अदरक के प्रमुख कीट एवं रोगों का नियंत्रण आवश्यक है| क्योंकि अदरक एक अत्यन्त गुणकारी नकदी फसल है| जिसका उपयोग मसाले के रूप में किया जाता है, साथ ही इसका उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है| भारत सम्प्पूर्ण विश्व का लगभग 50 प्रतिशत अदरक उत्पादित करता है, जिसकी सम्पूर्ण विश्व में बड़ी मांग है| भारत में अदरक का उत्पादन केरल, उड़ीसा, मेघालय, सिक्किम, असम, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, अरूणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, बंगाल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड आदि राज्यों में होता है|
अदरक उत्पादन से किसानों को अच्छी आय प्राप्त होती है, परन्तु विगत कुछ वर्षों से इस फसल में रोगों एवं कीटों के प्रकोप के कारण उत्पादन में भारी कमी आयी है| अदरक के उत्पादन में प्रकन्द सड़न, जीवाणुज म्लानि, पीत रोग, पर्ण चित्ती, भंडारण सड़न आदि प्रमुख रोग और कुरमुला कीट तथा अदरक की मक्खी प्रमुख कीट हैं, जो अदरक की फसल को अत्यधिक आर्थिक क्षति पहुँचाते हैं| इस क्षति से उबरने के लिए किसान विभिन्न प्रकार के रसायनों का उपयोग करते हैं, परन्तु उन्हें वांछनीय लाभ नहीं मिल पा रहा है साथ ही रासायनिक जैवनाशियों से वातावरण भी दूषित हो रहा है|
अदरक में कीटों तथा बिमारियों के अधिक प्रकोप के मुख्य कारणों में उचित फसल चक्र का न अपनाना, कच्ची गोबर की खाद का प्रयोग करना, उचित जल निकास का प्रबन्ध न होना, बीज प्रकन्दों के समुचित उपचार का अभाव, बीज प्रकन्दों का अनुचित भंडारण, किसानों द्वारा कीटों और व्याधियों की सही पहचान न कर पाना आदि मुख्य हैं| इस लेख में अदरक के प्रमुख रोगों एवं कीटों का समेकित नाशीजीव प्रबंधन कैसे करें का विस्तार से उल्लेख किया गया है| अदरक की उन्नत खेती की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अदरक की उन्नत खेती कैसे करें
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अदरक फसल के नाशीजीव
मृदु विगलन या प्रकन्द सड़न
इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों पर दिखाई पड़ते हैं, जिससे पत्तियों का रंग हल्का फीका हो जाता है| पत्तियों का यह पीलापन पत्तियों की नोंक से शुरू होकर नीचे की ओर बढ़ता है| धीरे-धीरे पूरी पत्ती पीली पड़कर सूख जाती है| पौधा जमीन की सतह के पास भूरे रंग का हो जाता है और देखने पर पिलपिलापन महसूस होता है|
मृदु विगलन जड़संधि से शुरू होकर प्रकन्द तक फैलता जाता है| कंदों के ऊपर का छिलका स्वस्थ प्रतीत होता है, जबकि अन्दर का गूदा सड़ जाता है| सूत्रकृमि, राइजोम मैगट, कुरमुला कीट आदि इस रोग की उग्रता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं| ये गाठों में छेद कर फफूंद के प्रवेश को सुगम बना देते हैं, जिससे सड़न रोग अधिक तेजी से फैलता है|
पीत रोग
इस रोग की शुरूआत में अदरक की निचली पत्तियों के किनारे पीले रंग के दिखाई देते हैं और बाद में धीरे-धीरे पूरी पत्ती पीली हो जाती है| परन्तु पत्तियाँ झड़कर जमीन पर नहीं गिरती हैं| पूरा पौधा अन्ततः मुरझाकर सूख जाता है| रोगी पौधे का निचला हिस्सा मुलायम तथा जलासिक्त हो जाता है और तने को मात प्रकन्द से आसानी से खींच कर उखाड़ा जा सकता है| ग्रसित प्रकन्द का विकास रूक जाता है और प्रभावित हिस्से का रंग सफेद हो जाता है| अत्यधिक आर्द्रता, अधिक तापमान और मिट्टी में अधिक नमी इस रोग को बढ़ाने में सहायक होती है|
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पर्ण चित्ती या धब्बा
इस रोग में पत्तियों पर विभिन्न आकार के हल्के भूरे या गहरे भूरे धब्बे बनते हैं| धब्बे आपस में मिलकर पत्तियों के एक बड़े हिस्से को रोगग्रसित कर देते हैं| कभी-कभी धब्बों के चारों ओर पीला घेरा भी बनता है| रोग की उग्र अवस्था में पत्तियाँ सूख जाती हैं| छाया में उगने वाले पौधों की अपेक्षा खुले में उगी फसल इस रोग से ज्यादा प्रभावित होती है|
जीवाणुज म्लानि या उकठा
इस रोग के कारण तने पर जमीन की सतह के पास जलासिक्त धब्बे या पतली लम्बी धारियाँ दिखाई देती हैं| प्रभावित तना व प्रकन्द चिपचिपा हो जाता है और उससे दुर्गन्ध आती है| तने को आसानी से खींच कर प्रकन्द से अलग किया जा सकता है| यदि प्रभावित प्रकन्द के एक छोटे टुकड़े को साफ पानी में थोड़ी देर रखें तो पानी का रंग गंदला या दूधिया हो जाता है|
स्क्लेरोशियम सड़न
रोगग्रस्त पौधे की ऊपरी पत्तियों की नोक हल्की पीली हो जाती है और अन्ततः पूरा पौधा पीला हो जाता है| बाद में तने व प्रकन्द के जोड़ के पास का रंग हल्के से गहरा भूरा हो जाता है| निचले हिस्से के सड़ने के कारण संक्रमित पौधा गिर जाता है| संक्रमित भाग पर छोटे-छोटे काले रंग के बिखरे हुए स्क्लेरोशिया भी दिखाई पड़ते हैं|
मूलग्रन्थि रोग
सूत्रकृमि जनित इस रोग से संक्रमित पौधों की बढ़वार रूक जाती है| पत्तियाँ पीली पड़कर लटक जाती हैं| मुख्य जड़ में गोल और अण्डाकार आकार की कई गाँठे बनती हैं|
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भंडारण सड़न
भंडारण के दौरान कई प्रकार के कवक और जीवाणु अदरक पर आक्रमण करते हैं| जिसके फलस्वरूप प्रकन्दों में सड़न शुरू हो जाती है| भंडारण में प्रकन्द सड़न अधिकांशतः चोटिल या कटे-फटे प्रकन्दों में विभिन्न प्रकार की फफूंदों के संक्रमण के कारण होती है| भंडारण में दीमक का प्रकोप भी होता है| जिनके भक्षण से प्रकंद अंदर से खोखले होकर सूख जाते हैं|
कुरमुला कीट
मानसून की पहली बरसात के साथ ही मई से जून के महीने में कुरमुला कीट के वयस्क जमीन से बाहर निकलते हैं| मादा द्वारा जमीन में दिये गये अण्डों से निकले गिडार की द्वितीय और तृतीय अवस्थाएँ अदरक की जड़ों को खाकर हानि पहुँचाते हैं| कच्चे गोबर को खाद के रूप में प्रयोग करने से इसका प्रकोप बढ़ जाता है|
अदरक की मक्खी या मैगट
यह अदरक का एक प्रमुख कीट है, जो खेतों और भंडार घर दोनों में क्षति पहुँचाता है| इस कीट का मैगट हल्के सफेद रंग का होता है, जो अदरक के प्रकन्दों में छेद कर अन्दर घुस जाता है और अन्दर के भागों को खाता है| जिससे अदरक में सड़न हो जाती है| इस कीट की कुछ प्रजातियाँ अदरक के पौधों, तनों एवं प्रकन्दों में छेद कर अन्दर के भागों को खाकर भी क्षति पहुँचाती हैं|
उपरोक्त कीटों और रोगों के नियंत्रण के लिए एक समेकित नाशीजीव प्रणाली विकसित की गयी है| जो कि विभिन्न संस्तुतियों के समुचित समावेश पर आधारित है| समेकित नाशीजीव प्रणाली भौतिक, यांत्रिक, सामान्य शस्य क्रियाएं, जैविक और रासायनिक कीटनाशकों का समयानुसार, तर्कसंगत एवं विवेकपूर्ण क्रियान्वयन है| इस प्रणाली का मुख्य उद्देश्य नाशीजीवों को आर्थिक क्षति स्तर से नीचे रखते हुए, उपलब्ध संसाधनों से तथा पर्यावरण पर न्यूनतम प्रतिकूल प्रभाव के, फसल का वर्षान्तर टिकाऊ उत्पादन है|
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अदरक में समेकित नाशीजीव प्रबंधन
उपलब्ध जानकारियों के आधार पर अदरक के रोगों और कीटों के समेकित प्रबन्धन के लिए निम्नलिखित प्रणाली अपनायी जानी चाहिए, जो इस प्रकार है, जैसे-
खेत की तैयारी
1. अदरक की फसल के लिए अच्छे जल निकास वाले खेतों का ही चुनाव किया जाना चाहिए| जिन खेतों में प्रंकद सड़न बीमारी लगातार आ रही है, वहाँ 5 वर्षीय फसल चक्र अपना कर उसमें झंगोरा, मंडुआ व मक्का फसलों को सम्मिलित किया जाना चाहिए|
2. खेतों की गहरी जुताई करनी चाहिए, जिससे उसमें पल रहे कुरमुला कीट की विभिन्न अवस्थाएं, सूर्य के प्रकाश से प्रभावित होकर नष्ट हो जाएं या परभक्षियों द्वारा उनका भक्षण हो सके|
3. खेत की जुताई के पश्चात् हल्की सिंचाई कर पारदर्शी प्लास्टिक की चादर से 30 से 40 दिन तक ढक कर भूमि का सौरीकरण करना चाहिए|
4. गोबर की सड़ी खाद का प्रयोग करने के 10 से 15 दिन पूर्व ट्राइकोडर्मा हरजियानम नामक जैव अभिकर्ता (250 ग्राम प्रति क्विंटल खाद) खाद में मिलाकर ढेर लगाने के बाद उसे प्लास्टिक की चादर से ढ़क देना चाहिए|
5. बुवाई के लिए सदैव उन्ही प्रकन्दों का ही चुनाव करें जिन्हे रोग रहित खेतों से लिया गया हो, प्रकंद रोग रहित और कटे फटें नही होने चाहिए|
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फसल बुवाई
1. बुवाई के समय अदरक प्रकन्दों को जैव अभिकर्ता ट्राइकोडर्मा हरजियानम 6 से 8 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल से उपचारित करें या कार्बेन्डाजिम 100 ग्राम + मैन्कोजेब 250 ग्राम + क्लोरोपाइरीफॉस 250 मिलीलीटर को 100 लीटर पानी में मिलाकर घोल से उपचारित करें| यदि जीवाणुज म्लानि का प्रकोप होता है, तो उपरोक्त रसायनों के साथ 20 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन भी मिला लें|
2. प्रकंदों को ऊँची मेंढ़ो पर लगाना चाहिए, ताकि खेतों में इकट्ठा हुए पानी से प्रकंद रोगग्रसित न हों|
3. खेत को साफ-सुथरा रखना चाहिए और बुवाई के समय पौधों के बीच उचित दूरी रखनी चाहिए|
4. बुवाई के पश्चात खेतों में नमी संरक्षण हेतु उपयोग किये जाने वाले पुवाल में उन्ही पेड़ों की पत्ती या घास का उपयोग करना चाहिए जो कि अदरक सड़न के रोगाणुओं तथा कुरमुला कीट को बढ़ने में सहायक न हो|
खेतों की निगरानी
1. खेतों की नियमित निगरानी करें, जिससे कि खेत में आने वाली बीमारियों एवं कीटों का समय रहते पता चल सके|
2. खेतों की समय पर निराई गुड़ाई करनी चाहिए और यदि कुरमुला कीट के गिडार मिलें तो उन्हें एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिए|
3. कुरमुला कीट और सूत्रकृमि से बचाव के लिए अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट का ही प्रयोग किया जाना चाहिए, जिसमें कुरमुला कीट के प्रबंधन के लिए जैव अभिकर्ता मेटाराइजियम ऐनिसोप्लिए को मिलाया जाना चाहिए|
4. रात्रि के समय कुरमुला कीट के वयस्क पोषक वृक्षों पर खाने और मैथुन क्रिया हेतु एकत्रित होते हैं| अतः रात्रि में 8 से 10 बजे तक इन पेड़ों की टहनियों को डंडे से हिलाकर कीटों को एकत्रित करके मिट्टी के तेल मिले पानी में डाल कर इन्हें नष्ट कर देना चाहिए| यह कार्य सामूहिक रूप से करने से ही प्रभावी होता है, मई के द्वितीय सप्ताह (मानसून की पहली बरसात के बाद) से प्रकाश-प्रपंच लगाकर भी इस कीट के वयस्कों को प्रकाश स्रोत पर आकर्षित करके नष्ट किया जाना चाहिए|
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5. रोगग्रसित पौधों को प्रकन्द सहित उखाड़ कर नष्ट कर दें और उस स्थान की मिट्टी को ट्राइकोडर्मा हरजियानम (8 से 10 ग्राम प्रति लीटर) के घोल या कार्बेन्डाजिम 0.2 प्रतिशत या मेटाएक्सिल 0.25 प्रतिशत के घोल से तर कर दें|
6. जिन क्षेत्रों में बीज प्रकंदों को उपयोग हेतु तीन से चार माह बाद वापिस निकाल लिया जाता है| उन क्षेत्रों में भी इस क्रिया के बाद उपरोक्त रसायनों से कटे जड़ के पास सिंचाई करनी चाहिए|
7. जिन क्षेत्रों में अदरक सड़न रोग प्रतिवर्ष आता है, वहाँ कार्बेन्डाजिम 0.2 प्रतिशत या मेटाएक्सिल 0.25 प्रतिशत के घोल से पहली वर्षा होने या फसल एक माह की हो जाने पर, पौधों की जड़ों में सिंचाई करें|
8. जिन क्षेत्रों में कुरमुला कीट के सफेद गिडारों का प्रकोप होता है| वहाँ क्लोरोपाइीफॉस 20 ई सी रसायन की 80 मिलीलीटर मात्रा को 1 किलोग्राम भुरभुरी मिट्टी या राख में मिलाकर प्रति 200 वर्ग मीटर की दर से खेत में डालकर मिट्टी में मिलाएं| अदरक के कन्दों की बुआई कतार में ही करना चाहिए, जिससे कीट के प्रकोप बढ़ने पर खेत में कीटनाशी का छिडकाव या बुरकाव आसानी से किया जा सके|
प्रकंदों की खुदाई
1. खुदाई के समय खेत में रोगग्रस्त पौधों से प्राप्त प्रकंद बीज के लिए नहीं रखने चाहिए|
2. फसल की खुदाई के पश्चात् फसल के अवशेषों को खेत में नही छोड़ना चाहिए और इन्हें एकत्र कर नष्ट कर दें|
3. प्रकन्दों को भंडारण में होने वाली सड़न से बचाने के लिए खुदाई करते समय ध्यान रखना चाहिए कि प्रकन्द कटने न पाएं और उनके छिलके न उतरें|
प्रकंद बीजों का भंडारण
1. अदरक बीज के लिए प्रकंदों का भंडारण छाया में बनाये गये गड्ढों में करना चाहिए|
2. बीज प्रकन्दों के भंडारण के लिए कच्चे गड्ढों की भली भाँति सफाई करें और उन्हें एक सप्ताह तक धूप में खुला छोड़ दें, जिससे कि गड्ढे में नमी न रहे| भंडारण करने से पहले प्रकन्दों को कार्बेन्डाजिम 100 ग्राम + मैन्कोजेब 250 ग्राम + क्लोरोपाइरीफॉस 250 मिलीलीटर को 100 लीटर पानी में मिलाकर, घोल में प्रकंदों को एक घंटे तक उपचारित करें|
3. गड्ढे में प्रकंदों को पूरी तरह न भरें तथा गड्ढे का लगभग एक चौथाई भाग ऊपर से खाली रखें| खाली भाग में सूखी घास भर कर गड्ढे को ऊपर से लकड़ी के तख्ते से ढक दें, इस प्रकार उपरोक्त विधि से पक्के गड्ढो में भी भंडारण किया जा सकता है|
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