वर्तमान समय में मिट्टी में रसायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग एवं सीमित उपलब्धता को देखते हुये अन्य पर्याय भी उपयोग में लाना आवश्यक हो गया है| तभी हम खेती की लागत को कम कर फसलों की प्रति एकड उपज को भी बढ़ा सकते हैं, साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी अगली पीढी के लिये बरकरार रख सकेंगे| हरी खाद मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिये एवं फसल उत्पादन हेतु जैविक माध्यम से तत्वों की पूर्ति का वह साधन है, जिसमें हरी वानस्पतिक सामग्री को उसी खेत में उगाकर या कहीं से लाकर खेत में मिला दिया जाता है|
इस प्रक्रिया को ही हरी खाद देना कहते हैं| सीमित संसाधनो के समुचित उपयोग हेतु कृषक एक फसली द्वीफसली कार्यक्रम व विभिन्न फसल चक्र अपना रहे है, जिससे मृदा का लगातार दोहन हो रहा है| जिससे उसमें उपस्थित पौधों के बढ़वार के लिए आवश्यक पोषक तत्व नष्ट होते जा रहें है| इस क्षतिपूर्ति हेतु विभिन्न तरह के उर्वरक व खाद का उपयोग किया जाता है| उर्वरक द्वारा मृदा में सिर्फ आवश्यक पोषक तत्व जैसे- नत्रजन, स्फुर पोटाश जिंक इत्यादि की पूर्ति होती है|
मगर मृदा की संरचना उसकी जल धारणा क्षमता एवं उसमें उपस्थित सूक्ष्मजीवों को क्रियाशीलता बढ़ाने में इनका कोई योगदान नहीं होता| अत: इन सबकी परिपूर्ति हेतु हरी खाद का प्रयोग एक अहम भूमिका निभाता है| भारत वर्ष में हरी खाद देने की प्रक्रिया पर लम्बे समय से चल रहे प्रयोगों व शोध कार्यों से सिद्ध हो चुका है, कि हरी खाद का प्रयोग अच्छे फसल उत्पादन के लिये बहुत लाभकारी है|
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क्यों है हरी खाद की जरुरत
संपूर्ण विश्व में बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ दबाव और सभी को भोजन की आपूर्ति की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों जहरीले कीटनाशकों का उपयोग से प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान के चक्र को (इकोलॉजी सिस्टम प्रभावित किया जा रहा है|
जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है वातावरण प्रदुषण हो रहा है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती जा रही है। इसके महत्त्व को देखते हुए किसानों ने भी इसमें रूचि लेना शुरू कर दिया है जिससे जैविक खेती का क्षेत्र रकबा पिछले एक दशक में तकरीबन 17 गुना बढ़ गया है|
हरी खाद वाली फसलों की विशेषताएं
हरी खाद के लिए फसलों में निम्न गुणों का होना आवश्यक है, जैसे-
1. दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु ग्रंथियाँ (गाठे) वातावरण में मुक्त नाइट्रोजन को यौगिकीकरण द्वारा पौधों को उपलब्ध कराती हो|
2. फसल शीघ्र वृद्धि करने वाली हो, हरी खाद के लिए ऐसी फसल होनी चाहिए जिसमें तना, शाखाएँ और पत्तियाँ कोमल एवं अधिक हों ताकि मिट्टी में शीघ्र अपघटन होकर अधिक से अधिक जीवांश तथा नाइट्रोजन मिल सके|
3. चयनित फसलें मूसला जड़ वाली होनी चाहिए ताकि गहराई से पोषक तत्वों का अवशोषण हो सके|
4. क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं में गहरी जड़ों वाली फसलें अंतःजल निकास बढ़ाने में आवश्यक होती हैं, फसल सूखा अवरोधी के साथ जल मग्नता को भी सहन करने वाली होनी चाहिए|
5. चयनित फसल पर रोग एवं कीट कम लगते हों तथा बीज उत्पादन की क्षमता अधिक हो|
6. हरी खाद के साथ-साथ फसलों को अन्य उपयोग में भी लाया जा सके|
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हरी खाद के लिए प्रमुख फसलें
दलहनी फसलों में ढेंचा, सनई, उर्द, मूंग, अरहर, चना, मसूर, मटर, लोबिया, मोठ, खेसारी तथा कुल्थी मुख्य हैं| लेकिन जायद में हरी खाद के रूप में अधिकतर सनई, ढैंचा, उर्द एवं मूंग का प्रयोग ही प्रायः अधिक होता है|
ढैंचा-
यह एक दलहनी फसल है| यह सभी प्रकार की जलवायु तथा मिट्टी में सफलतापूर्वक उगाई जाती है| जलमग्न दशा में भी यह 1.5 से 1.8 मीटर की ऊँचाई कम समय में ही प्राप्त कर लेती हैं| यह फसल एक सप्ताह तक उसे तेज हवा चलने पर भी 60 सेंटीमीटर तक का जल भराव भी सहन कर लेती हैं| इन दशाओं में ढैंचा के तने से पार्श्व जड़े निकल आती हैं, जो पौधों को गिरने नहीं देती|
अंकुरण होने के बाद यह सूखे को सहन करने की भी क्षमता रखती हैं| इसे क्षारीय तथा लवणीय मृदा में भी उगाया जा सकता हैं| हरी खाद के लिए प्रति हेक्टेयर 60 किलोग्राम ढैंचे के बीज की आवश्यकता होती है| ऊसर में ढैंचे से 45 दिन में 20 से 25 टन हरा पदार्थ तथा 85 से 105 किलोग्राम नाइट्रोजन मृदा को प्राप्त होती हैं| धान की रोपाई के पूर्व ढैंचा की पलटाई से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं|
सनई-
बलुई अथवा दोमट मृदाओं (अच्छे जल निकास वाली) के लिए यह उत्तम दलहनी हरी खाद की फसल है| इसकी बुवाई मई से जुलाई तक वर्षा प्रारम्भ होने पर अथवा सिंचाई करके की जा सकती है| एक हेक्टेयर खेत में 80 से 90 किलोग्राम बीज की बुआयी की जाती है| मिश्रित फसल में 30 से 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता हैं|
यह तेज वृद्धि तथा मूसला जड़ वाली फसल है| जो खरपतवार को दबाने में समर्थ हैं| बीज बुवाई के 40 से 50 दिन बाद इसको खेत में पलट दिया जाता हैं| सनई की फसल से 20 से 30 टन हरा पदार्थ एवं 85 से 125 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर मृदा को प्राप्त हो जाती हैं|
उर्द एवं मूंग-
इन फसलों को अच्छी जल निकास वाली हल्की बलुई या दोमट भूमि में जायद ऋतु में बुआयी की जा सकती हैं| इनकी फलियाँ तोड़ने के बाद पौधों को खेत में हरी खाद के रूप में पलट देना चाहिए| प्रदेश में हरी खाद के लिए इनका आंशिक रूप में प्रयोग किया जा सकता है| बुवाई के लिए प्रति हेक्टेयर 15 से 20 किलोग्राम मूंग या उर्द बीज की आवश्यकता होती है| मूंग एवं उर्द से 10 से 12 टन प्रति हेक्टेयर हरा पदार्थ प्राप्त होता है|
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उर्वरक प्रबन्धन
हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली दलहनी फसलों में भूमि में सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता बढ़ाने के लिए विशिष्ट राइजोबियम कल्चर का टीका लगाना उपयोगी होता हैं| कम एवं सामान्य उर्वरता वाली मिट्टी में 10 से 15 किलोग्राम नाइट्रोजन तथा 40 से 50 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर उर्वरक के रूप में देने से ये फसलें पारिस्थितिकीय संतुलन बनाये रखने में अत्यन्त सहायक होती हैं|
हरी खाद की विधियाँ
हरी खाद की स्थानीय विधि- इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है, जिसमें हरी खाद का प्रयोग करना होता हैं| यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं| इस विधि में फसल को फूल आने के पूर्व वानस्पतिक वृद्धि काल (45 से 50 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है| मिश्रित रूप से बोई गयी हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दबा दिया जाता है|
हरी पत्तियों की खाद- इस विधि में हरी पत्तियों एवं कोमल शाखाओं को दूसरी जगह से तोड़कर खेत में फैलाकर जुताई द्वारा मिट्टी में दबाया जाता हैं| जो मिट्टी में थोड़ी नमी होने पर भी सड़ जाती हैं| यह विधि कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयोगी होती है|
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उत्पादन क्षमता
हरी खाद की विभिन्न फसलों की उत्पादन क्षमता जलवायु, फसल वृद्धि तथा कृषि क्रियाओं पर निर्भर करती हैं| हरी खाद वाली विभिन्न फसलों की उत्पादन क्षमता और उपयोग का समय निचे सारणी में दिया गया हैं, जो इस प्रकार है, जैसे-
फसल | बुआई का समय | सीजन | बीज दर (किलोग्राम प्रति हेक्टयर) | हरे पदार्थ की मात्रा (टन प्रति हेक्टेयर) | नाइट्रोजन का प्रतिशत | प्राप्त नाइट्रोजन (किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) |
सनई | अप्रैल से जुलाई | खरीफ | 80 से 100 | 18 से 28 | 0.43 | 60 से 100 |
ढैंचा | अप्रैल से जुलाई | खरीफ | 80 से 100 | 20 से 25 | 0.42 | 84 से 105 |
लोबिया | अप्रैल से जुलाई | खरीफ | 45 से 55 | 15 से 18 | 0.49 | 74 से 88 |
उड़द | जून से जुलाई | खरीफ | 20 से 22 | 10 से 12 | 0.41 | 40 से 49 |
मूंग | जून से जुलाई | खरीफ | 20 से 22 | 8 से 10 | 0.48 | 38 से 48 |
ज्वार | अप्रैल से जुलाई | खरीफ | 30 से 40 | 20 से 25 | 0.34 | 68 से 85 |
सैंजी | अक्टूबर से दिसम्बर | रबी | 25 से 30 | 26 से 29 | 0.51 | 120 से 135 |
बरसीम | अक्टूबर से दिसम्बर | रबी | 20 से 30 | 16 | 0.43 | 60 |
मटर | अक्टूबर से दिसम्बर | रबी | 80 से 100 | 21 | 0.36 | 67 |
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हरी खाद के लाभ
हरी खाद केवल नाइट्रोजन व कार्बनिक पदार्थों का ही साधन नहीं है, बल्कि इससे मिट्टी में कई पोषक तत्व भी उपलब्ध होते हैं| नाइट्रोजन के अलावा अनेक पोषक तत्व भी उपलब्ध होते हैं| नाइट्रोजन के अलावा एक टन लैंचा के शुष्क पदार्थ द्वारा मृदा में मिलने वाले पोषक तत्व इस प्रकार है, जैसे-
पोषक तत्व | मात्रा (किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) |
फास्फोरस | 7.3 |
पोटाश | 17.8 |
गंधक | 1.9 |
कैल्शियम | 1.4 |
मैग्नीशियम | 1.6 |
जस्ता | 25 पी पी एम |
लोहा | 105 पी पी एम |
तांबा | 7 पी पी एम |
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1. हरी खाद के प्रयोग से मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है, जिससे वायु संचार अच्छा होता है एवं जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है|
2. अम्लीयता एवं क्षारीयता में सुधार होने के साथ ही मृदा क्षरण भी कम होता है|
3. हरी खाद के प्रयोग से मृदा में सूक्ष्मजीवों की संख्या एवं क्रियाशीलता बढ़ती है तथा मृदा की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादन क्षमता भी बढ़ती है|
4. हरी खाद के प्रयोग से मृदा से पोषक तत्वों की हानि भी कम होती है|
5. हरी खाद के प्रयोग से मृदा जनित रोगों में कमी आती है|
6. यह खरपतवारों की वृद्धि भी रोकने में सहायक है|
7. इसके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कम कर बचत कर सकते हैं तथा टिकाऊ खेती भी कर सकते हैं|
बाधाएं व समाधान
हरी खाद के प्रयोग में किसानों को मुख्यतया निम्नलिखित दो समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे-
1. फसलों के साथ विभिन्न संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा|
2. सघन फसलोत्पादन पद्धति में समावेश करने में कठिनाई|
उक्त समस्याओं के निराकरण के लिए गर्मी की कम अवधि वाली फसलों जैसे- मूंग, लोबिया आदि की फली तोड़ने के बाद खेत में जुताई कर सकते हैं| इसके अतिरिक्त खेत की मेंड़ों पर नत्रजन स्थिरीकारक पेड़ों जैस- सूबबूल, ग्लिरीसीडिया, ढैंचा आदि लगाकर उनकी पत्तियों एवं मुलायम टहनियों को खेत में मिलाकर हरी खाद के स्थान पर प्रयोग कर सकते हैं|
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