स्ट्रॉबेरी का वानस्पतिक नाम फ्रेगेरिया अननासा है| यह रोजेसी कुल का सदस्य है| इसका पौधा शाकीय, छोटा, कोमल तथा बहुवर्षीय होता है| इसका तना नाममात्र का तथा पूर्ण विकसित त्रिपत्री पत्तियां होती हैं| यह दो अन्य प्रजातियों (फ्रेगेरिया चिलयोनसिस एवं फ्रेगेरिया बरजीनियाना) के प्राकृतिक संकरण से विकसित किया गया है| स्ट्रॉबेरी के फल बडे लुभावने, रसीले एवं पौष्टिक होते हैं| ये मध्यम आकार (10 से 15 ग्राम), चित्ताकर्षक, सुवासयुक्त और सिंदूरी रंग लिए हुए बहुत ही नरम होते हैं|
इनका खाने योग्य भाग लगभग 98 प्रतिशत होता है| इन फलों में विटामिन- सी तथा लौह तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं| यह अपने विशेष स्वाद एवं रंग के साथ-साथ औषधीय गुणों के कारण भी एक महत्वपूर्ण फल है| इसका उपयोग कई मूल्य संवर्धित उत्पादों जैसे आईसक्रीम, जैम, जैली, कैंडी, केक इत्यादि बनाने के लिए भी किया जाता है| इसकी खेती अन्य फल वाली फसलों की तुलना में कम समय में ज्यादा मुनाफा दिला सकती है| यह अल्प अवधि (4 से 5 महीने) में ही फलत देने वाली फसल है|
भारत में कुछ वर्षों पूर्व तक स्ट्रॉबेरी की खेती केवल पहाड़ी क्षेत्रों जैसे उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर घाटी, महाराष्ट्र, कालिम्पोंग इत्यादि जगहों तक ही सीमित थी| वर्तमान में नई उन्नत प्रजातियों के विकास से इसको उष्णकटिबंधीय जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है| इसके कारण यह मैदानी भागों जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, बिहार आदि राज्यों में अपनी अच्छी पहचान बना चुकी है|
तकनीकी जानकारी के अभाव में किसान भाई इसकी खेती करने में अपने आपको असहज महसूस करते हैं| जबकि यदि स्ट्रॉबेरी की वैज्ञानिक तकनीक से खेती की जाये, तो इसकी फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है| अतः इस लेख में स्ट्रॉबेरी की वैज्ञानिक खेती के बारे में विस्तारपूर्वक समझाया गया है| इससे किसान भाई उच्च उत्पादन व गुणवत्ता वाले फल प्राप्त करके अधिकाधिक लाभ अर्जित कर सकते हैं|
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उपयुक्त जलवायु
स्ट्रॉबेरी शीतोष्ण जलवायु की फसल है, परंतु उन्नत किस्मों के विकास से इसको अब समशीतोष्ण एवं उष्णकटिबंधीय जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है| यह कम प्रकाश अवधि (शॉर्ट डे) वाला पौधा है| इसमें पुष्पन प्रारंभ होने के लिए लगभग 10 दिनों तक 8 घंटे से कम प्रकाश अवधि की जरूरत होती है| पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए दिन का अधिकतम तापमान 22 डिग्री सेल्सियस और रात का तापमान 7 से 13 डिग्री सेल्सियस उपयुक्त माना गया है| इसके फूलों व नाजुक फलों को पाले से बचाने के लिए निम्न सुरंग तकनीक (लो टनल टैक्नीक) का प्रयोग किया जा सकता है|
भूमि का चयन
स्ट्रॉबेरी की खेती लगभग सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है| अधिक तथा गुणवत्तायुक्त उत्पादन के लिए अच्छे जल निकास वाली, जीवाशयुक्त, हल्की बलुई दोमट मृदा, जिसका पी एच मान 5.5 से 6.5 के मध्य हो, उपयुक्त रहती है| मृदा में कैल्शियम की अधिक मात्रा से पौधे की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं| क्षारीय एवं सूत्रकृमि ग्रसित भूमि भी स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए उपयुक्त नहीं रहती है|
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खेत की तैयारी
स्ट्रॉबेरी उथली जड़ वाला पौधा है| अत: रोपाई के पूर्व खेत को भली भांति तैयार कर लेना चाहिए| इसके लिए एक जुताई मृदा पलटने वाले हल से तथा 2 से 3 जुताई देसी हल से करके पाटा चलाकर मृदा को अच्छी तरह भुरभुरा बना लेना चाहिए| यदि मिटटी में किसी कवक या बीमारी का प्रकोप हो तो उसे उपचारित कर लें| इसके लिए गर्मियों में जब तापमान 40 से 45 डिग्री सेल्सियस के मध्य हो, मृदा सौरीकरण कर लेना चाहिए|
सौरीकरण करने के लिए क्यारियों को हल्का नम कर या हल्की सिंचाई कर, 200 गेज की प्लास्टिक की पारदर्शी फिल्म से 6 से 8 सप्ताह तक ढककर रखें| प्लास्टिक फिल्म के किनारों को मिटटी से ढक देना चाहिए, ताकि हवा अंदर प्रवेश नहीं कर पाए| इस प्रक्रिया से प्लास्टिक फिल्म के अंदर का तापमान 48 से 56 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है| इससे मिटटी में मौजूद हानिकारक कीट, रोगों के बीजाणु तथा कुछ खरपतवारों के बीज भी नष्ट हो जाते हैं| आजकल इसके लिए कई तरह के रसायनों का भी प्रयोग किया जाता है|
स्ट्रॉबेरी की किस्में
भारत में स्ट्रॉबेरी की बहुत सी किस्में उगाई जाती हैं| व्यावसायिक फल उत्पादन के लिए सही किस्मों का चुनाव बहुत जरूरी है| किस्मों का चयन क्षेत्र की जलवायु एवं भूमि की विशेषताओं को ध्यान में रखकर ही करना चाहिए| देश में उगाई जाने वाली कुछ प्रमुख किस्में इस प्रकार हैं, जैसे- चान्डलर, फेस्टिवल, विन्टर डॉन, फ्लोरिना, कैमा रोजा, ओसो ग्रैन्ड, ओफरा, स्वीट चार्ली, गुरिल्ला, टियोगा, सीस्कैप, डाना, टोरे, सेल्वा, बेलवी, फर्न, पजारो इत्यादि|
क्यारियां तैयार करना
स्ट्रॉबेरी के व्यावसायिक उत्पादन के लिए जमीन की सतह से लगभग 25 से 30 सेंटीमीटर ऊंची उठी हुई क्यारियां (रेज्ड बैड) बनाएं| क्यारियों की चौड़ाई 100 से 120 सेंटीमीटर तथा लंबाई खेत की स्थिति के अनुसार रखी जा सकती है| क्यारियों की देखभाल तथा विभिन्न कार्य करने के लिए दो क्यारियों के बीच में 40 से 50 सेंटीमीटर चौड़ा खाली स्थान (रास्ता) रखा जाता है| उठी हुई क्यारियां बनाने से अधिक जल आसानी से बाहर निकल जाता है| इससे रोगों का प्रकोप कम होता है| साथ ही टपक सिंचाई यंत्र स्थापित करने में भी आसानी रहती है|
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प्रवर्धन तकनीक
स्ट्रॉबेरी का प्रवर्धन मुख्यतः रनर्स (लता को पकड़ने वाली नोक) द्वारा किया जाता है| यह वानस्पतिक प्रवर्धन का एक भाग है| एक पौधे से लगभग 7 से 15 रनर्स प्राप्त हो जाते हैं| बड़े स्तर पर प्रवर्धन के लिए सूक्ष्म प्रवर्धन (ऊतक प्रवर्धन) का प्रयोग करते हैं| इस विधि से विषाणुमुक्त पौधों का प्रवर्धन संभव है| साथ ही इससे वर्षभर पौधे भी प्राप्त किए जा सकते हैं| खेत में लगाने के लिए 4 से 6 पत्तियों वाले पौधे उपयुक्त होते हैं|
रोपाई का समय एवं विधि
स्ट्रॉबेरी के पौधों को रोपने का सही समय जलवायु पर निर्भर करता है| उत्तरी भारत में इसकी रोपाई सितंबर से नवंबर के मध्य की जा सकती है| रोपण करते समय यह ध्यान रहे कि रनर्स स्वस्थ तथा कीट एवं रोगरहित होने चाहिए| यह पौधों के रोपण की दूरी, उगाई जाने वाली किस्म, मृदा की भौतिक दशा, रोपण विधि और उगाने की दशा इत्यादि पर निर्भर करता है|
कुछ स्थानों पर इसके रोपण की दूरी 30 X 60 सेंटीमीटर रखते हैं| इससे प्रति हैक्टर लगभग 55 हजार से 60 हजार पौधों की जरूरत होती है| अधिक उपज लेने के लिए पौधे से पौधे एवं कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर रखी जाती है| यदि इस दूरी पर पौधों का रोपण करते हैं, तो एक हैक्टर के लिए लगभग 1 लाख 11 हजार पौधों की जरूरत होती है|
खाद एवं उर्वरक
खाद एवं उर्वरकों के उपयोग का मुख्य उद्देश्य पौधों के समुचित विकास और बढ़वार के साथ ही मृदा में अनुकूल पोषण दशाएं बनाए रखना होता है| उर्वरकों को काम में लेने का उचित समय सामान्य तौर पर मृदा प्रकार, पोषक तत्व, जलवायु और फसल के स्वभाव पर निर्भर करता है| इनकी मात्रा, मृदा की उर्वरता तथा फसल को दी गई कार्बनिक खादों की मात्रा पर निर्भर करती है| यदि संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरक दिए जाएं तो निश्चित रूप से पौधों की अच्छी बढ़वार और अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है|
अत: हमेशा मृदा जांच के उपरांत ही खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए| सामान्यतः खेत तैयार करते समय 10 से 12 टन कम्पोस्ट खाद, 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फॉस्फोरस व 25 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ की दर से डालनी चाहिए| इसमें फर्टिगेशन के रूप में एन पी के 19:19:19 की 25 ग्राम मात्रा प्रति वर्गमीटर की दर से सम्पूर्ण फसल चक्र में देनी चाहिए| यह मात्रा 15 दिनों के अंतराल पर 4 से 5 भागों में बांटकर देनी चाहिए| स्ट्रॉबेरी में सूक्ष्म पोषक तत्वों का छिड़काव भी उत्पादन बढ़ाने में सहायक होता है|
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पलवार बिछाना
स्ट्रॉबेरी उत्पादन में यह एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है| यह कार्य जमीन की ऊपरी सतह पर सूखे पत्तों, टहनियों या घासफूस से ढककर किया जाता है| परंतु आजकल पलवार बिछाने के लिए अधिकतर प्लास्टिक मल्च का प्रयोग किया जाता है| स्ट्रॉबेरी में इसका प्रयोग करने से फल सीधे मिट्टी के संपर्क में नहीं आते हैं| इससे फलों को सड़ने से बचाया जा सकता है| साथ ही यह खरपतवारों का नियंत्रण करने एवं सिंचाई की आवश्यकता को कम करने का कार्य करती है|
पलवार के लिए सामान्यतया काले रंग की लगभग 50 माइक्रॉन मोटाई वाली प्लास्टिक की फिल्म का उपयोग किया जाता है| प्लास्टिक फिल्म बिछाने का कार्य पौध रोपण के लगभग एक महीने बाद, जब पौधे अच्छी तरह स्थापित हो जाएं, तब करते हैं| क्यारियों में प्लास्टिक पलवार बिछाते समय पौधे से पौधे व कतार से कतार की दूरी को ध्यान में रखते हुए छेद करते हैं, जिससे पौधे आसानी से ऊपर आ जाएं| पलवार बिछाने से पूर्व ड्रिप (टपक) सिंचाई प्रणाली क्यारियों में व्यवस्थित कर दी जाती है|
निराई-गुड़ाई
स्ट्रॉबेरी के पौधे लगाने के कुछ समय पश्चात उनके आसपास विभिन्न प्रकार के खरपतवार उग आते हैं| ये पौधों के साथ पोषक तत्वों, स्थान, नमी, वायु आदि के लिए स्पर्धा करते रहते हैं| इसके साथ ही ये विभिन्न प्रकार के कीट एवं रोगों को आश्रय प्रदान करते हैं| अक्टूबर में रोपित पौधों से नवंबर में फुटाव शुरू हो जाता है| फुटाव शुरू होने पर खेत की निराई-गुड़ाई करके खरपतवार निकाल देने चाहिए|
सिंचाई प्रबंधन
स्ट्रॉबेरी में पानी लगाने का सही समय कई कारकों जैसे मृदा प्रकार, मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा मौसम इत्यादि पर निर्भर करता है| इसके पौधे की जड़े जमीन में ज्यादा गहराई तक नहीं जातीं है| यह सतह पर ही फैलने वाला पौधा होता है| अतः इसमें कम समय के अंतराल पर नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है| पहली सिंचाई पौध रोपण के तुरंत पश्चात कर देनी चाहिए| उसके बाद 2 से 3 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहें|
सिंचाई के लिए ड्रिप सिंचाई प्रणाली उत्तम रहती है| इस पद्धति द्वारा पौधों को उनकी आवश्यकता अनुसार पानी को बूंद-बूंद के रूप में जड़ क्षेत्र में उपलब्ध कराया जाता है| इस प्रणाली में प्लास्टिक लाइनों द्वारा पानी पौधों की जड़ों में सीधा तथा समान रूप से पहुंचाया जा सकता है| इसके साथ ही कम पानी का प्रयोग करके अधिकतम पैदावार ली जा सकती है|
ड्रिप सिंचाई प्रणाली में जल के साथ-साथ उर्वरक, कीटनाशक व अन्य घुलनशील रासायनिक तत्वों को भी सीधे पौधों तक पहुंचाया जा सकता है| जब पानी के साथ-साथ पोषक तत्व भी पौधों को उपलब्ध कराए जाते हैं, तो उसे फर्टिगेशन (फर्टिलाइजर+इरीगेशन) के नाम से जाना जाता है| फर्टिगेशन में पूर्णतः घुलनशील या तरल उर्वरक का ही प्रयोग किया जा सकता है|
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पाले या सर्दी से बचाव
पाले या सर्दी से बचाव के लिए निम्न सुरंग (लो-टनल) तकनीक का प्रयोग करना लाभप्रद होता है| शरद ऋतु (दिसंबर से जनवरी) में तापमान में काफी गिरावट आ जाती है| इस समय खेत में स्ट्रॉबेरी के पौधों को पाले से बचाने के लिए निम्न सुरंग तकनीक का उपयोग काफी फायदेमंद हो सकता है| इससे विपरीत ठंडे मौसम में भी अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है| लो-टनल एक कम ऊंचाई वाली संरचना होती है|
इसका निर्माण खुले खेत में उगाई जाने वाली फसल को कम तापमान या पाले से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए किया जाता है| यह दूसरी संरचनाओं की अपेक्षा काफी कारगर एवं सस्ती तकनीक है| इसे तैयार करना काफी आसान होता है| लो-टनल संरचना में हरितगृह जैसा ही वातावरण उत्पन्न हो जाता है| निम्न सुरंग (लो-टनल) स्थापित करने के लिए अर्धचन्द्राकार लोहे के तारों को 2 से 3 मीटर की दूरी पर स्थापित करते हैं|
उसके बाद अर्धचन्द्राकार लोहे के तारों के ऊपर मध्य में रस्सी बांध देते हैं| इन तारों पर 50 माइक्रॉन मोटाई तथा 2 मीटर चौड़ी पारदर्शी प्लास्टिक की चादर बिछाकर इसकी लंबाई वाले दोनों सिरों को मिट्टी से दबा देते हैं| इससे तेज हवा चलने पर भी प्लास्टिक नहीं उड़ती| निम्न सुरंग या पॉलीथीन की ऊंचाई लगभग 60 से 70 सेंटीमीटर रखते हैं|
प्लास्टिक की फिल्म को दिन के समय हटा देते हैं तथा रात के समय पुनः ढक देते हैं| ऐसा करने से सुरंग के अंदर मिट्टी के तापमान में वृद्धि हो जाती है| इससे पुष्पन जल्दी होता है और अच्छी फलत प्राप्त होती है| फरवरी के दूसरे या तीसरे सप्ताह में जब तापमान बढ़ जाता है तो प्लास्टिक फिल्म को पूर्णतः हटा देते हैं|
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कीट एवं रोग
स्ट्रॉबेरी से अच्छा उत्पादन लेने के लिए इसका कीट एवं रोगों से मुक्त होना अति आवश्यक है| इसमें कई तरह के कीट एवं रोग नुकसान पहुंचाते हैं| इससे उपज में काफी कमी आ जाती है| अतः सही समय पर इनकी पहचान करके इन्हें दूर ही रखा जाए तो अच्छा है| कुछ प्रमुख कीट एवं रोगों की पहचान एवं उनका निदान इस प्रकार है, जैसे-
पर्णजीवी (थ्रिप्स)- यह सूक्ष्म आकार का (एक मिलीमीटर से छोटा) हल्के पीले और भूरे रंग का कीट होता है| इस कीट के वयस्क और शिशु दोनों ही स्ट्रॉबेरी की पत्तियों एवं पुष्पन से रस चूसकर क्षति पहुंचाते हैं| परंतु पुष्पन के समय यह ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं|
रोकथाम- इसके नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 2 मिलीलीटर या डाइमेथोएट 30 ई सी एक मिलीलीटर या कोनफीडोर 1.5 मिलीलीटर दवा का प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें|
लाल मकड़ी- यह आठ पैरों वाला लाल रंग का कीट होता है| इसके शिशु और वयस्क दोनों ही स्ट्रॉबेरी के पौधों को नुकसान पहुचाते हैं| ये कीट पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं| इससे पत्तों पर धब्बे बन जाते हैं| इनकी वृद्धि रुक जाने से उपज कम हो जाती है| इसका प्रकोप गर्म और शुष्क मौसम में ज्यादा होता है|
रोकथाम- इस कीट के नियंत्रण के लिए पौधों पर सल्फर 1.5 से 2 ग्राम या ओमाइट एक मिलीलीटर या कैल्थेन 18.5 ई सी 1 से 2 मिलीलीटर या आबामेक्टिन 1.9 ई सी एक मिलीलीटर दवा का प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें|
काला धब्बा- यह एक फफूंदी जनित रोग है| इससे प्रभावित स्ट्रॉबेरी की पत्तियों पर काले रंग के धब्बे बनने प्रारंभ हो जाते हैं| यह रोग जलवायु में आर्द्रता होने पर अधिक फैलता है|
रोकथाम- इस रोग की रोकथाम के लिए कैप्टॉन नामक दवा का 0.2 प्रतिशत या बैनलेट 0.1 प्रतिशत प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें|
चूर्णी फफूद या छाछ्या- इस रोग के लक्षण पहले स्ट्रॉबेरी की पत्तियों की ऊपरी सतह पर एवं तनों के ऊपर छोटे-छोटे बैंगनी रंग के धब्बों के रूप में दिखते हैं|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए केराथेन 0.1 प्रतिशत या केलिक्सिन 0.1 प्रतिशत या घुलनशील गंधक 0.2 प्रतिशत घोल का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें|
एंथ्रेक्नोज (श्यामव्रण) एवं फल सड़न- यह रोग भी गर्म एवं आर्द्र मौसम में ज्यादा फैलता है| इसके कारण स्ट्रॉबेरी की पत्तियों पर हल्के, गहरे काले रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं| यह फलों को भी प्रभावित करता है| इससे गोल हल्के जलीयनुमा धब्बे फलों पर दिखाई देने लगते हैं|
रोकथाम- इससे बचाव के लिए हमेशा अच्छे जल निकास एवं खरपतवार मुक्त खेत में ही स्ट्रॉबेरी उगाएं साथ ही स्वस्थ एवं रोगमुक्त रोपण सामग्री के साथ-साथ फसलचक्र अपनाएं| कार्बेन्डाजिम दवा 200 ग्राम को 100 लीटर पानी में मिलाकर 10 से 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें|
ग्रे मोल्ड- यह कवक स्ट्रॉबेरी के सम्पूर्ण पौधे (तना, पत्तियां, फल, फूल, पेटीओल) को नुकसान पहुंचाता है| परंतु पुष्पन एवं फल लगते समय यह ज्यादा नुकसान पहुंचाता है| इसके कारण कच्चे एवं पके फल खराब हो जाते हैं| प्रभावित भागों पर ग्रे रंग के धब्बे बन जाते हैं| यह हवा एवं पानी द्वारा रोगग्र सित भाग से स्वस्थ पौधों में फैल जाता है| बारिश के दिनों में जब तापमान कम एवं आर्द्रता ज्यादा होती है, तो इसके फैलने के लिए यह बहुत अनुकूल समय होता है| अतः इसका सही समय पर बचाव जरूरी है|
रोकथाम- इससे बचाव के लिए डाइथेन एम- 45 नामक फहूंदनाशी की 1.5 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी में डालकर छिड़काव करना चाहिए|
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फलों की तुड़ाई
स्ट्रॉबेरी के फलों की तुड़ाई का समय बाजार की दूरी के अनुसार तय करते हैं| सामान्यतः फलों की तुड़ाई आधे से तीन चौथाई भाग (2/3) के रंग बदलने के पश्चात करते हैं| फलों की तुड़ाई डंठल सहित प्रात: काल सूरज निकलने से पूर्व ही पूर्ण कर लेनी चाहिए| तोड़े हुए फलों को रखने के लिए ट्रे का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि इसके फल बड़े नाजुक होते हैं| इन्हें गहरे बर्तन में रखने से फलों की ऊंची परत के दबाव के कारण नीचे भरे फलों को नुकसान पहुंच सकता है|
स्ट्रॉबेरी के फलों को 2 से 3 दिनों तक ही सुरक्षित रखा जा सकता है| अतः तोड़ने के बाद फलों को ज्यादा समय तक नहीं रखना चाहिए| बिक्री के लिए बाजार में भेजने के लिए फलों को प्लास्टिक के छोटे डिब्बों में पैक करना चाहिए तथा बाद में इन डिब्बों को कोरूगेटिड फाइबर बोर्ड (सीएफबी) से बने बड़े डिब्बों में पैक करके भेजना चाहिए|
पैदावार
स्ट्रॉबेरी के फलों की उपज कई बातों पर निर्भर करती है| इनमें उगाई जाने वाली किस्म, जलवायु, मृदा, पौधों की संख्या, फसल प्रबंधन इत्यादि प्रमुख हैं| इसके प्रति पौधे से एक मौसम में 500 से 700 ग्राम फल प्राप्त किए जा सकते हैं| एक एकड़ क्षेत्रफल में 80 से 100 क्विटल फलों का उत्पादन हो जाता है| यह उत्पादन उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक और अच्छे फसल प्रबंधन से बढ़ाया भी जा सकता है|
भूस्तारी (रनर्स) उत्पादन
स्ट्रॉबेरी का प्रवर्धन भूस्तारी द्वारा होता है| अतः जैसे ही फूल व फल बनने बंद हो जाएं, क्यारियों से पलवार शीट हटा देनी चाहिए| स्ट्रॉबेरी के पौधों को भूस्तारी बनाने के लिए छोड़ देना चाहिए| पहाड़ी क्षेत्रों में तो तापमान कम होने के कारण ये आसानी से बढ़ जाते हैं, परंतु मैदानी क्षेत्रों में अधिक गर्मी एवं बरसात के कारण पौधे मर जाते हैं| इन्हें बचाने के लिए हरितगृह या किसी अनुकूल संरचना का प्रयोग करना चाहिए|
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