शकरकंद (Sweet Potato) का वनस्पति नाम इपोमोएआ वतातास है| यह मुख्य रूप से इसकी मिठास और स्टार्च के लिए प्रसिद्ध है| शकरकंद वीटा कैरोटिन का समृद्ध स्रोत है, और इसे एंटीऑक्सीडेंट और अल्कोहल के रूप में भी उपयोग किया जाता है| यह एक बारामासी बेल है, जिसके लोंब या दिल के आकर वाले पत्ते होते है| इसकी कंद खाद्य, चिकनी त्वचा और पतली लम्बी या गोलाकार हो सकती है|
इसकी त्वचा का रंग बैंगनी, सफेद और भूरा हो सकता है|भारत में लगभग 2 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती की जाती है| बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा इसके प्रमुख उत्पादक राज्य है| भारत का शकरकंद (Sweet Potato) उत्पादन में 6 वा स्थान है| इस लेख में शकरकंद की उन्नत खेती कैसे करे, जिससे अधिकतम उत्पादन प्राप्त हो सके का उल्लेख है|
शकरकंद की फसल के लिए उपयुक्त जलवायु
शकरकंद की खेती के लिए 21 से 27 डिग्री तापमान उपयुक्त मन जाता है| इसकी फसल शीतोष्ण और समशीतोष्ण जलवायु वाले स्थनों पर सफलतापुर्वक उगाई जाती है, और जहां पर 75 से 150 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा होती है वहां इसको आसानी से उगाया जा सकता है|
शकरकंद की खेती के लिए भूमि का चयन
इसकी फसल के लिए अच्छी जल निकासी वाली दोमट या चिकनी दोमट मिटटी उपयुक्त रहती है| इसकी खेती के लिए भूमि की अम्लता या क्षारीयता का माप 5.8 से 6.7 उपयुक्त माना जाता है|
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शकरकंद की खेती के लिए किस्में
गौरी- यह किस्म 1998 में विकसित की गई थी| यह 110 से 120 दिन में तैयार हो जाती है| कन्द का रंग बैंगनी लाल होता हैं, इनको काटने पर अंदर गूदे का रंग पीला होता है, जोकि बीटा केरोटिन के कारण होता है| इसे खरीफ व रबी के मौसम में लगाया जाता है|
श्री कनका- यह किस्म 2004 में विकसित की गई थी| कन्द के छिलके का रंग दूधिया होता है| काटने पर पीले रंग का गूदा दिखाई देता है| यह 100 से 110 दिन में तैयार होने वाली किस्म है| इसकी पैदावार 20 से 25 टन प्रति हैक्टर है|
एस टी 13- इस किस्म के गूदे का रंग बैंगनी-काला होता है| कन्द को काटने पर एकदम चुकंदर के रंग का गूदा दिखाई पड़ता है| इसमें बीटा केरोटिन की मात्रा शून्य होती है, किन्तु एंथोसायनिन (90 मिली ग्राम प्रति 100 ग्राम) वर्णक के कारण इसका रंग बैंगनी-काला होता है| इसमें मिठास भी कम होती हैं, किन्तु एंटीऑक्सीडेन्ट और आयु लम्बी करने में उपयोगी होता है| यह 110 दिन में तैयार हो जाती है, इसकी पैदावार 14 से 15 टन प्रति हैक्टर है|
एस टी 14- यह किस्म 2011 में विकसित की गई थी| इस किस्म के कन्द का रंग हल्का पीला और गूदे का रंग हरा पीला होता हैं| इनमें उच्च मात्रा में बीटा केरोटिन (20 मिली ग्राम प्रति 30 ग्राम) पाया जाता है| यह 110 दिन में तैयार हो जाती है| इसकी पैदावार 15 से 71 टन प्रति हैक्टर होती है| अभी तक के परीक्षण में यह किस्म सर्वोत्तम पाई गई है|
सिपस्वा 2- यह किस्म अम्लीय मिटटी में भी उपयुक्त है| इनमें केरोटिन के उच्च मात्रा होती है| 110 दिन में पककर तैयार हो जाती है| इसकी पैदावार 20 से 24 टन प्रति हैक्टर है|
इनके आलावा शकरकंद की अन्य किस्में इस प्रकार है, जैसे- पूसा सफेद, पूसा रेड, पूसा सुहावनी, एच- 268, एस- 30, वर्षा और कोनकन, अशवनी, राजेन्द्र शकरकंद- 35, 43 और 51, करन, भुवन संकर, सीओ- 1, 2 और 3, और जवाहर शकरकंद- 145 और संकर किस्मों में एच- 41 और 42 इत्यादि है, किसान भाई अपने क्षेत्र के अनुसार किस्म का चुनाव करे|
उपरोक्त किस्मों के अतिरिक्त विदेशों से आयातित अनेक किस्में उपलब्ध हैं, जिनकी उपज 20 टन प्रति हैक्टर व सूखे पदार्थ की मात्रा 30 प्रतिशत से अधिक तथा चीनी की मात्रा 4 प्रतिशत से अधिक हैं| इनमें बीटा केरोटिन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, जिनमें से अधिकांश किस्में पेरू, युगांडा, केन्या, तंजानिया, मलावी, आस्ट्रेलिया, जापान जैसे देशों में विकसित की गई हैं| इन देशों से आयातित किस्मों को अपने क्षेत्रों में परीक्षण करने की आवश्यकता है|
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शकरकंद की खेती के लिए खेत की तैयारी
पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करे, और उसके बाद 2 से 3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से मिटटी को भुरभुरा और हवादार बना लेनी चाहिए| अच्छी पैदावार के लिए प्रति हेक्टेयर 170 से 200 क्विंटल गली सड़ी गोबर खाद आखरी जुताई से पहले डाले ताकि वह मिटटी में अच्छी प्रकार से मिल जाए|
शकरकंद की फसल लगाने का समय
शकरकंद की खेती मुख्यतया वर्षा ऋतु में जून से अगस्त में की जाती है| रबी के मौसम में अक्टूबर से जनवरी में सिंचाई के साथ की जाती है| उत्तर भारत में, शकरकन्द की खेती रबी, खरीफ व जायद तीनों मौसम में होती हैं| खरीफ ऋतु में इसकी खेती अधिक होती है| खरीफ में 15 जुलाई से 30 अगस्त तक शकरकंद की लताओं को लगा देना चाहिए| सिंचाई की सुविधा के साथ रबी (अक्टूबर से जनवरी) के मौसम में भी इसकी खेती की जाती है|
जायद ऋतुओं में, इसकी लताओं को लगाने का समय फरवरी से मई तक का होता है, इस मौसम में खेती का मुख्य उद्देश्य लताओं को जिंदा रखना होता है, ताकि खरीफ की खेती में उनका प्रयोग हो सके| लताओं के अतिरिक्त शकरकन्द के कन्द को लगाकर भी सुनहरी शकरकन्द की खेती की जा सकती है|
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शकरकंद की नर्सरी तैयार करना
शकरकंद की खेती के लिए हमें एक हैक्टर खेत के लिए 84,000 लताओं के टुकड़ों (कटिंग) की आवश्यकता होती है| एक कटिंग की लम्बाई 20 से 25 सेंटीमीटर रखनी चाहिए तथा एक साथ 2 से 3 कटिंग खेत में लगानी चाहिए| कटिंग लता के मध्य व ऊपरी भाग से लेनी चाहिए| अगर कन्द का प्रयोग कर रहे हैं, तो दो नर्सरी तैयार करनी पड़ती है, जो इस प्रकार है, जैसे-
प्राथमिक नर्सरी-
मुख्य खेत में लगाने के दो महीने पहले ही प्राथमिक नर्सरी को तैयार कर लेना चाहिए| एक हैक्टर क्षेत्र की बुआई के लिए प्राथमिक नर्सरी 100 वर्गमीटर क्षेत्रफल की आवश्यकता होती है, जिससे एक हैक्टर खेत की नर्सरी तैयार हो जाती है| स्वस्थ कन्द जो पूरी तरह कीट और रोग मुक्त हो 60 X 60 सेंटीमीटर मेड़ से मेड़ की दूरी और 20 X 20 सेंटीमीटर कन्द से कन्द की दूरी पर लगाना चाहिए| इस तरह 100 वर्ग मीटर क्षेत्रफल के लिए 100 किलोग्राम कन्द की आवश्यकता पड़ती है|
कन्द बुआई के समय 1.5 किलोग्राम यूरिया का नाली में छिड़काव करना चाहिए| आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर पानी की उपलब्धता बनाये रखनी पड़ती है| इस तरह से 40 से 45 दिन में पहली नर्सरी तैयार हो जाती है| तैयार लताओं को 20 से 25 सेंटीमीटर की लंबाई में काट दिया जाता है|
द्वितीय नर्सरी-
द्वितीय नर्सरी के लिए हमें 500 वर्गमीटर क्षेत्रफल की आवश्यकता पड़ती हैं| मेड़ों से मेड़ों के बीच की दूरी 60 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 25 सेंटीमीटर रखनी चाहिए| नर्सरी लगाने के 15 व 30 दिन बाद 5 किलोग्राम यूरिया का छिड़काव अवश्य करें तथा नमी की समुचित व्यवस्था बनाये रखनी चाहिये| इस तरह से 45 दिनों में दूसरी नर्सरी तैयार हो जाती है| नर्सरी तैयार हो जाने के बाद 20 से 25 सेंटीमीटर लम्बी लताएं शीर्ष व मध्यम भाग की कटिंग कर ली जाती है| यह मुख्य खेत में लगाने के लिए उपयुक्त होती है|
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शकरकंद की लताओं का चुनाव
शकरकंद की खेती में लताओं का चुनाव करते समय कभी भी लताओं को नीचे के भाग से नहीं लेना चाहिए| मध्य तथा शीर्ष वाला भाग ही हमेशा प्रयोग करना चाहिए|
लताओं को लगाने से पूर्व की तैयारी-
नर्सरी से लताओं को काटने के बाद उसको दो दिनों तक छाया में रखा जाये, जिससे उनमें जड़ों का विकास अच्छा होता है| लताओं को बोरेक्स या मानोक्रोटोफास दवा 0.05 प्रतिशत के घोल में 10 मिनट तक डुबोना चाहिए| उसके बाद मुख्य खेत में लता लगाने के लिए उपयुक्त रहती हैं|
लता लगाने की विधि-
शकरकंद तीन तरह से लगाई जाती है, टीला विधि, मेड़ व नाली विधि और समतल विधि द्वारा वैसे इन तीनों विधियों का अपना अलग-अलग महत्व है| टीला विधि, जहां जल जमाव की समस्या रहती है और दूसरी मेड़ व नाली विधि ढलाव वाले भूमि के लिए संस्तुति की जाती है तथा समतल विधि हर जगह के लिए उपयुक्त है, किन्तु एक माह बाद जड़ों पर मिट्टी चढ़ाकर मंड बनाना आवश्यक होता हैं|
लता रोपण-
लताओं को लगाते समय नीचे वाले भाग सहित मध्य भाग तक मिट्टी से दबा देना चाहिए, जिससे लताएं ज्यादा जीवित रहें व उनमें जड़ का विकास तीव्र गति से हो| हमेशा लताओं की कटिंग तीन गांठ से ऊपर होनी चाहिए, इनके बने कन्द गुणवत्ता में अच्छे होते हैं|
दुरी- कतार से कतार की दूरी 60 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए|
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शकरकंद की फसल में खरपतवार नियंत्रण
शकरकंद में खरपतवार की समस्या अधिक नहीं होती है, वैसे खरपतवारों की समस्याएं शुरू के ही समय आती हैं, जब लताएं पूरे खेत में फैली नहीं रहती हैं| शकरकंद की लताएं पूरे खेत में फैल जाती हैं, तो खरपतवार का जमाव नहीं हो पाता है| अगर खेत में कुछ खरपतवार उगे तो मिट्टी चढ़ाते समय निकाल देना चाहिए|
शकरकंद की फसल में खाद और उर्वरक
शकरकंद की खेती में कार्बनिक खाद् पर्याप्त मात्रा में डालनी चाहिए, जिससे मिटटी की उत्पादकता सही व स्थिर रहती है| केन्द्रीय कन्द अनुसंधान संस्थान द्वारा संस्तुति की गई रिपोर्ट के मुताबिक 5 से 8 टन सड़ी हुई गोबर की खाद खेत की पहली जुताई के समय ही भूमि में मिला देनी चाहिए|
रासायनिक उर्वरकों में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन व 25 किलोग्राम फॉस्फोरस तथा 50 किलोग्राम पोटाश की आवश्यकता प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करनी चाहिए| नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा शुरू में लता लगाते समय ही जड़ों में देनी चाहिए| शेष नाइट्रोजन को दो हिस्सों में बांटकर एक हिस्सा 15 दिन में दूसरा हिस्सा 45 दिन टाप ड्रेसिंग के रूप में प्रयोग करना चाहिए|
अधिक अम्लीय भूमि में 500 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दूर से चूने का प्रयोग कंद विकास के लिए अच्छा रहता हैं| इनके अलावा मैगनीशियम सल्फेट, जिंकसल्फेट और बोरॉन 25:15:10 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करने पर कन्द फटने की समस्या नहीं आती हैं व एक समान व आकार के कन्द लगते हैं|
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शकरकंद की खेती पर तापमान का प्रभाव
कंद के वृद्धि व उत्पादन पर वातावरणीय कारकों का भी प्रभाव पड़ता है| रात्रि में चलने वाली हवाओं से होने वाले तापमान परिवर्तन से शकरकंद में कुछ प्रभाव देखा गया है| शकरकन्द में शर्करा स्थानांतरण तने से कन्द में इसी समय होता है| रात्रि की ठण्डी हवाएं और दो या तीन सिंचाई से सार्थक परिणाम सामने आये हैं, जिससे कन्द बनने की संख्या में वृद्धि देखी गई है| 20 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान कन्द निर्माण में व लताओं के विकास में अच्छी वृद्धि देखी गई हैं| 25 से 27 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर जड़ों के कन्द में बदलाव अच्छा देखा गया है|
20 डिग्री सेल्सियस तापमान पर शकरकंद में शुक्रोज की मात्रा जड़ व तने में कम बनती हैं व उच्च तापमान 30 डिग्री सेल्सियस पर सुक्रोज की मात्रा घटने लगती है| इस तरह से 20 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान पर शकरकंद में वृद्धि व विकास तथा कन्द की गुणवत्ता अच्छी रहती हैं| 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान होने पर पौधे की बढ़वार तो होती है, किन्तु कन्द नहीं बनते या कम बनते है|
शकरकंद की फसल पर पानी की कमी का प्रभाव
शकरकंद के अच्छे उत्पादन के लिए खेत में 25 प्रतिशत से कम व 50 प्रतिशत से अधिक नमीं पर उपज में कमी आने लगती है| 50 प्रतिशत से ज्यादा नमी रहने पर पौधों में वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया तेज हो जाती है, जिससे पैदावार में कमी आने लगती हैं|
शकरकंद की फसल में जल जमाव
बहुत ज्यादा वर्षा हो जाने व जल निकास की सुविधा नहीं रहने से जल जमाव की समस्या आ जाती है, जिससे पौधे के जड़ क्षेत्र के पास ऑक्सीजन की कमी आ जाती है तथा पौधे अपनी जीवन प्रक्रिया सही रूप से नहीं चला पाते हैं| इससे पैदावार में कमी आने लगती है तथा शकरकंद में कन्दों के बनने की संख्या व कन्द का आकार में कमी आने लगती हैं|
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शकरकंद की फसल में कीट और रोग नियंत्रण
शकरकंद का घुन- यह शकरकन्द का सबसे खतरनाक कीट है, जो खेतों से लेकर घरों में रखे गये कन्दों को भी नुकसान पहुंचाता है| प्रौढ कीट लताओं व कन्दों में महीन सुराख बना देते हैं| सूडी प्रौढ़ कीट द्वारा बनाये गये सुराख में ही अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं| प्रभावित कन्द से एक अजीब सी गंध तथा कड़वा स्वाद आता है|
जिसकी वजह से कन्द का बाजार मूल्य नहीं मिलता है और कन्द देखने में भी अच्छे नहीं लगते हैं| उग्र अवस्था में सारे के सारे कन्दों का नुकसान हो जाता है| कम प्रभावित होने पर भी 20 प्रतिशत से 55 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता हैं| इसके नियंत्रण के लिए हमें समन्वित कीट प्रबंधन की प्रक्रिया अपनानी चाहिए, जो इस प्रकार है, जैसे-
1. लता का चुनाव पहली बार बोई गई खेत या स्वस्थ फसल में ही करें|
2. परिपक्व लताओं का ही चुनाव करें, लता चुनाव करने से पहले ध्यान रहे कि जिस खेत से लताएं प्रयोग कर रहे हैं, उनमें किसी भी स्तर पर कीट संक्रमण न हो|
3. लता को लगाने से पहले फेनथियान या फॅनीट्रोथियान या मोनोक्रोटोफास 0.05 प्रतिशत के घोल में 10 मिनट तक डुबोना चाहिए|
4. लताओं को लगाने के 2 महीने बाद दोबारा मेड़ बनायें|
5. नर कीट को गंधपाश (फेरोमोन ट्रैप) की सहायता से इकट्ठा करके मार देना चाहिए|
6. फसल कटने के बाद जो भी शकरकन्द का अवशेष बचें उसे जला देना चाहिए या खेत से दूर फेंक दें|
7. फसल चक्र अपनाना चाहिए|
8. कुछ कार्बनिक खादों के प्रयोग से भी कीटों को नियंत्रित किया जा सकता हैं, जैसे- महुआ की ख़ली 2.500 किलोग्राम प्रति हैक्टर, कुकरौधा की पत्ती 5 किलोग्राम प्रति हैक्टर की देर से प्रयोग करें|
9. रासायनिक विधियों में फेनीट्रोथियान 3.5 प्रतिशत या मिथाइओडेमेटोन 0.5 प्रतिशत का छिड़काव कीट दिखाई देने पर प्रति माह करें|
10. मेड़ में दरार पड़ने या मिट्टी सूखने से पहले ही खुदाई कर लेनी चाहिए|
11. शकरकंद में तना सड़न तथा कली सड़न रोग की रोकथाम के लिए नीम कीटनाशक या डाईथेन एम- 45 प्रति ग्राम एक लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए|
12. पत्ती खाने वाली सुंडी की रोकथाम के लिए नीम कीटनाशक या थायोडान 35 ईसी 2 मिलीलीटर को एक लिटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए|
शकरकंद के कंदों की खुदाई
कन्द की खुदाई शकरकंद की किस्म पर निर्भर करती है| जब कन्द तैयार हो जाए तो सबसे पहले लताएं काट लेनी चाहिए, उसके बाद बिना कन्द को क्षति पहुंचाये खुदाई करनी चाहिए|
शकरकंद की खेती से पैदावार
शकरकंद पैदावार किस्मों के अनुसार अलग-अलग होती है चूंकि सामान्य रूप से औसत पैदावार 15 से 25 टन प्रति हैक्टर तक देखी गयी है|
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