हमारे देश के लगभग 12 प्रतिशत (32 लाख हैक्टेयर) भू-भाग में औसत वार्षिक वर्षा 400 मिलीमीटर से कम होती है एवं यह शुष्क क्षेत्र कहलाता है| यह क्षेत्र मुख्यतः उत्तर-पश्चिमी राज्यों राजस्थान, गुजरात व हरियाणा में फैला हुआ है और इसका कुछ भाग आंध्रप्रदेश में भी है| वर्षा की कमी के साथ-साथ वर्षा की अनिश्चितता व तापमान की विस्तृत श्रृंखला अर्थात ग्रीष्मकाल में 48 से 49 डिग्री सेन्टीग्रेड तक व शरदकाल में 0 डिग्री सेन्टीग्रेड तक होने के कारण यह क्षेत्र कृषि के लिये बहुत चुनौतिपूर्ण है|
इन परिस्थितियों के अनुरूप सामंजस्य रखते हुए पारंपरिक कृषि विधियां विकसित हुई जिसमें वृक्ष, फसलें व पशुओं की सम्मिलित उत्पादन पद्धति मुख्य थी| यह पद्धति शुष्क क्षेत्र की परिस्थितियों में उत्पादन में स्थायित्व किन्तु सीमित उत्पादक क्षमता वाली है| आधुनिक विज्ञान के आधार पर रसायनिक आदानों के प्रयोग से उत्पादकता बढ़ाने के अनेक प्रयोग किये गये किन्तु वर्षा की अनिश्चितता में इनका प्रयोग लाभकारी सिद्ध नहीं हुआ है|
इन परिस्थितियों में पशु व कृषि अवशेष से बनी जैविक खाद का प्रयोग जल संरक्षण व फसल को संतुलित पोषण देने में सहायक होता है, साथ ही अन्य कई पर्यावरण मित्र तकनीकों के समन्वित प्रयोग से न केवल वर्षा की अनिश्चिता में भी उत्पादन में स्थायित्व रखना संभव हो सकता है, वरन् इससे खेती की लागत कम होने व बाजार में जैविक उत्पाद की माँग होने से यह खेती लाभप्रद भी हो सकती है| चूंकि यह क्षेत्र पशुपालन आधारित व्यवस्था पर निर्भर है, जिससे जैविक खाद की उपलब्धता पर्याप्त है|
अतः पारंपरिक कृषि में उपयोग किये जाने वाले जैविक आदानों के उत्पादन व प्रयोग की विधियों में सुधार करके उनके समन्वित प्रयोग से उत्पादकता में सुधार का अध्ययन करने हेतु सन् 2008 में केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान में आदर्श जैविक क्षेत्र की स्थापना की गयी थी| छ: वर्ष के प्रयोगों के आधार पर शुष्क क्षेत्र के लिये उपयुक्त जैविक कृषि प्रबन्धन की तकनीक विकसित की गयी हैं|
यह भी पढ़ें- जैविक खेती कैसे करें पूरी जानकारी
जैविक कृषि क्या है?
स्थानीय रूप से उपलब्ध जैविक व प्राकृतिक संसाधनों जैसे पशु अपशिष्ट, फसल अवशेष, वर्षा जल इत्यादि के सदुपयोग व रसायनिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवार नाशक आदि का प्रयोग न करके, प्रकृति मित्र तकनीकों से फसल का पोषण व रक्षण प्रबन्धन करने को जैविक कृषि कहते है| इसमें जैविक खाद, जैव कीट नियंत्रक, फसल चक्र, मल्चिंग आदि का प्रयोग किया जाता है|
जैविक खेती में भूमि की उर्वरकता को जैव विधियों जैसे जैविक खाद, हरी खाद, फसल चक्र आदि से निरंतर बनाये रखने के तरीके अपनाये जाते हैं, साथ ही नीम आदि कीटनाशक गुणों वाले पौधों के उत्पादों व मित्र कीट, सूक्ष्मजीवों का प्रयोग कर रोग-कीटों का नियंत्रण किया जाता है|
यह भी पढ़ें- ऑर्गेनिक या जैविक खेती क्या है, जानिए उद्देश्य, फायदे एवं उपयोगी पद्धति
जैविक कृषि के लिये अनुकूल शुष्क क्षेत्र-
1. पशु आधारित कृषि व्यवस्था होने से जैविक खाद की पर्याप्त उपलब्धता|
2. रसायनिक उर्वरक कीटनाशक का बहुत कम प्रयोग होने से भूमि में अवशेष न्यूनतम अतः जैविक रूपान्तरण में सुविधा|
3. जैविक खाद, खरपतवार की पलवार (मल्चिग) आदि का जल संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान|
4. जैविक कीट नियन्त्रक जैसे- नीम, आक, धतूरा की पर्याप्त मात्र में उपलब्धता|
5. पारंपरिक कृषि पद्धति का वर्तमान में भी अस्तित्व में होना जिससे संसाधनों का संरक्षण व पुनर्चक्रण सुनिश्चित किया जाता है|
6. निर्यात मांग वाली कुछ विशेष उच्च मूल्य फसलें जिनका उत्पादन शुष्क क्षेत्र में ही होता है, जैसे- जीरा, ग्वार, ईसबगोल, अजवायन आदि|
यह भी पढ़ें- परजीवी एवं परभक्षी (जैविक एजेंट) द्वारा खेती में कीट प्रबंधन
जैविक कृषि तकनीक
जैविक कृषि में निम्न तकनीकों का समन्वित उपयोग किया जाता है, जैसे-
फसलें व फसल चक्र
शुष्क क्षेत्र में मुख्यत: बाजरा, ग्वार, मोंठ, तिल व मसाले वाली फसलों का उत्पादन होता है| इनमें से अधिकांश फसलें ऐसी हैं, जिनका गुणवत्तायुक्त उत्पादन सिर्फ शुष्क जलवायु में ही संभव है, जैसे- जीरा, ईसबगोल आदि| इन फसलों की जैविक विधि से उत्पादन प्रमाणित होने पर विश्व बाजार में बहुत मांग है|
यूरोप व अमेरिका में फाइटोसेनेटरी कानून के सख्ती से लागू होने के कारण भविष्य में फसलों के रसायन अवशेष युक्त उत्पाद का निर्यात लगभग असंभव हो जायेगा| अतः शुष्क क्षेत्रों की फसलों का जैविक विधि से उत्पादन करने पर न केवल निश्चित बाजार मिलेगा वरन् स्थानीय संसाधनों का सदुपयोग भी संभव होगा|
फसल चक्र में दलहन जैसे- ग्वार, मोठ, मूंग को अवश्य ही शामिल करना चाहिये, ताकि मृदा की उर्वरता बनी रहे| रबी में जीरा, ईसबगोल व रायड़ा को फसल चक्र में इस प्रकार शामिल करना चाहिये| जिससे की जीरा एक खेत या खेत के एक ही भाग पर लगातार दो वर्ष तक उत्पादित न हो अर्थात जीरा के बाद रायड़ा या ईसबगोल का फसल चक्र अपनाना चाहिये|
यह भी पढ़ें- सब्जियों की जैविक खेती, जानिए प्रमुख घटक, कीटनाशक एवं लाभ की प्रक्रिया
पोषण प्रबंधन
अक्सर किसान गोबर खाद को बुवाई से काफी पहले खेत में डाल देते हैं| गोबर कई दिनों तक खुली हवा-धूप में पड़ा रहता है, जिससे इसके कई पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं| दूसरे इसका सड़ाव न होने के कारण खेत में कच्चा गोबर जाते ही दीमक (उदई) लग जाती है| कच्चा गोबर सड़ने के लिये खेत की नत्रजन को सोख लेता है| कई खरपतवार के बीज इस बिना सड़े गोबर के साथ खेत में चले जाते हैं और उगकर समस्या पैदा करते हैं|
इन सब समस्याओं का समाधान है, कि गोबर की वैज्ञानिक विधि से जैविक खाद बनाई जाये| शुष्क क्षेत्रों में खाद तैयार करने के लिये 4 से 6 महीने का समय मिल जाता है| वहाँ पशु मल व फसल अवशेष से भूमि के नीचे गड्ढे में खाद बनाना उचित रहता है| जल की मात्रा व गुणवत्ता में कमी, वातावरण में शुष्कता व तापमान में उतार-चढ़ाव के कारण शुष्क क्षेत्र में केंचुआ खाद निर्माण व्यवहारिक नहीं पाया गया है|
खरपतवार नियन्त्रण
खरपतवार मुख्यत: कच्ची खाद में आये बीजों से व समय पर निराई गुड़ाई न करने से पनपते हैं| खरपतवार नियंत्रण के लिये पकी हुई जैविक खाद व साफ बीज का प्रयोग करना चाहिये| खेत में उगे खरपतवारों को हाथ से उखाड़कर फसल की पंक्तियों के बीच मल्च के रूप में बिछा देना चाहिये|
इससे न केवल खरपतवार नियन्त्रण होता है, वरन् भूमि सतह ढक जाने से नमी संरक्षण व बाद में खरपतवार के गलसड़ जाने से भूमि को जीवांश (लगभग 2.0 से 2.5 टन प्रति हेक्टेयर) भी मिल जाता है| पहली निराई-गुड़ाई फसल बुवाई के 20 से 25 दिन बाद व दूसरी 40 से 45 दिन बाद अवश्य कर देनी चाहिये|
यह भी पढ़ें- ट्राइकोडर्मा क्या जैविक खेती के लिए वरदान है
रोग एवं कीट नियंत्रण
रोग एवं कीट नियंत्रण के लिये निम्न उपायों का समन्वित प्रयोग करना चाहिये, जैसे-
1. स्वस्थ, रोग एवं कीट रहित बीज का चयन कर 4 से 6 ग्राम ट्राइकोडरमा पाउडर से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये|
2. अच्छी पकी हुई जैविक खाद का प्रयोग 5.0 टन प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि तैयारी के समय करना चाहिये|
3. खेत के आसपास या गाँव में उपलब्ध नीम के वृक्षों की पकी हुई निम्बोली पानी में भिगोकर उसका छिलका उतार देना चाहिए व गुठली को सुखाने के पश्चात कूटकर 150 से 200 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से जुताई के समय मृदा में मिला देना चाहिए|
4. खेत में कीट प्रजाति के अनुसार फेरोमोन ट्रेप का प्रयोग करना चाहिये|
5. खेत में प्रतिदिन निरीक्षण करना चाहिये तथा रोग एवं कीट की शुरूआत होने पर नीम बीज गिरी का 5.0 प्रतिशत जल घोल का सायंकाल छिड़काव करना चाहिये|
6. खेत की बाड़ व बीच में पंक्तियों में कई प्रकार के फूलदार वृक्ष-झाड़ी लगाने चाहिये जिससे फसल के लिये लाभकारी कीटों को आश्रय व भोजन मिलता रहे| खेत की बाड़ पर कुछ वृक्ष नीम के भी लगाने चाहिए ताकि जैविक कीट नियंत्रक बनाने हेतु निम्बोली मिल सके|
यह भी पढ़ें- मिट्टी की उर्वरा शक्ति एवं अधिक उत्पादन के लिए हरी खाद का प्रयोग कैसे करें
प्रमाणीकरण
जैविक उत्पादन को उपभोक्ता व बाजार का विश्वास प्राप्त करने के लिये इसको प्रमाणित कराने की आवश्यकता होती है| इसके लिये भारत सरकार से मान्यता प्राप्त किसी संस्था से पंजीकरण कराना चाहिये| इसके बाद निरीक्षक समय-समय पर आकर निरीक्षण करते हैं व कृषक पुस्तिका में आदानों व उत्पादों के विवरण को सत्यापित करते हैं|
सब कुछ सुचारू रूप से नियमानुसार होने पर तीन वर्ष पूरे होने पर जैविक प्रमाण पत्र मिल जाता है| जिसके आधार पर प्रमाणित जैविक उत्पाद का विक्रय किया जा सकता है| सरकार द्वारा प्रमाणीकरण योजना में शामिल होने वाले कृषकों को रूपये 10000/- तक का अनुदान देने का प्रावधान है|
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
जैविक खेती से निम्न प्रकार से जलवायु परिवर्तन के खेती पर बुरे प्रभावों को कम किया जा सकता है, जैसे-
1. जैविक खाद के प्रयोग से भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है जिससे वर्षा की अनियमितता में भी फसल को पानी मिलता रहता है| साथ ही सिंचाई की संख्या भी कम हो जाती है| प्रयोगों से पाया गया है, कि जैविक खाद के प्रयोग से ग्वार-तिल आदि फसलों ने 42 दिन के सूखाकाल के बाद भी उत्पादन दिया जबकि रसायनिक खाद के द्वारा उगाई गई फसल 27 दिन बाद ही नष्ट हो गयी| इसी प्रकार गेहूं में जैविक प्रबंधन से 4 सिंचाई में ही अच्छी पैदावार प्राप्त हुई|
2. जैविक खाद के प्रयोग से संतुलित पोषण मिलने के कारण फसल में सूखा सहने व रोग एवं कीट से लड़ने की ताकत बढ़ती है| साथ ही तापमान की विषमता का भी कम प्रभाव पड़ता हैं|
3. जैविक खेती का जैवविविधता, फसल चक्र आदि के होने से जलवायु परिवर्तन के कारण अचानक होने वाले ताप, वर्षा, आद्रता आदि के परिवर्तनों का प्रभाव बहुत कम हो जाता है|
4. जैविक खाद के प्रयोगों से भूमि में 200 से 300 किलोग्राम कार्बन का अवशोषण (सीक्रेस्ट्रेशन) होता है, जो कि जलवायु परिवर्तन को कम करने में सहायक होता है| किसान को कार्बन क्रेडिट का रूपया भी मिल सकता है|
यह भी पढ़ें- नीम आधारित जैविक कीटनाशक कैसे बनाएं
जैविक कृषि की सफलता
इस प्रकार समन्वित पोषण व रक्षण से सफल जैविक उत्पादन संभव हो पाता है| केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान के प्रमाणित जैविक फार्म पर किये गये प्रयोगो में ग्वार की 630 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर, तिल की 886 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर, जीरे की 516 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर,व ईसबगोल की 808 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर, तक उपज प्राप्त की गई है| जैविक व्यवस्था को बनाने में 2 से 3 वर्ष का समय लग सकता है|
किन्तु एक बार व्यवस्था बन जाने पर बाहरी साधनों पर निर्भरता बहुत कम हो जाती है व रोग एवं कीट का प्रकोप भी कम हो जाता है| इस व्यवस्था में स्वयं के खेत से तैयार बीज के अलावा खाद, कीट नियंत्रक आदि अधिकांश आदान शुष्क क्षेत्र में बहुतायत से अपनाये जाने वाली मिश्रित कृषि पद्धति (फसल + वृक्ष + पशु) के उपोत्पाद के रूप में मिल जाते है| अतः जैविक पद्धति की लागत कम होती है|
निष्कर्ष
वर्षा की कमी व अनिश्चितता वाले क्षेत्रों में कृषि को स्थायित्व प्रदान करने के लिये जैविक तकनीकों का समन्वित प्रयोग न केवल सीमित संसाधनों का सदुपयोग सुनिश्चित करता है वरन् मृदा स्वास्थ्य व पर्यावरण में सुधार तथा लागत में कमी जैसे कई कृषि के कई ज्वलन्त मुद्दों का व्यवहारिक समाधान भी है| प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है, कि जैविक कृषि से उपज में कमी नहीं होती है| अतः यह पद्धति इन क्षेत्रों के लिये उपयोगी है|
यह भी पढ़ें- एजाडिरेक्टिन (नीम आयल) का उपयोग खेती में कैसे करें
यदि उपरोक्त जानकारी से हमारे प्रिय पाठक संतुष्ट है, तो लेख को अपने Social Media पर Like व Share जरुर करें और अन्य अच्छी जानकारियों के लिए आप हमारे साथ Social Media द्वारा Facebook Page को Like, Twitter व Google+ को Follow और YouTube Channel को Subscribe कर के जुड़ सकते है|
Leave a Reply