पकने की अवस्था में आने लगती हैं। समय पर बोई गयी राई – सरसों की कटाई मार्च माह के प्रथम पखवाड़े में होनी शुरू हो जाती है। इसी प्रकार गेहूं, जौ, मसूर, चना, मटर, राई – सरसों, अलसी, गन्ना, आलू की फसलें भी तैयार हो जाती हैं। गेहूं में दाने का पूर्ण भराव और दाना सख्त होने लगता है। बरसीम से बीज उत्पादन करना है, तो भी मार्च माह में विशेष सावधानियां रखनी पड़ेंगी। इससे अधिकतम उत्पादकता के साथ-साथ, उच्च गुणवत्ता वाला बीज भी प्राप्त हो सकेगा।
मार्च माह में बसंतकालीन फसलों की बुआई की तैयारी शुरू हो जाती है। बसंतकालीन मक्का, गन्ने के साथ ही ग्रीष्मकालीन दलहनी फसलों की बुआई के लिए यह उपयुक्त समय होता है। मार्च माह में हरे चारे की कमी बहुतायत में देखी जाती है, इसलिए खाली हुए खेतों में ग्रीष्मकालीन चारे की फसलें जैसे – मक्का, बाजरा और ज्वार की बुआई कर हरे चारे की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकती है। सब्जी, फलदार पेड़ों और पुष्प व सुगंध वाले पौधों से भरपूर पैदावार लेने के लिए सस्य कृषि क्रियाओं की आवश्यकता होती है। इस लेख में इन सभी बातों पर विस्तृत जानकारी दी गई है।
मार्च माह के कृषि कार्य अच्छे उत्पादन हेतु
गेहूं की फसल
1. गेहूं की फसल में सिंचाई योजना बनाते समय मृदा की किस्म, फसल, फसल प्रजाति ,वृद्धि काल, मृदा में जीवांश पदार्थ की मात्रा और खेत में विगत वर्ष बोई गयी फसल आदि का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए । जब भूमि में प्राप्य जल की कमी हो जाए और पौधों की वृद्धि और विकास दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका हो, उस अवस्था में आवश्यकतानुसार सिंचाई कर देनी चाहिए। मार्च माह में गेहूं की फसल में सिंचाई मृदा में 50 प्रतिशत उपलब्ध जल रहने पर करनी चाहिए।
2. सामान्यत बौने गेहूं की अधिकतम उपज प्राप्त करने हेतु हल्की और दोमट या भारी दोमट मृदा में जल की उपलब्धता के आधार पर सिंचाइयां करनी चाहिए, अन्यथा इन अवस्थाओं में जल की कमी का उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ेगा। सदैव हल्की मृदा में 6 सेंमी और दोमट या भारी दोमट मृदा में 8 सेंमी गहरी सिंचाई करनी चाहिए। और अधिक पढ़ें- गेहूं फसल की सिंचाई कब कब करें
3. प्रोपीकोनाजोल 25 ईसी (टिल्ट) 500 मिली या हैक्साकोनाजोल 1.0 लीटर प्रति हैक्टर या मैन्कोजेब 75 डब्ल्यूपी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
4. गेहूं में पर्ण या भूरा रतुआ रोग नियंत्रण के लिए धब्बे दिखाई देने पर 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनाजोल 25 ईसी (टिल्ट) का एक या दो बार पत्तियों पर छिड़काव करें। मार्च माह में इसकी आशंका अधिक रहती है।
5. पर्णीय या अंगमारी झुलसा रोग के लक्षणों में सर्वप्रथम निचली पत्तियों पर छोटे-छोटे, अण्डाकार, भूरे रंग के और अनियमित रूप से बिखरे हुए धब्बे आपस में मिलकर पत्ती का अधिकांश भाग ढक देते हैं। रोग के नियंत्रण हेतु थिरम और डाइथेन जैड – 78 का 0.25 प्रतिशत का छिड़काव करने से इस रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
6. चूर्णिल आसिता रोग प्रभावित पौधे की पत्तियों पर भूरे सफेद रंग के चूर्ण के ढेर दिखायी देते हैं। रोग की उग्र अवस्था में पर्णच्छंद, तना और तुषनिपत्र आदि भी भूरे – सफेद चूर्ण से ढक जाते हैं। रोगग्रसित पौधों द्वारा दाने छोटे और सिकुड़े हुए उत्पन्न होते हैं। रोग के नियंत्रण हेतु सल्फर का बुरकाव 20 किग्रा प्रति हैक्टर करना चाहिए।
7. काला सिट्टा रोग में दानों का सिरा गहरा भूरा या काला हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिए फूल आने से लेकर फसल पकने तक 800 ग्राम डायथेन जेड 78 (जीनेव) या डायथेन एम. 47 ( मैंकोजेब ) 250 लीटर पानी में घोलकर 10-15 दिनों के अन्तर पर छिड़काव करें।
8. कंडवा रोग के लक्षण एवं रोकथाम: इस रोग के नियंत्रण के लिए रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला दें। बीटावैक्स 2.5 ग्राम या कार्बेन्डाजिम 2.5-3.0 ग्राम/किग्रा या कार्बोक्सिन 75 डब्ल्यूपी 1.5 ग्राम या टेब्यूकोनाजोल 2.0 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से बीजोपचार कर बुआई करें। और अधिक पढ़ें- गेहूं की फसल की रोकथाम के उपाय
9. करनाल बंट रोग को गेहूं का कैंसर भी कहा जाता है। करनाल बंट रोग के नियंत्रण के लिए खेत में कम से कम पांच वर्षों तक फसलचक्र अपनायें, रोगग्रसित बालियों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। साफ व स्वस्थ बीजों का चयन किया जाये और उन्नत प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें। बीटावैक्स, औरियोफेन्जिन, थीरम, जीनेव, ऑक्सीकार्बोक्सिन 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से बीजोपचार करें। रासायनिक कीटनाशकों जैसे प्रोपीकोनाजोल (0.1 प्रतिशत), ट्राइएडिमेफोन (0.2 प्रतिशत), कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत), मैंकोजेब (0.25 प्रतिशत, पुष्प निकलने की अवस्था में छिड़काव करें। और अधिक पढ़ें- करनाल बंट रोग से बचाव के उपाय
10. मार्च माह में बादलों और ठण्ड वाले मौसम में तेला कीट अधिक नुकसान पहुंचाता है। जहां फसल में अधिक खाद, अच्छी तरह से सिंचित और मुलायम हो, वहां लम्बे समय तक इस कीट का प्रकोप बना रहता है। इस कीट के नियंत्रण के लिए (5 कीट प्रति बाली दिखाई देने पर ) 1.5 मिली मोनोक्रोटोफॉस 36 एसएल या 1.5 मिली डाइमेथोएट 30 ईसी प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
11. शुरू में पूरे खेत में उपचार की आवश्यकता नहीं होती। अधिक प्रकोप होने पर इस कीटनाशी का प्रयोग पूरे खेत में करें। किन्हीं दो छिड़काव के बीच 15-20 दिनों का अन्तर अवश्य रखें। माइट का प्रकोप असिंचित खेती में अधिक होता है। इसके प्रकोप से पत्तियां शिखर से पीली होने लगती हैं। माइट का प्रकोप निचली पत्तियों पर अधिक होता है। इसकी रोकथाम के लिए फॉस्फोमिडान 2 मिली प्रति प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये। और अधिक पढ़ें- गेहूं फसल में कीट नियंत्रण कैसे करें
12. मार्च में चूहों का प्रकोप गेहूं के खेत में होने पर जिंक फॉस्फाइड से बने चारे अथवा एल्यूमिनियम फॉस्फाइड की टिकिया का प्रयोग करें। और अधिक पढ़ें- चूहों से खेती को कैसे बचाएं?
मक्का की फसल
1. मक्का एक ग्रीष्मकालीन फसल है। इसकी बढ़वार की सभी अवस्थाओं में तापमान लगभग 18-30 डिग्री सेल्सियस के आसपास होना चाहिए। पकते समय गर्म तथा शुष्क वातावरण उपयुक्त होता है। पाला फसल की किसी भी अवस्था के लिये हानिकारक हो सकता है। असिंचित मक्के की खेती के लिए वार्षिक वर्षा 25 सेंमी से लेकर 50.0 सेंमी तक पर्याप्त होती है।
2. जायद में फरवरी के अन्त से लेकर मध्य मार्च तक बुआई कर लेनी चाहिए। ताकि पैदावार पर कोई कुप्रभाव न पड़ सके। मक्के के बीज को बुआई से पूर्व 1 किग्रा बीज को 2.5 ग्राम थीरम या कार्बेन्डाजिम से शोधित करना अति आवश्यक है। सामान्यतः मक्का के लिए 18-20 किग्रा प्रति हैक्टर तथा संकर मक्का की बीज दर 12-15 किग्रा प्रति हैक्टर प्रयोग करना चाहिए। मक्का की बुआई हल के पीछे 3 से 4 सेंमी की गहराई पर करें। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सेंमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंमी रखनी चाहिए।
3. जायद ऋतु में मक्का की उन प्रजातियों को लगाते हैं, जो शीघ्र पकने वाली होती हैं जैसे- पीएमएच – 7, पीएमएच – 8, पीएमएच – 10, कंचन, गौरव, सूर्या, तरुण, नवीन, अमर, आजाद, उत्तम, किसान, विजय व श्वेता और हरे भुट्टे लेने के लिए पीईएमएच – 2, पीईएमएच – 3 तथा बेबी कॉर्न के लिए संस्तुत प्रजातियां पूसा संकर – 1, पूसा संकर – 2, पूसा संकर-3, एचएम – 4, वीएल – 42, वीएल – 78 व प्रकाश आदि प्रमुख हैं। और अधिक पढ़ें- मक्का की उन्नत और हाइब्रिड किस्में
4. मक्का की फसल के लिए खाद का प्रयोग खेत की तैयारी के समय किया जाता है। उर्वरक में 120 किग्रा नाइट्रोजन, 60 किग्रा फॉस्फोरस तथा 60 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टर तत्व के रूप में प्रयोग करते हैं। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय प्रयोग करनी चाहिए। शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा को दो बार में खड़ी फसल में टॉप ड्रेसिंग के रूप में प्रयोग करें। आधी मात्रा बुआई के 25-30 दिनों बाद फूल आने के समय नाइट्रोजन की शेष मात्रा का प्रयोग करना चाहिए ।
5. मक्का की फसल में कम से कम दो निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। पहली निराई-गुड़ाई बुआई के 15-20 दिनों बाद तथा दूसरी बुआई के 30-35 दिनों बाद करें। खरपतवार नियंत्रण के लिए बुआई के 2-3 दिनों के अन्दर एट्राजीन 2.5 किग्रा या पेन्डीमेथिलिन 3.33 लीटर में से किसी एक खरपतवारनाशी का प्रयोग 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए। और अधिक पढ़ें- मक्का की खेती
बाजरा की फसल
1. बाजरे की संकर किस्में जैसे- टीजी – 37, आर – 8808, आर – 9251, आईसीजीएस – 1, आईसीजीएस – 44, डीएच – 86, एम – 52, पीबी – 172, पीबी – 180, जीएचबी – 526, जीएचबी – 558, जीएचबी – 183, प्रोएग्रो – 9555, प्रोएग्रो 9444, 86 एम 64, नंदी 72, नंदी 70 और नंदी 64 तथा बाजरे की संकुल प्रजातियां जैसे – पूसा कम्पोजिट – 383, राज – 171, आईआईसीएमवी – 221 व सीटीपी – 8203 प्रमुख हैं। मोटे तौर पर बाजरे की बुआई का सही समय मध्य फरवरी से लेकर जून – जुलाई तक है। जहां तक बीजों की मात्रा की बात है, तो 5-7 किग्रा बीज प्रति हैक्टर की दर से उपयुक्त रहता है। बुआई के समय पंक्तियों की दूरी 25 सेंमी होनी चाहिए व बीजों को 2 सेंमी से ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिए। और अधिक पढ़ें- बाजरा की उन्नत किस्में
2. उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर किया जाना चाहिए। सिंचित क्षेत्र के लिए 80 किग्रा नाइट्रोजन, 40-50 किग्रा फॉस्फोरस और 40 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टर एवं बारानी क्षेत्रों के लिए 60 किग्रा नाइट्रोजन, 30 किग्रा फॉस्फोरस तथा 30 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग किया जा सकता है। बुआई के समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा लगभग 3-4 सेंमी की गहराई पर डालनी चाहिए। नाइट्रोजन की बची हुई मात्रा अंकुरण से 4-5 सप्ताह बाद खेत में बिखेरकर मृदा में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए।
3. अच्छी पैदावार के लिए, समय से खरपतवार नियंत्रण अति आवश्यक है अन्यथा उपज में 50 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। बुआई से 30 दिनों तक, खेत को खरपतवारमुक्त रखना आवश्यक है। खरपतवार नियंत्रण के लिए, पहली निराई खुरपी द्वारा बुआई के 15 दिनों बाद करनी चाहिए। इसे 15 दिनों के अन्तराल पर दोहराना चाहिए। यदि फसल की बुआई मेड़ पर की गयी है तो खरपतवार नियंत्रण ट्रैक्टर और रिज मेकर द्वारा भी किया जा सकता है। खरपतवारनाशक एट्राजिन 1 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर की दर से बुआई के तुरन्त बाद अथवा 1-2 दिनों बाद करने से खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है। एट्राजीन 0.5 किग्रा सक्रिय तत्व को 800 लीटर पानी में घोलकर भी छिड़काव किया जा सकता है। और अधिक पढ़ें- बाजरे की खेती
मसूर, चना और मटर
1. मार्च में मसूर में फली बनने की अवस्था में हल्की सिंचाई करें। जब फलियां पक जायें (70-80 प्रतिशत फलियां सूखने जैसी अवस्था में आ जायें) तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। फसल को खेत में सुखाकर दाने अलग कर लेने चाहिए। पकने के बाद फसल को अधिक समय तक खेत में खड़ी न रहने दें, क्योंकि देर से कटाई करने पर फलियों से दाने छिटकने के कारण उपज की हानि होती है। और अधिक पढ़ें- मसूर की खेती
2. चने में फलीछेदक के नियंत्रण के लिए इंडोक्साकार्ब 0.02 प्रतिशत घोल (1 मिली प्रति लीटर पानी) या साइपरमैथरीन (25 ईसी) 125 मिली या कार्बोरिल (50 डब्ल्यूपी) 1000 मिली या मोनोक्रोटोफॉस (36 ईसी) 750 मिली या क्यूनालफॉस (25 ईसी) 1.5 लीटर, 600-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से पहला छिड़काव अवश्य करें। चने की फसल में फलीछेदक कीट के नियंत्रण के लिए एनपीवी (न्यूक्लियर पॉलीहेड्रोसिस वायरस) 250-350 शिशु समतुल्य 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें। चने में 5 प्रतिशत एनएसकेई या 3 प्रतिशत नीम तेल तथा आवश्यकतानुसार कीटनाशी का प्रयोग करें। और अधिक पढ़ें- चना के प्रमुख कीट की रोकथाम
3. सामान्य रूप से चने की फसल से पत्तियां झड़ने या गिरने लगती हैं और तने के साथ-साथ फलियां भी भूरे से हल्के पीले रंग में बदलने लगती हैं। दाने सख्त व इनके अन्दर से खड़खड़ की आवाज आने लगती है। इसके साथ ही दानों में नमी 15 प्रतिशत के लगभग होती है। उस समय फसल की कटाई हंसिया या शक्तिचालित यंत्रों से करते हैं। किसान भाइयों को यह भी ध्यान देना चाहिए कि फसल के अधिक पकने से फलियां टूटकर मृदा में गिर जाती हैं, जिससे उत्पादन पर असर पड़ता है।
काटी गयी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके खलिहान में लगभग 4-5 दिनों तक फसल को धूप में सुखाकर मड़ाई की जाती है। मड़ाई (थ्रेसिंग) हाथ से पीटकर बैलों द्वारा या थ्रेसर से कर सकते हैं या कम्बाइन द्वारा कटाई और मड़ाई का कार्य पूर्ण करें। दानों को तब तक सुखाया जाता है, जब तक कि उनमें 10-12 प्रतिशत नमी न रहे। देर से बोई गई सिंचित चने की फसल में यदि आवश्यकता हो, तो दूसरी सिंचाई बुआई के 100 दिनों बाद की जा सकती है। और अधिक पढ़ें- चने की खेती
4. काबुली चना के लिए मार्च माह बहुत संवेदनशील माना जाता है। फसल की परिपक्वता का अनुमान पत्तियों एवं दानों की स्थिति पर निर्भर करता है।
5. मार्च में हरी मटर कम होने के साथ-साथ दाने वाली मटर की फसल तैयार हो जाती है। मटर की फलियां सूखकर पीली पड़ जाएं, तो उनकी कटाई कर लेनी चाहिए। गहाई करने के बाद मटर के दानों को इतना सुखाएं कि सिर्फ 8 प्रतिशत नमी ही बचे । मटर की फसल से प्राय: 100-120 क्विंटल प्रति हैक्टर (हरी फलियां) और 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर दानों की पैदावार प्राप्त हो जाती है। समय से कटाई भी बीजों को बिखराव से बचाती है। जब मटर की फसल पूरी तरह से पक जाए उसे धूप में पर्याप्त सुखाने के बाद ही मड़ाई करें। और अधिक पढ़ें- मटर की खेती
6. मार्च में खेसारी (लेथाइरस सैटाइवस) की फसल हल्की पीली पड़ने पर कटाई करें। हंसिए से फसल की कटाई की जाती है। अधिक पक जाने पर फलियां चटकने लगती हैं। फसल की गहाई कर दानों को अच्छी तरह सुखाकर (8-10 प्रतिशत नमी) भंडारण करने पर घुन नहीं लगता है। इसके साथ ही भंडारगृह में घुन का उपचार अवश्य करें।
ग्रीष्मकालीन मूंग और उड़द
1. मूंग और उड़द की खेती उत्तर भारत की बलुई दोमट मृदा से लेकर मध्य भारत की लाल एवं काली मृदा में भली-भांति की जा सकती है। इसकी खेती के लिए अच्छे जल-निकास वाली बलुई दोमट मृदा उपयुक्त मानी जाती है। बुआई से पहले खेत में उचित नमी होना अति आवश्यक है। बारीक, भुरभुरे मृदा वाले व चूर्णिल खेत मूंग व उड़द की खेती के लिये अच्छा माना जाता है। खेत में 2-3 बार जुताई / हैरोइंग पर्याप्त होती है। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगायें, जिससे मृदा की नमी संरक्षित रहे। बुआई का उपयुक्त समय वायुमंडलीय तापमान, मृदा की नमी व फसल प्रणाली पर निर्भर करता है।
2. ग्रीष्मकालीन/बसन्त मूंग की बुआई का उपयुक्त समय 10 मार्च से 10 अप्रैल तक है। उड़द की बुआई का उपयुक्त समय 15 फरवरी से 15 मार्च तक है। सरसों, गेहूं और आलू की कटाई के उपरान्त 70 से 80 दिनों में पकने वाली प्रजातियों की बुआई की जा सकती है। किसी कारणवश खेत समय पर तैयार न हो, तो वहां पर मूंग एवं उड़द की 60-65 दिनों में पकने वाली प्रजातियों की बुआई 15 अप्रैल के बाद कर सकते हैं। यदि किसान भाई मूंग एवं उड़द की बुआई देर से करते हैं, तो
नमी की कमी फसल की धीमी वृद्धि, अगली फसल की बुआई में देरी एवं रोगों व कीटों का अधिक प्रकोप की समस्यायें आ सकती हैं। और अधिक पढ़ें- मूंग की खेती
3. मूंग की उन्नत प्रजातियां जैसे- पूसा 1431, पूसा 9531, पूसा रत्ना, पूसा 672, पूसा विशाल, कपीएम 409 – 4 (हीरा), वसुधा (आईपीएम 312-20), सूर्या (आईपीएम 512-1), कनिका (आईपीएम 302-2), वर्षा (आईपीएम 2 के 14-9), विराट (आईपीएम 205-7), शिखा (आईपीएम 410–3), आईपीएम 02-14, आईपीएम 02-3, सम्राट, मेहा, अरुण (केएम 2328), आरएमजी 62, आरएमजी 268 प्रमुख हैं। और अधिक पढ़ें- मूंग की उन्नत किस्में
4. उड़द की उन्नत प्रजातियां जैसे- पीडीयू 1 ( बसंत बहार), केयूजी 479, मुलुंद्र उड़द 2 (केपीयू 405), कोटा उड़द 4 ( केपीयू 12 – 1735 ), कोटा उड़द 3 (केपीयू 524-65), केयूजी 479, कोटा उड़द 4 (केपीयू 12-1735), इंदिरा उड़द प्रथम, हरियाणा उड़द – 1 (यूएच उड़द-04-06) व सुजाता प्रमुख हैं। और अधिक पढ़ें- उड़द की उन्नत किस्में
5. बीज दर का निर्धारण मुख्यतः बीज के आकार, नमी की स्थिति, बुआई का समय, पौधों की पैदावार तथा उत्पादन तकनीक पर निर्भर होता है। ग्रीष्मकालीन मूंग और उड़द की बुआई के लिये 20-25 किग्रा प्रति हैक्टर बीज पर्याप्त होता है। ग्रीष्मकालीन मूंग एवं उड़द की फसल में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंमी होनी चाहिए। बीज की बुआई कूंड़ों में या सीडड्रिल से पंक्तियों में की जानी चाहिए तथा बीजों को 4-5 सेंमी गहराई में बोना चाहिए।
6. बीजों के अच्छे अंकुरण तथा स्वस्थ पौधों की पर्याप्त संख्या हेतु कवकनाशी से बीज उपचार के लिये प्रति किग्रा बीज का 2.5 ग्राम थीरम तथा 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम से उपचार करने के बाद राइजोबियम कल्चर से भी बीजोपचार करना चाहिए। बुआई के समय बीज डालने से पहले सल्फर धूल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। इसी प्रकार फॉस्फेट घुलनशील बैक्टीरिया (पीएसबी) से बीज का शोधन करना भी लाभदायक होता है।
7. उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर किया जाना चाहिए। मूंग की फसल के लिये 10-15 किग्रा नाइट्रोजन, 45-50 किग्रा फॉस्फोरस, 50 किग्रा पोटाश एवं 20-25 किग्रा सल्फर प्रति हैक्टर की दर से बुआई के समय कुंड़ों में देना चाहिए। कुछ क्षेत्रों में जस्ता या जिंक की कमी की अवस्था में 20 किग्रा प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए। उड़द की फसल के लिये नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं गंधक क्रमशः 15, 45 एवं 20 किग्रा प्रति हैक्टर की दर से बुआई के समय कूंड़ों में देना चाहिए। नवीनतम प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का पर्णीय छिड़काव यदि फली बनने की अवस्था में किया जाये, तो उपज में निश्चित रूप से वृद्धि होती है।
8. मार्च में बुआई के प्रारंभिक 4-5 सप्ताह तक खरपतवार की समस्या अधिक रहती है। चौड़ी पत्ती तथा घास वाले खरपतवार को रासायनिक विधि से नष्ट करने के लिये एलाक्लोर की 4 लीटर या फ्लूक्लोरालिन (45 ईसी) नामक रसायन की 2.22 लीटर मात्रा को 800 लीटर पानी में मिलाकर बुआई के तुरन्त बाद या अंकुरण से पहले छिड़काव कर देना चाहिए। और अधिक पढ़ें- उड़द की खेती
राई – सरसों, अलसी और सूरजमुखी
1. जब सरसों के पत्ते झड़ने लगें, फलियां पीली पड़ने लगे और 75 प्रतिशत फलियां सुनहरे रंग की हो जायें, तो मार्च में फसल की कटाई कर लें। अन्यथा कटाई में देरी होने से दाने खेत में झड़ने की आशंका रहती है। फसल की कटाई के बाद छोटे-छोटे बंडलों में बांधकर खेत में छोड़ देते हैं। पौधे पूर्ण रूप से सूख जाने पर बैलों या ट्रैक्टर से मड़ाई करके दाने अलग कर लेने चाहिए।
2. कटाई की हुई सरसों को खलिहान में अधिक समय तक नहीं रखें, अन्यथा पेन्टेड बग कीट दानों का तेल चूस लेगा, जिससे हानि होने की आशंका रहेगी। यदि किन्हीं कारणों से खलिहान में काटी गई फसल रखनी जरूरी हो, तो खलिहान की मृदा में मिथाइल पेराथियान 2 प्रतिशत पाउडर का छिड़काव पहले ही कर दें। दानों को अच्छी प्रकार से सुखाकर ही भंडारण करना चाहिए।
3. उन्नत किस्म के बीजों व उचित सस्य क्रियाएं तथा पौध संरक्षण अपनाने पर तोरिया की उपज 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर तथा राया व सरसों की उपज 22-25 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त की जा सकती है। और अधिक पढ़ें- सरसों की खेती
4. अलसी की फसल लगभग 120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी कटाई उस समय पर करें, जब पौधे सुनहरे पीले रंग के होने लगते हैं और कैप्सूल भूरे रंग के साथ सूखने और खुलने लगते हैं। पौधों की कटाई के बाद इन्हें किसी एक स्थान पर रखकर इनसे बीजों को झाड़कर अलग कर लें।
5. बीजों को अलग करने के बाद इसके पौधों से रेशे निकाले जाते हैं। इसके लिए पौधे की शाखाओं को हटाकर मुख्य तने को अलग कर लें। इन अलग किये हुए सभी भागों के अलग-अलग बंडल बनाकर तैयार कर लें। तैयार किये गए बंडलों को दो से तीन दिनों तक पानी में सड़ाकर उसके बाद पानी से निकालकर अच्छी तरह से साफ पानी से धोया जाता है व पानी से धोने के बाद इन्हें सुखा दिया जाता है। बंडलों के सूखने के बाद इनकी मुगरी से पिटाई करने के बाद इनसे रेशे निकाले जाते हैं। और अधिक पढ़ें- अलसी की खेती
6. सूरजमुखी के फूल, सूरज की दिशा में मुड़ जाने के कारण इसे सूरजमुखी कहा जाता है। यह एक महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है। बेहतर मुनाफा देने वाली इस फसल को नगदी खेती के रूप में भी जाना जाता है। मार्च का महिना इसकी खेती के लिए उपयुक्त है|
7. सूरजमुखी की उन्नत संकर किस्में जैसे – बीएसएच – 1, एलएसएच – 1, एलएसएच – 3, केवीएसएच – 1, केवीएसएच – 41, केवीएसएच – 42, केवीएसएच – 44, केवीएसएच -53, केवीएसएच – 78, डीआरएसएच – 1, एमएसएफएच – 17, मारूति, पीएसएफएच – 118, पीपीएसएफएच – 569, सूर्यमुखी, एसएच – 332, पीकवीएसएच – 27, डीएसएच – 1, टीसीएसएच – 1, एनडीएसएच – 1, एलएसएफएच – 35, पीएसएफएच – 118, एचएसएफएच – 848, डीआरएसएच – 1, तुंगा तथा सूरजमुखी की उन्नत संकुल किस्में जैसे – ईसी – 68415, सह – 1, सह – 4, सीओ – 2, सीओ – 3, सीओ – 5, एसएस – 56, गौसुफ – 15, पीकेवीएसएफ – 9, रास – 11 आदि हैं।
8. सूरजमुखी की बुआई 15 मार्च तक पूरी कर लें। संकर प्रजाति का बीज 5-6 किग्रा प्रति हैक्टर तथा संकुल प्रजाति का स्वस्थ बीज 12-15 किग्रा प्रति हैक्टर पर्याप्त होता है। बुआई से पहले कार्बेन्डाजिम की 2 ग्राम अथवा थीरम की 2.5 ग्राम मात्रा से बीज उपचार अवश्य करें।
9. सामान्यत: सूरजमुखी की फसल में उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। मृदा परीक्षण न होने की दशा में 40 किग्रा नाइट्रोजन, 60 किग्रा फॉस्फोरस, 40 किग्रा पोटाश एवं 200 किग्रा जिप्सम प्रति हैक्टर की दर से बुआई के समय कूंड़ों में प्रयोग करें। सूरजमुखी की बुआई के 15-20 दिनों बाद खेत से फालतू पौधों को निकालकर पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंमी कर लें और उसके पश्चात सिंचाई करें | सूरजमुखी व उड़द की अन्तर्वर्ती खेती के लिए इसकी दो पंक्तियों के बीच उड़द की दो से तीन पंक्तियां लेना उत्तम रहता है। और अधिक पढ़ें-
10. इसकी फसल में यदि कटुआ सूंडी या हरे रंग की सूंडी का आक्रमण हो, तो 50 मिली सायपरमेथ्रिन 25 ईसी या 150 मिली डैकामेथ्रिन 2.8 ईसी या 80 मिली फैनवालरेट 20 ईसी को 100-150 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। और अधिक पढ़ें- सूरजमुखी की खेती
मूंगफली की फसल
1. उष्ण कटिबंधीय पौधा होने के कारण मूंगफली को लम्बे समय तथा गर्म मौसम की आवश्यकता पड़ती है। अंकुरण और प्रारंभिक वृद्धि के लिए 14-15 डिग्री सेल्सियस तापमान का होना आवश्यक है। मूंगफली की खेती के लिए अच्छी जलधारण क्षमता वाली बलुई, बलुई दोमट, दोमट और काली मृदा अधिक उपयुक्त होती है परन्तु बलुई दोमट मृदा, जिसका पी-एच मान 5.5-7.0 के मध्य हो, मूंगफली के लिए सबसे उत्तम होती है।
2. इसकी बुआई पंक्तियों में करनी चाहिए, पंक्ति से पंक्ति और पौधे से पौधे की दूरी 25-30 X 8-10 सेंमी रखनी चाहिए। जायद की फसल में 95-100 किग्रा प्रति हैक्टर बीज बुआई में लगता है, बोने से पहले बीज को 2 ग्राम थीरम और 1 ग्राम 50 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के मिश्रण को 2 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से शोधित करना चाहिए। इस शोधन के पांच-छह घण्टे बाद बोने से पहले बीज को मूंगफली के राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर लेना चाहिए। और अधिक पढ़ें- मूंगफली की खेती
3. मूंगफली की उन्नत प्रजातियां जैसे- टीजी 37 ए, आर – 8808, एसबी – 11, आईसीजीएस – 1, आईसीजीएस – 44, प्रताप राज मूंगफली, आईसीजीएस – 11, आईसीजीएस – 37, जवाहर मूंगफली 23 (जेजीएन – 23 ), जेएल – 501, विकास, डीएच – 86, आर – 9251, टी – 64 प्रमुख हैं। इसकी खेती मार्च में आलू, सब्जी मटर, एवं राई की कटाई के बाद खाली भूमि में की जा सकती है। और अधिक पढ़ें- मूंगफली की उन्नत किस्में
गन्ना की फसल
1. पश्चिमी तथा मध्य क्षेत्रों के लिए गन्ने की शीघ्र पकने वाली उन्नत प्रजातियां जैसे – सीओ – 98014 ( करन – 1 ), सीओ – 0118 (करन 2), सीओ – 0238 (करन – 4), सीओ – 0214 (करन – 5 ), सीओ – 0238 (करन – 6 ), सीओ – 0237 (करन – 8), सीओ – 05011 (करन – 9), सीओएच – 92, सीओएच – 56, सीओजे – 64, पन्त – 84211, कोशा – 92254, कोशा – 8436, कोशा – 684 एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए कोशा – 8436 व कोशा – 687 प्रमुख हैं|
2. पश्चिमी और मध्य उत्तर प्रदेश के लिए मध्य एवं देर से पकने वाली गन्ने की उन्नत प्रजातियां जैसे- सीओएच – 110, सीओएस – 767, सीओएच – 1148, सीओएच – 199, सीओएच – 99, सीओएस – 8436, सीओ – 7717, कोशा – 269, कोशा – 8118, कोशा – 7918, कोशा – 802 व कोशा – 767 तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए यूपी – 12, यूपी – 15, कोशा – 8407, कोशा – 767 एवं कोशा – 7198 प्रमुख हैं। और अधिक पढ़ें- गन्ने की क्षेत्रवार किस्में
3. गन्ने की बुआई 15-20 मार्च तक पूरी कर लें। तीन आंख वाले गन्ने के टुकड़ों को 5 मिनट तक 250 ग्राम एरिटॉन के 100 लीटर पानी के घोल में उपचारित करें। गन्ने की बुआई 75-90 सेंमी दूरी पर बनी कूंड़ों में 10 सेंमी की गहराई पर करें। गन्ने की बुआई के लिये एक आंख वाले टुकड़े 1,33,750, दो आंख वाले टुकड़े 60,000-65,000 हजार और तीन आंख वाले टुकड़े 40,000-45,000 हजार या 60-70 क्विंटल प्रति हैक्टर बीज के लिए पर्याप्त होते हैं।
4. बसंतकालीन गन्ने के साथ अन्तर्वर्ती खेती करना अत्यन्त लाभदायक रहता है। 75 सेंमी की दूरी पर बोई गयी गन्ने की दो पंक्तियों के बीच की दूरी में उड़द की दो पंक्ति आसानी से ली जा सकती हैं। ऐसा करने पर उड़द के लिए अतिरिक्त उर्वरक की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
5. गन्ने की फसल में मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। यदि मृदा परीक्षण न हुआ हो तो बुआई के समय प्रति हैक्टर 60-75 किग्रा नाइट्रोजन, 80 किग्रा फॉस्फोरस व 60 किग्रा पोटाश का प्रयोग करें। गन्ने की पेड़ी की फसल में प्रति हैक्टर 90 किग्रा नाइट्रोजन गन्ना काटने के बाद तथा इतनी ही तीसरी मात्रा सिंचाई के समय प्रयोग करें। गन्ने की पेड़ी से अच्छी फसल लेने के लिए खरपतवार नियंत्रण हेतु, उगने से पहले एट्राजिन 2 किग्रा सक्रिय तत्व के रूप में प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें। पेड़ी की फसल में 12-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई अवश्य करते रहें।
6. गन्ने की फसल उगते समय दीमक पोरी की आंखों को नष्ट कर देती है। कनसुए के आक्रमण से पौधे सूखने लग जाते हैं। अत: इन दोनों कीटों से फसल को बचाने के लिए बुआई के समय 2.5 लीटर क्लोरपायरीफॉस 20 ईसी या 2.5 लीटर गामा बीएचसी 20 ईसी या 600 मिली फिप्रोलिन 5 एससी को 600-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ कूंड़ों में बीज के ऊपर फव्वारे से छिड़काव करें। 150 मिली इमिडाक्लोरोप्रीड 200 एमएल को 250-300 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव किया जा सकता है। और अधिक पढ़ें- गन्ना की खेती
औषधीय फसलें
मार्च में मेंथा में 10-12 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहें तथा फसल में 40-50 किग्रा नाइट्रोजन की तीसरी व अंतिम टॉप ड्रेसिंग अवश्य करें। मेंथा फसल की कटाई प्रायः दो बार की जाती है। पहली कटाई 100-120 दिनों पर, जब पौधों में कलियां आने लगें, तब की जाती है। दूसरी कटाई, पहली कटाई के लगभग 70-80 दिनों पर करें।
पौधों की कटाई मृदा की सतह से 4-5 सेंमी ऊंचाई पर करनी चाहिए। कटाई के बाद पौधों को 2-3 घन्टे तक खुली धूप में छोड़ दें। इसके बाद कटी फसल को छाया में हल्का सुखाकर जल्दी आसवन विधि द्वारा यंत्र से तेल निकाल लें। और अधिक पढ़ें- पुदीना (मेंथा) की खेती
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