सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897, दिन शनिवार, वर्तमान उड़ीसा राज्य के कटक’ शहर में एक समृद्ध परिवार में हुआ था| सुभाष चंद्र बोस के पिता का नाम जानकीनाथ बोस व माता का प्रभावती देवी था| जानकीनाथ बोस व प्रभावती देवी की 14 सन्तानें थी, जिनमे 8 पुत्र और 6 पुत्रियाँ थी| सुभाष अपने माता-पिता की 9 वीं संतान और 6 वें पुत्र थे| सुभाष चंद्र बोस के पिता एक प्रसिद्ध वकील थे|
सुभाष चन्द्र बोस ने ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा’ और ‘जय हिन्द’ जैसे प्रसिद्द नारे दिए, भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास की, 1938 और 1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, 1939 में फॉरवर्ड ब्लाक का गठन किया, अंग्रेजों को देश से निकालने के लिए ‘आजाद हिन्द फ़ौज’ की स्थापना की| वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रख्यात योद्धा थे| जिनको “नेता जी” के नाम से भी जाना जाता है|
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सुभाष चंद्र बोस का प्रारम्भिक जीवन
पिता जानकीनाथ बोस, बंगाल के माहीनगर नामक स्थान के प्रसिद्ध बोस परिवार से सम्बद्ध थे, जो अपनी कानून की प्रेक्टिस के लिए माहीनगर छोड़ कर कटक में बस गये थे| वे एक स्वाबलम्बी पुरूष थे और स्वयं के गुणों के आधार पर ही 1901 में कटक नगरपालिका के अशासकीय अध्यक्ष का पद तथा 1905 में शासकीय अभिभावक का पद प्राप्त किया| अपनी बहुमुखी सेवाओं के उपलक्ष्य में उन्हें 1912 में बंगाल विधान परिषद के पद पर कार्यरत रहने के दौरान ही रायबहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया था|
माता प्रभावतीदेवी भी कलकत्ता के हटखोला नामक स्थान के प्रसिद्ध व समृद्ध दत्त परिवार से सम्बद्ध थी| वे धार्मिक व वैभव, विद्या, बुद्धि एवं सामाजिक चेतना के गुणों से समृद्ध थी और वे ही अपने परिवार की भलीभांति संचालन की उत्तरदायी थी| इसका कारण यह था कि पिता जानकीनाथ बोस एक अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के और अपने बच्चों से दूरी बनाकर रखते थे| स्वयं सुभाष के शब्दों में “मेरे पिताजी बहुधा, अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाला होने का बहाना कर अपने परिवार से दूर ही रहते थे|
अपने व्यवसायिक कार्यों और जनकर्तव्यों के कारण उनके पास अपने परिवार के लिए समय नही होता था” अतः उन्हें अपने माता-पिता का अविभाजित प्रेम नही मिल पाता था| फिर भी काफी हद तक इस क्षति की पूर्ति उनकी शारदा माँ कर देती थी, जो उन्हें राजा बेटा के नाम से सम्बोधित करती थी| शारदा माँ सुभाष की परिचारिका थी, परन्तु परिवार में एक सम्मानित सदस्य की तरह थी| वे सुभाष को अत्यन्त प्रिय थी|
स्पष्ट है कि सुभाष का कुटुम्ब न केवल परिवार के बड़े आकार से विस्तृत था, बल्कि यहाँ कई आश्रित नौकर-चाकर भी परिवार के सदस्यों की तरह ही रहते थे| यहाँ तक कि जानवरों का भी आश्रय रहता था|
सुभाष के इस विशाल परिवार का उनके व्यक्तित्व पर भी प्रभाव देखा जा सकता हैं| पारिवारिक वातावरण ने उनके मानसिक विकास को विस्तृत किया| उनमें एक विलासी व समृद्ध परिवार में जन्म लेने के बाद भी तनिक भी स्वयं को विशेष समझने का भाव नही आ पाया था| उनके हृदय में सभी के लिए समान भाव थे|
1917 में अपने नजदीकी मित्र हेमंत कुमार सरकार को लिखे एक पत्र में बोस ने लिखा है “मैंने एक गरीब परिवार में जन्म नही लिया, यह वास्तव में सत्य है, पर क्या इसके लिए मैं जिम्मेदार हुँ? इसके लिए मुझे क्या प्रायश्चित करना होगा” बोस के इस कथन से स्पष्ट है कि उन्हें कभी भी अपने रूतबे या स्थिति का घमण्ड नही था|
परिवार में अनेक भाईयों व बहनों की उपस्थिति ने सुभाष को हमेशा ही दूसरों के बारे में पहले तथा स्वयं के बारे में बाद में सोचने का गुण भी दिया| संभवतः यही कारण रहा कि उनमें कभी भी अति-आत्मविश्वास न आ सका और उन्होंने हमेशा कठोर श्रम को ही प्राथमिकता दी|
यह उनके नजदीकी मित्र हेमंत कुमार सरकार के प्रमाण से भी पता चलता है कि एक बार जब सुभाष मुर्शिदाबाद से कृष्णानगर नाव से लौट रहे थे तो अत्यधिक शारीरिक थकान होने के बाद भी उन्होंने अपने मित्रों के साथ नाव को खेया| स्पष्ट है कि सुभाष शारीरिक श्रम के प्रति उदासीन नही रहते थे, जो कि भद्रलोक वर्ग के गुण के विरीत ही था| इसके अतिरिक्त सुभाष के राष्ट्रीय, सामाजिक व धार्मिक जीवन पर भी उनके परिवार का प्रभाव देखा जा सकता है|
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सुभाष चंद्र बोस की प्रारम्भिक शिक्षा
सुभाष चन्द्र बोस की प्रारम्भिक शिक्षा कटक के ही स्थानीय मिशनरी स्कूल में हुई| इन्हें 1902 में प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल में प्रवोश दिलाया गया| ये स्कूल अंग्रेजी तौर-तरीके पर चलता था जिससे इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की अंग्रेजी अन्य भारतीय स्कूलों के छात्रों के मुकाबले अच्छी थी| ऐसे स्कूल में पढ़ने के और भी फायदे थे जैसे अनुशासन, उचित व्यवहार और रख-रखाव आदि| इनमें भी अनुशासन और नियमबद्धता बचपन में ही स्थायी रुप से विकसित हो गई|
इस स्कूल में पढ़ते हुये सुभाष चंद्र बोस ने महसूस किया कि वो और उनके साथी ऐसी अलग-अलग दुनिया में रहते हैं जिनका कभी मेल नहीं हो सकता| सुभाष शुरु से ही पढ़ाई में अच्छे नंबरों से प्रथम स्थान पर आते थे लेकिन उनकी खेल कूद में बिल्कुल भी रूचि नहीं थी| जब भी किसी प्रतियोगिता में भाग लेते तो उन्हें हमेशा शिकस्त ही मिलती थी|
1909 में इनकी मिशनरी स्कूल से प्राइमरी की शिक्षा पूरी होने के बाद इन्हें रेवेंशॉव कॉलेजिएट में प्रवेश दिलाया गया| इस स्कूल में प्रवेश लेने के बाद सुभाष चंद्र बोस में व्यापक मानसिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आये| ये विद्यालय पूरी तरह से भारतीयता के माहौल से परिपूर्ण था| सुभाष पहले से ही प्रतिभाशाली छात्र थे, बस बांग्ला को छोड़कर सभी विषयों में अव्वल आते थे| इन्होंने बांग्ला में भी कड़ी मेहनत की और पहली वार्षिक परीक्षा में ही अच्छे अंक प्राप्त किये| बांग्ला के साथ-साथ इन्होंने संस्कृत का भी अध्ययन करना शुरु कर दिया|
रेवेंशॉव स्कूल के प्रधानाचार्य (हेडमास्टर) बेनीमाधव दास का सुभाष चंद्र बोस के युवा मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा| माधव दास ने इन्हें नैतिक मूल्यों पर चलने की शिक्षा दी साथ ही ये भी सीख दी कि असली सत्य प्रकृति में निहित है अतः इसमें स्वंय को पूरी तरह से समर्पित कर दो| जिसका परिणाम ये हुआ कि ये नदी के किनारों और टीलों व प्राकृतिक सौंन्दर्य से पूर्ण एकांत स्थानों को खोजकर ध्यान साधना में घंटों लीन रहने लगे|
सुभाष चन्द्र के सभा और योगाचार्य के कार्यों में लगे रहने के कारण इनके परिवार वाले व्यवहार से चिन्तित होने लगे क्योंकि ये अधिक से अधिक समय अकेले बिताते थे| परिवार वालों को इनके भविष्य के बारे में चिन्ता होने लगी कि इतना होनहार और मेधावी होने के बाद भी ये पढ़ाई में पिछड़ न जाये| परिवार की आशाओं के विपरीत 1912-13 में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा में विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया जिससे इनके माता-पिता बहुत खुश हुये|
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सुभाष चंद्र बोस के विचारों पर प्रभाव
सुभाष चन्द्र बोस को पारिवारिक वातावरण में माता-पिता का बहुत अधिक प्रेम नहीं मिला जिससे अधिकांश समय अकेले व्यतीत करने के कारण बाल्यकाल में ही इनका स्वभाव गम्भीर हो गया| बचपन से ही ये मेहनती और दृढ़ संकल्प वाले थे| रेवेंशॉव स्कूल में हेडमास्टर बेनीमाधव के सम्पर्क में आने पर ये अध्यात्म की ओर मुड़ गये|
15 साल की उम्र में इन्होंने विवेकानंद के साहित्यों का गहन अध्ययन किया और उनके सिद्धान्तों को अपने जीवन में अपनाया| इन्होंने तय किया आत्मा के उद्धार के लिये खुद परिश्रम करना जीवन का उद्देश्य होना चाहिये साथ ही मानवता की सेवा, देश की सेवा है, जिस में अपना सब कुछ समर्पित कर देना चाहिये|
विवेकानंद के जीवन से प्रेरणा लेकर इन्होंने ‘रामकृष्ण-विवेकानंद युवाजन सभा’ का गठन किया, जिसका परिवार वालों तथा समाज ने विरोध किया फिर भी इन्होंने सभा के कार्यों को जारी रखा| इस तरह युवा अवस्था में पहुँचने के समय में ही सुभाष में एक सीमा तक मनोवैज्ञानिक विचारों की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी|
सुभाष चंद्र बोस उच्च शिक्षा व सार्वजनिक जीवन
मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद इनके परिवार ने इन्हें आगे की पढ़ाई के लिये कलकत्ता भेज दिया| 1913 में इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज प्रेजिडेंसी में प्रवेश लिया| सुभाष ने यहाँ आकर बिना किसी देर के सबसे पहले आदर्श दल से सम्पर्क बनाया जिसका दूत इन से मिलने कटक आया था| उस समय इनके कॉलेज के छात्र अलग-अलग गुटों (दलों) में विभक्त थे| जिसमें से एक गुट आधुनिक ब्रिटिश राज-व्यवस्था की चापलूसी करता था, दूसरा सीधे-सादे पढ़ाकू छात्रों का था, एक दल सुभाष चन्द्र बोस का था, जो स्वंय को रामकृष्ण-विवेकानन्द का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी मानते थे और एक अन्य गुट था, क्रान्तिकारियों का गुट|
कलकत्ता का सामाजिक परिवोश कटक के छोटे से कस्बे के वातावरण से बिल्कुल अलग था| यहाँ की आधुनिक जीवन की चमक-धमक अनेकों विद्यार्थियों के जीवन को आकर्षित कर विनाश की ओर ले गयी थी, लेकिन सुभाष पर इसका कोई असर नही था| ये कलकत्ता कुछ दृढ़ विचारों, सिद्धान्तों और नये उद्देश्यों के साथ आये थे| इन्होंने पहले ही निश्चय कर लिया था कि ये लकीर के फकीर नहीं बनेंगें| ये जीवन को गम्भीरता से अपनाना जानते थे| कॉलेज का जीवन शुरु करते समय इन्हें इस बात का अहसास था कि जीवन का लक्ष्य भी है और उद्देश्य भी|
जब सुभाष कटक से कलकत्ता आये थे तो इनका स्वभाव आध्यात्मिक था| ये समाज सेवा करना चाहते थे और समाज सेवा योग साधना का ही अभिन्न अंग है| ये अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये ऐतिहासिक और धार्मिक स्थानों पर घूमने जाते थे| अपने कॉलेज के समय में बोस अरविन्द घोष के लेखन, दर्शन और उनकी यौगिक समन्वय की धारणा से प्रेरित थे| इस समय तक इनका राजनीति से कोई सीधा संबंध नहीं था|
ये तरह-तरह के धार्मिक और सामाजिक कार्यों में खुद को व्यस्त रखते थे| इन्हें कॉलेज की पढ़ाई की कोई परवाह नहीं रहती क्योंकि ज्यादातर विषयों के लेक्चर इन्हें ऊबाऊ लगते थे| ये वाद-विवादों में भाग लेते थे, बाढ़ और अकाल पीड़ितों के लिये चन्दे इकट्ठा करने जैसे समाजिक कार्यों को करने में लगे रहने के कारण 1915 की इंटरमीडियेट की परीक्षा में ज्यादा अच्छे नम्बर प्राप्त नहीं कर पाये| इसके बाद इन्होंने आगे की पढ़ाई के लिये दर्शनशास्त्र को चुना और पूरी तरह से पढ़ाई में लग गये|
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सुभाष चंद्र बोस की शिक्षा में बाधाएँ
बीए आनर्स (दर्शन-शास्त्र) करते समय सुभाष चन्द्र बोस के जीवन में एक घटना घटी| इस घटना ने इनकी विचारधारा को एक नया मोड़ दिया| ये बीए आनर्स (दर्शनशास्त्र) के प्रथम वर्ष के छात्र थे| लाइब्रेरी के स्व-अध्ययन कक्ष में पढ़ते हुये इन्हें बाहर से झगड़े की कुछ अस्पष्ट आवाजें सुनायी दे रही थी| बाहर जाकर देखने पर ज्ञात हुआ कि अंग्रेज प्रोफेसर ई. एफ. ओटेन ने इन्हीं के क्लास के कुछ छात्रों की पीटाई कर रहे थे| मामले की जाँच करने पर पता चला कि प्रोफेसर ओटेन की क्लास से लगे बरामदे (कॉरिड़ोर) में बीए प्रथम वर्ष के कुछ छात्र शोर कर रहे थे, लेक्चर में बाधा डालने करने के जुर्म में प्रोफेसर ने पहली लाइन में लगे छात्रों को निकाल कर पीट दिया था|
सुभाष अपनी क्लास के प्रतिनिधि थे| इन्होंने छात्रों के अपमान की इस घटना की सूचना अपने प्रधानाचार्य को दी| अगले दिन, इस घटना के विरोध में छात्रों द्वारा कॉलेज में सामूहिक हड़ताल का आयोजन किया गया, जिसका नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस ने किया| ये कॉलेज के इतिहास में पहली बार था जब छात्रों ने इस प्रकार की हड़ताल की थी| हर तरफ इस घटना की चर्चा हो रही थी|
मामला अधिक न बढ़ जाये इसलिये अन्य शिक्षकों और प्रबंध समिति की मध्यस्था से उस समय तो मामला शान्त हो गया, लेकिन एक महीने बाद उसी प्रोफेसर ने दुबारा इनके एक सहपाठी को पीट दिया जिस पर कॉलेजों के कुछ छात्रों ने कानून को अपने हाथों में लिया जिसका परिणाम ये हुआ कि छात्रों ने प्रोफेसर को बहुत बुरी तरह पीटा| समाचार पत्रों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक सभी में इस घटना ने हलचल मचा दी|
छात्रों पर ये गलत आरोप लगाया गया कि प्रो. ओटेन पर हमला करते समय उन्हें सीढ़ियों से धक्का देकर नीचे गिराया गया था| सुभाष इस घटना के चश्मदीद गवाह थे| वो जानते थे कि ये आरोप सिर्फ एक कोरा झूठ है, एक प्रत्यक्षदर्शी होने के नाते वे बिना किसी ड़र और विरोधाभास के ये बात दावे के साथ कह सकते थे| छात्रों की निष्पक्षता के लिये ये बात साफ होनी आवश्यक थी|
लेकिन ये घटना सरकार और कॉलेज की अध्यापकों की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गयी| छात्रों की ओर से किसी भी प्रकार की सफाई की अवहेलना करते हुये कॉलेज के प्रधानाचार्य ने प्रबंध समिति के सम्मानित व्यक्तियों से सलाह करके कॉलेज के शरारती बच्चों को स्कूल से निकाल दिया| इन निकाले गये छात्रों की हिट लिस्ट में सुभाष चन्द्र बोस का नाम भी शामिल था|
उन्होंने सुभाष को बुलाकर कहा “बोस तुम कॉलेज में सबसे ज्यादा परेशानी उत्पन्न करने वाले (उपद्रवी) छात्र हो। मैं तुम्हें निलम्बित करता हूँ” सुभाष धन्यवाद कहकर घर आ गये| इस निर्णय के बाद प्रबंध समिति ने प्रधानाचार्य के इस निर्णय पर मोहर लगा दी| इन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया| बोस ने विश्वविद्यालय से किसी अन्य कॉलेज में पढ़ने की अनुमति माँगी जिसे अस्वीकार कर दिया गया| इस तरह इन्हें पूरे विश्वविद्यालय से निष्काषित कर दिया गया|
कुछ राजनीतिज्ञों ने इसे प्रधानाचार्य के अधिकार के बाहर का निर्णय कहा जिसे जाँच कमेटी ने अपने हाथ में ले लिया| जाँच कमेटी के सामने इन्होंने छात्रों का प्रतिनिधित्व किया और कहा कि वो प्रोफेसर पर हमले को सही नहीं मानते पर उस समय छात्र इतने भड़के हुये थे कि उन्हें नियंत्रित करना बहुत मुश्किल था| इसके बाद इन्होंने कॉलेज में अंग्रेजों द्वारा किये जाने वाले बुरे व्यवहार का वर्णन किया|
जब कमेटी की रिपोर्ट आयी तो छात्रों के पक्ष में कोई भी शब्द नहीं था, सिर्फ सुभाष चन्द्र के बारे में ही जिक्र था| इस तरह उनके आगे की पढ़ाई करने के रास्ते बन्द हो गये| लेकिन कठिनाई के इस समय में उनके परिवार वालों ने उनका साथ दिया| इनके संबंधी जानते थे कि वो जो कर रहे हैं, सही कर रहे है| सुभाष को भी अपने किये पर कोई पछतावा नहीं था|
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सुभाष चंद्र बोस का स्काटिश चर्च में प्रवेश
लगभग एक वर्ष की उथल-पुथल के बाद विश्व विद्यालय में प्रवेश के लिये ये पुनः कलकत्ता आ गये| यहाँ अधिकारियों के निर्णय की प्रतीक्षा करते समय 49 वीं बंगाल रेजीमेंट में भर्ती होने की कोशिश की, लेकिन खराब आँखों के कारण भर्ती में असफल रहे| बाद में इन्हें सूचना दी गयी कि ये किसी अन्य विद्यालय से प्रवोश लेकर पढ़ सकते हैं|
इस सूचना के बाद ये स्कॉटिश चर्च कॉलेज के प्रधानाचार्य (डॉ. अर्कहार्ट) से मिले और उन्हें बताया कि वो दर्शन शास्त्र में आनर्स करना चाहते है| अर्कहार्ट बहुत ही व्यवहार कुशल और दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखने वाले व्यक्ति थे। वो सुभाष के व्यवहार से प्रभावित हुये और उन्हें प्रवेश की अनुमति दे दी|
इस समय ब्रिटिश भारत सरकार ने इंडिया डिफेंस की फोर्स की एक विश्वविद्यालय स्तर पर प्रादेशिक सेना (टेरिटोरियल आर्मी) के गठन की स्वीकृति दे दी| इसमें भर्ती होने के मापदण्ड सेना में भर्ती करने जितने कड़े नहीं थे अतः इन्हें भर्ती कर लिया गया| इन्होंने 4 महीने के शिविर के जीवन और 3 सप्ताह का मसकट (छोटी बन्दूक) के अभ्यास के बाद बंगाली छात्रों के लिये बनी अवधारणा कि “बंगाली सेना में अच्छा प्रदर्शन नहीं करते” को गलत सिद्ध कर दिया|
कॉलेज के चौथे साल में सुभाष पूरी तरह से पढ़ाई में लग गये| 1919 में इन्होंने प्रथम श्रेणी में आनर्स पास किया| ये विश्व विद्यालय स्तर पर दूसरे स्थान पर रहे|
सुभाष चंद्र बोस का इंग्लैण्ड जाने का निश्चय
दर्शन शास्त्र से बीए करने के बाद सुभाष चन्द्र बोस का झुकाव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान की ओर हो गया| उन्होंने महसूस किया कि उनके जीवन की समस्याओं के समाधान के लिये दर्शनशास्त्र उपयुक्त नहीं है| दर्शनशास्त्र से उनका मोह टूट चुका था अतः वो मनौविज्ञान से एमए करना चाहते थे|
इनके पिता जानकी नाथ कलकत्ता आये हुये थे और इनके बड़े भाई शरत् चन्द्र के पास रुके हुये थे| एक शाम इनके पिता ने इन्हें बुलाया और कहा कि क्या वो आई.सी.एस. की परीक्षा देना चाहेंगे| अपने पिता के इस फैसले से इन्हें बहुत झटका लगा| इनकी सारी योजनाओं पर पानी फिर गया| इन्हें अपना निर्णय बताने के लिये 24 घंटे का समय दिया गया|
इन्होंने कभी अपने सपने में भी अंग्रेज सरकार के अधीन कार्य करने के लिये नहीं सोचा था, लेकिन परिस्थतियों के सामने मजबूर होकर इन्होंने ये निर्णय ले लिया| इनके इस निर्णय के बाद एक सप्ताह के अन्दर ही पासपोर्ट बनवाकर इंग्लैंड जाने वाले जहाज पर व्यवस्था करा कर इनको भेज दिया गया| वो भारत से इंग्लैण्ड जाने के लिये 15 सितम्बर को रवाना हुये|
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सुभाष चंद्र बोस द्वारा प्रशासनिक सेवा की तैयारी
इंग्लैंड जाकर आई.सी.एस. की परीक्षा देने के अपने पिता के फैसले को मानने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था अतः भाग्य के भरोसे ये इंग्लैण्ड चले गये| भारत से इंग्लैंड जाते समय इनके पास आई.सी.एस. की परीक्षा के लिये केवल 8 महीने थे और उम्र के अनुसार ये इनका पहला और आखिरी मौका भी था| इनका जहाज निर्धारित समय से एक हफ्ते बाद इंग्लैंड पहुँचा|
इंग्लैण्ड पहुँचने से पहले ही इनका अध्ययन सत्र शुरु हो गया जिससे किसी अच्छे कॉलेज में प्रवेश का मौका मिलना भी कठिन था| अतः अपनी इस समस्या को लेकर सुभाष चन्द्र बोस इंडिया हाऊस के भारतीय विद्यार्थियों के सलाहकार से मिलने गये| इस मुलाकात से इन्हें निराशा ही हाथ लगी| चारों ओर से किसी भी प्रकार के सहयोग की उम्मीद न होने पर ये सीधे कैंम्ब्रिज यूनिवर्सिटी गये| किट्स विलियम हॉल के सेंसर (परीक्षा में बैठने वाले छात्रों की योग्यता का आंकलन करने वाला बोर्ड) ने इनकी समस्याओं को देखते हुये प्रवेश कर लिया और 1921 जून में होने वाली परीक्षा के लिये छूट भी प्रदान कर दी|
सिविल परीक्षा निकट होने के कारण इन्होंने अपना सारा समय तैयारी में लगा दिया| मानसिक और नैतिक विज्ञान (आनर्स) की तैयारी के लिये लेक्चर लेने के साथ ही अपने पाठ्यक्रम से संबंधित इंडियन मजालिस और यूनियन सोसायटी के कार्यक्रमों में भाग भी लेते थे| अपने लेक्चर के घंटों के अतिरिक्त भी इन्हें पढ़ाई करनी पड़ती थी, जितनी मेहनत से ये पढ़ाई कर सकते थे उतनी मेहनत से पढ़ाई की| पुरानी सिविल सर्विस के रेंग्युलेसन के अनुसार इन्हें लगभग 8 से 9 अलग-अलग विषयों को पढ़ना होता था|
अपनी पढ़ाई के साथ-साथ ही इन्होंने वहाँ के बदले हुये परिवेश को बहुत ध्यान से देखा| इंग्लैण्ड में विद्यार्थियों को प्राप्त स्वतंत्रता, सम्मान और प्रतिष्ठा ने इन्हें बहुत प्रभावित किया क्योंकि यहाँ की परिस्थिति भारत की परिस्थितियों से बहुत ज्यादा अलग थी| ये यहाँ यूनियन सोसायटी के वाद-विवाद आयोजनों में सांसदों या मंत्रियों की उपस्थिति में बिना किसी डर के अपने विचारों को रखते थे| इन्होंने देखा कि राजनीतिक दलों में लेबर पार्टी के सदस्य भारतीय समस्याओं के लिये दया भाव रखते थे|
इंड़ियन सिविल सर्विस की परीक्षा जुलाई 1920 में शुरु हुई और लगभग एक महीने तक चली| सुभाष चन्द्र बोस को परीक्षा में पास होने की कोई उम्मीद नहीं थी अतः अपने घर के लिये चिट्ठी लिखी कि इन्हें अपने पास होने की कोई उम्मीद नहीं है और ये अगले साल की ट्राईपास की तैयारी में लगे हुये हैं| सितम्बर के मध्य में जब रिजल्ट आया तो इनके मित्र ने इन्हें तार द्वारा बधाई दी| अगले दिन इन्होंने अखबार में आई.सी.एस. के सफल उम्मीदवारों में अपना नाम देखा| इन्होंने योग्यता सूची में चौथा स्थान प्राप्त किया था|
अब एक विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो गयी| ये स्वामी विवोकानंद और रामकृष्ण के आदर्शों को मानने वाले थे ऐसी स्थिति में इस नौकरी को करना अपने आदर्शों के खिलाफ समझते थे| इस विरोधाभास की स्थिति में बोस ने अपने बड़े भाई शरत् चन्द्र को पत्र लिखकर अपने नौकरी न करने के फैसले के बारे में बताया और उन्हें खत लिखने के 3 हफ्ते के बाद 22 अप्रैल 1921 को बोस ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फार इंडिया ई.एस.मांटेग्यू को पत्र लिखकर परिवीक्षाधीन अफसरों (प्रोबेशनर्स) की सूची से अपना नाम वापस लेने की घोषणा कर दी|
आई.सी.एस. की नौकरी छोड़कर बोस ने इंग्लैण्ड के भारतीय समाज में हलचल मचा दी| चारों तरफ इनके इस निर्णय की चर्चा होने लगी| सुभाष इस वाहवाही और सनसनी दोंनो से बचना चाहते थे| ये कार्य तो बोस ने अपने आत्म सुधार के एक प्रयास के रुप में किया था| इस तथ्य को बोस ने अपने बड़े भाई को लिखे पत्र में स्पष्ट किया है “आपने अपने पत्रों में मेरे बारे में बहुत अच्छी-अच्छी बातें की है, जिनमें से जो मुझे मालूम है उनका मैं बहुत कम पात्र हूँ, मैं जानता हूँ कि मैने कितनों का दिल तोड़ा है, कितने बड़ों की आज्ञा का उल्लंघन किया है लेकिन जोखिम भरी इस प्रतिज्ञा के समय मेरी यही प्रार्थना है कि ये सब हमारे प्यारे देश की भलाई में समा जाये”
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सुभाष चंद्र बोस आंदोलनों से जुड़े
सुभाषचंद्र मनोविज्ञान एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास परीक्षा देने के तुरंत बाद जून 1921 में भारत वापस आ गये और राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने लगे| जिस जहाज से बोस भारत आ रहे थे उसी जहाज में रविन्द्र नाथ टैगोर भी थे| टैगोर जी ने इन्हें भारत में गाँधी से मुलाकात करने की सलाह दी थी| 16 जुलाई 1921 को बम्बई पहुँचने पर इन्होंने गाँधी जी से मुलाकात की|
इस मुलाकात में बोस ने गाँधी के आन्दोलन की रणनीति और सक्रिय कार्यक्रम की स्पष्ट जानकारी जानना चाहते थे क्योंकि गाँधी आन्दोलन के सर्वोच्च नेता थे| गाँधी ने इनके सभी सवालों का जबाब धैर्य पूर्वक दिया लेकिन कर न देने की मुहिम से संबंधित सभी सवालों के जबाबों के अतिरिक्त और अन्य किसी भी आन्दोलन के स्पष्ट जबावों से वो बोस को सन्तुष्ट न कर सके|
जब ब्रिटिश सरकार ने नवम्बर 1921 में ब्रिटिश राजसिंहासन के वारिस प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत आने की घोषणा की तो सारे देश में जगह-जगह कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा हड़तालों और बन्द का आयोजन किया गया, जिससे सरकार ने कांग्रेस सरकार को ही गैरकानूनी घोषित कर दिया| इस बात ने आग में घी डालने का कार्य किया| प्रदेश की कांग्रेस समिति ने सारे अधिकार अपने अध्यक्ष सी आर दास को सौंप दिये और इन्होंने बोस को आन्दोलन का मुखिया बना दिया| प्रान्त में आन्दोलन को संचालित करने में बोस ने अभूतपूर्व नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया|
आन्दोलन दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा था| उस समय तो ये आन्दोलन और भी तेज हो गया जब सी.आर.दास की पत्नी वासन्ती देवी को उनकी सहयोगियों के साथ गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया| इससे खुद की गिरफ्तारी देने वाले युवाओं और युवतियों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई| 1921 के दूसरे हफ्ते में देशबन्धु और सुभाष चन्द्र के साथ अन्य नेताओं को भी कैद कर लिया गया| उन्हें बाद में छह महीने की सजा हुई| स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेते हुये ये सुभाष चन्द्र बोस की पहली गिरफ्तारी थी|
स्वदेश लौटने के बाद सुभाष भारत के दो महान राजनीति के नायक गाँधी व देशबन्धु से मिले| गाँधी से मिलने पर इन्हें निराशा मिली| लेकिन जब ये देशबन्धु सी.आर.दास से मिले तो उनके विचारों और कार्यों से इतने प्रभावित हुये कि उन्हें अपना गुरु बना लिया| एक सच्चे शिष्य की भाँति वो देशबन्धु के पद चिन्हों पर चलने लगे| शीघ्र ही इन्होंने अपने नेतृत्व के द्वारा अपनी योग्यता का लोहा मनावा लिया|
कलकत्ता में कांग्रेस के बहिष्कार आन्दोलन के दौरान देशबन्धु और बोस के साथ अन्य सदस्यों को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया| इन्हें कलकत्ता की अलीपुर सेंट्रल जेल में रखा गया| यहाँ देशबन्धु के सानिध्य में रहकर इन्होंने उनके नेतृत्वकारी गुणों का गहन विश्लेषण किया तथा ये जानने के कोशिश की किन कारणों से सभी लोगों तथा अपने अनुयायियों पर उनका आकर्षण छाया रहता है| बोस के आने वाले जीवन में उनका ये अनुभव बहुत उपयोगी साबित हुआ|
बंगाल के नेतृत्व के दायित्व के समय तथा आजाद हिन्द फौज के गठन के समय इस अनुभव से इन्हें बहुत ज्यादा सहायता मिली| बंदी जीवन में देशबन्धु के साथ निकटता से बोस को उनके व्यक्ति पक्ष को समझने का मौका मिला| चितरंजन दास का मानना था कि जिंदगी राजनीति से बड़ी है और जीवन के हर उतार-चढ़ाव में ये इस पर पूरी तरह से अमल भी करते थे|
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सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्वराज्य पार्टी का गठन
1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद गाँधी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया| उस समय सुभाष चन्द्र बोस और देशबन्धु दोनों जेल में थे| उन दोनों को ही इस निर्णय से बहुत दुख हुआ| लोगों में उमड़ती हुई आशा, निराशा में बदल गई|
दिसम्बर 1922 में कांग्रेस का गया (बिहार) अधिवेशन आयोजित किया गया| इसकी अध्यक्षता सी.आर.दास ने की इस अधिवोशन में कांग्रेस के सभी सदस्यों मे कुछ मुद्दों पर गतिरोध उत्पन्न हो गया| देशबन्धु के समर्थक परिवर्तन चाहते थे और गाँधी के समर्थक किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते थे|
देशबन्धु का प्रस्ताव गिर गया और उनकी अध्यक्ष के रुप में स्थिति कमजोर हो गई| दूसरी तरफ मोती लाल नेहरु ने कांग्रेस मुक्त स्वराज पार्टी के गठन की घोषणा कर दी| इस तरह देशबन्धु कांग्रेस से अलग होकर स्वराज्य पार्टी के अध्यक्ष नियुक्त किये गये| सुभाष चन्द्र इन सभी गतिविधियों में अपने गुरु के साथ थे|
1923 के मध्य में स्वराज्य पार्टी ने अपनी नेतृत्व से संगठन को मजबूत आधार दिया| इसी साल देशबव्धु की अध्यक्षता और सुभाष के प्रबंधन में दैनिक अंग्रेजी पत्र “फारवर्ड” का प्रकाशन किया| जो बहुत ही कम अवधि में देश का प्रमुख दैनिक पत्र बन गया| बोस ने स्वराज्य के कार्यों के साथ ही युवा संगठन की योजना को भी आगे बढ़ाया| इन्होंने ऑल बंगाल यूथ लीग का भी गठन किया, जिसका अध्यक्ष भी इन्हीं को बनाया गया| 1923 में ही इन्हें पार्टी संगठन ने एक महत्वपूर्ण पद प्रदान किया| इन्हें बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी का महासचिव बना दिया गया|
1924 के कलकत्ता नगर निगम के घोषित चुनावों में स्वराज्य पार्टी ने भाग लेने का निश्चय किया जिसमें हिन्दू तथा मुस्लिम सीटों पर पर्याप्त बहुमत मिला और देशबन्धु प्रथम महापौर चुने गये| देशबन्धु के आग्रह पर सुभाषचंद्र बोस को मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया।|अंग्रेज सरकार इस नियुक्ति से बहुत ज्यादा चिढ़ गयी और इन्हें मंजूरी प्रदान करने में बहुत आनाकानी की| बोस ने मुख्य कार्यकारी अध्यक्ष के रुप में अनेक जन कल्याणकारी कार्य किये|
थोड़े ही समय में इन्होंने नगर निगम के कार्यों को नयी दिशा दे दी| जगह-जगह सम्मान समारोह में आने वाले उच्च पद के ब्रिटिश अधिकारियों के स्थान पर शहर में आने वाले राष्ट्रवादी नेताओं का स्वागत सत्कार किया जाने लगा| जन-जागृति के लिये “कलकत्ता म्यूनिसिपल गैजेट” सप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरु कर दिया गया| सुभाषचन्द्र बोस अपने खर्च के लिये आधा वेतन रखकर शेष दान कर देते थे|
स्वराज्य पार्टी के बढ़ते हुये प्रभुत्व को अंग्रेज सरकार किसी भी तरह हजम नहीं कर पा रही थी| अंग्रेज कैसे भी करके इसकी नींव को खोखली करना चाहते थे| कार्यकारी अध्यक्ष के रुप में सुभाष द्वारा किये गये कार्यों से आग में घी डालने का काम किया| उनकी बढ़ती हुई ख्याति ने सरकार की नींद उड़ा दी, वो जानते थे कि देशबन्धु और बोस के साथ को तोड़े बिना स्वराज पार्टी को कमजोर करना नामुमकिन है अतः वो एक ऐसे ही मौके की तलाश में जुट गये|
25 अक्टूबर 1924 की सुबह ही उन्हें सूचना दी गयी कि कलकत्ता पुलिस कमीशनर ने उन्हें बुलाया है।|कमीशनर ने उनके आने पर उनसे कहा कि 1818 के कानून की धारा 3 के तहत उनकी गिरफ्तारी का वारंट है| बोस के साथ ही दो अन्य स्वराज्यवादी सदस्यों को भी गिरफ्तार किया गया|
1924 मे बोस की गिरफ्तारी के साथ ही और भी बहुत गिरफ्तारियाँ की गयी| जिसके लिये सरकार ने ये सफाई दी की एक क्रान्तिकारी षड़यन्त्र की योजना बनायी जा रही है जिसके तहत ये गिरफ्तारियाँ की जा रही है| दो अंग्रेजी अखबारों ने तो इस घोषणा से भी बढ़कर आरोप लगाया कि क्रान्तिकारी षड़यन्त्र के पीछे बोस का दिमाग है| सुभाष ने इन अखबारों पर मानहानि का केस कर दिया| सरकार और उसके नियंत्रण में चलने वाली ये प्रेस अपने आरोपों के पक्ष में कोई भी तथ्य पेश नहीं कर पायी, फिर भी इन पर बिना मुकदमा चलाये बोस के साथ-ही बंगाल के कई बड़े नेता को कैद में डाल दिया|
सुभाष चन्द्र बोस को कुछ सप्ताह के लिये अपने शासकीय कार्यों को पूरा करने का समय देने के साथ ही उनके साथ दो पुलिस अधिकारियों को नियुक्त कर दिया गया| अंग्रजों ने इनके कार्यों के पूरा होते ही इन्हें निर्वासित जीवन व्यतीत करने के लिये मांडले जेल (रंगून) भेज दिया| कारागार की परिस्थितियाँ तथा जलवायु के कारण इनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा| जेल के अधिक्षक ने सरकार को इनके स्वास्थ्य के संबंध में सूचना दी लेकिन सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की साथ ही ये संदेश दिया कि यदि सुभाष भारत आये बिना रंगून से ही अपने इलाज के लिये यूरोप चले जाये तो वो उन्हें रिहा कर सकती है|
सुभाष ने ये शर्त ये कहते हुये मानने से इंकार कर दिया कि वो अपने जीवन से भी ज्यादा अपने सम्मान से प्यार करते है और वो किसी ऐसे अधिकारों के साथ कोई सौदा नहीं कर सकते जो आने वाले समय की कूटनीति का आधार बनने वाले हैं| जिस पर सरकार ने उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखने का आदेश दिया| मई 1927 को डायमंड हार्बर पर उनकी मेडिकल जाँच करायी गयी जिसमें इनके अस्वस्थ्य होने की पुष्टि की गयी। इसके बाद इन्हें अगली सुबह रिहा कर दिया गया|
सुभाष चंद्र बोस का राजनीतिक जीवन
सुभाष चन्द्र बोस को 1927 में जेल से रिहा किया गया, जिसके बाद उन्होनें अपने राजनैतिक करियर को एक आधार देकर विकसित किया| सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस पार्टी के महासचिव के पद को सुरक्षित कर लिया और गुलाम भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराने का काम करना शुरू कर दिया|
1928 में सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ| अधिवेशन के निर्वाहन के लिए कार्यकर्ताओं का एक दल गठित किया गया| सुभाष चंद्र बोस इस दल के जनरल ऑफिसर इन कमांड थे| एक बार फिर सरकार विरोधी गतिविधियों पर शक होने के कारण इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया|
सुभाष चंद्र बोस अपने कामों से लोगों पर अपना प्रभाव छोड़ रहे थे इसलिए उन्हें कलकत्ता का मेयर के रूप में चुना गया| 1930 के दशक के मध्य में, नेता जी ने बेनिटो मुसोलिनी समेत पूरे यूरोप की यात्रा की| अपने कामों से नेताजी ने कुछ ही सालों में लोगों के बीच अपनी एक अलग छवि बना ली थी, इसके साथ ही वे यूथ लीडर के रूप में लोगों के प्रिय और राष्ट्रीय नेता भी बन गए|
सुभाष चंद्र बोस ने 1931 में कलकत्ता के मेयर का पदभार संभाला| अब इनका एकमात्र उद्देश्य आजादी के लिए आंदोलन करना था| इसके लिए उन्होंने एक प्रदर्शन का आयोजन किया लेकिन सरकार ने स्वीकृति देने से मना कर दिया, पर सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में प्रदर्शन किया गया जिसके लिए इन्हें लाठिया भी खानी पड़ी|
जिसकी वजह से सुभाष चंद्र बोस की तबियत बहुत ज्यादा खराब रहने लगी| चिकित्सको ने इन्हें यूरोप जाकर इलाज कराने की सलाह दी, लेकिन वे वहाँ पर भी नहीं रुके, उन्होंने वहाँ पर भारत में हो रही स्वतंत्रता आंदोलन पर सुदीर्घ भाषण भी दिए| यूरोप भ्रमण के दौरान ही इनको अपने पिता की मृत्यु की सूचना मिली|
1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ| इस अधिवेशन में बीमारी की वजह से वह शामिल नहीं हो सके| इसके बाद 29 अप्रैल 1939 को सुभाष चन्द्र बोस को लगा कि गांधीजी और उनके विचारो में समानता नहीं है तो उन्होंने खुद ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया| इनके स्थान पर डा. राजेंद्र प्रसाद काँग्रेस के अध्यक्ष बने|
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सुभाष चंद्र बोस द्वारा फॉवर्ड ब्लॉक की स्थापना
3 मई 1939 में अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने फॉवर्ड ब्लॉक की स्थापना की इसी के साथ स्वतंत्रता संग्राम के लिए आंदोलन और तेज कर दिया| सरकार विरोधी गतिविधियों के लिए एक बार फिर इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया| जेल से रिहा होने के लिए इन्होने भूख हड़ताल शुरू कर दी| जनता ने भी इनका पूरा साथ दिया| सरकार ने दबाव में आकर इन्हें रिहा कर दिया लेकिन इन्हें गृह नजरबंद कर दिया गया लेकिन नेताजी यहाँ से भागने में कामयाब रहे|
गृह गिरफ्तारी के 41 वें दिन जर्मनी जाने के लिए सुभाष चन्द्र बोस मौलवी का वेष धारण कर अपने घर से निकले और इटेलियन पासपोर्ट में ऑरलैंडो मैज़ोटा नाम से अफगानिस्तान, सोवियत संघ, मॉस्को और रोम से होते हुए जर्मनी पहुंचे| जर्मनी से इन्होने देश को आजादी दिलाने में मदद मांगी| जर्मनी और भारत के बीच दूरी बहुत अधिक थी| जिसकी वजह से मदद की उम्मीद कम हो गई, इसके बाद नेताजी वहाँ से जापान चले गए|
सुभाष चंद्र बोस द्वारा आजाद हिंद फौज का गठन
जिसके बाद सुभाष चन्द्र बोस जुलाई 1943 में सिंगापुर चले गए जहां उन्होनें भारतीय राष्ट्रीय सेना के गठन की उम्मीद फिर से जगाई आपको बता दें कि भारतीय राष्ट्रीय सेना को सबसे पहले कप्तान जनरल मोहन सिंह ने 1942 में स्थापित किया था इसके बाद राष्ट्रवादी नेता राश बिहारी बोस ने इसकी अध्यक्षता की थी| वहाँ पहुंचकर नेताजी रासबिहारी बोस से मिले| रासबिहारी बोस ने सिंगापुर के एडवर्क पार्क में स्वेच्छा से स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस को सौप दिया| वहीं इसके बाद INA को आजाद हिंद फौज और सुभाष चन्द्र बोस को नेता जी के नाम से जाने जाना लगा|
सुभाष चंद्र बोस ने न केवल सैनिकों को फिर से संगठित किया, बल्कि उन्होनें दक्षिणपूर्व एशिया में परदेशवासी भारतीयों का ध्यान भी अपनी तरफ खींचा| वहीं लोगों में फौज में भर्ती होने के अलावा, वित्तीय सहायता भी देना शुरू कर दिया| जापान में रहकर ही नेता जी जापनियो द्वारा युद्ध में बंदी बनाए गए भारतियों से मिले| उनके साथ मिलकर “इण्डियन नेशनल आर्मी” की स्थापना की झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के नाम से महिलाओं के लिए एक रेजिमेंट भी बनाई|
21 अक्टूबर 1943 को नेता जी ने “आजाद हिन्द फ़ौज ” की स्थापना की आजाद हिंद फौज ने काफी विस्तार किया और इस संगठन ने अजाद हिंद सरकार के एक अस्थायी सरकार के तहत काम करना शुरू कर दिया| उनके पास अपनी डाक टिकट, मुद्रा, अदालतें और नागरिक कोड थे और नौ एक्सिस राज्यों द्वारा स्वीकृत थी|
सुभाष चंद्र बोस का एमिली शेंकल से विवाह
जब आस्ट्रिया में इलाज के लिये रुकने के दौरान इन्होंने कई पत्र और पुस्तकें लिखी थी, जिन्हें इंग्लिश में टाइप करने के लिये एक टाइपिस्ट की आवश्यकता महसूस हुई| इन्होंने इस संबंध में अपने एक मित्र से बात की जिस पर इनके मित्र ने इनका परिचय एमिली शेंकल से कराया| इन्हें स्वभाविक आकर्षण के कारण एमिली से प्रेम हो गया और 1942 में बोस ने शेंकल से विवाह कर लिया| इनका विवाह बाड गास्टिन स्थान पर हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ| इस विवाह से इनके एक पुत्री भी हुई जिसका नाम अनीता बोस रखा गया|
सुभाष चंद्र बोस का भाषण
सुभाष चंद्र बोस ने 1944 में अपने भाषण से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया, जिसकी वजह से भारतियों के अंदर देश को आज़ाद कराने का जोश और अधिक बढ़ गया| इसके साथ ही उनके इस भाषण ने उस समय काफी सुर्खियां भी बटोरी थी| उन्होंने इस भाषण में एक नारा दिया था, जो बहुत प्रसिद्ध हुआ था और आज तक प्रसिद्ध है| उन्होंने लोगों से कहा की ”तुम मुझे खून दो, मै तुम्हें आजादी दूंगा”
नेता जी के इस भाषण का लोगों पर इतना प्रभाव पड़ा कि काफी तादाद में लोग बिट्रिश शासकों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए| सेना, आजाद हिंद फौज के मुख्य कमांडर नेताजी के साथ, ब्रिटिश राज से देश को मुक्त करने के लिए भारत की तरफ बढ़ी|
हालांकि, राष्ट्रमंडल बलों के अचानक हमले में जापानी और जर्मन सेना को आश्चर्यचकित कर दिया| रंगून बेस शिविर के पीछे हटने और कई अन्य कारणों से इंडियन नेशनल आर्मी अंग्रेजी सेना का सामना नहीं कर सकी| अग्रेजो का पलड़ा भारी होने की वजह से फ़ौज को वापस लौट जाना पड़ा|
सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु
जैसा की 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका ने जापान के दो प्रमुख शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिये, जिससे जापान ने युद्ध में समर्पण कर दिया और अपनी हार मान ली| जापान की हार के बाद आजाद हिन्द फौज का विघटन कर दिया गया|
आजाद हिंद फौज की हार होने के बाद, सुभाष चंद्र बोस ने मदद मांगने के लिए रूस यात्रा करने की योजना बनाई| लेकिन 18 अगस्त 1945 को नेता जी के विमान का ताईवान में क्रेश हो गया, जिसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई?
हालाँकि सच क्या है यह आज भी विवाद का विषय बना हुआ है| क्युकीं नेता जी की लाश नहीं मिली थी साथ ही उस दुर्घटना का कोई सबूत भी नहीं मिला था इसलिए सुभाष चन्द्र बोस की मौत आज भी विवाद का विषय है और भारतीय इतिहास में सबसे बड़ा संदेह है|
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