भारत ने कृषि के क्षेत्र और तिलहनी फसलों में बहुत उन्नति की है, जिसमें सिंचाई की उन्नत विधियाँ, सघन खेती तथा नत्रजन उर्वरकों के अधिक उपयोग के कारण फसलों की उपज में निरन्तर वृद्धि हुई है| रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग ने निश्चित रूप से नत्रजन के असंतुलित प्रयोग को बढ़ावा दिया है, जिसके फलस्वरूप गंधक (सल्फर) की कमी, फसलों की कम उपज हेतु एक महत्वपूर्ण कारक सिद्ध हो रही है| तिलहनी फसलों का भारतीय कृषि में महत्वपूर्ण स्थान है|
भारत में मुख्य रूप से 9 तिलहनी फसलों की खेती 284.4 लाख हेक्टेयर मे की जाती है (खाद्य तिलहनी फसलें- मूंगफली, राई/सरसों, तिल, कुसुम, सूरजमुखी, सोयाबीन, रामतिल एवं अखाद्य तिलहनी- फसलें अलसी एवं अरण्डी) जिससे 324.14 लाख टन उत्पादन होता है| विश्व में भारत मूंगफली, तिल, अरंडी, कुसुम तथा अलसी के कुल क्षेत्रफल में प्रथम, राई तथा सरसों में द्वितीय और सूरजमुखी में तृतीय स्थान रखता है|
परंतु भारत विश्व के कुल तिलहन उत्पादन का केवल 12 से 15 प्रतिशत ही पैदा करता है| भारत में तिलहन उत्पादकता का औसत केवल 1133 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जो कि विश्व औसत (1700 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) में से काफी कम है| इसका मुख्य कारण यह है, कि भारत में 80 प्रतिशत तिलहनी फसलें सूखा ग्रसित (असिंचित) क्षेत्रों में उगाई जाती हैं, एवं अधिकतर किसान केवल नत्रजन उर्वरक का ही प्रयोग करते हैं|
जिससे मृदाओं में पोषक तत्वों का संतुलन बिगड़ता जा रहा है| पौधों की वृद्धि एवं समुचित विकास के लिए आवश्यक 17 पोषक तत्वों (नत्रजन, फास्फोरस, पोटैशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, गंधक, कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन, मोलीब्डेनम, लोहा, मैंगनीज, तांबा, जस्ता, बोरान, क्लोरीन, एवं निकिल) में से नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटैशियम के पश्चात गंधक चतुर्थ महत्वपूर्ण पोषक तत्व हैं| तिलहनी फसलों में तेल निर्माण के लिए आवश्यक होने के कारण इन फसलों में गंधक अद्वितीय तत्व माना गया है|
जिसकी कमी पैदावार को प्रभावित करती है| भारतीय मृदाओं में गंधक की कमी 1960 दशक से पहले इतनी स्पष्ट नहीं थी| परंतु हरित क्रांति के पश्चात अधिक उत्पादन तथा खाद के प्रति अनुक्रिया दिखाने के प्रचलन से यह समस्या अधिक प्रगाढ़ हो गयी है| गंधक एवं अन्य सूक्ष्म तत्वों के अधिक दोहन के कारण यह समस्या आजकल अधिकतम क्षेत्रों में देखी जा सकती है| तिलहन उत्पादन वाले क्षेत्रों में लगभग 40 से 45 प्रतिशत मृदाओं में गंधक की कमी देखी गई है|
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गंधक का पादपों में महत्व
प्राचीन काल से ही यह ज्ञात है, कि गंधक, पादप व जन्तु वृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक पोषक तत्व है| प्रत्येक जीवित कोशिका में अनेक आवश्यक अभिक्रियाओं में गंधक की आवश्यकता होती है| पौधों की वृद्धि के साथ-साथ उनके उत्पादों की गुणवत्ता भी गंधक से प्रभावित होती है, जैसे-
1. लिग्निन एवं पेक्टिन के निर्माण में सहायक|
2. क्रूसीफेरी कुल के पौधों में विशेष गंध, गंधक के कारण होती है। प्याज व लहसुन से आने वाली तीखी गंध भी गंधक के फलस्वरुप होती है|
3. गंधक तिलहनी फसलों में सुडौल दानों के निर्माण में भी सहायक है|
4. गंधक कार्बोहाइड्रेट उपापचय को नियंत्रित करता है, तथा तेल की मात्रा को बढ़ाता है|
5. दलहनी फसलों की जड़ों में नत्रजन स्थिरीकरण ग्रन्थियों के निर्माण में तथा जैविक नत्रजन स्थिरीकरण में गंधक सहायक है|
6. यह गंधक युक्त एमीनो अम्लों जैसे- सिस्टीन, सिस्टाइन एवं मिथियोनिन के संश्लेषण में आवश्यक घटक है| अमीनों अम्ल तेल में चरपराहट लाकर तेल को स्वादिष्ट बनाते हैं|
7. यह हरित लवक के निर्माण में भी सहायक है|
8. गंधक सल्फेड्रीन प्रोटीन- एस एच समूह बनाने में सहायक है, जो पादप में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न करता है|
9. कुछ विटामिन जैसे- थायमीन तथा बायोटीन, लौह-गंधक-प्रोटीन फेरेडोक्सीन, गंधक ग्लाइकोसाइड के संश्लेषण में भी गंधक सहायक है|
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कमी के मुख्य कारण
मृदा में गंधक का पर्याप्त प्राकृतिक भण्डार होते हुए भी भारत की अनेक मृदाओं में गंधक की कमी पाई गई है| वर्तमान में लगभग 80 प्रतिशत मृदाओं में शुलभ गंधक अपर्याप्त मात्रा में है| भारतीय मृदाओं में गंधक की कमी के निम्नलिखित कारण हैं, जैसे-
1. मुख्यतः प्राथमिक पोषक तत्व जैसे- नत्रजन, फास्फोरस तथा पोटैशियम युक्त उर्वरकों का अधिक प्रयोग|
2. कार्बनिक खादों का कम प्रयोग|
3. गंधक-मुक्त उर्वरकों, कीटनाशकों, व जीवनाशकों का प्रयोग|
4. अधिक उत्पादन के उद्देश्य से उगाने वाली फसलों को हल्की भूमि पर उगाना|
5. अधिक उपज देने वाली फसलों द्वारा गंधक का अधिक अवशोषण|
6. गंधकयुक्त उर्वरक तथा जैविक खाद का कम प्रयोग|
7. नहरी जल से सिंचाई जिसमें गंधक की कम मात्रा पाई जाती है|
8. भूमि में जीवांश पदार्थ की लगातार कमी|
9. असंतुलित पोषक तत्व प्रबंधन|
10. पौधों द्वारा गंधक अवशोषण तथा उर्वरक के रूप में आपूर्ति में अंतर|
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गंधक की कमी के लक्षण
1. गंधक की कमी से पौधे की वृद्धि अकस्मात रूक जाती है एवं पौधे की उपरी पत्तियाँ पीली पड़ जाती है, तत्पश्चात तना छोटा एवं पतला हो जाता है|
2. गंधक की कमी के लक्षण नत्रजन की कमी के लक्षणों के समान ही दिखाई देते हैं, परंतु गंधक नत्रजन की तरह पौधे में गतिशील नहीं होता है, अतः पुरानी पत्तियों में अवस्थिरित नहीं हो पाता है, जिससे इसकी कमी के लक्षण नई पत्तियों पर दिखाई देते हैं|
3. गंधक की कमी से क्रूसीफेरी कुल के पौधे अधिक संवेदनशील होते हैं| इनमें पत्तियों का निचला हिस्सा लाल व लाल-भूरे रंग में बदल जाता है तथा भयंकर कमी की दशा में पत्तियाँ ऊपर तथा नीचे से बैंगनी रंग की हो जाती हैं व नीचे की ओर मुड़ जाती हैं|
4. इसकी कमी से पुष्पन व बीज निर्माण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है|
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गंधक की उपलब्धता
हमारे देश की मृदाओं में गंधक 10-6310 मिलीग्राम/किलोग्राम के बीच में पाई जाती है| परंतु मृदा में गंधक की औसत मात्रा 30-300 मिलीग्राम/किलोग्राम माना जाता है| भारत के प्रमुख मृदा समूहों में कुल गंधक मात्रा निचे सारणी में दी गई है, जैसे-
मृदा समूह | गंधक की मात्रा (मिलीग्राम/किलोग्राम मृदा) | मृदा समूह | गंधक की मात्रा (मिलीग्राम/किलोग्राम मृदा) |
लाल | 213 | पहाड़ी | 530 |
दोमट | 329 | वर्टीसोल/काली | 4986 |
लैटेराईट | 350 | अम्ल सल्फेट एवं क्षारीय | 6319 |
अधिकतर सिंधु-गंगा के दोमट मैदानों में लाल तथा लैटेराइट और पहाड़ी मृदाओं में गंधक की कमी पाई पाती है, तथा तटीय मृदाएं इस तत्व में परिपूर्ण होती है| कैल्शिकृत मृदाएं तथा काली मृदा भी इसमें कम होती है| क्योंकि इनमें जैविक तत्व कम होते हैं| अधिकतर क्षारीय मृदाएं तथा अम्लीय सल्फेट मृदाएं, जो पश्चिम बंगाल के सुन्दरवन क्षेत्र में तथा केरल के तटीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं, वे गंधक की अत्यधिक मात्रा वाली होती हैं|
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मृदाओं से गंधक का दोहन
तिलहनी तथा दलहनी फसलों द्वारा गंधक दोहन, धान्य फसलों की अपेक्षा अधिक होता है| सामान्य फसल प्रणाली में 10-70 किलोग्राम तथा सघन फसल प्रणाली में सामान्यतः 30 से 72 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष के बीच गंधक का दोहन होता है| कुल वार्षिक गंधक का दोहन लगभग 0.8 मिलियन टन होता है तथा अंतर 0.5 मिलियन टन है| अतः यदि इस अंतर को समाप्त नहीं किया गया तो फसलोत्पादन में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है| मृदाओं से गन्धक का दोहन इस प्रकार है, जैसे-
फसल | मिलीग्राम/किलोग्राम दाना | फसल | मिलीग्राम/किलोग्राम दाना |
मूंगफली | 7.9 | चना | 8.7 |
राई/सरसों | 17.3 | अरहर | 7.5 |
कुसुम | 12.6 | मुंग | 12.0 |
तिल | 16.6 | उर्द | 5.6 |
सूरजमुखी | 11.7 | धान | 3.0 |
सोयाबीन | 6.7 | गेहूं | 4.7 |
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तिलहन उत्पादन में गंधक का महत्व
चूँकि देश के अधिकतर सघन खेती वाले क्षेत्र में गंधक की साँद्रता अनुकूलतम से भी कम है| गंधक के अनुप्रयोग से तिलहनी फसलों में उचित तेल मात्रा को प्राप्त किया जा सकता है| फसल की अच्छी शुरूआत के लिए गंधक महत्वपूर्ण है| कली प्रकट होने की अवस्था में कुल पुष्प भार, पुष्पन अवस्था में तथा परिपक्व अवस्था आदि गंधक की मात्रा से प्रभावित होते हैं|
कुल पुष्प भार को बढ़ाने के लिए गंधक महत्वपूर्ण है, क्योंकि अमीनों अम्ल, प्रोटीन, विटामिन तथा हरित लवक के निर्माण में गंधक एक महत्वपूर्ण घटक है| गंधक की कमी वाली मृदाओं एवं तिलहनी फसलों में गंधक की अनुक्रिया बहुत अच्छी पायी गई है| गंधक अनुप्रयोग से तेल की मात्रा में बढ़ोत्तरी इस प्रकार है, जैसे-
फसलें | तेल की मात्रा में बढ़ोतरी (प्रतिशत) | फसलें | तेल की मात्रा में बढ़ोतरी (प्रतिशत) |
सरसों | 8.5 | सोयाबीन | 6.8 |
मूंगफली | 5.1 | सूरजमुखी | 3.8 |
गंधक की मात्रा फसल की किस्म पर भी निर्भर करती है| किसी भी क्षेत्र के लिए फसल का चयन इस बात पर निर्भर करता है, कि फसल व किस्म गंधक के प्रति कितनी संवेदनशील है| विभिन्न पादपों में गंधक की माँग, अवशोषण तथा इसका उपयोग फसल के किस्म के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है|
तिलहनी फसलों में गंधक की सापेक्षिक संवेदनशीलता निम्न क्रम में होती है; राई – सरसों – अलसी – तिल न केवल फसल अपितु उनकी किस्में भी गंधक की कमी के प्रति संवेदनशीलता में भिन्न होती है| यद्यपि गंधक की कुल मात्रा का मृदा तथा फसल के चयन पर निर्भर करती है, परंतु सामान्यतः 20 से 25 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर प्रस्तावित है|
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गंधक की मात्रा का अनुप्रयोग फसल की मॉग तथा मृदा स्तर के साथ सहसंबंधित करके प्रयोग करना चाहिए| गंधक की अनुकूलतम मात्रा तथा अनुप्रयोग की आवृति का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है, कि गंधक की बढ़ती हुई मात्रा 10, 20, 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक गंधक की अनुक्रिया से विभिन्न तिलहनी फसलों की उत्पादकता में 170 से 630 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक बढ़ोत्तरी पाई गई है|
विभिन्न श्रोतों से यह पता चला है कि गधक अनुप्रयोग से सूरजमुखी के उत्पादन में 20 से 38 प्रतिशत तक की वृद्धि तथा तेल में 3.8 और अरण्डी में 10 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है| गंधक की मात्रा, मृदा प्रकार, फसल, उत्पादन स्तर, फसल की सघनता, सिंचाई के स्रोत, जैविक खाद के उपयोग तथा प्रबंधन के स्तर पर निर्भर करती है|
गंधक की कमी को दूर करने के लिए गंधक उर्वरक का चयन विभिन्न फसलों, उनकी किस्मों तथा आसान उपलब्धि पर निर्भर करता है| पादप के लिए अनिवार्य तत्व के रूप में गंधक के स्रोतों का विवरण निचे सारणी में प्रस्तुत किया गया है| विभिन्न उर्वरकों में पोषक तत्वों की मात्रा जो इस प्रकार है, जैसे-
उर्वरक | गंधक (प्रतिशत) | नाइट्रोजन (प्रतिशत) | फास्फोरस (प्रतिशत) | पोटाश (प्रतिशत) |
अमोनियम फॉस्फेट सल्फेट | 13 | 16 | 20 | – |
कैल्शियम सल्फेट (जिप्सम) | 13 से 18 | – | – | – |
अमोनियम सल्फेट नाइट्रेट | 26 | 15 | – | – |
अमोनियम सल्फेट | 24 | 20.6 | – | – |
आयरन पाइराइट | 22-24 | – | – | – |
जिंक सल्फेट | 17 | – | – | – |
पोटैशियम मैग्नीशियम सल्फेट | 16-22 | – | – | 22 |
फॉस्फोजिप्सम | 11 | – | 2-3 | – |
तात्वीय गंधक | 85-100 | – | – | – |
सिंगल सुपर फॉस्फेट | 11 | – | 18.2 | – |
पोटैशियम सल्फेट | 17.5 | – | – | 50 |
मैग्नीशियम सल्फेट | 13 | – | – | – |
कॉपर सल्फेट | 11.4 | – | – | |
फेरस सल्फेट | 18.8 | – | – | |
मैग्नीज सल्फेट | 21.2 | – | – |
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फसल प्रणाली में गंधक का महत्व
विभिन्न फसल प्रणाली जैसे- मक्का-मूंगफली में 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गंधक का अनुप्रयोग लाभदायक पाया गया है| धान-सूरजमुखी फसल चक में गंधक यदि 30-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दोनों फसलों में डाला जाए तो अनुप्रयोग की बहुत अच्छी अनुक्रिया पाई गई है| इसी प्रकार मूंगफली-सरसों फसल-चक्र में 45 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गंधक डालने से दोनों फसलों के उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि देखी गई है| गंधक की माँग अपेक्षाकृत तिलहन-तिलहन फसल-चक्र में अधिक रहती है|
जैविक खाद के साथ समन्वित उपयोग
जैविक रूप से आबद्ध गंधक पादप के लिए महत्वपूर्ण स्रोत है| अत: जैविक खाद का उपयोग करने से गंधक की अनुप्रयोग क्षमता बढ़ती है तथा अवशिष्ट मात्रा भी मृदाओं में बढ़ती है| 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गंधक को 5 टन जैविक खाद के साथ उपयोग करने से मूंगफली की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है साथ ही अगले मौसम में बोई जाने वाली फसल को भी लाभन्वित किया जा सकता है|
इसी प्रकार पाइराइट को 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से जैविक खाद के साथ उपयोग करने पर मूंगफली की उत्पादकता को पाइराइट के एकाकी उपयोग की अपेक्षा कई गुना बढ़ाया जा सकता है| बुवाई से पहले मृदा जाँच के आधार पर गंधक की उपयुक्त मात्रा मृदा में पता कर लेनी चाहिए| उसी आधार पर फसल की जाति, फसल प्रणाली तथा मृदा के प्रकार के अनुसार गंधक की उपयुक्त मात्रा बुवाई करते समय कूड़ में डालने से अच्छा उत्पादन प्राप्त होता है|
लेकिन मूंगफली का अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए गंधक को बुवाई के समय के अतिरिक्त फल-जड़ निकलते समय या जब छोटी-छोटी फलियाँ बन रही हों तब मृदा की सतह पर गंधक बिखेर कर डालने पर सबसे अधिक लाभ मिलता है| गंधक का फसल में ज्यादा प्रभाव लाने के लिए गंधक घोलक जीवाणुओं जैसे थायोबैसिलस, थायोआक्सीडेन्टस, जैन्थोबैक्टर, स्यूडोमोनास, पैराकोकस एवं थायोमाइकोस्पोरा का प्रयोग करना लाभकारी पाया गया है|
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