सस्य क्रियाओं द्वारा कीट नियंत्रण, किसान अपना उत्पादन तथा आमदनी बढ़ाने के लिए फसल उत्पादन की समरत विधियों में तकनीकों का उपयोग करता है| इसके अन्तर्गत फसल की किस्म, बुआई का समय एवं विधि, भू–परिष्करण, खेत और खेती की स्वच्छता, उर्वरक प्रबंधन, जल प्रबंधन, खरपतवार प्रबंधन, कीट प्रबंधन और कटाई का समय आदि का समावेश होता है|
कीट से होने वाली हानि से बचने के लिये सस्य क्रियाओं में हेर फेर करना ही सस्य क्रियाओं या कृषिगत नियंत्रण कहा जाता है| ये परिवर्तन कीटों की प्रजनन शक्ति या वृद्धि को रोकते हैं या पौधों के अन्दर कीट अवरोधी गुण उत्पन्न कर कीटों को पौधों से दूर रखते हैं| कृषिगत क्रियाओं से कीटों की रोकथाम करने के लिए कीट की पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है|
तभी सस्य क्रियाओं द्वारा कीट की रोकथाम की जा सकती हैं| सस्य क्रियाएँ कीट की संख्या को कम करने की परम्परागत या व्यवहारिक विधि हैं| फसल उत्पादन में विविध सस्य क्रियाओं में हेर-फेर करने से कीटों का जीवन-चक्र प्रभावित होता है| जो इस प्रकार है, जैसे-
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सस्य क्रियाओं द्वारा कीट नियंत्रण
ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई द्वारा
गर्मी में गहरी जुताई करने से खेतों में कीटों के अण्डे, प्यूपा आदि सूर्य की प्राकृतिक गर्मी से नष्ट हो जाते हैं| इस प्रकार गर्मी की जुताई से किसान अपने खेतों में कीटों की प्रारम्भिक संख्या को नियंत्रित कर सकते हैं| इस तरह की सस्य क्रिया द्वारा हम चना एवं तम्बाकू की इल्ली, कपास की डेटू छेदक, धान का तना छेदक व गंगई, डायमण्ड बैक मौथ, सोयाबीन की गर्डिल बीटल और तने की मक्खी, ज्वार एवं मक्का का तना छेदक, मक्खीं इल्ली, तिल हॉक मौंथ, गन्ने का दाना छेदक और शीर्ष वेधक, मूंगफली की सफेद गिद्धार आदि और अन्य अनेक कीटों का गर्मी में गहरी जुताई करके भू परिष्करण द्वारा प्रभावी नियंत्रण कर सकते हैं|
उचित फसल चक्र अपनाकर
एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन में उचित फसल-चक्र अपनाने की कार्य विधि इस तथ्य पर आधारित है, कि किसी कीट को यदि भोजन की निरन्तर उपलब्धता रहती है| तो वह कीट अपनी संख्या में गुणोत्तर वृद्धि कर विकराल रूप धारण कर लेता हैं| इस प्रकार की स्थिति में फसल अदल-बदल कर बोनी चाहिये| यदि एक ही खेत में लगातार एक फसल किस्म उपयोग करते हैं, तब उस क्षेत्र में कीट विशेष महामारी का रूप धारण कर लेती है|
जैसे- धान में गंगई व भूरा माहू, फूल गोभी एवं पत्ता गोभी को डायमण्ड बैंक मौथ आदि| इसलिए उचित फसल-चक्र अपनाते हुये बहुजातिय आधारित खेती करना चाहिये| कपास के बाद मक्का, धान, मूंगफली, लोबिया इत्यादि फसलों के फसल-चक्र में शामिल करे, तो कपास में कीट का प्रकोप कम हो सकता है| सोयाबीन तथा मूंगफली के बाद अफलीदार फसलों को फसल-क्रम में शामिल करे, तो इस तरह की सस्य क्रिया द्वारा कीट कम हो सकते हैं|
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फसल अवशेष और खरपतवार प्रबंधन
कीटों को नुकसान पहुंचाने वाली तथा सुसुप्तावस्था की अवस्थाएँ मुख्य फसल की अनुपस्थिति में खेत के आस-पास उगने वाले खरपतवारों या पूर्व फसल के अवशेषों पर अपना जीवन-चक्र पूर्ण करती हैं| इन कीटों के नियन्त्रण के लिए खेत के आस-पास और खेत में पूर्व में बाई गई फसल के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए|
इस विधि को अपनाकर सोयाबीन की गर्डल बीटल, ज्वार एवं मक्का में तना छेदक, स्वच्छ खेती करने से कई रोगजनक, हाइपर्स, पत्ती मोड़क, धान का हिस्सा, गॉल मिज, तना भेदकों की संख्या को कम किया जा सकता है| ज्वार की फसल से वैकल्पिक परजीवी पौधे को निकाल देने पर भेदक एवं भुट्टा की मक्खी का प्रकोप कम किया जा सकता है| धान के ढूंठ इकट्ठा कर नष्ट कर देने से धान के कीटों को इस तरह की सस्य क्रिया द्वारा समाप्त किया जा सकता है|
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बुआई के समय में परिवर्तन द्वारा
बुआई के समय में परिवर्तन करने से फसलों को कीट एवं बिमारियों के प्रारम्भिक प्रकोप से बचाया जा सकता है| जल्दी बुआई करने से धान में गालमिज पति मोड़क, ज्यार की सूट फ्लाई, हेड बग, मूंगफली में सफेद गिडार, सरसों में आरा मक्खी और माहू, तिल में पत्ती मोड़क, फली छेदक, अलसी में फली मक्खी, लौकी का लाल भुंग इत्यादि कीटों के प्रकोप से इस तरह की सस्य क्रिया द्वारा फसलों को बचाया जा सकता है| उचित समय पर बुआई करने से कपास में बॉल वर्म और गन्ना में तना बेधक का प्रकोप कम होता है|
कषर्ण क्रियाओं द्वारा
इस तरह की सस्य क्रिया में फसल उत्पादन के लिये आवश्यक कषर्ण क्रियाएँ जैसे- जुताई, निराई, गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण समय पर करने से कीट नियंत्रण में सहायता मिलती हैं| जैसे- दीमक और कटुआ इल्ली कीटों का नियंत्रण इन विधियों से किया जा सकता है|
उचित बीज की मात्रा द्वारा
इस तरह की सस्य क्रिया द्वारा उचित बीज दर उपयोग करने से उपयुक्त पौध संख्या उचित दूरी और पौध धनत्व संतुलित रहता है| जिससे अनचाहे पौधों की बढ़वार को रोका जा सकता है| मक्का तथा ज्चार में प्रतावित बीज दर से अधिक बीज उपयोग करने से भेदक कीट एवं सूट फ्लाई के प्रकोप से बचा जा सकता है|
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उचित फसल पद्धति
छिटकाव पद्धति से बुआई करने पर पौधों की संख्या कम ज्यादा होने पर कीट आसानी से छिप सकते हैं एवं प्राकृतिक शत्रु तथा परभक्षी कीटों से आसानी से बच जाते हैं| उचित पौध दूरी का मुख्य उद्देश्य प्रति इकाई क्षेत्रफल से अधिकतम उपज प्राप्त करना है| लेकिन पौध संख्या, पौध स्वास्थ्य, वृद्धि एवं विकास और पकने की अवधि को प्रभावित करती है|
अधिक धनत्व वाली पौध संख्या धान में भूरा रुंदका, सफेद फूदका, गालमिज एवं पत्ती मोड़क का अधिक प्रकोप होता है| कपास में भी अधिक धनत्व वाली पौध संख्या होने पर रस चूसक और बॉल वर्म का प्रकोप बढ़ता है| परन्तु अधिक पौध संख्या से मूंगफली में एफिड, थ्रिप्स और लीफ माइनर का प्रकोप कम होता है| सोयाबीन में भी अधिक पौध धनत्व की पौध संख्या होने पर कीट अधिक नुकसान पहुंचाते हैं|
अन्र्तवर्ती फसलों द्वारा
इस तरह की सस्य क्रिया द्वारा मुख्य फसल के साथ अन्र्तवर्ती फसल लेने से कुछ कीटों का नियंत्रण किया जा सकता है| यह फसलें मुख्य फसल में कीटों को आकर्षित कर मुख्य फसल पर प्रकोप कम होता है| कुछ अन्तर्वर्ती फसलों के कीटों के परजीवी एवं परपक्षी कीट अधिक मात्रा में आकर्षित होकर आश्रय पाते हैं, जैसे अरहर की फसल पर लेडी बर्ड बीटल अधिक मात्रा में आती हैं, जो माहू का भक्षी कीट है|
कुछ कम ऊंचाई की फसलों के बीच ऊँचे पौधे वाली फसले, पक्षियों के बैठने के स्थान के रूप में काम आती है| जहां पक्षी फसल पर लगने वाली सुंडियों आदि को चुनकर उन्हें खाते हैं| गन्ना के साथ धनिया उगाने पर गन्ना के वेधकों का प्रकोप कम होता है|
सरसों की फसल के साथ तारामीरा की अन्तवर्ती खेती करने पर माहू का प्रकोप कम होता हैं| चने की शुद्ध खेती की अपेक्षा इसकी अन्र्तवर्ती खेती गेहूं, जौ, अलसी तथा सरसों के साथ करने पर चने की इल्ली का प्रकोप कम हो जाता है| जबकि चने के साथ मटर एवं मसूर की अन्तर्वर्ती खेती करने पर इसका प्रकोप बढ़ जाता है| सोयाबीन में अरहर और मक्का की अंतवर्ती खेती करने पर सोयाबीन में इस तरह की सस्य क्रिया द्वारा कीटों का प्रकोप कम होता है|
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पोषक तत्वों द्वारा
फसलों में संतुलित मात्रा में उर्वरक उपयोग करना अति आवश्यक है| इस तरह की सस्य क्रिया द्वारा पौधों में कीट एवं बिमारियों से लड़ने की क्षमता का विकास होता है| तब हम फसलों में कीट रोधी क्षमता का लाभ कीट नियंत्रण में संतुलित पोषक तत्वों के उपयोग द्वारा ले सकते हैं| नाइट्रोजन अत्यधिक प्रयोग करने से फसलों में कीट अधिक आक्रमण की स्थिति निर्मित होते है|
धान में तना छेदक, पत्ती मोड़क, गॉल मिज़, हरा फंदका, भूरा हूंदका, धान का हिस्प, मेगट इत्यादि का प्रकोप नाइट्रोजन का अधिक प्रयोग करने से बढ़ जाता है|गन्ना में भी बेधक कीटों एवं पाइरिल्ला का प्रकोप बढ़ता है| कपास में पत्ती मोड़क, सफेद मक्खी और वॉल वर्म का प्रकोप भी अधिक नाइट्रोजन देने से बढ़ जाता हैं| पोटाश और फास्फोरस का प्रयोग करने से कीटों का प्रकोप कम होता है| इसलिए फसलों को प्रस्तावित संतुलित उर्वरक देना चाहिये|
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जल प्रबंधन द्वारा
उचित जल प्रबंधन कीट नियंत्रण में सहायक हो सकता है| उदाहरण के लिए धान की फसल के रस चूसक कीट जैसे भूरा माहू, हरा, माहू और गंगई का सफलतापूर्वक नियंत्रण किया जा सकता है| खेत से पानी निकाल देने से माहू एवं गंगई इत्यादि कीट बहकर खेत से निकल जाते हैं|
इसी प्रकार कटुआ, इल्ली, आर्मी वर्म, दीमक, सफेद गिड़ार आदि खेत में पानी भरने से नष्ट हो जाते हैं| गन्ना फसल में मिट्टी में अधिक नमी होने पर पाइरिल्ला की संख्या बढ़ जाती है| जबकि कालीं बग असिंचित अवस्था में अत्यधिक प्रकोप करती है|
ट्रैप फसलों द्वारा
टैंप फसलें लगाने का उद्देश्य हानिकारक कीटों, व्याधियों से मुख्य फसल को बचाना है| ट्रेप फसलें आमतौर पर उसी कूल की या ऐसी होती है, जो मुख्य फसल के हानि पहुंचाने वाले कीटों, रोगजनकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं| जैसे गन्ने के बीच में ज्वार के पौधे लगाने से गन्ना पर तना छेदक का प्रकोप नहीं होता है| फूलगोभी में सरसों सेमीलूपर को आकर्षित कर मुख्य फसल को बचाती है|
कपास के खेत में भिण्डी के पौधे लगाने से कीट पहले भिण्डी पर प्रकोप करते हैं| सिमित भिण्डी के पोधों पर कीट नियंत्रण करना सुलभ तथा किफायती होता है और कपास जैसे महत्वपूर्ण नगदी फसल को इस तरह की सस्य क्रिया द्वारा कीटों के प्रकोप से बचाया जा सकता हैं| ट्रैप फसल के पौधे जैसे ही अधिक प्रकोपित हो जाए उन्हें उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये|
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