वर्षा आधारित कृषि क्षेत्र देश के कुल खेती क्षेत्रफल के लगभग 60 से 65 प्रतिशत भू-भाग में फैला हुआ है| ये क्षेत्र महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि राज्यों के साथ देश के बाकि राज्यों तक फैला हुआ है| प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से इन क्षेत्रों में, देश में पाई जाने वाली सभी मिट्टियाँ (लाल, काली, जलोढ़, नवीन जलोढ़, तलछटी, मिश्रित मिट्टि आदि) विद्यमान हैं| एक केंद्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार वे क्षेत्र जहां 30 प्रतिशत से कम सिंचित क्षेत्रफल है, वर्षा आधारित खेती क्षेत्र कहलाते हैं|
इन क्षेत्रों में खेती उत्पादन पूर्ण रूप से मानसूनी तथा गैर मानसूनी वर्षा पर निर्भर करती है| अक्सर ये क्षेत्र सूखे से ग्रसित होते हैं और प्रत्येक तीन वर्षों में अक्सर एक बार सूखा पड़ता है| पश्चिमी व् पूर्वी राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्य इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं|वर्तमान में ये क्षेत्र देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं|
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इन क्षेत्रों के अंतर्गत लगभग 48 प्रतिशत खाद्यान्न फसल क्षेत्र तथा लगभग 68 प्रतिशत अखाद्यान्न फसल क्षेत्र आते हैं| इन क्षेत्रों में ज्वार, बाजरा, मक्का, दलहन, मूंगफली, कपास व् सोयाबीन की कुल बिजाई क्षेत्रफल का क्रमशः 92, 94, 80, 83, 73 व् 99 प्रतिशत हिस्सा बोया जाता है| यह सर्वविदित है, कि खेती की समृद्धि मिटटी की गुणवत्ता और जल की उपलब्धता व इन दोनों के विवेकपूर्ण उपयोग पर निर्भर करती है| इसके अलावा एकीकृत फार्म प्रबंधन के सभी महत्वपूर्ण घटकों जैसे- काश्त, पशु, चारा, मछली, बागवानी, खेती-वानिकी, रोग तथा कीट, कृषि यांत्रिकीकरण, विपणन तंत्र प्रबंधन आदि|
वर्तमान में वर्षा आधारित क्षेत्र विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रसित हैं| इनमें आमतौर पर नैसर्गिक या प्राकृतिक समस्याओं, ढलान वाली भूमि सतह, मिटटी में फसल पोषक तत्वों की कमी, मिटटी जैविक कार्बन अंश का कम होना, कमजोर मिटटी संरचना, अधिक तापमान आदि का उल्लेख किया जा सकता है| इनके अतिरिक्त सामाजिक समस्याएं (गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्या, जोत विखंडीकरण आदि), आर्थिक समस्याएं (कम निवेश क्षमता, खेती ऋण की अनुपलब्धता, समुचित बीमाकरण जैसी सुविधा की कमी, खेती विपणन आदि) तथा अन्य समस्याएं (अपर्याप्त भंडारण सुविधा, कृषि आगतों की उपलब्धता में कमी, परिवहन सुविधा की कमी, मंडी की अनुपलब्धता)
इन क्षेत्रों की कृषि को और अधिक विकट बना देती है| उपरोक्त समस्याओं के अतिरिक्त कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई तकनीकियों का उचित समय पर किसानों तक न पहुंच पाना भी इन क्षेत्रों में खेती उत्पादन की गिरावट का प्रमुख कारण है| यद्यपि इन समस्याओं के समाधान की दिशा में सरकार व् गैर सरकारी संगठनों द्वारा कई कारगर प्रयास किए जा रहे हैं| यही कारण है, कि इन क्षेत्रों के किसानों की कृषि आय को दोगुना करने के लिए अधिक प्रयासों और योजनाओं की आवश्यकता है|
वर्षा आधारित खेती में समस्याएँ और तकनीक
वर्षा आधारित कृषि क्षेत्रों की प्रमुख समस्याएँ व् उपयुक्त तकनीक, जैसे-
समस्याएँ-
1. वर्षा आधारित क्षेत्रों में असंतुलित पोषक तत्व प्रबंध|
2. असंतुलित मात्रा में रासायनिक खादों का उपयोग|
3. मिटटी की निचली सतह पर बनी कठोरता या कठोर परत|
4. रेतीली मिटटी में अधिक सतह जल भेदता|
5. वर्षा आधारित क्षेत्रों में काली मिटटी में कम सतह जल भेदता|
6. मिटटी सतह पर वर्षा उपरांत सतह पर कठोर परत का बनना|
7. वर्षा आधारित क्षेत्रों में तीव्र जल बहाव और मिटटी क्षरण|
8. वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक फसल अवशेषों की कमी|
9. वर्षा जल संग्रहण का उचित प्रबंधन न होना|
10. संग्रहित जल का विवेकपूर्ण एवं तार्किक रूप से प्रबंधन न होना|
11. वर्षा आधारित क्षेत्रों में अंत:फसलीकरण का अभाव|
12. वर्षा आधारित क्षेत्रों में वर्ष भर (हरे चारे की अनुपलब्धता)|
13. कृषि वानिकी आधारित कृषि प्रणालियों का अभाव|
14. क्षेत्र विशेष के लिए विकसित की गई खेत प्रणालियों का विस्तार न होना|
15. वर्षा आधारित क्षेत्रों में उपयुक्त कृषि यंत्रों की अनुपलब्धता की कमी|
16. वर्षा आधारित क्षेत्रों में कृषि मौसम परामर्श सेवाओं का अभाव|
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कारण-
1. अन्य उपयोग (ईंधन, घर लेपना आदि) के कारण लगातार जैविक खादों (गोबर की खाद) की उपलब्धता में गिरावट|
2. मिटटी परीक्षण सुविधाओं की कमी और समय पर सभी आवश्यक खादों की अनुपलब्धता|
3. कुछ प्रकार की मिटटी (लाल) में नैसर्गिक रूप से कठोर परत का विद्यमान होना और साल दर साल एक ही प्रकार के कृषि यंत्रों द्वारा निश्चित गहराई पर जुताई क्रियाएं करना|
4. भुरभुरी मिटटी संरचना और अधिक मात्रा में वृहद मिटटी छिद्रता का होना|
5. मिटटी में चिकने कणों (क्ले) की अधिकता और कम मात्रा में वृहद मिटटी छिद्रता|
6. कमजोर मिटटी संरचना के साथ मिटटी सतह पर किसी भी प्रकार के जैविक आवरण का न होना|
7. नैसर्गिक रूप से मिटटी सतह पर अधिक ढलान होना|
8. कई प्रकार की मिटटी में सतह जल भेदता का कम होना|
9. वर्षा आधारित क्षेत्रों में अधिक तीव्रता के साथ वर्षा होना|
10. मिटटी सतह पर किसी भी प्रकार का जैविक आवरण न होना|
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11. ज्यादातर क्षेत्रों में एकल फसल प्रणाली का होना|
12. जैविक फसल अवशेषों को मिटटी में न मिलाकर अन्य उपयोगों में लाना|
13. वर्षा आधारित क्षेत्रों में छोटी खेत जोत आकार होना|
14. वर्षा आधारित क्षेत्रों में कई खेत जोतों पर प्राकृतिक ढलान न होना|
15. वर्षा आधारित क्षेत्रों में लागत की समस्या|
16. किसान द्वारा ज्ञान के अभाव में लंबी अवधि की फसलें लगाने से अधिक जल की आवश्यकता|
17. किसानों द्वारा उदासीनता और अधिक मेहनत न करने की वजह से परंपरागत रूप से एक ही फसल बोना|
18. किसानों द्वारा हरा चारा उत्पादन पर विशेष ध्यान न देना एवं सूखे चारे पर ही निर्भर रहना|
19. तकनीकियों का किसानों तक सुचारू रूप व समयबद्ध तरीके से न पहुंचना|
20. विस्तार तंत्र की कमी एवं किसान ज्ञान में कमी तथा शुरुआती लागत की समस्या और कृषि यंत्रों की लागत की समस्या|
21. किसानों का कम शिक्षित होना और अभी भी आम किसानों की पहुंच से दूर होना|
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उपयुक्त तकनीक या सुझाव-
1. वर्षा आधारित क्षेत्रों में कुल फसल पोषक तत्वों की मांग का 50 प्रतिशत भाग जैविक खादों द्वारा पूरा करना|
2. मिटटी स्वास्थ्य परीक्षण के आधार पर क्षेत्र, फसल और मिटटी विशेष के अनुसार रासायनिक खादों का प्रयोग करना|
3. वर्षा आधारित क्षेत्रों में प्रत्येक तीन से पांच साल के अंतराल पर एक बार गहरी जुताई करना|
4. वर्षा आधारित क्षेत्रों में बिजाई पूर्व मिटटी की सतह पर वजनी रोलर 500 से 2000 किलोग्राम को कई बार घुमाना|
5. चिकनी मिट्टी या तालाब की गाद को 2 प्रतिशत की दर से मिटटी में मिलाना व रेगिस्तानी तकनीकी 2 प्रतिशत चिकनी मिट्टी मिलाने के बाद सतह पर रोलर घुमाना|
6. वर्षा आधारित क्षेत्रों में 2 से 5 टन प्रति हैक्टर जिप्सम के साथ 2 से 10 टन प्रति हैक्टर की दर से गोबर की खाद का प्रयोग करना|
7. हल्के खेती यंत्रों द्वारा सतह पपड़ी को तोड़ना और बीज कतारों में 1 से 2 टन प्रति हैक्टर गोबर की खाद डालना या बीज कतारों पर फसलावशेषों जैसे- चावल, गेहूं का भूसा, नारियल की जटा, मूंगफली का छिलका आदि डालना|
8. वर्षा आधारित क्षेत्रों में काली मृदाओं में जिप्सम का प्रयोग करना एवं गहरी जुताई करना और ढलानों के विपरीत जुताई व बिजाई करना
9. वर्षा आधारित क्षेत्रों में मिटटी के अनुसार बिजाई सतह विन्यास में बदलाव करना|
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10. वर्षा आधारित क्षेत्रों में 1.5 प्रतिशत सतह ढलानों वाली काली मृदाओं में सम्मोच्च विधि, टिला और कुंड, उत्थित क्यारी, उपखंड क्यारी, संरक्षित नाली, घांसी क्यारी आदि सतह विन्यास में बिजाई करना|
11. फसलों की कटाई मिटटी सतह से 10 से 60 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर करना एवं मिटटी सतह को ढकने वाली फसलें जैसे- कुल्थी, मूंगबीन, सोयाबीन, उड़द, लोबिया आदि लगाना|
12. वर्षा आधारित क्षेत्रों में हरी खादों का प्रयोग करना एवं खेती की सीमा पर जैवभार पैदा करने वाले वृक्षों को लगाकर इसकी टहनियों की कतरने और पत्तियों को मिटटी सतह पर डालना|
13. बीज बनने के पूर्व खरपतवारों के जैवभार को मिटटी सतह पर डालना बड़ी खेत जोतों के लिए खेत तालाब तकनीक और सामूहिक भूमि पर सामुदायिक तालाब तकनीक अपनाना|
14. वर्षा आधारित क्षेत्रों में क्षेत्र विशेष के अनुसार कम अवधि एवं अधिक लाभदायक फसलों (सब्जियां, औषधियां, घास आदि) की प्रजातियां लगाना| क्षेत्र विशेष में विद्यमान कृषि विश्वविद्यालय से समय-समय पर इनकी जानकारी लेना|
15. विभिन्न फसल प्रणालियों (कपास आधारित, चावल आधारित, सोयाबीन आधारित आदि के लिए, अंत:फसलीकरण की तकनीकियां विकसित की गई हैं, उदाहरण के लिए पौष्टिक अनाज आधारित कृषि प्रणाली, जहां की वार्षिक वर्षा 561 से 936 मिलीलीटर होती है के लिए निम्नलिखित अंत:फलीकरण प्रणालियों का सुझाव दिया गया है, जैसे- ज्वार+अरहर (2:1), सूरजमुखी+ अरहर (2:1), चना+कुसुम (3:1), बाजरा+अरहर (2:1), बाजरा+मोठ (2/3:1), ज्वार+ अरहर (1:1), अरहर+बाजरा (1:3), चना+कुसुम (3:1), चना+ज्वार (1:2), अरहर+मूगफली (1:3), अरहर+मूग (1:1), जौ+चना (3:2), बाजरा+ग्वार (2:1), रागी+अरहर (10:1), सोयाबीन+रागी (1:1), मूंगफली+अरहर (8:2) आदि|
16. भारतीय चारागाह और चारा अनुसंधान संस्थान, द्वारा विभिन्न तकनीकियां विकसित की गई है| इनमें से एक अर्ध-शुष्क वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए सुबबूल+पेनिसेटम टू इस्थो पनिक-ज्वार, चारा+ अरहर अनुक्रमण सबसे प्रभावी तकनीक है|
17. वर्षा आधारित क्षेत्रों में वन-चारागाह तकनीकी, फसल वृक्ष तकनीकी, फसल बागवानी तकनीकी और अर्ध-शुष्क ऊष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में अफ्रीकन विटरर्थान+अंजन घास+पेड़ पंक्तियों के बीच बाजरा, उड़द एवं मूग लगाना आदि|
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प्रभाव-
1. अनुसंधान दर्शाते हैं, कि 2 से 10 टन प्रति हैक्टर की दर से जैविक खाद (गोबर की खाद) देने से लगभग सभी फसलों में अपेक्षित बढ़ोतरी और मिटटी स्वास्थ्य में सुधार होता है|
2. वर्षा आधारित क्षेत्रों की विभिन्न फसलों की उपज में 5 से 50 प्रतिशत बढ़ोतरी के साथ मिटटी स्वास्थ्य को इसके उच्चतर स्तर पर पाया गया है|
3. एक परिक्षण में पाया गया की मिटटी की चिजल हल से गहरी जुताई करने से बाजरा, मूंगफली, चना, मूंग के बीजोत्पादन में 18 से 60 प्रतिशत तक की वृद्धि होती तथा इसी प्रकार उत्तर-पश्चिमी भारत की मिटटी की गहरी जुताई करने से गेहूं और राया सरसों में क्रमश: 17 से 41 प्रतिशत बीजोत्पादन में बढ़ोतरी होती है|
4. वर्षा आधारित क्षेत्रों में विभिन्न फसलों जैसे- बाजरा, मक्का, ज्वार, ग्वार आदि के बीजोत्पादन में 29 से 39 प्रतिशत बढ़ोतरी देखी गई, जिसकी मुख्य वजह रही मिटटी जल संचालकता में कमी और अधिक मिटटी जल की उपलब्धता|
5. विभिन्न क्षेत्रों में फसल पैदावार और मिटटी स्वास्थ्य में अपेक्षित सुधार|
6. विभिन्न फसलों जैसे- बाजरा, कपास, ज्वार और मक्का के बीजांकुर में 4 से 33 प्रतिशत तक बढ़ोतरी देखी गई| लाल मिटटी में विभिन्न जैविक पदार्थों की प्रभावशीलता निम्नलिखित रूप से देखी गई जैसे- गोबर की खाद 10 टन प्रति हैक्टर, नारियल की जटा 20 टन प्रति हैक्टर, मूंगफली का छिलका 5 टन प्रति हैक्टर, जिप्सम 4 टन प्रति हैक्टर, चावल का भूसा 5 टन प्रति हैक्टर|
7. नाली पद्धति से बिजाई करने से मध्य प्रदेश में ज्वार की फसल में 27 प्रतिशत और इसी फसल में बढ़ोतरी देखी गई और क्यारी में कूड बिजाई से मूंग और ज्वार में क्रमश: 19 से 25 प्रतिशत बढ़ोतरी देखी गई| इसी प्रकार अनेक क्षेत्रों में उत्थित क्यारी में बिजाई करने से फसलों में 10 से 55 प्रतिशत बढ़ोतरी देखी गई है|
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8. एक बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा वर्षा आधारित क्षेत्रों में किए गए अनुसंधान दर्शाते हैं, कि संग्रहित जल से विभिन्न प्रकार की सब्जियां उगाई जा सकती हैं और फसल मध्य सूखे के दौरान जीवन रक्षा सिंचाई करके फसलों को बचाया जा सकता है, इससे पैदावार में भरपूर बढ़ोतरी देखी गई है|
9. वर्षा आधारित क्षेत्रों में कम अवधि तथा अधिक सूखा सहन करने वाली फसलों से किसान की आय में वृद्धि|
10. अनुसंधान दर्शाते हैं, कि उपरोक्त अंत:फलीकरण से न केवल फार्म से आय में वृद्धि दर्ज की गई बल्कि बदलते हुए जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने में भी सहायता मिली है और अंत:फलीकरण का मिटटी स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है|
11. उपरोक्त प्रणाली में हरा चारा 50 से 55 टन प्रति हैक्टर प्रति वर्ष+सूखा चारा 13 से 14 टन प्रति हैक्टर प्रति वर्ष+0.41 टन प्रति हैक्टर प्रति वर्ष अनाज प्राप्त होता है एवं इस चारा उत्पादन प्रणाली की लागत केवल 25,000 रुपए प्रति हैक्टर प्रति वर्ष है|
12. अनुसंधान दर्शाते हैं, कि शुद्ध कृषि योग्य फसल की तुलना में वर्षा आधारित क्षेत्रों में वृक्ष आधारित खेत प्रणाली से अधिक लाभ:लागत अनुपात होता है|
13. वर्षा आधारित क्षेत्रों में मौजूदा फसल प्रणाली (अरहर+ज्वार) के मुकाबले तीन गुना अधिक आय, केवल फसल प्रणाली के मुकाबले समेकित प्रबंधन में शुद्ध आय में लगभग आठ गुना वृद्धि और केवल फसल प्रणाली के मुकाबले शुद्ध आय में पांच गुना वृद्धि एवं केवल फसल प्रणाली के मुकाबले शुद्ध आय में तीन गुना वृद्धि देखी गई है|
14. प्रिसीजन प्लांटर से बिजाई करने से विभिन्न फसलों (मक्का, अरंडी) के बीजांकुर में 10 से12 प्रतिशत बढ़ोतरी देखी गई है|
समय-समय पर कृषि परामर्श सेवाएं प्रदान करके विभिन्न क्षेत्रों फसल उपज में बढ़ोतरी दर्ज की गई और किसानों को मौसमी जोखिम से बचाकर विभिन्न आगतों पर होने वाले खर्चे को कम किया जा सका है|
15. वर्षा क्षेत्रों के किसानों की कृषि आय को दोगुना करने के लिए अन्य प्रयासों के साथ-साथ क्षेत्र विशेष एवं फसल विशेष के लिए जारी की गई नवीनतम तकनीकियों का प्रयोग अति आवश्यक है| ऐसे क्षेत्रों के लिए जारी कुछ तकनीकियों का विवरण उपरोक्त लेख में दर्शाया गया है|
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वर्षा आधारित खेती से आय दोगुना करने सुझाव
वर्षा आधारित क्षेत्रों में किसानों की आय को दोगुना करने के लिए सुझाव, जैसे-
1. अनुसंधान, नीतियों एवं कार्यक्रमों का दायरा प्रत्येक किसान के खेत पर केंद्रित करने की आवश्यकता है, क्योंकि इन क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की विविधता विद्यमान है|
2. वर्षा आधारित क्षेत्रों में विकसित की गई कृषि तकनीकों को समय के साथ पुनः परिष्कृत या संशोधित करके पूर्ण पैकेज के रूप में किसानों तक पहुंचाया जाना चाहिए|
3. प्राकृतिक संसाधनों में मिटटी और जल के समुचित प्रबंधन को सर्वोपरि प्राथमिकता देते हुए, वर्षा आधारित क्षेत्रों में इस दिशा में अधिक कार्य करने की आवश्यकता है|
4. तकनीक के सभी घटकों (बीज, रासायनिक खाद, बिजाई यंत्र, पशुधन की नस्लें, खेत तालाब आदि) को एक साथ किसानों तक पहुंचाया जाए, साथ ही साथ यह भी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, कि किसानों को उत्पादित माल की उचित कीमत प्राप्त हो|
5. वर्षा आधारित क्षेत्रों में फसल विविधीकरण के साथ कृषि प्रणाली में पशुधन को शामिल करने की जरूरत है| गांव स्तर पर सामुदायिक बीज एवं चारा बैंक, सामुदायिक उपयोग केंद्र, कृषि बीमा, विपणन तंत्र आदि पर नीतियां और क्रियान्वयन के लिए ठोस रणनीति बनाने की आवश्यकता है|
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6. वर्तमान में कृषि, ज्ञान आधारित होती जा रही है, इसलिए ऐसी रणनीति और योजनाएं बनाने की जरूरत है, जिनसे शिक्षित युवा इस तरफ आकर्षित हो सके|
7. कृषि मौसम सलाह को प्रत्येक गांव के स्तर तक पहुंचाने की अति आवश्यकता है, इस दिशा में कृषि विस्तार तंत्र को और मजबूत करने की जरूरत है, साथ ही साथ वर्षा आधारित क्षेत्रों में कृषि विस्तार की नई विधाएं विकसित करने की आवश्यकता है, जिससे उपलब्ध तकनीकों और सूचनाओं को सरल भाषा और तीव्रता के साथ किसानों तक पहुंचाया जा सके|
8. कृषि आगतों (बीज, रासायनिक खाद, जीवाणु खाद, कृषि यंत्र, रोग और कीटनाशक दवाइयां आदि) की सुगम एवं सुलभ उपलब्धता की दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है|
9. वर्षा आधारित क्षेत्रों में तकनीकी दक्षता हासिल करने के लिए वैज्ञानिकों के बहुआयामी और बहु संस्थान दल तैयार कर अनुसंधान का दायरा बढ़ाने की नितांत जरूरत है|
समय पर उपरोक्त सुझावों पर कार्रवाई की जाती है, तो इससे कृषि प्रणाली में स्थिरता, प्रतिस्पर्धा, विपरीत जलवायु से लड़ने की क्षमता के साथ ही उपलब्ध संसाधनों का संरक्षण एवं समुचित उपयोग भी किया जा सकता है| इस प्रकार इन क्षेत्रों के किसानों में कृषि आय को दोगुना करने की क्षमता भी विकसित की जा सकती है|
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