हमारे देश में मूली की खेती (Radish farming) प्रायः सभी क्षेत्रों में की जाती है| सामान्यतः सब्जी उत्पादक कृषक सब्जियों की अन्य फसलों की मेढ़ों पर या छोटे-छोटे क्षेत्रों में मूली लगाकर आय अर्जित करते है| शीत ऋतु में भी कृषक इसकी फसल को 30 से 60 दिन में तैयार कर पुनः बोवनी कर दो बार उपज प्राप्त कर लेते हैं| यह फसल कम खर्च में अधिक उत्पादन देने वाली सलाद के लिए उत्तम हैं| जड़ वाली सब्जियों में इनका प्रमुख स्थान है| इनकी खेती सम्पूर्ण भारत वर्ष में की जाती है|
महत्व- मूली का उपयोग आमतौर पर सलाद एवं पकी हुई सब्जी के रूप में किया जाता है| इसमें तीखा स्वाद होता है, इसका उपयोग नाश्ते में दही के साथ पराठे के रूप में भी किया जाता है| इसकी पत्तियों की भी सब्जी बनाई जाती है| मूली विटामिन सी एवं खनीज तत्व का अच्छा स्त्रोत है|
मूली लिवर एवं पीलिया मरीजों के लिए भी अनुसंशित है| यदि उत्पादक मूली की खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो इसकी खेती से अधिक उपज के साथ-साथ अच्छा लाभ प्राप्त किया जा सकता है| इस लेख में मूली की उन्नत खेती कैसे करें का उल्लेख किया गया है|
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मूली की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
मूली अधिक तापमान के प्रति सहनशील है| किन्तु सुगंध विन्यास और आकार के लिए ठंडी जलवायु कि आवश्यकता होती है| अधिक तापमान के कारण जड़ें कठोर और चरपरी हो जाती है| मूली कि सफल खेती के लिए 10 से 17 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम माना गया है|
मूली की खेती के लिए भूमि का चयन
मूली के उत्तम उत्पादन के लिए उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट और दोमट भूमि अधिक उपयुक्त रहती है| मटियार भूमि मूली कि फसल उगाने के लिए अनुपयुक्त रहती है, क्योंकि इस में भूमि ऐसी जड़ों का समुचित विकास नहीं हो पाता है|
मूली की खेती के लिए भूमि कि तैयारी
इसकी खेती के लिए गहरी जुताई कि आवश्यकता होती है, क्योंकि इसकी जड़ें भूमि में गहरी जाती है| गहरी जुताई के लिए मिटटी पलटने वाले हल से जुताई करें| इसके बाद दो बार कल्टीवेटर या देशी हल चलाएँ जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं, ताकि भूमि समतल और भुरभुरी हो जाये|
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मूली की खेती के लिए किस्में
हमारे देश के विभिन्न क्षत्रों में मूली की दो प्रकार की किस्मे उगाई जाती है, एशियन और यूरोपियन जो इस प्रकार है, जैसे-
एशियन किस्में- पूसा चेतकी, जापानी सफ़ेद, पूसा हिमानी, पूसा रेशमी, जौनपुरी मूली, हिसार मूली न- 1, कल्याणपुर- 1, पूसा देशी, पंजाब पसंद, चाइनीज रोज, सकुरा जमा, व्हाईट लौंग, के एन- 1, पंजाब अगेती और पंजाब सफेद आदि प्रमुख है|
यूरोपियन किस्में- व्हाईट आइसीकिल, रैपिड रेड व्हाईट टिपड, स्कारलेटग्लोब और फ्रेंच ब्रेकफास्ट आदि प्रमुख है| मूली की किस्मों की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- मूली की उन्नत किस्में, जानिए उनकी विशेषताएं और पैदावार
मूली की खेती के लिए बीज की मात्रा
मूली के बीज की मात्रा इसकी किस्म, बोने की विधि और बीज के आकार पर निर्भर करती है| 5 से 10 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर आवयक होता है|
मूली की खेती के लिए बुवाई का समय
मूली साल भर उगाई जा सकती है, फिर भी व्यावसायिक स्तर पर इसे सितम्बर से जनवरी तक बोया जाता है|
मूली की खेती के लिए बुवाई की विधि
मूली की बुवाई दो प्रकार की प्रचलित विधियों से अधिक की जाती है, जैसे-
कतारों में- अच्छी प्रकार तैयार क्यारियों में लगभग 30 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारें बना ली जाती है और इन कतारों में बीज को लगभग 3 से 4 सेंटीमीटर गहराई में बो देते हैं| बीज उग जाने पर जब पौधों में दो पत्तियॉ आ जाती है तब 8 से 10 सेंटीमीटर की दूरी छोड़कर अन्य पौधों को निकाल देते है|
मेड़ों पर- इस विधि में क्यारियों में 30 सेंटीमीटर की दूरी पर 15 से 20 सेंटीमीटर ऊँची मेड़ें बना ली जाती है| इन मेड़ों पर बीज को 4 सेंटीमीटर की गहराई पर बो दिए जाते है| बीज उग आने पर जब पौधों में दो पत्तियॉ आ जाए तब पौधों को 8 से 10 सेंटीमीटर की दूरी छोड़कर बाकी पौधों को निकाल दिया जाता है| यह विधि अच्छी रहती है| क्योंकि इस विधि से बोने पर इसकी जड़ की बढ़वार अच्छी होती हैं और मूली मुलायम रहती है|
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मूली की खेती के लिए खाद और उर्वरक
200 से 250 किंवटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट, 100 किलोग्राम नाइटोजन, 50 किलोग्राम स्फुर तथा 100 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर आवयक है| गोबर की खाद, स्फुर तथा पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी खेत की तैयारी के समय तथा नाइटोजन की शेष मात्रा दो भागों में बोने के 15 और 30 दिन बाद देना चाहिए|
मूली की फसल में निदाई-गुड़ाई
यदि खेत में खरपतवार उग आये हों तो आवयकतानुसार उन्हें निकालते रहना चाहिए| रासायनिक खरपतवारनाशी जैसे पेन्डिमीथेलिन 30 ई सी 3.0 किलोग्राम 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 48 घंटे के अन्दर प्रयोग करने पर प्रारम्भ के 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नहीं उगते हैं| निंदाई-गुड़ाई 15 से 20 दिन बाद करना चाहिए| मूली की खेती में उसके बाद मिटटी चढ़ा देनी चाहिए| मूली की जड़े मेड़ से उपर दिखाई दे रही हों तो उन्हें मिटटी से ढक दें अन्यथा सूर्य के प्रकाश के सम्पर्क से वे हरी हो जाती हैं|
मूली फसल की सिंचाई और जल निकास
बोवाई के समय यदि भूमि में नमी की कमी रह गई हो तो बोवाई के तुरंत बाद एक हल्की सी सिंचाई कर दें| वैसे वर्षा ऋतु की फसल में सिंचाई की आवयकता नहीं पड़ती हैं| परन्तु इस समय जल निकास पर ध्यान देना आवयक हैं| गर्मी की फसल में 4 से 5 दिन के अन्तराल पर सिंचाई की आवयकता पड़ती है| शरदकालीन फसल में 10 से 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करते हैं| मेड़ों पर सिंचाई का पानी आधी मेड़ तक ही सिमित रखना चाहिए ताकि पूरी मेड़ नमीयुक्त व भुरभुरी बनी रहे|
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मूली फसल के कीट और रोग की रोकथाम
माहू- हरे सफेद छोटे-छोटे कीट होते है| जो पत्तियों का रस चूसते हैं| इस कीट के लगने से पत्तिया पीली पड़ जाती है तथा फसल का उत्पादन काफी घट जाता है| इसके प्रकोप से फसल विपणन योग्य नहीं रह जाती है|
रोकथाम- इस कीट के नियंत्रण हेतू मैलाथियान 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से लाभ होता है| इसके अलावा 4 प्रतिशत नीम गिरी के घोल में किसी चिपकने वाला पदार्थ जैसे चिपकों या सेण्ड़ोविट के साथ छिड़काव उपयोगी रहता है|
रोयदार सूड़ी- कीड़े की सूड़ी भूरे रंग का रोयेदार होती है और ज्यादा संख्या में एक जगह पत्तियों को खाती हैं|
रोकथाम- इसके नियंत्रण के लिए मैलाथियान 10 प्रतित चूर्ण 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सुबह के समय भुरकाव करना चाहिए|
अल्टरनेरिया झुलसा- यह रोग जनवरी से मार्च के दौरान बीज वाली फसल पर ज्यादा लगता है| पत्तियों पर छोटे घेरेदार गहरे काले धब्बे बनते हैं| पुष्पम व फल पर अण्डाकार से लंबे धब्बे दिखाई देते हैं| प्रायः यही रोग मूली की फसल पर लगता हैं|
रोकथाम- इसके नियंत्रण हेतू कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें, नीचे की प्रभावित पत्तियों को तोड़कर जला दें| पत्ती तोड़ने के बाद मैन्कोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें|
मूली फसल की खुदाई
जब जड़े पूर्ण विकसित हो जाये तब कड़ी होने से पहले मुलायम अवस्था में ही फसल की खुदाई कर लेनी चाहिए|
मूली की खेती से पैदावार
मूली की पैदावार इसकी किस्में, खाद व उर्वरक तथा अंतः सस्य क्रियाओं पर निर्भर करती है| लेकिन उपरोक्त वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर इसकी औसत उपज 200 से 350 क्विटल प्रति हेक्टेयर के करीब होती है|
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