अरहर की जैविक खेती, देश में क्षेत्रफल और उत्पादन दोनों की दृष्टि से अरहर का दलहनी फसलों में प्रमुख स्थान है, जिसकी उत्पादकता 500 से 700 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर हैं| कम उत्पादकता का प्रमुख कारण कम उर्वरकों का उपयोग तथा कम उत्पादकता वाली किस्मों का बोया जाना है| सम्पूर्ण भारत में अरहर की दाल बड़े चाव से खाई जाती है, इसकी हरी फलियों की सब्जी भी बनाई जाती है| पौधों की हरी पत्तियाँ पशुओं के लिए स्वादिष्ट और पौष्टिक चारे के रूप में प्रयोग की जाती हैं और दाल के छिलके एवं अवशेषों का उपयोग पशुओं के लिए आहार के रुप में किया जाता है|
गहाई के बाद अरहर की सूखी लकड़ी का उपयोग घरों में खाना बनाने के लिए, आग जलाने के लिए एवं छप्पर आदि बनाने के काम में लिया जाता है| अरहर एक दलहनी फसल होने के कारण यह मिटटी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के साथ-साथ मिटटी के कटाव को रोकने में मदद करती हैं| अरहर की मुसला जड़ होने के कारण पौधों में सूखा सहन करने की क्षमता काफी अधिक होती है|
पिछले कुछ वर्षों से अरहर की जैविक खेती पर शोध कार्य प्रारंभ किया गया हैं| जिसके परिणामस्वरुप यह स्पष्ट हो गया है, कि अरहर की जैविक पद्धति द्वारा अरहर की खेती करके भरपूर उपज ली जा सकती हैं| इस लेख में अरहर की जैविक खेती कैसे करें, जानिए किस्में, देखभाल और पैदावार का विस्तृत विवरण उपलब्ध है|
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अरहर की जैविक खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
अरहर की जैविक फसल आर्द्र और शुष्क दोनों ही प्रकार के गर्म इलाकों में भली प्रकार उगाई जा सकती है, लेकिन शुष्क भागों में इसे हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती हैं| फसल की प्रारम्भिक अवस्था में पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए नम जलवायु की आवश्यकता होती है, बहुत अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में भी अरहर की फसल सफलतापूर्वक लगाई जा सकती हैं|
अरहर की जैविक खेती के लिए भूमि का चयन
अरहर की खेती के लिए बलुई दोमट एवं दोमट भूमि अच्छी होती हैं| परन्तु इसकी खेती हर प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं| वह भूमि जहाँ पर जल निकास का उचित प्रबंध हो तथा जिसका पी एच मान उदासीन हो वह भूमि सर्वोत्तम होती है| लवणीय और क्षारीय भूमि में इसकी अरहर की जैविक खेती करने पर उपज कम प्राप्त होती हैं|
अरहर की जैविक खेती के लिए खेत की तैयारी
रबी फसल की कटाई के पश्चात पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करने के बाद दूसरी जुताई देशी हल से करनी चाहिए| इसके पश्चात् पाटा लगाकर खेत के ढेलों को तोड़कर मिट्टी का ‘भुरभुरा करना चाहिए, ताकि खेत समतल हो जाये और वर्षा ऋतु में जल निकास सही बना रहे|
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अरहर की जैविक खेती के लिए किस्में
अरहर की जैविक पद्धति से खेती करते समय स्थानीय उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए जो कि मिटटी और जलवायु के अनुकूल होने के साथ-साथ कीटों तथा बीमारियों के लिए प्रतिरोधक होनी चाहिए| कुछ प्रमुख उन्नत किस्में इस प्रकार है, जैसे-
प्रमुख किस्में- आशा, उपास- 120, मूसा अगेती, शारदा, मुक्ता, जवाहर- 4, खरगौन- 2 आई सी पी एल- 151, बसंत, नरेन्द्र आदि|
अरहर की जैविक खेती के लिए बुआई का समय
फसल की बुआई अगेती करना लाभदायक रहता हैं, जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहाँ पर 1 से 15 जून तक फसल की बुआई कर देनी चाहिए| वर्षा पर निर्भर रहने वाले क्षेत्रों में बुआई जुलाई को प्रथम सप्ताह में ही कर देनी चाहिए| बुआई के समय का प्रभाव पैदावार पर सीधा पड़ता है| जुलाई के प्रथम सप्ताह के बाद बुआई करने से पैदावार में कमी की संभावना होती है|
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अरहर की जैविक खेती के लिए बीज उपचार और बुआई
वातावरण की नत्रजन के प्रभावशाली जैव रिथरीकरण के लिए अरहर के बीजों को राइजोबियम कल्चर (अरहर का कल्चर और जीवाणु टीका) से उपचारित करते हैं| प्रत्येक किलोग्राम बीज के लिए 5 ग्राम कल्चर का उपयोग करना चाहिए| इसके लिए बीजों को बुआई से पहले गुड़ के घोल से नम करके उसे जीवाणु कल्चर के साथ अच्छी तरह मिलाते हैं तथा छाया में सुख़ाते हैं|
फॉस्फोरस विलयकारी जीवाणु (पी एस बी) कल्चर से बीज को उपचारित करके मिटटी में फास्फोरस की उपलब्धता को बढ़ाया जा सकता है| अरहर के बीजों को 4 से 6 सेंटीमीटर गहराई पर सीड ड्रिल के द्वारा बोन चाहिए| बीज की मात्रा एवं फसल अंतरण आदि फसल किस्मों पर निर्भर करती हैं, जैसे-
देरी से पकने वाली किस्मों के लिए 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर (फसल अंतर 120 X 30 सेंटीमीटर)
मध्यम पकने वाली किस्मों के लिए 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर (फसल अंतर 90 X 20 सेंटीमीटर)
जल्दी पकने वाली किस्मों के लिए 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर (फसल अंतर 60 X 20 सेंटीमीटर)
जब अरहर की फसल को किसी अन्य फसल के साथ मिश्रित रुप में उगाया जाता है, तो 5 से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोया जाता है| अरहर की अगेती फसल में 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर, बीज की दर से बोया जाता हैं और पंक्ति से पंक्ति की दूरी 75 से 90 सेंटीमीटर पौधे से पौध की दूरी 25 से 30 सेंटीमीटर रखी जाती है| अरहर की फसल को सदैव पंक्तियों में बोना चाहिए, मेढ़ पर फसल की बोआई करने से अधिक पैदावार प्राप्त होती है|
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अरहर की जैविक फसल में सिंचाई प्रबंधन
अरहर की जल्दी और देर से पकने वाली फसलों की सिंचाई आवश्यकतानुसार करनी चाहिए, लेकिन फली भराव के समय सिंचाई करना आवश्यक है|
अरहर की जैविक फसल में पोषण प्रबंधन
कृषकों में आमतौर पर यह धारणा है, कि दलहनी फसलों में जैविक खादों जैसे गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद देने की कोई आवश्यकता नहीं है| परन्तु वास्तविकता यह हैं, कि इन फसलों की जड़े मूसला होती हैं जो कि काफी गहराई तक जाती हैं| इन जड़ों में लाखों की संख्या में लाभदायक जीवाणु माये जाते हैं, जिनकी समुचित वृद्धि के लिए आवश्यक है कि खेत की मिट्टी भुरभुरी और हवादार रहे, जिससे जीवाणुओं को समुचित ऑक्सीजन मिल सके तथा उनकी सक्रियता बढ़ जाये|
जीवांशीय पदार्थों को भूमि में मिलाने से भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ जाती है तथा भौतिक दशा अनुकूल बनी रहती हैं| इसके साथ ही इन जैविक खादों के द्वारा सभी प्रकार के पोषक तत्व पौधों को पर्याप्त अवश्था में मिल जाते हैं| कुछ प्रमुख जैविक खादों में विद्यमान शेष तत्वों के आधार पर अरहर के लिए जेविक खादों की निर्धारित दर को निचे दर्शाया गया है| पोषक तत्व मान के आधार पर अरहर के लिए जैविक खाद की मात्र, जैसे-
खाद | नत्रजन की मात्रा (प्रतिशत) | निर्धारित मात्रा (टन प्रति हैक्टेयर) |
देशी गोबर की खाद | 0.5 से 1.0 | 3.0 से 6.0 |
कुकुट खाद | 1.5 से 2.0 | 1.5 से 2.0 |
केंचुआ खाद | 1.0 से 1.5 | 2.0 से 3.0 |
फरफो कम्पोस्ट | 0.5 से 1.0 | 3.0 से 6.0 |
कुकुट खाद का उपयोग करने से पहले 45 से 60 दिन तक उसे सिडाना या कम्पोस्ट करना चाहिए| कभी भी कच्ची खाद का उपयोग न करे, इससे खेत में दीमक लगने की आशंका होती है| जीवाशीय खादों को बुआई से 10 से 15 दिन पूर्व ही खेत में बिखरकर समान रूप से ऊपरी 15 सेंटीमीटर गहराई तक अच्छी तरह से मिला देना चाहिए| स्थानीय उपलब्धता के आधार पर उपरोक्त खादों में से कोई एक या दो या तीन खादों को सम्मिलित रुप से उपयोग कर सकते हैं|
जब जैविक खादों का सम्मिलित उपयोग हो रहा हो तो इस बात का प्रमुख रूप से ध्यान रखना चाहिए कि फसल को कुल मिलाकर 30 किलोग्राम नत्रजन प्रति हैक्टेयर मिले| इन खादों के साथ ही रॉक फॉस्फेट की 50 से 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करना चाहिए| फास्फो कम्पोस्ट खाद का उपयोग फॉस्फेट करने की स्थिति में रॉक फास्फेट की मात्रा 20 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर ही रखें|
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अरहर की जैविक फसल में कीट रोकथाम
फली छेदक इल्लियाँ-
लक्षण- फली छेदक, छोटी इल्लियाँ तो फलों के हरे उत्तकों को खाती हैं, बड़े होने पर कलियों, फूलों, फल्लियों व बीजो पर नुकसान करती है| इल्लियाँ फलियों पर टेड़-मेढ़े छेद बनाती है, जिससे वह फली में प्रवेश करती है| इल्लियाँ आमतौर पर नरम नरम दानों को खाती हैं|
फली का मत्कूण- शिशु और प्रौढ़ दोनों ही वृद्धिरत दानों को चूसते हैं| प्रकोपित फल तथा दाने सिकुड़ जाते हैं तथा बाद में बीज अंकुरित नही होते हैं| ऐसे दाने खाने योग्य नही रहते हैं| पशु आहार में भी काम नही आते|
प्लूम माथ-
लक्षण- इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है| प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी जो सकती है| कालान्तर में प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फंफूद आ जाती है|
फलीमक्खी-
लक्षण- फली मक्खी के अंडों से छोटे सफेद रंग के मेगट बाहर आते हैं और वृद्धिरत दानों को खाने लगते हैं, जिसके कारण दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है तथा दाने का आकार छोटा रह जाता है| प्रकोपित दाने न तो खाने के न ही बोने के काम आते हैं|
रोकथाम-
1. प्रकाश प्रपंच का उपयोग कर प्रौढ़ कीटों को नष्ट करें|
2. फेरोमोन ट्रेप लगावें|
3. पौधे के फूल अवस्था आने पर पक्षियों के बैठने का आश्रय स्थल की व्यवस्था करें|
4. इल्ली जब छोटी हो यानि की 1 से 3 अवस्था, उस समय जैविक विधियों का उपयोग करके इल्लियों को नियंत्रित किया जा सकता है| जैसे एन पी बी 450 से 500 एल इ प्रति हेक्टेयर और 0.1 प्रतिशत यू वी रिटारडेन्ट तथा 0.5 प्रतिशत गुड़ के मिश्रण को शाम के समय छिड़काव करें या बेसीलस थुरनजनेसीस 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के मान से छिड़काव करें|
5. नीम बीज की गुली का सत 5 प्रतिशत या नीम का तेल 1 से 1.5 प्रतिशत + चिपचिपा पदार्थ 5 प्रतिशत या एजाडिरेक्टा 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करें|
6. नीम का तेल 1.5 प्रतिशत, करंज का तेल 1.5 प्रतिशत, निम्बिसडिन 5, सीताफल के बीज का सत 5 प्रतिशत, मदार के पत्ती का सत 5 प्रतिशत, का छिड़काव करें|
7. पक्षी आश्रय स्थल की व्यवस्था करना|
8. प्राकृतिक शत्रु- यूलोफिड एंव यूडेरस एग्रोमाइजी कीट फली मक्खी के मेगट पर परोपजीवी है|
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अरहर की जैविक फसल में रोग रोकथाम
सरकोस्पोरा पत्ता धब्बा- भूरे या काले रंग को गोल से कोणीय धब्बे पत्तों पर प्रकट होते हैं| आर्द्र मौसम में इतने धब्बे पड़ते हैं कि वह आपस में मिलकर बड़े बेतरतीव धब्बे बनाते हैं| इस स्थिति में पत्ते मुरझा जोते हैं और सुखकर गिर जाते हैं|
रोकथाम-
1. अरहर की जैविक खेती हेतु स्वस्थ बीज को बोआई के उपयोग में लें|
2. गौमूत्र तथा छाछ के मिश्रण या पंचगव्य प्रत्येक का 10 प्रतिशत का छिड़काव 10 दिन के अंतराल पर करें|
चूर्ण आसिता- पत्तों पर सफेद चूर्णिल सी बढ़वार आती है जो तने व पौधे के अन्य भागों पर फैल जाती है|
रोकथाम- छाछ या गौमूत्र में हींग मिलाकर छिड़काव करें, 1 लिटर में 5 ग्राम की दर से|
अरहर की जैविक फसल की कटाई और गहाई
अरहर की किस्म के अनुसार फसल 120 से 240 दिन तक पककर तैयार हो जाती हैं| अगेती फसल नवम्बर से दिसम्बर और देर से पकने वाली फसल मार्च से अप्रैल में काटी जाती हैं| फसल को अच्छी प्रकार सुखाकर डंडों से झड़ाई कर लेते हैं। इसके लिए पुलमैन श्रेसर भी काम मैं लाया जा सकता है|
अरहर की जैविक से पैदावार
सामान्य खेती (रसायनिक खेती) से जैविक खेती के प्रथम वर्ष में अरहर की उपज में 5 से 10 प्रतिशत की कमी हो सकती है| लेकिन उसके पश्चात् जैविक खेती में उप साधारण खेती के बराबर या उससे अधिक प्राप्त होती है| किस्मों के अनुसार दाने की उपज 15 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है और साथ ही साथ 50 से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेअर टल प्राप्त होती है| दाने को अच्छी प्रकार सुखाकर जब उसमें 10 से 12 प्रतिशत नमी रह जाए तब इसे भण्डार में रखना चाहिए|
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