कुंदरू एक लतावाली बहुवर्षीय सब्जी की फसल है, जो कि किसी सहारे के साथ तेजी से बढ़ती है| यह अधिकतर गृह वाटिका में भारत के सभी हिस्सों में उगायी जाती है| कम ठंड पड़ने वाले स्थानों पर यह लगभग सालभर फल देती है| परन्तु जिन स्थानों पर ज्यादा ठंडक पड़ती है, वहां पर यह फसल 7 से 8 महीने फल देती है| यद्यपि यह एक अल्प उपयोगी सब्जी फसल है| लेकिन छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश एवं बिहार के कुछ हिस्सों में किसान इसे व्यवसायिक स्तर पर भी उगाते हैं|
कुंदरू पोष्टिक और विटमिन ए व सी का स्रोत है| भविष्य के बदलते हुए जलवायु परिवेश में कुंदरू एक महत्वपूर्ण सब्जी फसल के रूप में देखी जा रही है| इसलिए उत्पादक यदि इसकी वैज्ञानिक तकनीक से खेती करें, तो इसकी फसल से अच्छी उपज और लाभ प्राप्त किया जा सकता है| इस लेख में कुंदरू की उन्नत खेती कैसे करें की पूरी जानकारी उपलब्ध है| अन्य कद्दू वर्गीय सब्जियों की उन्नत खेती की जानकारी प्राप्त करने के लिए यहाँ पढ़ें- कद्दू वर्गीय सब्जियों की उन्नत खेती कैसे करें
कुंदरू की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
कुंदरू की सफल खेती के लिये गर्म और आर्द्र जलवायु सर्वाधिक उपयुक्त होती है| उत्तर भारत में ठंड के कारण इसकी बढ़वार बाधित हो जाती है और लता सुषुप्ता अवस्था में चली जाती है| इसलिए कुंदरू की फसल से अच्छे उत्पादन के लिए 30 से 35 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान का होना आवश्यक है|
कुंदरू की खेती के लिए भूमि का चयन
कुंदरू की फसल को लगभग सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है| परन्तु कार्बनिक पदार्थ युक्त बलुई दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त होती है| इसमें लवणीय मिट्टी को सहन करने की भी क्षमता होती है| हल्की एवं कमजोर भूमि में, उचित पोषक तत्वों का प्रयोग करके इसकी खेती की जा सकती है| ऐसी भूमि का चुनाव करना चाहिए जिसका पी एच मान 7.00 के लगभग हो|
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कुंदरू की खेती के लिए खेत की तैयारी
कुंदरू की खेती के लिए खेत को अच्छी प्रकार से तैयार करने की जरूरत पड़ती है| क्योंकि बहुवर्षीय फसल होने के कारण एक बार लगाया गया पौधा 2 से 4 वर्षों तक लगातार फल देता रहता है| मई से जून के महीने में गहरी जुताई करके खेत खुला छोड़ देते हैं| जिससे खरपतवार तथा कीट एवं रोग नष्ट हो जाएं| जुलाई के महीने में 2 से 3 बार हैरो या कल्टीवेटर से जुताई करके खेत में पाटा लगा देते हैं| लेकिन पानी निकासी का उचित प्रबंध आवश्यक है|
कुंदरू की खेती के लिए उन्नतशील किस्में
इंदिरा कुंदरू 5- इस कुंदरू की किस्म के फल हल्के हरे, अण्डाकार, फल की लम्बाई 4.30 सेंटीमीटर और व्यास 2.60 सेंटीमीटर होता हैं| यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है| इस किस्म से 21 किलोग्राम फल प्रति लता (बेल) प्राप्त किया जा सकता है| इसकी उत्पादन क्षमता 400 से 425 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
इंदिरा कुंदरू 35- इस किस्म के फल लम्बे, हल्के हरे तथा फल 6.0 सेंटीमीटर लम्बे और व्यास 2.43 सेंटीमीटर होता है| यह एक अधिक उत्पादन देने वाली किस्म है| इस किस्म से 22 किलोग्राम फल प्रति लता प्राप्त किया जा सकता है| इस किस्म की उत्पादन क्षमता 410 से 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
सुलभा (सी जी- 23)- कुंदरू की इस किस्म के फल लम्बे, 9.25 सेंटीमीटर, गहरे हरे रंग के होते हैं| यह रोपण के 37 से 40 दिन में पुष्पन में आती है और प्रथम तुड़ाई 45 से 50 दिन पर होती हैं| यह किस्म वर्षभर में लगभग 1050 फल प्रति पौधा देती है| इसकी उपज क्षमता 400 से 425 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
काशी भरपूर (वी आर एस आई जी- 9)- कुंदरू की इस किस्म के फल आकर्षक हल्के हरे, अण्डाकार और हल्की सफेद धारी युक्त होते हैं| यह रोपण के 45 से 50 दिन में फल देने लगती हैं| इस किस्म से 20 से 25 किलोग्राम फल प्रति पौधा प्राप्त किया जा सकते है| इसकी उत्पादन क्षमता 300 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
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कुंदरू की खेती के लिए खाद और उर्वरक
कुंदरू की फसल से अच्छी उपज के लिए 60 से 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 से 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर डालते हैं| फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा और नत्रजन की आधी मात्रा फसल रोपण के समय तथा बाकी की नत्रजन की मात्रा को चार बार में जून या जुलाई से प्रति माह देना चाहिये| इसके साथ ही प्रति गड्ढे में 10 किलोग्राम गोबर की खाद भी फसल रोपण के पहले देनी चाहिये| सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ ही प्रति गड्ढ़ा आधा किलो नीम खली मिलाने से कीड़े मकोड़े और रोगों का प्रकोप कम होता है|
कुंदरू की खेती के लिए फसल प्रबंधन और रोपण
कुंदरू को मुख्यतः कटिंग से ही लगाया जाता है| यह देखा गया है, कि पुराने प्ररोह की मोटी तना कटिंग में अंकुरण तीव्र गति से होता है| फरवरी के अंतिम सप्ताह से 15 मार्च के दौरान 15 से 20 सेंटीमीटर लम्बी तथा 1.5 से 2.0 सेंटीमीटर मोटी कंटिग को पोली बैग या सीधे जमीन में लगाते हैं| इन्हें अच्छी तरह तैयार किये गये गड्ढे जो कि 60 सेंटीमीटर व्यास के होते है| पौधे से पौधे की दूरी 2 मीटर तथा कतार से कतार की दूरी 2 मीटर रखते हैं|
कुंदरू की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन
कुंदरू की फसल को गर्मी में 4 से 5 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिये| फसल में पुष्पन एवं फलन के समय उचित नमी बनाये रखे| उचित जल निकस न होने तथा 24 घंटे तक पानी भरने की स्थिति में फसल पीली होकर सूख जाती है|
कुंदरू की खेती के लिए अंतः सस्य क्रियाये
कुंदरू फसल के खेत में खरपतवार प्रबंधन के लिए एक दो निराई की आवश्यकता फसल की प्रारंभिक अवस्था में होती है| निराई खुरपी की सहायता से करते हैं और दो पंक्तियों के बीच में हल्की गुड़ाई भी कर देते हैं, जिससे पौधों की जड़ों में वायु संचार पूर्ण रूप से हो सके|
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कुंदरू की फसल के पौधों को सहारा देना
कुंदरू की फसल काफी वानस्पतिक वृद्धि करती है| अतः इसे सहारे की आवश्यकता होती है| साधारणतया पंडाल पद्धति में 1.5 से 1.75 मीटर के सीमेट के खम्बे या बांस के टुकड़े आदि के सहारे फसल को चढ़ाया जाता है| उत्तर भारत में डंठक के कारण नवम्बर में फसल को जड़ से 30 सेंटीमीटर छोड़कर काट दिया जाता है| गृहवाटिका में इसे घरों की छतों पर, चाहरदीवारी पर भी चढ़ाकर उगाते हैं|
कुंदरू की फसल में कीट रोकथाम
फल मक्खी- इस कीट की सूण्डी हानिकारक होती है| प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है| इसके सिर पर काले और सफेद धब्बे पाये जाते हैं| प्रौढ़ मादा छोटे, मुलायम फलों के छिलके के अन्दर अण्डा देना पसन्द करती है तथा अण्डे से ग्रब्स (सूड़ी) निकलकर फलों के अन्दर का भाग खाकर नष्ट कर देती हैं| कीट फल के जिस भाग पर अण्डा देती है वह भाग वहाँ से टेढ़ा होकर सड़ जाता है और बाद में ग्रसित फल भी सड़ जाता है एवं नीचे गिर जाता है|
रोकथाम-
1. गर्मी की गहरी जुताई या पौधे के आस पास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिससे फलमक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाये या शिकारी पक्षियों को खाने के लिये मिल जाये|
2. ग्रसित फलों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए|
3. नर फल मक्खी को नष्ट करने के लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल, कीटनाशक (डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान), क्यूल्यूर को 6:1:2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टूकड़े को डुबाकर, 25 से 30 फंदा खेत में स्थापित कर देना चाहिए|
4. कार्बारिल 50 डब्ल्यू पी, 2 ग्राम प्रति लीटर या मैलाथियान 50 ई सी, 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी को लेकर 10 प्रतिशत शीरा अथवा गुड़ में मिलाकर जहरीले चारे को 250 जगहों पर प्रति हेक्टेयर खेत में उपयोग करना चाहिए| प्रतिकर्षी 4 प्रतिशत नीम की खली का प्रयोग करें जिससे जहरीले चारे की ट्रैपिंग की क्षमता बढ़ जाये|
5. अधिक प्रकोप की अवस्था में कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एस सी, 0.25 मिलीलीटर या डाईक्लारोवास 76 ई सी, 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से भी छिड़काव करें| इसके साथ अन्य कीटों की रोकथाम भी सम्भव है|
कुंदरू की गाल मक्खी- यह मक्खी पौधे के नरम तने में अण्डे देती है और तने का हिस्सा फल की तरह फूल जाता है|
रोकथाम- इसके नियंत्रण के लिए ऐसे प्रभावित तने को तोड़कर निकाल देना चाहिये|
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कुंदरू की फसल में रोग रोकथाम
मृदु चूर्णिल आसिता- यह बीमारी बदली वाले मौसम में होती है| इसमें पुरानी पत्ती की निचली सतह पर सफेद गोल धब्बे बन जाते हैं| जो बाद में आकार एवं संख्या में बढ़ जाते हैं और पत्ती की दोनों सतह पर आ जाते हैं| बीमारी के अधिक प्रकोप के समय पत्तियाँ भूरे होकर सुकड़ जाती है|
रोकथाम- इसके नियंत्रण हेतु बाविस्टीन 0.1 प्रतिशत का घोल का छिड़काव प्रति सप्ताह तीन सप्ताह तक बीमारी की प्रारम्भिक अवस्था में ही करें| कीट एवं रोग नियंत्रण और पहचान की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- कद्दूवर्गीय सब्जी की फसलों में समेकित नाशीजीव प्रबंधन कैसे करें
कुंदरू की फसल के फलों की तुड़ाई
कुंदरू के फलों की पहली तुड़ाई रोपण के 45 से 50 दिन पर होती है| बाद की तुड़ाई 4 से 5 दिन के अंतर पर करते रहते हैं|
कुंदरू की खेती से पैदावार
कुंदरू की फसल से उपज किस्म के चयन, खाद और उर्वरक की मात्रा और फसल की देखभाल पर निर्भर होती है| लेकिन उपरोक्त उन्नत तकनीक से इसकी खेती करने पर आमतौर पर हरे ताजे फलों की औसत उपज 300 से 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है|
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डॉ डीके साव says
Paudha chahiye 300