सौंफ मसाले की एक प्रमुख फसल है| सौंफ की व्यसायिक रूप से एक साल की जड़ी बूटी के रूप में खेती की जाती है| इसके दाने आकार में छोटे और हरे रंग के होते है| सोंफ का उपयोग आचार बनाने में और सब्जियों में खशबू और जयका बढाने में किया जाता है| इसके आलावा इसका उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है| सौंफ एक त्रिदोष नाशक औषधि होती है| सौंफ को देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से जानते है|
सौंफ के बीजो से तेल भी निकाला जाता है, इसकी खेती मुख्य रूप से गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, आँध्रप्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा में की जाती है| यदि उत्पादक सौंफ की खेती वैज्ञानिक विधि से करें, तो इसकी फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है| इस लेख में सौंफ की उन्नत खेती कैसे करें की जानकारी का विस्तृत उल्लेख किया गया है|
सौंफ की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
सौंफ की अच्छी उपज के लिए शुष्क और ठण्डी जलवायु उत्तम होती है| बीजों के अंकुरण के लिए उपयुक्त तापमान 20 से 29 डिग्री सेल्सियस है तथा फसल की अच्छी बढ़वार 15 से 20 डिग्री सेल्सियस पर होती है| 25 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान फसल की बढ़वार को रोक देता है| फसल के पुष्पन अथवा पकने के समय आकाश में लम्बे समय तक बादल रहने से तथा हवा में अधिक नमी रहने से झुलसा बीमारी तथा माहू कीट के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है|
सौंफ की खेती के लिए भूमि का चयन
रेतीली भूमि को छोड़कर सौंफ सभी तरह की मिट्टी जिनमें पर्याप्त मात्रा में जैविक पदार्थ विद्यमान हो, में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है| इसकी खेती के लिए उर्वरक और अच्छी जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है| सौंफ की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए हल्की मृदा की अपेक्षा भारी मृदा ज्यादा उपयुक्त होती है| इसकी खेती के लिए मिटटी का पी एच मान 6.6 से 8.0 के बीच होना चाहिए|
सौंफ की खेती के लिए भूमि की तैयारी
खेत की तैयारी के लिए सर्वप्रथम एक या दो जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए| उसके बाद 2 से 3 जुताई देशी हल या हैरो से करके पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी करके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लेना चाहिए| खेत खरपतवार, कंकड़-पत्थर आदि अवांछनीय चीजों से मुक्त होना चाहिए| खेत को तैयार करते समय समतल करके सुविधानुसार क्यारियां बना लेनी चाहिए|
सौंफ की खेती के लिए उन्नत किस्में
सौंफ की खेती से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए उन्नत किस्मों का चयन किया जाना चाहिए| किस्म अपने क्षेत्र की प्रचलित और अधिक उपज देने वाली के साथ-साथ विकार रोधी भी होनी चाहिए| कुछ प्रचलित प्रजाति इस प्रकार है, जैसे- आर एफ- 105, आर एफ- 125, पी एफ- 35, गुजरात सौंफ- 1, गुजरात सौंफ- 2, गुजरात सौंफ- 11, हिसार स्वरूप, एन आर सी एस एस ए एफ- 1, को- 11, आर एफ 143 और आर एफ- 101 आदि प्रमुख है| किस्मों की पूर्ण जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- सौंफ की उन्नत किस्में
सौंफ की खेती के लिए बुवाई का समय
सौंफ एक लम्बी अवधि में पकने वाली फसल है| अतः रबी की शुरूआत में बुवाई करना अधिक उपज के लिए लाभदायक होता है| सौंफ को सीधा खेत में या पौधशाला में पौध तैयार करके रोपाई की जा सकती है| सौंफ की बुवाई के लिए अक्टूबर का प्रथम सप्ताह सर्वोत्तम होता है| नर्सरी विधि से बोने पर नर्सरी में बुवाई जुलाई से अगस्त माह में की जाती है तथा 45 से 60 दिन के बाद पौध की रोपाई कर दी जाती है|
सौंफ की खेती के लिए बीज दर
सीधे बीज द्वारा सौंफ की बुवाई करने पर 8 से 10 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है| परन्तु नर्सरी में सौंफ की एक हैक्टर खेत के लिए पौध तैयार करने हेतु 2.5 से 3.0 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है|
सौंफ की खेती के लिए बीजोपचार
बीज जनित रोगों से बचाव के लिए गौमूत्र से बुवाई से पूर्व बीज को उपचारित कर लेना चाहिए| इसके अलावा बीज को बाविस्टीन दवा 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बुवाई करना चाहिए|
सौंफ की खेती के लिए बुवाई की विधि
सौंफ की बुवाई निम्न प्रकार से की जाती है, जैसे-
बीज से सीधी बुवाई- बीज के द्वारा बुवाई क्यारियों में बीजों को छिटककर या 45 सेंटीमीटर दूर कतारों में बोते हैं| छिटकवाँ विधि में बीजों को छिटकने के बाद लोहे की दंताली या रेक से 2.0 सेंटीमीटर गहराई तक मिट्टी से ढक देते हैं| कतार विधि में 45 सेंटीमीटर की दूरी पर हुक की सहायता से लाइनें खींच देते हैं तथा 2 सेंटीमीटर गहराई पर उपचारित किए हुए बीजों को बुवाई करके तुरन्त बाद क्यारियों में पानी दे दिया जाता है|
बीजों का अंकुरण 7 से 11 दिन के बाद शुरू हो जाता है| अंकुरण के बाद पहली निराई-गुड़ाई के समय अतिरिक्त पौधों को कतार से निकालकर पौधे से पौधे के बीच की दूरी 20 सेंटीमीटर कर देना चाहिए| यदि सौंफ के बीजों को भिगोकर बोया जाए तो उनका अंकुरण आसानी से शीघ्र होता है|
रोपण विधि- इस विधि से सौंफ की बुवाई करने के लिए सर्वप्रथम नर्सरी में पौध तैयार की जाती है| जुलाई के माह में एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिए 100 वर्गमीटर भूमि में 3 गुणा 2 मीटर आकार की क्यारियां में 15 से 20 टोकरी गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिला देना चाहिए|
20 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारें बनाकर बीजों की बुवाई कर देनी चाहिए| समय-समय पर आवश्यकतानुसार पानी देते रहना चाहिए| 40 से 45 दिन में पौध तैयार हो जाती है| जिसे 45 से 60 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में रोपाई कर दें पौध से पौध की दूरी 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए|
सौंफ की खेती के लिए खाद और उर्वरक
अगर पिछली फसल में गोबर की खाद या कम्पोस्ट डाली गई है, तो सौंफ की फसल में अतिरिक्त खाद की आवश्यकता नहीं होती है अन्यथा खेत की जुताई के पहले 10 से 15 टन प्रति हैक्टर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट खेत में समान रूप से बिखेर कर मिला देना चाहिए|
इसके अलावा 90 किलोग्रान नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर देना चाहिए| नत्रजन की आधी मात्रा फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय आख़िरी जुटाई के समय देना चाहिए तथा शेष नत्रजन की मात्रा दो भाग में बुवाई के 60 दिन बाद तथा 90 दिन बाद खड़ी फसल में देनी चाहिए|
सौंफ की खेती में सिंचाई व्यवस्था
सौंफ की फसल के लिए अधिक सिंचाईयों की आवश्यकता होती है| अगर प्रारम्भ में मृदा में नमी की मात्रा कम हो तो बुवाई या रोपाई के तुरन्त बाद एक हल्की सिंचाई करनी चाहिए| इस समय क्यारियों में पानी का बहाव तेज नहीं होना चाहिए अन्यथा बीज बहकर क्यारियों के किनारों पर इकट्ठे हो सकते हैं|
पहली सिंचाई के 8 से 10 दिन बाद दूसरी सिंचाई की जा सकती है, जिससे अंकुरण अच्छे से हो सके| उपरोक्त दो सिंचाईयों के बाद मृदा की जलधारण क्षमता, फसल की अवस्था व मौसम के अनुसार 10 से 20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए|
सौंफ को औसतन 7 से 9 सिंचाईयों की जरूरत पड़ती है| सौंफ की फसल में सिंचाई की प्रमुख कातिक अवस्थाएं अंकुरण के समय 8 से 10 दिन, वानस्पतिक वृद्धि अवस्था 70 दिन, मुख्य छत्रक निकलने के समय 120 दिन, द्वितीय व तृतीय पुष्पगुच्छ अवस्था 150 दिन, बीज वृद्धि अवस्था 180 दिन के अनुसार सिंचाई देनी चाहिए|
सौंफ की फसल में बूंद-बूंद पद्धति- यह सिंचाई की वह विधि है जिसमें पौधों की जड़ों के पास जल को बूंदों के रूप में देकर जड़ीय क्षेत्र को हमेशा आर्द्र रखा जाता हैं| इस विधि में जल के साथ-साथ रासायनिक उर्वरक व रक्षक रसायनों को सीधे जड़ क्षेत्र में पंहुचाया जा सकता है|
जिससे जल के साथ-साथ उर्वरकों की उपयोग दक्षता में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है और उर्वरकों व रसायनों के सुनियोजित उपयोग से मृदा प्रदूषण में भी काफी गिरावट आती है| सीमित क्षेत्र में जल के अनुप्रयोग से खरपतवार भी अपेक्षाकृत कम उगते हैं, जिससे श्रम की काफी हद तक कमी होती है|
इस विधि में ड्रिप लेटरल फसल की दो पंक्तियों के बीच में लगायी जाती है, जिससे फसल की दोनों पंक्तियां नली से पर्याप्त नमी पाकर अपना जीवन चक सफलतापूर्वक पूरा करती हैं तथा किसी भी सामान्य सिंचाई विधि से ज्यादा उपज देती हैं| इस तरह से सौंफ को आसानी से ड्रिप विधि द्वारा सिंचित किया जा सकता है|
अनुसंधान केन्द्रों पर किये गये एक प्रयोग में पाया गया कि सौंफ की अच्छी बढ़वार तथा उपज प्राप्त करने के लिए बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति से 4 से 5 दिन में एक बार 40 से 45 मिनट तक (1.0 किलोग्राम वर्ग इंच दाब) पानी देना पर्याप्त होता हैं|
सौंफ की खेती में खरपतवार नियन्त्रण
सौंफ की बढ़वार प्रारम्भ में धीमी गति से होती है| इसलिए इसको खरपतवारों से, पोषक तत्वों, पानी, जगह और प्रकाश के लिए अधिक प्रतियोगिता करनी पड़ती है| अतः फसल को खरपतवारों द्वारा होने वाली हानि से बचाने के लिए कम से कम दो या तीन बार निराई-गुड़ाई के 25 से 30 दिन बाद तथा दूसरी 60 दिन बाद करनी चाहिए| पहली निराई-गुड़ाई के समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकाल दें तथा कतारों में की गई बुवाई वाली फसल में पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए|
सौंफ में रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालिन 1.0 किलोग्राम सक्रिय तत्व बुआई के पश्चात तथा अंकुरण से पूर्व 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर मिट्टी पर छिड़काव करना चाहिए| बीजीय मसाला अनुसंधान पर किये गये एक अध्ययन के अनुसार सौंफ की फसले में बुआई के 1 से 2 दिन बाद बीज उगाने से पहले 75 ग्राम प्रति हैक्टर के हिसाब से ऑक्सीडाइजिल का प्रयोग खरपतवार नियंत्रण में लाभदायक रहता हैं|
सौंफ की खेती में फसल संरक्षण
खेत की तैयारी करते समय पूरी कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, नीम की खली प्रति एकड़ 2 से 3 टन डालें| गर्मियों में खेत की जुताई अवश्य करें| इससे फसल में भूमि से आने वाली बीमारियों का प्रकोप नहीं होगा| यदि आपका खेत बीमार है, तो फसल भी बीमार होगी| यदि आपका खेत स्वस्थ है तो फसल भी स्वस्थ होगी| अतः प्रयास ऐसा करना चाहिए कि हमारा खेत सदैव स्वस्थ रहे|
सौंफ में अधिकतर छाछिया रोग, झुलसा व गुंडिया रोग लगने की संभावनाएं रहती है| इनसे मुक्ति पाने के लिए गौमूत्र, नीम, आक आदि के मिश्रण का छिड़काव नियमित करते रहना चाहिए| पुष्प काल के समय माहू का भी प्रकोप हो सकता है, दीमक का प्रकोप भी होता है| जैविक कीटनाशकों के नियमित प्रयोग से फसल को कीट एवं रोगों से बचाया जा सकता है|
प्रमुख रोग एवं रोकथाम-
कॉलर रॉट- यह रोग उन क्षेत्रों में अधिक दिखाई देता है, जहां पानी का ठहराव पौधे के पास अधिक होता है| पौधों का कॉलर हिस्सा (जड़ के ऊपर) में सड़न या गलन शुरू हो जाती है तथा पीले होकर बाद में मर जाते हैं|
रोकथाम- 1.0 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण (3:3:50) के छिड़काव से रोग को नियंत्रित किया जा सकता है| खेत को पानी के ठहराव से बचाना चाहिए|
रेमुलेरिया झुलसा (रमुलेरिया ब्लाइट)- यह बीमारी रेमुलेरिया फोइनीकुली नामक कवक के कारण होती है| शुरु छोटे-छोटे पीले धब्बे पत्तियों पर तथा बाद में पूरे पौधे पर दिखाई देते हैं| ये धब्बे बढ़कर भूरे रंग में बदल जाते हैं| गंभीर अवस्था में पूरा पौधा सूख कर मर जाता है|
रोकथाम- प्रारंभिक अवस्था में डायथेन एम- 45 या डायथेन जेड- 78 के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए| 1.0 मिलीलीटर साबुन का घोल प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से फफूंदनाशक की दक्षता बढ़ जाती है| 2 से 3 छिड़काव 10 से 15 दिनों के अतंराल में दोहराना चाहिए|
छाछ्या (पाउडरी मिल्ड्यू)- इस रोग का प्रकोप फरवरी से मार्च के महीने में अधिक रहता है| इस रोग के लगने पर शुरू में पत्तियों एवं टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है, जो बाद में सम्पूर्ण पौधे पर फैल जाता है|
रोकथाम- छाछ्या के नियंत्रण के लिए 20 से 25 किलोग्राम गंधक के चूर्ण का भुरकाव प्रति हैक्टर दर से करना चाहिए या कैराथियान एल सी 1 मिलीलिटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए| आवश्यकतानुसार 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव दोहरावें|
प्रमुख कीट एवं रोकथाम-
मोयला (माहू)- मोयला (माहू) सौंफ की फसल का एक प्रमुख कीट है और गंभीर क्षति के कारण फसल पैदावार व बीज गुणवत्ता में कमी करता है| इस कीट के भारी प्रकोप से फसल में 50 प्रतिशत तक उपज में नुकसान देखा गया है| मोयला का विकास फसल की वानस्पतिक अवस्था में शुरू होकर बीज परिपक्वता तक जारी रहता है| कीट की अधिकतम संख्या पुष्पछत्र पर विकसित होती है|
निम्फ और वयस्क कोमल पत्तियों से रस चूसते हैं| जिससे वे कमजोर होकर सुख जाते हैं| नतीजन पौधों की वृद्धि अवरूद्ध होने से दानों की गुणवत्ता व मात्रा दोनों ही प्रभवित होती है| सामान्यतया बीज का निर्माण नहीं होता है, यदि होता है तो सिकुड़ा या निम्न गुणवत्ता का होता है|
रोकथाम-
1. उर्वरक और सिंचाई की सिफारिश की गई मात्रा ही देनी चाहिए क्योंकि अत्यधिक नाइट्रोजन व सिंचाई की मात्रा पौधों को रसीला बनाती है, जो मोयला की उच्च संख्या के विकास को बढ़ाता है|
2. प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रण हेतु एन एस के ई (नीम बीज करनेल निचोड़) के 5 प्रतिशत या नीम तेल 2 प्रतिशत का छिड़काव करें|
3. जब मोयला की अधिक संख्या हो जाए तो निम्नलिखित में से किसी एक का 15 दिन के अंतराल में छिड़काव करना चाहिए जैसे- डायमिथोएट 0.03 प्रतिशत या मासिस्टोक्स 0.03 प्रतिशत या इमिडाक्लोप्रिड 0.005 प्रतिशत या थाइमेथाक्साम 0.0025 प्रतिशत|
बीज ततैया- यह सौंफ के मुख्य कीटों में से एक हैं| वयस्क मादा ततैया विकासशील बीज के अंदर अंडे देती है और लार्वा बीज को अंदर से खाता रहता है| वयस्क ततैया बीज के अंदर से बहार छेद करके एक महीने में बाहर निकालते हैं| अंडे बीज परिपक्वता के स्तर पर दिए जाते हैं एवं वयस्क कटाई के बाद भंडारण के समय बाहर आते हैं| प्रभवित बीज खोखले व कुठित रंग के हो जाते हैं और उनकी अंकुरण क्षमता समाप्त हो जाती है|
रोकथाम- प्रभावी ढंग से नियंत्रण हेतु एन एस के ई (नीम बीज करनेल निचोड़) के 5 प्रतिशत या नीम तेल 2 प्रतिशत या इमिडाक्लोप्रिड 0.005 प्रतिशत या थाइमेथोक्साम 0.0025 प्रतिशत या डायमिथोएट 0.03 प्रतिशत का 10 से 15 दिन के अंतराल में छिड़काव करना चाहिए|
कर्तन कीट- कर्तन कीट कुछ प्रभवित क्षेत्रों में अधिक पाया जाता है| लार्वा मिट्टी के अंदर पौधों की सतह के पास पाया जाता है| वे दिन के दौरान मिट्टी नीचे छिपे रहते हैं| और रात में मिट्टी की सतह से बहार आ जाते हैं| रात में लार्वा भूख से पीड़ित होकर कोमल पत्तियां व तने और शाखओं को खा जाता है|
रोकथाम- इस कीट के नियंत्रण हेतु नियमित रूप से खेत का निरीक्षण करना चाहिए| इसके नियंत्रण हेतु फोरेट 10 जी 10 किलोग्राम प्रति हैक्टर तथा मिथाइल पेराथियान धूल 25 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करा चाहिए|
सौंफ की खेती का पाले से बचाव
सौंफ पाले से प्रभावित आसानी से हो जाती है| पाले की अवस्था में फसल को भारी नुकसान हो सकता है| पाले से बचाव के लिए पाला पड़ने की संभावना होने पर सिंचाई करनी चाहिए| मध्य रात्रि के बाद खेत में धुंआ करके फसल को पाले से बचाया जा सकता है| फसल पर पुष्प प्रारम्भ होने के बाद गंधक के अम्ल का 0.1 प्रतिशत घोल छिड़कने से पाले से काफी बचाव होता है| अम्ल के छिड़काव को 10 से 15 दिन बाद आवश्यकतानुसार दोहराया जा सकता है|
सौंफ फसल की कटाई
फसल की कटाई सौंफ के आवश्यक उत्पाद के हिसाब से की जाती है| उत्तम किस्म चबाने के काम आने वाली लखनवी सौंफ छत्रकों को परागण के 30 से 40 दिन बाद, जब दानों का आकार पूर्ण विकसित दानों की तुलना में आधा होता है, काटकर साफ जगह पर छाया में फैलाकर सुखाना चाहिए| उत्तम गुणवत्ता वाली सौंफ पैदा करने के लिए दानों के पूर्ण विकसित होते ही काट लेना चाहिए| कटे छत्रकों को छाया में सुखाने के बाद मंडाई और औसाई करके बीजों को अलग कर लेना चाहिए|
सौंफ की खेती से पैदावार
कृषि की उपरोक्त उन्नत विधियाँ अपनाकर औसतन 15 से 23 क्विंटल प्रति हैक्टर सौंफ की उपज प्राप्त होती है| जबकि लखनवी सौंफ की उपज 5 से 8 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त होती है|
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