कद्दू वर्गीय सब्जियां ग्रीष्म और वर्षा दोनों ही ऋतुओं में उगाई जाती हैं| कद्दू वर्गीय सब्जियों में लौकी, कद्दु, तुरई, करेला, टिण्डा, खीरा, ककडी, तरबूज, खरबूज आदि सब्जियों आती हैं| गर्मी के मौसम में इनका सेवन शरीर को ठंडा एवं ताजगी प्रदान करता हैं| इन सब्जियों को उचित तकनीकी अपनाकर कम समय व कम पानी के साथ अधिक उत्पादन ले सकते है| कद्दू वर्गीय सब्जियों में कई प्रकार के रोग, कीट व सूत्रकृमि लगते हैं| जिसमें से जड़ गांठ सूत्रकृमि एक उभरती हुई विकराल समस्या है| सूत्रकृमि सूक्ष्म जीव होते हैं, जो नग्न आंखों से दिखाई नहीं देते हैं एवं आसानी से पहचाने भी नहीं जा सकते हैं|
लेकिन प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रुप से कद्दू वर्गीय सब्जियों को बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं| सूत्रकृमि जड़ गांठ (मेलॉइडोगाइनी स्पि.) सर्वव्यापी और बहुभक्षी सूत्रकृमि है, जो कई सब्जियों को भारी क्षति पहुँचाते हैं और इसके द्वारा सब्जियों की पैदावार में लगभग 30 से 60 प्रतिशत क्षति हो जाती है| इस लेख में कद्दू वर्गीय सब्जियों में लगने वाला जड़ गांठ सूत्रकृमि एवं उसका प्रबन्धन कैसे करें का उल्लेख किया गया है| कद्दू वर्गीय सब्जियों की उन्नत खेती की जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- कद्दू वर्गीय सब्जियों की उन्नत खेती कैसे करें
कद्दू वर्गीय सब्जियों में जड़ गांठ सूत्रकृमि के लक्षण
1. कद्दू वर्गीय सब्जियों में जड़ों पर छोटी मोटी विभिन्न आकार की गांठे बन जाती है|
2. खेत में पौधे एक समान ऊँचाई के नहीं रहकर कहीं पर बड़े और कहीं पर छोटे रह जाते हैं|
3. पत्तियां पीली पड़ जाती है एवं हरित लवक की कमी हो जाती हैं, जिससे पौधों में भोजन बनाने कि प्रक्रिया बुरी तरह से प्रभावित हो जाती हैं|
4. पौधों में पार्श्वशाखाएं कम निकलती हैं और स्फुटन नहीं होता है|
5. पुष्प परिपक्वता से पूर्व गिरने लगते हैं तथा पौधे अपना जीवन चक परिपक्वता से पूर्व ही समाप्त कर देते हैं|
6. कद्दू वर्गीय सब्जियों में फसलों के उत्पादन में भारी कमी हो जाती है|
7. पौधे दिन के समय ज्यादा मुरझा जाते हैं व कभी कभी सुखकर मर जाते हैं|
8. कद्दू वर्गीय सब्जियों की जड़ें फूल जाती हैं और गुच्छेनुमा हो जाती हैं|
9. कद्दू वर्गीय सब्जियों के रोगग्रस्त पौधे आसानी से उखड़ जाते हैं|
10. कद्दू वर्गीय सब्जियों में के फल और पुष्प के आकार व संख्या में कमी आ जाती है|
यह भी पढ़ें- खीरा की उन्नत खेती कैसे करें
कद्दू वर्गीय सब्जियों में जड़ गांठ सूत्रकृमि की रोकथाम
ग्रीष्मकालीन जुताई- ग्रीष्म ऋतु (मई से जून) के महीने में 10 से 15 दिन के अंतराल पर, 15 से 25 सेंटीमीटर गहरी जुताई 2 से 3 बार करने पर सूत्रकृमियों की संख्या में कमी आती है| ग्रीष्म जुताई के कारण मिटटी में उपस्थित नमी खत्म हो जाती है तथा नमी की कमी के कारण सूत्रकृमियों की संख्या में कमी हो जाती हैं|
मिट्टी सौरीकरण- मिट्टी सौरीकरण हेतु सर्वप्रथम मिटटी की सतह को समतल किया जाता है| मिटटी समतलीकरण के पश्चात उस जगह पर हल्की सिंचाई करनी चाहिए ताकि मिटटी में उपस्थित सूत्रकृमि, कीट व अन्य रोगकारक अवस्थाएँ और खरपतवार सक्रिय हो जाये| इसके बाद उस स्थान को पतली पारदर्शक पोलीथीन (30 से 100 मिलीमीटर) से ढक देना चाहिए और उसके चारों ओर किनारों को मिट्टी से ढक देना चाहिए जिससे अन्दर की गर्मी बाहर नहीं आ सकें और अन्दर का तापमान बना रहें|
यह क्रिया 15 से 25 दिन तक के लिए करनी चाहिए| पोलीथीन शीट के अन्दर की गर्मी के कारण मिटटी में उपस्थित जल, वाष्प के रूप में परिवर्तित हो जाता है| जिसके कारण मिटटी का तापमान सामान्य से 8 से 10 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है तथा सूत्रकृमि, हानिकारक कीट, कवक, जीवाणु, विषाणु और खरपतवार नष्ट हो जाते है|
फसल अवशेषों को नष्ट करना- फसल की कटाई के बाद पौधों की जड़ों को उखाड़कर जला देना चाहिए क्योंकि फसल अवशेषों में सूत्रकृमि रह जाते हैं तथा अगली फसल को हानि पहुँचाते हैं|
यह भी पढ़ें- घिया (लौकी) की उन्नत खेती कैसे करें
कार्बनिक पदार्थों का प्रयोग- कार्बनिक पदार्थों का प्रयोग करके सूत्रकृमियों की संख्या पर नियंत्रण किया जा सकता हैं| जो इस प्रकार है, जैसे-
1. गोबर की खाद या कम्पोस्ट 2 क्विंटल के साथ 2 किलोग्राम जैव कारक मिलाकर कम से कम 15 दिन के लिए छाया में रख देते हैं और उचित नमी बनायें रखते हैं तथा इस मिश्रण को बुवाई के समय मिटटी में मिला देते हैं|
2. नीम/करंज/महुआ/सरसों आदि की खली 2 क्विंटल प्रति हेक्टर के हिसाब से मिटटी में मिलाते हैं| इन सभी पदार्थों की निशचित मात्रा को बुवाई से 15 दिन पूर्व खेत में मिलाकर प्रयोग में लेना सूत्रकृमियों के प्रति ज्यादा प्रभावशाली पाया गया है|
जैवकारकों का प्रयोग- सूत्रकृमियों से ग्रसित मिटटी में प्रबंधन के लिए जैवकारकों का प्रयोग बहुत ही फायदेमंद तथा प्रचलित विधि है| इसमें कई जैवकारकों जैसे- कवकजनित (पेसिलोमाइसिस लिलासिनस, ट्राइकोडर्मा विरिडी/हरजियानम, पोचोनिया क्लेमायडोस्पोरियम), जीवाणु जनित (स्यूडोमोनास फ्लोरसेन्स, पाश्चुरिया पेनेट्रान्स) का प्रयोग बीजोपचार (10 से 20 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) के रूप में प्रयोग करना बहुत ही अच्छा पाया गया हैं|
रासायनिक उपचार- कद्दू वर्गीय सब्जियों में सूत्रकृमियों के प्रारम्भिक संक्रामकता को रोकने के लिए कार्बोसल्फॉन 25 डी एस से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करते हैं| रोग की अधिकता होने पर कार्बोफ्यूरॉन 3 जी और फॉरेट 10 जी की 2 किलोग्राम सकिय तत्व की मात्रा प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग में लेनी चाहिए|
यह भी पढ़ें- करेला की उन्नत खेती कैसे करें
यदि उपरोक्त जानकारी से हमारे प्रिय पाठक संतुष्ट है, तो लेख को अपने Social Media पर Like व Share जरुर करें और अन्य अच्छी जानकारियों के लिए आप हमारे साथ Social Media द्वारा Facebook Page को Like, Twitter व Google+ को Follow और YouTube Channel को Subscribe कर के जुड़ सकते है|
Leave a Reply