बेर का प्रवर्धन क्यों आवश्यक, चूंकि बीजू पौधों में फल कई वर्षों में आते हैं और निम्न कोटि के होते हैं, इसलिए व्यवसायिक दृष्टि से बाग लगाने के लिए बेर के पौधे वानस्पतिक विधि से ही तैयार करने चाहिए| यदि आप बेर की बागवानी की सम्पूर्ण जानकारी चाहते है, तो यहां पढ़ें- बेर की खेती कैसे करें
आमतौर पर बेर का प्रवर्धन कलिकायन विधि द्वारा किया जाता है| कलिकायन की कई विधियाँ जैसे- ढाल चश्मा, छल्ला चश्मा, पैबंद चश्मा, आई चश्मा आदि प्रचलित है, किन्तु इन सभी में ढाल चश्मा (टी बडिंग) या आई चश्मा सबसे आसान व प्रचलित विधि है, यदि आप इन सब की जानकारी जानना चाहते है, तो यहां पढ़ें- कायिक प्रवर्धन क्या है, जानिए व्यावसायिक और उपयोगी विधियां
मूलवृन्त तैयार करना
मूलवृन्त तैयार करने के लिए देशी किस्म के बीज प्रयोग में लाये जाते है| कई प्रकार के जंगली बेर जैसे जिजीफस रोटन्डीफोलिया, जिजीफस रूगोसा, जिजीफस आइनाप्लिया, जिजीफस नुमूलेरिया को मूलवृंत के लिए उपयोग किया जाता है| किन्तु इन सभी में जिजीफस रोटन्डीफोलिया सबसे उपयुक्त पाई गई है, पूरी तरह पके फलों से बीज एकत्रित किए जाते है, जो किसी रोग और कीडे से ग्रस्त नहीं होना चाहिए| फल पेड़ से तोड़कर एकत्रित करने चाहिए|
बेर का प्रवर्धन के लिए, जमीन पर गिरे हुए फलों को बीज के लिए उपयोग में नहीं लाना चाहिए, इस तरह एकत्रित फलों को दो दिनों तक पानी में डाल दें, ऐसा करने से बीज आसानी से अलग हो जाते हैं| जो बीज घोल में डूब जाये उसी को बुवाई के लिए काम में लाएं| जो बीज घोल में तैरते रहते है, उन्हें बुवाई के लिए उपयोग में नहीं लाया जाता|
इसके पश्चात बीज को 5 से 6 मिनट के लिए शुद्ध सल्फयूरिक अम्ल में डाल देते हैं| तत्पश्चात् साफ पानी से अच्छी तरह धो देना चाहिए, बुवाई से पहले इन बीजों को 24 घंटे के लिये पानी में भिगोकर रखते है| ऐसा करने से बीज जल्दी और अधिक संख्या में अंकुरित होते है|
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मूलवृन्त के प्रकार
बेर का प्रवर्धन हेतु, मूलवृन्त तीन प्रकार से तैयार किये जाते है, जो इस प्रकार है, जैसे-
1. क्यारियों में
2. सीधे बाग लगाने के स्थान पर
3. पॉलीथीन बैग या थैली में
क्यारियों में बीज की बुवाई- बेर का प्रवर्धन के लिए, मूलवृन्त के लिए क्यारियों में बीज की बुवाई अप्रैल के प्रथम पखवाड़े तक कर दी जाती है| क्यारियों में दो कतारों के बीच की दूरी 30 सेंटीमीटर और बीज से बीज की दूरी 5 सेंटीमीटर रखी जाती है| बीज की बुवाई 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर की जाती है| बुवाई के 15 से 20 दिन पश्चात अंकुरण पूरा हो जाता है|
बुवाई के लगभग 40 दिन पश्चात कमजोर और सघन पौधों की छंटाई करके कतार में पौधों की आपसी दूरी लगभग 20 सेंटीमीटर कर दी जाती है| क्यारियों में आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहते हैं| साथ ही साथ खरपतवार भी निकालते रहते हैं, इस प्रकार क्यारियों में तैयार किये गये पौधे लगभग 70 दिन पश्चात पैन्सिल के बराबर मोटे यानि 0.5 सेंटीमीटर हो जाते हैं, जो कलिकायन के योग्य होते हैं|
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सीधे बाग लगाने के स्थान पर- बेर का प्रवर्धन हेतु, क्षेत्रों के लिये अधिक उपयोगी है, इस विधि से बाग तैयार करने से पौधों को स्थानान्तरण हेतु नर्सरी या पौधशाला से खोदने की समस्या नहीं आती है| इस प्रकार पौधे तैयार करने हेतु मार्च के महीने में निश्चित दूरी पर बाग के लिए गड्ढे तैयार कर लिये जाते हैं| प्रत्येक गड्ढे में 2 से 3 बीज की बुवाई अप्रैल के प्रथम पखवाड़े में कर देते हैं| इस प्रकार से पौधे जुलाई से सितम्बर के बीच कलिकायन योग्य हो जाते हैं|
पॉलीथीन बैग द्वारा- बेर का प्रवर्धन के लिए, यह एक आसान विधि है, जिससे तैयार पौधों के स्थानान्तरण में सुविधा होती है| इस विधि से पौधे तैयार करने के लिए 300 गेज मोटाई वाली पॉलीथीन की 10 x 25 सेंटीमीटर आकार की थैलियाँ काम में लायी जाती हैं| इन थैलियों को भरने के लिए बराबर मात्रा में रेत, गोबर खाद और चिकनी मिट्टी का मिश्रण तैयार किया जाता है|
थैलियों को भरने के बाद अप्रैल के प्रथम पखवाड़े में बीज की बुवाई की जाती है| एक थैली में एक ही बीज बोया जाता है| इस प्रकार पॉलिथीन की थैली में तैयार पौधे जुलाई के अन्त तक कलिकायन योग्य हो जाते हैं| यह मूलवृन्त तैयार करने की सबसे उपयुक्त व्यावसायिक विधि है|
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सांकुर का चयन
बेर का प्रवर्धन के लिए, भारत में शुष्क क्षेत्रों के लिए गोला, सेव और उमरान सबसे उपयुक्त किस्में है| किस्म के अनुरूप और लगातार कई वर्षों से अच्छी पैदावार देने वाले स्वस्थ मातृ वृक्ष से सांकुर टहनी या शाखवृन्त का चयन किया जाना चाहिए| कलिकायन के लिए कली 13 से 15 दिन पुरानी टहनी से ली जानी चाहिए| 15 से 20 सेंटीमीटर लम्बी जिनमें 4 से 6 स्वस्थ और मोटी वानस्पतिक कलियाँ मौजूद हो, को मातृ वृक्ष से काट ली जाती है|
इसके पश्चात् इनसे कलियों को कलिकायन चाकू द्वारा सांकुर टहनी से अलग कर लिया जाता है| यदि कलिकायन के लिए टहनियों को दूर भेजना है, तो इनको नम स्फेगनम मॉस में लपेट कर पॉलीथीन की थैलियों में बन्द करके भेजा जाता है|
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कलिकायन
बेर का प्रवर्धन के लिए कलिकायन का सर्वोत्तम समय जून से जुलाई और सबसे आसान और प्रचलित विधि ढाल चश्मा है| मूलवृंत पर जमीन की सतह से लगभग 20 से 25 सेंटीमीटर की ऊँचाई पर ढाल चश्मा के लिए 2 से 2.5 सेंटीमीटर का एक खडा चीरा लगाया जाता है, इसके पश्चात् लम्बाई में दोनों तरफ की छाल को ढीला किया जाता है|
सांकुर टहनी पर यदि पत्तियाँ लगी हो तो पत्तियों को इस तरह से अलग किया जाता है, कि पत्ती की डढेल न टूटे अब इस कली को निकाल कर मूलवृन्त पर चीरा दिये गये स्थान पर अन्दर डालकर अच्छी तरह बैठा कर कली को पॉलीथीन की पट्टी से कस कर इस प्रकार बांधा जाता है, कि कली वाला भाग खुला रहे|
बेर का प्रवर्धन के लिए, कलिकायन के एक सप्ताह बाद मूलवृन्त को कुछ ऊपरी हिस्सा काटकर निकाल दिया जाता है, इससे कली के फुटाव में सहायता मिलती है, जैसे ही कली का फुटाव शुरू हो जाये जुड़ाव बिन्दु के ऊपर से मूलवृन्त को पूरी तरह काटकर निकाल दिया जाता है| यह क्रिया कलिकायन से लगभग 15 दिनों पश्चात् पूरी हो जाती है|
इस प्रकार प्रस्फुरित कली जब 7 से 10 पत्तियों वाली टहनी बन जाये, तो पौधे स्थानांतरण के योग्य हो जाते हैं| इस विधि से लगभग 70 से 90 प्रतिशत सफलता मिलती है| कलिकायन के बाद मूलवृन्त पर जुड़ाव बिन्दु से नीचे जितनी भी कलियों का फुटाव हो उन्हें समय-समय पर काट-छांट कर के निकालते रहना चाहिये|
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