सरसों वर्गीय फसल हमारे देश की तिलहन अर्थव्यवस्था में मुख्य भूमिका निभाती है| इन फसलों की बढ़ोतरी का सीधा असर दुर्लभ विदेशी मुद्रा की बचत में होता है| इन फसलों में तोरिया, पीली व भूरी सरसों, गोभी सरसों, कर्ण राई, राया (भारतीय सरसों) व तारामीरा हैं| सरसों का तेल स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है| सरसों की खेती अधिकतर वर्षा सिंचित नमी अथवा सीमित सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में की जाती है| इन फसलों की पैदावार को बढ़ाने तथा उसको टिकाऊ बनाने के मार्ग में एक प्रमुख समस्या नाशीजीवों का प्रकोप है|
जो कुछ हद तक इन फसलों के अस्थिर उत्पादन के लिए उत्तरदायी है| ये नाशीजीव सरसों में 10 से 96 प्रतिशत तक उत्पादन में हानि पहुँचाते हैं| इन नाशीजीव की समय से रोकथाम कर के कृषक सरसों की फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त कर सकते है| इस लेख में सरसों फसल में समेकित नाशीजीव प्रबंधन (आईपीएम) कैसे करें की जानकारी का उल्लेख है|
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सरसों फसल के प्रमुख नाशीजीव
चेपा/माहू- यह कीट छोटा, कोमल, सफेद-हरे रंग का होता है| इस कीट के शिशु और प्रौढ़ दोनों सरसों फसल में पौधों के विभिन्न भागों से रस चूसते हैं| यह प्रायः दिसम्बर के अन्त से लेकर फरवरी के अन्त तक सक्रिय रहता है| इस कीट की आर्थिक हानि की सीमा 10 से 20 माहू मध्य तना के 10 सेंटीमीटर भाग में है| इससे उपज में लगभग 25 से 40 प्रतिशत तक की हानि हो सकती है|
चितकबरा कीट- इस कीट के शिशु तथा प्रौढ़ दोनों ही सरसों फसल को पौध की अवस्था से लेकर, वनस्पति, फली बनने और पकने अवस्था में रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं और बाद में मॅड़ाई के लिए रखे गये सरसों पर भी आक्रमण करते हैं| जिससे दाने सिकुड़ जाते हैं तथा उत्पादन व तेल की मात्रा में भारी कमी हो सकती है|
काले धब्बों का रोग/आल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी- यह रोग बड़े पैमाने पर सरसों फसल में लगता है| इसका प्रकोप पत्तियों, तनों, फलियों इत्यादि पर हल्के भूरे रंग के चक्रीय धब्बों के रूप मे प्रदर्शित होता है और बाद में ये धब्बे हल्के काले रंग के बडे आकार के हो जाते है| इससे बीज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है| जिस कारण इसकी अकुंरण में कमी एवं बाजार भाव कम मिलता है| गीला व गर्म मौसम या अदल-बदल के वर्षा व धूप तथा तेज हवाएँ इस रोग को बढ़ाती हैं|
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सफेद रतुआ- यह रोग सर्वप्रथम पत्तियों पर आता है| जब तना तथा पुष्पक्रमों में दिखाई पड़ता है, इससे सरसों फसल के पुष्पक्रम फूल कर विकृत आकार के हो जाते हैं| जिससे उत्पादन में 17 से 34 प्रतिशत तक कमी आती है| यदि हवा के साथ तेज वर्षा होती है, तो यह रोग तीव्र गति से फैलता है|
स्कलेरोटिनिया विगलन- इस रोग मे सरसों फसल के पत्तों व तनों पर लंबे चिपचिपे धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में कवक की वृद्धि से ढक जाते हैं| इस रोग का प्रकोप फूल आने की अवस्था से शुरू होता है| जब मौसम ठण्डा व नम होता है, तो इस रोग की उग्रता बढ़ती है| इस रोग से सूखे पौधों के तनों में काले रंग वाले पिंड बन जाते हैं|
चूर्णिल आसिता- प्रारंभ में यह रोग सरसों फसल के पौधों के तनों, पत्तियों एवं फलों पर श्वेत, गोल आटे जैसे चूर्णित धब्बों के रूप में दिखाई देता है| तापमान की वृद्धि के साथ-साथ ये धब्बे आकार में बड़े हो जाते हैं|
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सरसों फसल में लाभप्रद जीव
काक्सीनेला- इस के शिशु दुबले एवं इनके वक्षांग एवं पैर अच्छी तरह से विकसित होते हैं| इनके प्रौढ़ चमकीले, पीले, नारंगी या गहरे लाल रंग के होते है|
क्रायसोपरला- प्रौढ़ कीट के लेसविंग हल्के हरे रंग के 12 से 20 मिलीमीटर लम्बे होते हैं| इनके पंख पारदर्शी एवं हरे पीले रंग के होते हैं और शरीर कोमल होता है|
ट्राइकोडर्मा- ट्राइकोडर्मा एक महत्वपूर्ण जैविक नियंत्रण कवक है| इनका समूह (कालोनी) सामान्यतः हरे रंग का होता है| ट्राइकोडर्मा कवक सरसों के विभिन्न रोगों जैसे सफेद रोली, एवं स्कलेरोटिनिया गलन रोग की रोकथाम में प्रयोग किया जाता है|
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सरसों फसल में समेकित नाशीजीव प्रबंधन
सरसों फसल को नाशीजीवों के प्रकोप से बचने और इनसे होने वाली हानि को आर्थिक परिसीमा से नीचे रखने हेतु समेकित नाशीजीव प्रबन्धन अपनायें| इसके अन्तर्गत फसल की अवस्थानुसार निम्न उपाय करें, जैसे-
बिजाई पूर्व प्रबंधन-
ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई- ग्रीष्म ऋतु में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें|
पानी की निकासी- बोये जाने वाले खेत को अच्छी तरह तैयार करके, पानी की निकासी का उचित प्रबन्ध करें|
फसल के अवशेषों को नष्ट करना- पूर्व की फसल के अवशेषों और रोग ग्रसित पौधों को एकत्र कर जला दे एवं खेत को साफ-सुथरा रखे|
समुचित फसल चक्र- नाशीजीवों की निरन्तरता को समाप्त करने के लिए उपयुक्त फसल चक्र अपनायें|
सन्तुलित उर्वरक- सरसों में अनुमोदित किए गए सन्तुलित उर्वरकों का प्रयोग करें| फसलों में अधिक मात्रा में नाइट्रोजन का प्रयोग करने से चूषक कीटों (माहू इत्यादि) व बिमारियों का आक्रमण बढ़ जाता है| 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट + सल्फर (स्थान विशेष) का मिटटी में अनुप्रयोग करें|
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बिजाई के समय प्रबंधन-
उचित समय पर बिजाई- सरसों की सही समय (01 अक्टूबर से 31 अक्टूबर) के दौरान बुवाई करें|
प्रमाणित बीज- सरसों फसल क्षेत्र के लिए स्वीकृत, उन्नत, स्वस्थ रोग रहित प्रमाणित बीजों का प्रयोग करें|
भूमि उपचार- भूमि में ट्राइकोडरमा कवक उत्पाद 2.5 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर को 50 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर में मिलाकर, सरसों की बुवाई से पूर्व अवश्य मिलाना चाहिए| जिससे बीमारियों का प्रकोप कम होता है|
बीजोपचार- ट्राईकोडरमा आधारित जैविक उत्पादक द्वारा 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से या ताजा बनाये हुये लहसुन सत् से 2 प्रतिशत की दर से बीजोपचार करें|
उचित दूरी- बीज की सिफारिश से ज्यादा मात्रा का प्रयोग न करे व कतार से कतार की व पौधे से पौधे की उचित दूरी बनाये रखें|
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वानस्पतिक अवस्था में प्रबंधन-
1. सरसों फसल के छोटे पौधों में सिंचाई करने से पौधे चितकबरा कीट के आक्रमण को सहन कर पाने में काफी सक्षम हो जाते हैं|
2. सरसों फसल में माहू के प्रकोप से प्रभावित टहनियों को प्रारम्भिक अवस्था में ही तोड़कर नष्ट कर दें|
3. माहू के प्राकृतिक शत्रु (परभक्षी दुश्मन) कीट जैसे क्राइसोपा, सिरफिड, काक्सीनेला आदि की कीटनाशकों से रक्षा करे|
4. सरसों फसल के माहू और पर्यावरण संतुलित प्रबंधन के लिए 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से डाइमिथोएट या आक्सीडेमेटोन मिथाईल का छिडकाव करे तथा तदुपरांत 5000 भृंग प्रति हेक्टेयर की दर से काक्सीनेला सेप्टेमपंक्टाटा को छोड़ें|
5. सरसों फसल में माहू के नियंत्रण के लिए परभक्षी कीट क्राइसोपरला के 45000 से 50000 शिशु प्रति हेक्टेयर की दर से पूरे खेत में छोड़ें|
6. सरसों की फसल में आवश्यकता से अधिक पौधों का विरलीकरण अवश्य करें, कीटों व रोगों से ग्रसित पौधों को खेत से निकालकर नष्ट करें|
7. सरसों फसल की आवश्यकतानुसार 2 से 3 सिंचाई जैसे पहली सिंचाई फूल आते समय, दूसरी सिंचाई फली बनते समय तथा तीसरी सिंचाई दाना भरते समय करें|
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फूल व फली अवस्था में प्रबंधन-
1. सरसों फसल के खेत का रोजाना भ्रमण करें व नाशीजीव दिखने पर नियंत्रण के उपाय तुरंत अपनाए|
2. ताजा बनाये हुये लहसुन सत् से 2 प्रतिशत या ट्राइकोडरमा कवक उत्पाद 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव करें या कार्बन्डाजिम 0.1 प्रतिशत + मैंकोजेब (गोभी वर्गीय फसलों में लेबल क्लेम है, जबकि सरसों में नहीं है) 0.2 प्रतिशत की दर से जरूरी होने पर पर्णीय छिड़काव या सफेद रतुआ के ज्यादा प्रकोप पर मैटालैक्सिल + मैन्कोजेब कवकनाशी का 2.5 ग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें|
3. सरसों फसल में स्कलरोटिनिया तना गलन रोग ग्रसित पौधे जो कि सामान्य पौधो से पहले पक जाते है, को पिंड (स्क्लरोशिया) बनने से पूर्व ही जड़ से उखाड़ कर बाहर निकाल दे और बाद में रोग ग्रसित अवशेषों को जला दे|
4. समय-समय पर सरसों के खेत से खरपतवार निकालते रहे व मधुमक्खियों को कीटनाशकों के नुकसान से बचाने के लिए कीटनाशकों का छिड़काव शाम के समय ही करें|
नाशीजीव सहनशील किस्में-
सफेद रतुआ- बायो वाई एस आर और जे एम- 1 प्रमुख है|
स्कलेरोटिनिया गलन- पूसा आदित्य, किरण, पूसा करिश्मा और आर एल एम- 619 प्रमुख है|
चुर्णिल असिता- पूसा सरसों- 26 प्रमुख है|
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