दलहनी कुल की सब्जियों में सेम (Bean) का प्रमुख स्थान है| इसकी खेती सम्पूर्ण भारत वर्ष में सफलतापूर्वक की जाती है| मुख्य रूप से इसकी खेती मुलायम फलियों के लिए की जाती है परन्तु इसकी कुछ किस्मों का उपयोग दाल के रूप में भी किया जाता है| इसकी फलियों में रंग एवं आकार में काफी विभिन्नता पायी जाती है|
इसकी लता को काटकर पशुओं के चारे के रूप में उपयोग किया जाता है| पोषक तत्वों की दृष्टि से भी सेम एक महत्वपूर्ण फसल है| इसमें प्रोटीन व खनिज तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं| इसके अतिरिक्त इसमें कार्बोहाइडेंट, विटामिन्स, कैल्शियम, सोडियम, फास्फोरस, मैगनिशियम, पोटैशियम, आयरन, सल्फर, रेशा इत्यादि भी पाया जाता है|
दलहनी फसल होने के कारण यह वायुमण्डलीय नत्रजन को मिट्टी में स्थिर कर भूमि को स्वस्थ एवं उपजाऊ बनाती है| इस लेख में सेम की वैज्ञानिक तकनीक से खेती कैसे करें का वर्णन किया गया है|
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सेम की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
सेम मूलतः गर्म जलवायु की फसल है| इसकी अच्छी पैदावार के लिए 18 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है| असिंचित अवस्था में इसकी खेती की जा सकती है जहा कि 630 से 690 मिलीमीटर वर्षा होती है|
सेम की खेती के लिए भूमि का चयन
सेम की खेती लगभग सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती हैं| अच्छे जल निकास वाली जिवांसयुक्त बलुई-दोमट से लेकर दोमट मृदा जिसका पी.एच. मान 6 से 7 के मध्य हो सेम की खेती के लिए उपयुक्त होती है| जल ठहराव की अवस्था इस फसल के लिए अति हानिकारक होती है|
सेम की खेती के लिए उन्नत किस्में
सेम की अनेक प्रकार की उन्नतशील किस्में होती है| किस्मों के अनुसार सेम की फलियाँ विभिन्न आकार की लम्बी, चपटी, टेड़ी और हरे और पीले रंग की हो सकती है| एक सीमित बढवार वाली, दूसरी असीमित बढवार वाली इसके साथ ही कुछ रोग अवरोधी किस्में भी होती है|
कुछ अच्छे उत्पादन वाली उन्नत किस्में इस प्रकार है, जैसे- काशी हरितमा, काशी खुशहाल (वी.आर.सेम- 3), बी.आर.सेम- 11, पूसा सेम- 2, पूसा सेम- 3, जवाहर सेम- 53, जवाहर सेम- 79, कल्याणपुर-टाइप, रजनी, एचडी- 1, एचडी- 18 और पूसा अर्ली प्रोलिफिक आदि प्रमुख है| किस्मों की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- सेम की उन्नतशील किस्में, जानिए उनकी विशेषताएं और पैदावार
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सेम की खेती के लिए खाद एवं उर्वरक
अच्छी पैदावार के लिए 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद भूमि की तैयारी के समय खेत में मिला देते हैं| इसके अलावा 20 से 30 किलोग्राम नत्रजन, 40 से 50 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 से 50 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है| नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय खेत में डालते हैं तथा नत्रजन की शेष मात्रा दो बराबर भागों में बाँटकर बुवाई के लगभग 20 से 25 दिन व 35 से 40 दिन बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में उपयोग करना चाहिए|
सेम की खेती के लिए खेत की तैयारी
यदि खेत में नमी की कमी हो तो बुवाई से पूर्व खेत का पलेवा कर लेना चाहिए| बुवाई के पूर्व खेत की अच्छी तरह जुताई व पाटा लगाकर तैयार कर लेना चाहिए| बुवाई के समय बीज अंकुरण के लिए खेत मे पर्याप्त नमी होनी आवश्यक है|
सेम की खेती के लिए बीज और उपचार
एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए लगभग 20 से 30 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है| बीज को बुवाई से पूर्व फफूंदनाशी रसायन कार्बेन्डाजिम की 2 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिए| इससे फसल की प्रारम्भिक अवस्था में मृदा जनित बीमारियों से सुरक्षा हो जाती है|
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सेम की बुवाई का समय और विधि
सेम की बुवाई का सबसे उपयुक्त समय जुलाई से अगस्त है| सेम की बुवाई सममतल खेत में उठी हुई मेड़ों/क्यारियों में करनी चाहिए| उठी हुई मेड़ों या क्यारियों में बुवाई करना पौधों की अच्छी वृद्धि व अधिक उत्पादन के लिए उपयुक्त पाया गया है| लता वाली (पोल टाइप) किस्मों के लिए कतार से कतार तथा पौध से पौध की दूरी क्रमशः 100 तथा 75 सेंटीमीटर रखते है|
सेम फसल में खरपतवार नियंत्रण
फसल की प्रारम्भिक अवस्था में खेत को खरपतवार मुक्त रखने के लिए एक से दो निराई-गुड़ाई पर्याप्त होती है| निराई-गुड़ाई अधिक गहराई तक नहीं करनी चाहिए| वैसे खरपतवार नियंत्रण के लिए पूर्व निर्गमन खरपतवारनाशी रसायनों जैसे पेन्डामेथालीन 3.5 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के 48 घंटे के अन्दर छिड़काव करें| इससे 40 से 45 दिनों तक मौसमी खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है| इसके बाद यदि आवश्यक हो तो एक निराई कर देनी चाहिए|
सेम की फसल को सहारा देना
लता वाली किस्मों को सहारा देना आवश्यक है| सहारा न देने की अवस्था में पौधे भूमि पर ही फैल जाते हैं तथा उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है| जिसके कारण गुणवत्तायुक्त उत्पादन में भारी गिरावट आ जाती है| सहारा देने के लिए पौधों की कतारों के समानान्तर 2 से 3 मीटर लम्बे बाँस/लकड़ी/एंगिल आयरन के खम्भों को 5 से 7 मीटर की दूरी पर गाड़ देते है| इन पर रस्सी या लोहे के तार खींचकर ट्रेलिस बनाकर लताओं को चढ़ा देते है| पौधों की बढ़वार के अनुसार रस्सी या तार की कतारों की संख्या 30 से 45 सेंटीमीटर के अन्तराल पर बढ़ाते जाते है|
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सेम की खेती के लिए पलवार का प्रयोग
बुवाई के तुरन्त बाद मल्च का उपयोग करना चाहिए| मल्चिंग करने से बीजों का जमाव मृदा ताप के बढ़ने के कारण अधिक होता है, खेत में नमी संरक्षित रहती है तथा खरपतवार नहीं उग पाते हैं जिसके फलस्वरूप पैदावार पर अनुकूल प्रभाव पड़ता हैं|
सेम की खेती के लिए सिंचाई प्रबन्धन
सामान्यतः बरसात के मौसम में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है| फूल तथा फलन के समय खेत में नमी का अभाव नहीं होना चाहिए| अपर्याप्त नमी होने पर पौधे मुरझा जाते हैं जिसके कारण उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है| इसके लिए मृदा नमी को ध्यान में रखते हुए नियमित अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए|
सेम फसल में रोग व कीट रोकथाम
1. सेम की फसल में फफूंद रोग ज्यादा लगता है| इसके लिए रोग रोधी किस्म का चुनाव करना चाहिए, इसके साथ साथ 2 ग्राम बाविस्टिन से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करना आवश्यक होता है| और बुवाई से पहले 10 किलोग्राम फोरेट 10 जी का खेत में बुरकाव करना चाहिए|
2. इस फसल में बात जहां कीटों की है, चैपा और बीन बीटल जैसे किट फसल को बहुत नुकसान पहुचाते है| इनकी रोकथाम के लिए क्लोरपायरीफॉस 20 ईसी 3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में धोल बनाकर 10 से 15 दिन के अन्तराल पर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए| रोग व कीट रोकथाम की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- सेम की फसल के प्रमुख कीट एवं रोग और उनकी रोकथाम कैसे करें
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सेम फसल के फलों की तुड़ाई एवं भण्डारण
सब्जी के उपयोग के लिए हरी फलियों की तुड़ाई नर्म, मुलायम व हरी अवस्था में की जाती है| कुल मिलाकर 6 से 10 तुड़ाई की जाती है| सेम की हरी फलियों को 0 से 1.6 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान पर 85 से 90 प्रतिशत सापेक्षिक आर्द्रता पर 2 से 3 सप्ताह तक रखा जा सकता है|
सेम की खेती से पैदावार
फसल के अनुकूल स्थिति और उपरोक्त वैज्ञानिक विधि के अनुसार खेती करने के बाद सेम की फसल से विभिन्न किस्मों के अनुसार 90 से 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरी फलियों का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है|
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